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सात साल में 37 फीसदी कम हो गई ऊंटों की आबादी, क्या दूध व्यापार से बदलेगी तस्वीर

राजस्थान के बीकानेर में ऊंट पालने का स्थान फोटो- नीडपिक्स

राजस्थान के बीकानेर में ऊंट पालने का स्थान फोटो- नीडपिक्स

  • ऊंटो की तादात कम होने की बड़ी वजह इनका उपयोग न होना है। अब खेती-बारी और यातायात में इनका योगदान लगभग न के बराबर रह गया है।
  • डायबिटिज और कई तरह के एलर्जी से परेशान लोगों के लिए ऊंटनी का दूध काफी फायदेमंद माना जाता है। दूध का व्यवसाय ऊंट पालकों के लिए एक बेहतर विकल्प साबित हो सकता है।
  • ऊंटनी के दूध और इससे बने अन्य उत्पाद का स्थानीय स्तर पर व्यवसाय हो रहा है। कई छोटी डेयरी और अमूल जैसे संस्थान इसमें सक्रिय हैं पर अभी भी काफी काम करने की जरुरत है।

जब देश में लॉकडाउन सख्ती से लागू था उन्हीं दिनों मुंबई की एक महिला ने प्रधानमंत्री को टैग करते हुए ट्वीट किया। ऑटिज्म से ग्रसित अपने साढ़े तीन साल के बच्चे के लिए यह महिला ऊंटनी का दूध उपलब्ध कराने की गुहार लगा रही थी। तारिख 4 अप्रैल।

उस महिला ने अंग्रेजी में लिखा कि उनका बच्चा सिर्फ ऊंटनी का दूध ही पीता है। यदा कदा दाल भी। जब लॉकडाउन की घोषणा हुई तो उनके पास इतनी मात्रा में यह दूध मौजूद नहीं था कि इतने दिनों तक काम चलाया जा सके। उन्होंने अपील की कि उनके बच्चे के लिए राजस्थान के सादड़ी से ऊंटनी के दूध का बंदोबस्त किया जाए ।

आईपीएस अधिकारी अरुण बोथरा की नजर इस ट्वीट पर पड़ी और उन्होंने रेलवे के अधिकारियों से संपर्क साधा। फिर इन सब के प्रयास से एक पार्सल गाड़ी को पाली जिले के फालना स्टेशन पर रोका गया। उसपर 20 लीटर का जमाया हुआ (फ्रोजेन) दूध और करीब 20 किलो दूध का पाउडर लादा गया। आखिरकार 10 अप्रैल को यह सब मुंबई पहुंचा और उस महिला ने राहत की सांस ली।  सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर जब यह खबर आयी तो लोगों ने बोथरा और रेलवे के अधिकारियों की काफी सराहना की।

इन सब से एक फायदा यह हुआ कि ऊंटनी के दूध की काफी चर्चा हो गयी। ऊंटनी दूध की आपूर्ति करने वाली संस्था कैमल करिश्मा के हनवंत सिंह कहते हैं, “कई माता-पिता ने अपने ऑटिस्टिक बच्चों की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए दूध के लिए हमसे संपर्क किया।” इसी कैमल करिश्मा ने मुंबई के परिवार को ऊंटनी का दूध उपलब्ध कराया था।

व्यापारियों ने माना, बढ़ रही है दूध की मांग

दूध के व्यवसाय में शामिल अन्य व्यापारी भी हाल-फिलहाल इसकी मांग बढ़ने की बात स्वीकारते हैं।  जैसे आद्विक फूड्स के सहसंस्थापक श्रेय कुमार कहते हैं, “कोविड-19 की वजह से लोग अपने स्वास्थय और इम्युनिटी पर अधिक ध्यान देने लगे हैं। शायद इसी वजह से हमारे उत्पाद में लोगों की दिलचस्पी बढ़ी है।” ऊंटनी के दूध के विभिन्न उत्पाद बेचने वाले इस आद्विक फूड्स नाम के स्टार्ट-अप की स्थापना 2016 में हुई थी।

