- राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण ने दिबांग वन्यजीव अभयारण्य को बाघ अभयारण्य के रूप में अधिसूचित करने का प्रस्ताव दिया है। अगर इस पर अमल किया गया, तो यह भारत का पहला सबसे ऊंचाई वाला बाघ अभयारण्य होगा।
- हालांकि, यह कदम स्वदेशी इदु मिश्मी जनजाति को नागवार गुजर रहा है। उन्हें लगता है कि इससे जंगल तक उनकी पहुंच में बाधा आएगी।
- दिबांग घाटी में बाघों की मौजूदगी की पुष्टि पहली बार 2012 में हुई थी, जब दो शावकों को एंग्रीम घाटी से बचाया गया था।
अरुणाचल प्रदेश में दिबांग वन्यजीव अभयारण्य को बाघ अभयारण्य के रूप में अधिसूचित करने की योजना ने स्वदेशी इदु मिशमी जनजाति के बीच हलचल मचा रखी है। समुदाय को लगता है कि इससे जंगल तक उनकी “पहुंच में बाधा” आएगी। वे अब अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए आवाज उठा रहे हैं। दरअसल राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (एनटीसीए) ने अप्रैल में अपनी बैठक में इस योजना को मंजूरी दे दी थी। इसे बाघ अभयारण्य घोषित करने की योजना कई सालो से चली आ रही है।
इदु मिश्मी अरुणाचल प्रदेश और पड़ोसी तिब्बत में मिश्मी समूह की एक उप-जनजाति है। अन्य दो समूहों में दिगारू और मिजू शामिल हैं। यह समुदाय अपने शिल्प कौशल और बुनाई के लिए खासतौर पर जाना जाता है। और ये लोग मुख्य रूप से तिब्बत की सीमा से लगे मिश्मी हिल्स में रहते हैं।
उनके पैतृक घर दिबांग घाटी और निचली दिबांग घाटी के जिलों में फैले हुए हैं। 2011 की जनगणना के अनुसार, जनजाति की आबादी 12,000 से अधिक होने का अनुमान है, और उनकी भाषा को संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संगठन (यूनेस्को) द्वारा “लुप्तप्राय” माना गया है।
इदु मिश्मिस का क्षेत्र की वनस्पतियों और जीवों से गहरा संबंध है। उनका यह भी मानना है कि बाघ उनके “बड़े भाई” हैं और इस रिश्ते के बारे में लोककथाएं भी प्रचलित हैं। इदु मिश्मिस जानजाति के लोग बाघों को नहीं मारते हैं।
टाइगर रिजर्व की योजना
भारतीय वन्यजीव संस्थान (डब्ल्यूआईआई) की ओर से 2018 में प्रकाशित एक अध्ययन में पाया गया था कि अरुणाचल प्रदेश में दिबांग घाटी और इसके आसपास के परिदृश्य में यानी 336 वर्ग किलोमीटर के सीमित सर्वेक्षण क्षेत्र में 11 बाघ थे। अध्ययन में कहा गया है कि जरूरी नहीं कि बाघ सिर्फ संरक्षित क्षेत्रों का ही इस्तेमाल करें। वे संरक्षित क्षेत्र के बाहर सामुदायिक वनों में भी घूमते हैं। अध्ययन में कहा गया है, “तर्कसंगत रूप से, राज्य में निर्दिष्ट बाघ अभयारण्यों की तुलना में दिबांग इलाके में ज्यादा बाघ हैं। (पक्के और नामदाफा में क्रमशः नौ और चार बाघ हैं)। अगर दिबांग घाटी जिले का बड़े पैमाने पर और पूरी तरह से सर्वेक्षण किया जाए, तो संभावित रूप से बाघों की संख्या अधिक हो सकती है। इसमें यह भी बताया गया है कि चूंकि इदु मिश्मी जनजाति का बाघों के साथ एक मजबूत सांस्कृतिक संबंध है और वो बाघों का शिकार नहीं करते हैं। इसलिए, इन इलाकों में बाघों के सांस्कृतिक महत्व और विशिष्टता को देखते हुए, बाघ रिजर्व के लिए किसी भी प्रस्ताव को स्थानीय समुदायों की सहमति से लागू किया जाना चाहिए।”
दिबांग वन्यजीव अभयारण्य (डीडब्ल्यूएलएस) उत्तर, पूर्व और पश्चिम में अंतरराष्ट्रीय सीमाओं से घिरा हुआ है। यहां कई तरह के जानवर पाए जाते हैं। इस जगह में कई स्थानिक और दुर्लभ प्रजातियां जैसे मिशमी टाकिन, रेड सीरो, गोराल, क्लाउडेड तेंदुआ आदि भी पाई जाती हैं।