परंपरा से ऊंट पालक इस दूध के महत्व को समझते रहे हैं।  जब इनका कारवां चरवाही में कई-कई दिनों तक बाहर रहता है तो ये लोग ऊंटनी के दूध के सहारे ही समय काटते हैं।  ऊंटनी के दूध के फायदों को लेकर कई अध्ययन भी हो चुके हैं।  इन अध्ययन में ऑटिज्म, डायबिटीज, पीलिया और कैंसर जैसे बीमारियों में इसके फायदे गिनाये गए हैं। ऊंटनी के दूध में प्रचुर मात्रा में विटामिन सी होता जाता है और कहते हैं कि इससे लोगों के इम्यून सिस्टम में सुधार होता है।

कच्छ में ऊंटनी पालने वाले एक परिवार की ये बच्चियां ताजा दूध पी रही हैं। फोटो- सहजीवन
कच्छ में ऊंटनी पालने वाले एक परिवार की ये बच्चियां ताजा दूध पी रही हैं। फोटो- सहजीवन

हनवंत सिंह दावा करते हैं कि उनके ग्राहकों में कई लोग डायबिटीज और कैंसर के मरीज हैं।  इसके साथ 520 परिवार हैं जिनके बच्चे आटिज्म से ग्रसित हैं।

वर्ष 2016 में 24 अध्ययन का एक रिव्यु हुआ और वहां भी ऊंट के दूध के उपरोक्त फायदे गिनाये गए।  पर उसमें यह भी कहा गया कि अभी और अध्ययन करने की जरुरत है।

फरीदकोट स्थिति बाबा फरीद सेंटर फॉर स्पेशल चिल्ड्रेन के डॉक्टर प्रीतपाल सिंह के पास ऑटिज्म से ग्रस्त 25 बच्चे हैं जो ऊंटनी के दूध का सेवन करते हैं।  “यह दूध उन बच्चों के लिए बेहतर विकल्प है जो गाय या भैंस के दूध नहीं पचा सकते। इससे बच्चों की ध्यान अवधि या कहें अटेंशन स्पैन बढ़ता है,” ऐसा कहते हुए डॉक्टर सिंह यह सचेत करना नहीं भूलते कि हमें ऊंटनी के दूध को इलाज के तौर पर प्रचारित करने से बचना चाहिए।  कई कम्पनियां इसे ऑटिज्म के इलाज के तौर पर प्रचारित करती हैं जोकि सरासर गलत है।  इससे बस तत्कालीन राहत मिलती है और यह बीमारी का इलाज नहीं है।

ऊंटनी का दूध वापस चलन में

हाल के वर्षों में ऊंट की उपयोगिता कम हुई है।  इस ऊंचे कद के जानवर का इस्तेमाल पहले विभिन्न रूप में किया जाता था। जैसे यातायात हो या फिर खेती-बारी। सीमा सुरक्षा बल भी देश की सीमाओं पर पेट्रोलिंग के लिए ऊंट का ही सहारा लेते थे।  लेकिन दो पहिया वाहन, ट्रेक्टर और अन्य गाड़ियों के आ जाने के बाद ऊंट का महत्व कम होता गया। रेगिस्तान के जहाज के तौर पर विख्यात इस जानवर का उपयोग अब पर्यटकों का मनोरंजन करना भर रह गया है।

वर्ष 2019 में आये बीसवें पशुधन गणना के अनुसार महज सात सालों में ऊंटों की संख्या में करीब 37.5 फ़ीसदी की कमी आई है।  2012 में आये गणना के अनुसार देश में कुल चार लाख ऊंट थे जो 2019 में घटकर ढाई लाख रह गए हैं।

राष्ट्रीय पशु आनुवंशिक संसाधन ब्यूरो ने ऊंट की नौ नस्लों का पंजीकरण किया है। इनमें से पांच राजस्थानी मूल के हैं और इनका नाम है बीकानेरी, जैसलमेरी, जालोरी, मारवाड़ी  और मेवारी । मेवाती ऊंट राजस्थान और हरियाणा दोनों जगह पाए जाते हैं । इसी तरह कच्छी और खराई गुजराती मूल के ऊंट हैं । इनमें खराई नस्ल के ऊंट तटीय इलाके में पाए जाते हैं और अपनी तैरने की क्षमता के लिए प्रसिद्ध हैं। मध्यप्रदेश  में ऊंट की एक नस्ल पायी जाती है और इनका नाम है मालवी।