अरुणाचल प्रदेश के उप मुख्य वन्यजीव वार्डन ताना तापी ने मोंगाबे-इंडिया को बताया कि बाघ अभयारण्य का मतलब क्षेत्र में प्रजातियों के लिए अधिक सुरक्षा होगा। उन्होंने कहा, ऐसा कहा जाता है कि इस क्षेत्र में 20 से अधिक बाघ हैं, हालांकि सटीक संख्या की पुष्टि नहीं की गई है और यह क्षेत्र बहुत कम मानव आबादी के साथ बहुत दूर है। 2007 में, अनिनी में वन विभाग कार्यालय में सिर्फ दो कर्मचारी थे। उन्होंने कहा, हालांकि दिबांग घाटी के स्थानीय लोग संरक्षण में काफी योगदान देते हैं, लेकिन उचित निगरानी और सुरक्षा के लिए अधिक वन विभाग के अधिकारियों की जरूरत है। अरुणाचल प्रदेश की संवेदनशील स्थिति को देखते हुए, जानवरों के अंगों के अवैध व्यापार को रोकना खास तौर पर महत्वपूर्ण है।
इदु मिश्मी समुदाय की आपत्ति
समुदाय की बड़ी सांस्कृतिक संस्था ‘इदु मिश्मी सांस्कृतिक और साहित्यिक सोसायटी (आईएमसीएलएस)’ ने दिबांग घाटी में प्रस्तावित बाघ अभयारण्य के विचार का कड़ा विरोध किया है। आईएमसीएलएस की एक प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया है कि डीडब्ल्यूएलएस की घोषणा में वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 और भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 1984 के प्रावधानों में उल्लिखित उचित प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया, इस तरह से ये घोषणा मनमानी और अवैध हो गई है।
इदु मिश्मी समुदाय के एक वकील एब्बो मिली का कहना है कि वन्यजीव संरक्षण अधिनियम या वन अधिकार अधिनियम (एफआरए) के प्रावधानों के अनुसार, दिबांग वन्यजीव अभयारण्य घोषित करने से पहले स्थानीय लोगों के साथ एक बैठक आयोजित की जानी चाहिए थी, जो नहीं हुई। “इदु मिश्मी वनवासी हैं, यहां एफआरए लागू था और ग्राम पंचायत की अध्यक्षता में एक बैठक आयोजित की जानी चाहिए थी। हालांकि, डीसी (जिला कलेक्टर) ने पत्र लिखकर कहा कि 8 महीने का समय दिए जाने के बावजूद ग्रामीणों द्वारा कोई दावा या आपत्ति नहीं की गई। उन्होंने मनमाने ढंग से इसे वन्यजीव अभयारण्य घोषित कर दिया और दावों और आपत्तियों पर विचार नहीं किया।”
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प्रेस विज्ञप्ति में स्थानीय आदिवासियों की चिंताओं को व्यक्त किया गया है। आदिवासी दावा करते हैं कि दिबांग वन्यजीव अभयारण्य के क्षेत्र का ठीक से सीमांकन नहीं किया गया है और वर्तमान में इसमें दिबांग घाटी जिले का लगभग आधा हिस्सा शामिल है। डीडब्ल्यूएलएस की यह समस्या अभी सुलझी भी नहीं है और सरकार ने दिबांग टाइगर रिजर्व (डीटीएस) का विचार थोप दिया है। आईएमसीएलएस ने एनटीसीए को लिखा है कि कोई बाघ अभयारण्य नहीं होगा, जब तक कि डीडब्ल्यूएलएस को अधिसूचित करने में स्वदेशी समुदायों के कानूनी अधिकारों की मान्यता, निर्धारण और निपटान की कानूनी प्रक्रिया को संबोधित नहीं किया जाता है। स्थानीय लोगों को डर है कि अगर बाघ अभयारण्य को अधिसूचित किया जाता है, तो यह अभयारण्य के लिए वर्तमान में सीमांकित भूमि से भी अधिक भूमि पर कब्जा कर लेगा, जिससे क्षेत्र में रहने वाले लोगों के जीवन पर असर पड़ेगा।
आईएमसीएलएस के अध्यक्ष इस्ता पुलु ने मोंगाबे-इंडिया को बताया कि दिबांग घाटी जिले का कुल क्षेत्रफल 9,129 वर्ग किलोमीटर है और वे इसके आधे हिस्से का इस्तेमाल वन्यजीव अभयारण्य के रूप में कर रहे हैं। उन्होंने कहा, “अब, अगर बाघ अभयारण्य बनता है, तो वे ज्यादा भूमि का उपयोग करेंगे। जंगल के साथ हमारा हमेशा बहुत मजबूत रिश्ता रहा है और अगर यह प्रतिबंधित हो गया, तो हमारा अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा।”
उन्होंने दिबांग घाटी में कुछ शिकारियों को बाघ की खाल और शरीर के अंगों के साथ पकड़े जाने की हालिया रिपोर्टों का भी खंडन किया और दावा किया कि यह समुदाय को बदनाम करने का एक प्रयास था। “इस तरह के गलत कामों में किसी इदु मिश्मी के शामिल होने का कोई निर्णायक सबूत नहीं है।”
पुलु ने कहा कि समुदाय कभी भी किसी बाघ को नहीं मारता। वह कहते हैं, “सांस्कृतिक पाबंदियों के कारण हम कभी भी बाघों को नहीं मारते, भले ही वे हमारे मवेशियों का शिकार करते हों। इसके बारे में जिला प्रशासन को भी जानकारी है। वास्तव में, अगर किसी गांव में कोई बाघ को मार देता है, तो पूरे गांव को पांच दिनों तक एक विस्तृत अनुष्ठान करना पड़ता है।
रोइंग स्थित संरक्षणवादी और वन्यजीव फोटोग्राफर अनोको मेगा मिसो इदु मिशमी समुदाय से आते हैं। उन्होंने दिबांग में बाघ अभयारण्य बनाने के उद्देश्य पर सवाल उठाया। उन्होंने कहा, “पहले, उन्होंने कमलांग और नामदाफा को बाघ अभयारण्य में बदल दिया था। लेकिन अब वहां शायद ही कोई बाघ पाया जाता है। वास्तव में, अगर बाघ अभ्यारण्य बनता है, तो शिकारियों सहित बाहरी तत्व क्षेत्र में प्रवेश करेंगे, जिसके चलते बाघों की सुरक्षा खतरे में पड़ जाएगी।”
दिबांग घाटी में बाघ कैसे मिले थे?
हालांकि इदु मिश्मिस ने हमेशा दावा किया है कि वे लंबे समय से बाघों के साथ रह रहे हैं, लेकिन इस इलाके में बड़ी बिल्ली यानी बाघों की मौजूदगी के ठोस सबूत की पुष्टि 2012 में ही हुई थी।
57 वर्षीय संरक्षणवादी इप्रा मेकोला ने कहा कि जब वन अधिकारियों ने यहां बाघों की उपस्थिति के बारे में बात की तो शुरू में उन्हें विश्वास नहीं हुआ। उन्होंने आगे कहा, “1990 के दशक से, मैंने उनके अवशेषों, पैरों के निशान, हत्याओं आदि से उनकी (बाघों की) उपस्थिति के सबूत इकट्ठा करने की कोशिश की है। फिर आखिरकार 2012 में हम जीवित नमूने प्राप्त करने में कामयाब रहे।”
2012 में डब्ल्यूटीआई के साथ काम करने वाले पशुचिकित्सक जहान अहमद ने दिबांग जिले के जिला मुख्यालय अनिनी से लगभग 20-22 किलोमीटर दूर एक गांव एंग्रीम घाटी से नमूने प्राप्त करने के बारे में बात की थी। उन्होंने कहा, “दिसंबर 2012 में, हमें अनिनी से फोन आया कि एक गांव में कुछ मांसाहारी जानवर मुर्गियों को मार रहे हैं। शुरुआत में, हमने सोचा कि यह तेंदुआ होंगे, क्योंकि बाघ आमतौर पर मुर्गियों का शिकार नहीं करते हैं। स्थानीय लोगों से बात करने के बाद, हमें एहसास हुआ कि तीन बाघ शावक थे जिनकी मां की मौत हो गई थी। स्थानीय संरक्षणवादी इप्रा मेकोला हमारे साथ थीं।”
उन्होंने कहा कि 20 दिनों तक कई बार खोज करने के बाद ही शावकों का पता चला। वे एक गांव के पास एक सालों से बेकार बड़ी पानी की टंकी में पाए गए थे। इनमें से एक शावक की मृत्यु हो गई, दो अन्य को 2013 में ईटानगर चिड़ियाघर भेज दिया गया था।
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बैनर तस्वीर: दिबांग घाटी में एक बाघ की 2017 की कैमरा में कैद की गई तस्वीर। हालांकि इदु मिशमिस ने हमेशा दावा किया है कि वे लंबे समय से बाघों के साथ रह रहे हैं, लेकिन इन इलाकों में बड़ी बिल्ली यानी बाघों की मौजूदगी के प्रमाण की पुष्टि 2012 में ही हुई थी। तस्वीर-वाइल्डलाइफ ट्रस्ट ऑफ इंडिया (डब्ल्यूटीआई)
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