ऊंट के इन नौ नस्लों के अतिरिक्त देश में एक और नस्ल पायी जाती है।  दो हम्प वाले ये ऊंट लद्दाख के नुब्रा वैली में देखे जा सकते जाते हैं।

राजस्थान में सबसे अधिक ऊंट पाए जाते हैं। वर्ष 2014 में इस राज्य ने ऊंटो को राज्य पशुधन का दर्जा दिया। इस तरह राज्य के ऊंटो को बाहर ले जाने या बेचने पर पाबंदी लगा दी गयी।  इसके पहले यह चर्चा जोरों पर रहती थी कि राज्य के ऊंट को बाहर ले जाकर उन्हें मार दिया जाता है,  मीट/मांस के लिए।

राज्य सरकार के इस कदम ने बाज़ार में ऊंटो का महत्व और कम कर दिया।  मशहूर पुष्कर के मेले और अन्य जगहों पर ऊंटो के दाम में भारी गिरावट देखी गयी।  “इस कानून के आने के पहले एक नर ऊंट की कीमत करीब 10,000 से 50,000 रुपये के बीच हुआ करती थी। अब 1500 रुपये भी बमुश्किल से मिलते हैं,” हनवंत सिंह कहते हैं।  इनका कहना है कि राज्य में आवारा ऊंटो की संख्या में भी काफी वृद्धि हुई है।

ऐसे में अब दूध ही बचता है जो ऊंटो की अर्थव्यस्था को चलाए रख सकता है। यद्यपि, यह ऊंट पालकों के परंपरा के खिलाफ है।  जैसे राज्य का राईका समाज जो परम्परा से ऊंट पालन में लगा हुआ है।  इस समाज में मान्यता है कि भगवान शिव ने इनको ऊंट के देखभाल के लिए ही बनाया है।  ऊंट पार्वती का पसंदीदा पशु था। ऐसी ही कुछ मान्यता गुजरात के मालधारी समाज की है और वे ऊंटनी के दूध को प्रकृति का उपहार मानते हैं।

ऐसी ही मान्यताओं के आधार पर ऊंट पालक इसके दूध की खरीद-बिक्री नहीं करना चाहते।  जरूरतमंद को ये लोग ऐसे ही मदद करते रहे हैं।

गैरलाभकारी संस्था सहजीवन ट्रस्ट के रमेश भट्टी कहते हैं, “इन सारी मान्यताओं के मूल में परिवार की पोषण सम्बन्धी जरूरतें हैं।  पहले दूध के बिक्री की जरुरत भी नहीं थी क्योंकि ऊंट पालकों का काम ऊंट बेचकर चल जाता था।” इनकी संस्था गुजरात में ऊंट संरक्षण के लिए काम करती है।

इनका कहना है कि ऊंट पालकों को दूध के व्यापार में शामिल करने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ी। अभी भी कुछ परिवार ऐसे हैं जिन्होंने पूजा-पाठ के लिए कुछ ऊंटनी चुन रखे हैं और उसका दूध नहीं बेचते।

गुजरात के कच्छ क्षेत्र में ऊंटनी का ताजा दूध निकालता पालक फोटो- सहजीवन
गुजरात के कच्छ क्षेत्र में ऊंटनी का ताजा दूध निकालता पालक। फोटो- सहजीवन

दिसम्बर 2016 तक सरकार ने ऊंटनी के दूध को खाद्य पदार्थ के तौर पर वर्गीकृत नहीं किया था। फिर भारतीय खाद्य सरंक्षा एवम मानक प्राधिकरण ने ऊंटनी के दूध के लिए भी एक मानक तैयार किया जिसको आधार बनाकर इसे व्यासायिक तौर पर बेचा जा सकता है।

राजस्थान के कई शहरों में छोटे छोटे डेयरी खुल गए हैं। जैसे जयपुर, जैसलमेर और पाली इत्यादि।  ये सारे डेयरी आसपास और कुछ बड़े शहरों में ऊंटनी के दूध से बने उत्पाद उपलब्ध कराते हैं।  लेकिन अभी भी इसका कोई संगठित बाज़ार नहीं है।

गुजरात के कच्छ क्षेत्र में इस व्यवसाय का स्तर बड़ा है।  इसकी मुख्य वजह गुजरात सहकारी दुग्ध विपणन संघ लिमिटेड है जिसने राज्य में दूध व्यापार को काफी प्रोत्साहित किया है।  यहाँ ऊंटनी के दूध से बने चॉकलेट, घी और अन्य उत्पाद भी बनाए जा रहे हैं।

इससे स्थानीय लोगों को भी काफी फायदा हुआ है। गुजरात के कच्छ जिले के कामा रबारी पचास ऊंटो के मालिक हैं।  पच्चीस वर्षीय कामा के इस ऊंटो के झुण्ड में 20 दुधारू ऊंटनी हैं।  कुछ साल पहले तक यही कामा 70 किलोमीटर दूर स्थित एक पॉवरप्लांट में काम करते थे और इनकी मासिक आमदनी महज 10,000 रुपये हुआ करती थी।

सानोसरा गांव के रहने वाले कामा रबारी बड़े उत्साह से बताते हैं, “अब मेरी रोज की आमदनी 1,000 से 2,000 रुपये के बीच है। इतना मैं घर पर रहकर दूध बेचकर कमा लेता हूँ।  जब मैंने सुना कि कंपनी ऊंटनी का दूध खरीद रहीं हैं, मैंने उसी समय नौकरी छोड़ने की ठान ली।”

कच्छ में ऊंटनी का दूध 50 रुपये प्रति लीटर बिकता है जबकि भैंस के दूध की कीमत मात्र 38 से 40 रुपये है।   आमदनी बढ़ने से नौकरी-पेशे की तलाश में शहर गए लोग अब गाँव वापस लौटने लगे हैं।

सहजीवन के ऊंट प्रोग्राम के कोऑर्डिनेटर महेंद्र भनानी कहते हैं कि शुरूआती दिनों में जब हमलोग ऊंट पालकों की मीटिंग बुलाते थे तो बुजुर्ग या अधेड़ लोग ही आते थे।  अब जब इसमें पैसा दिखने लगा है तो उनके बच्चे भी दिलचस्पी दिखाने लगे हैं।

इंफ्रास्ट्रक्चर की कमी

ऊंटनी के दूध के फायदों को लेकर जागरूकता की कमी है।  इसके साथ-साथ आधारभूत ढांचे के कमजोर होने की वजह से इस क्षेत्र का विकास नहीं हो पा रहा है।  आधारभूत ढांचों में सुदूर क्षेत्र में दूध ठंढा करने की व्यवस्था का न होना, चारगाह का सिमटते जाना इत्यादि महत्वपूर्ण है। दूध को इकठ्ठा और प्रसंस्करण करने के लिए चिल्लिंग टैंक और पॉशचराईजर इत्यादि की जरुरत होती है तभी इसका बड़े स्तर पर व्यापार किया जा सकता है।

गुजरात सरकार ने सरहद डेरी के प्लांट को स्थापित करने में  काफी मदद की और नतीजे में स्थानीय अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहन मिला। राजस्थान में ऐसे किसी प्रयास का होना अभी बाकी है।

“पहले भी ऐसे प्रस्ताव चर्चा में रहे हैं।  सरकार भी ऊंट के दूध को प्रोत्साहन देने की जरुरत से अवगत है।  लेकिन जमीनी स्तर पर अभी कुछ ख़ास नहीं हुआ है,” अंशुल ओझा कहते हैं।  ओझा गैर-लाभकारी संस्था उर्मुल ट्रस्ट से जुड़े हैं जो पश्चिमी राजस्थान में ऊंट पालकों के साथ काम करता है।

 

बैनर तस्वीर- राजस्थान के बीकानेर में ऊंट पालने का स्थान। फोटो– नीडपिक्स

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