- मेढ़क तापमान के बढ़ने और कम होने के बीच सामंजस्य नहीं बना पाते इसलिए उनपर जलवायु का असर हो रहा है।
- तीस्ता नदी पर किए गए एक शोध में सामने आया है कि ऊंचे स्थानों पर मेढ़कों की कई प्रजातियां खत्म हो रही हैं।
- संख्या कम होने की वजह मेढ़कों की आबादी एक निश्चित स्थान तक की सीमित होना और मांस के लिए इनका शिकार होना भी है।
- जहां बारिश और तापमान की मात्रा मेढ़कों के लिए अनुकूल है वहां उनकी संख्या अधिक देखी गई है।
जलवायु परिवर्तन की मार अब मेढकों पर भी। हाल ही में आए शोध से पता चला है कि ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन की वजह से तीस्ता नदी के आसपास पाए जाने वाले मेढक खत्म हो रहे हैं।
पूर्वोत्तर भारत की जीवन रेखा मानी जाने वाली तीस्ता नदी समुद्र तल से 7,096 मीटर ऊपर स्थित हिमालय के पाहुनरी ग्लेशियर से निकलती है। तीस्ता भारत के सिक्किम राज्य में घुसने के बाद पश्चिम बंगाल से गुजरते हुए 424 किलोमीटर का रास्ता तय कर बंगलादेश में ब्रह्मपुत्र नदी से जा मिलती है। अलग-अलग ऊंचाई पर नदी में पत्थर के बड़े टुकड़े, पत्तियों का ढेर और काई की वजह से उभयचरों के रहने के लिए यह स्थान काफी सुलभ हो जाता है।
हाल ही में नदी पर 5200 मीटर से लेकर 300 मीटर की ऊंचाई तक एक सर्वे किया गया। इस सर्वे के एलसेवियर के बेसिक एंड अप्लाइड इकोलॉजी जर्नल के सितंबर 2020 अंक में प्रकाशित किया गया। सर्वे करने वाले शोधकर्ताओं का एक दल यहां के मेढ़कों की खोज में निकला तो उन्हें नदी में अलग-अलग ऊंचाई पर जलवायु में काफी विविधता देखने को मिली। हवा में आद्रता और तापमान अधिक वाले नदी के निचले छोर था से शुरू करते हुए वे पूर्वी हिमालय की तरफ ऊंचाई पर ठंडे वातावरण की तरफ बढ़े।
मेढ़क का शरीर दूसरे जानवरों की तरह तापमान में बदलाव के साथ अपने शरीर का तामपान नहीं बदल सकता। उन्हें शरीर का तापमान बनाए रखने के लिए बाहरी स्रोत पर निर्भर रहना होता है।
मध्यम ऊंचाई पर सबसे अधिक मेढक
शोध टीम में शामिल सिक्किम विश्वविद्यालय के प्राणीविज्ञान विभाग से जुड़े बासुंधरा छेत्री के मुताबिक ऊंचाई बढ़ने के साथ मेढकों की प्रजातियों और उनकी संख्या में कमी आने लगी। हालांकि, मध्यम ऊंचाई यानी 1000 मीटर से 1500 मीटर के बीच मेढकों की काफी प्रजातियां पायी गयी।
कम ऊंचाई और अधिक ऊंचाई पर मौसम के कठिन होने के साथ ही मेढकों की संख्या कम होती गयी। टीम ने 3500 मीटर की ऊंचाई के बाद मेढक की दो तरह की प्रजाति को देखा।
छेत्री के साथ इस शोध में सह लेखक के रूप में भोज आचार्या भी शामिल थे। दोनो ने मिलकर 1368 मेढक देखे जो कि 25 प्रजातियों के थे। इस शोध में 1236 घंटों तक मेढ़कों की खोज हुई जिसमें शोधकर्ता 27 किलोमीटर तक चले। शोध का काम अप्रैल 2009 से अगस्त 2010 और अप्रैल 2013 से लेकर अगस्त 2015 तक चला।
शोध में पता तला कि 76 प्रतिशत प्रजाति 1500 मीटर ऊंचाई के ऊपर रहना पसंद करती है जिसकी वजह बारिश और तापमान का अनुकूल होना है। आचार्या इसकी वजह बताते हुए कहते हैं कि तापमान और बारिश के ठीक रहने से हवा में नमी बनी रहती है। पानी के बाहर रहने के दौरान मेढकों को अपनी त्वचा के माध्यम से हवा से ऑक्सीजन लेना होता है।
3500 मीटर के ऊपर भी मेढ़कों की दो प्रजाति बॉलेंजर लेजी टॉड (स्कूटिगर बूलेंजी) और सिक्किम अल्पाइन टॉड (स्कुटिगर सिकिमेन्सिस) पाए गए। इन प्रजातियों के रहने के स्थान के बारे में छेत्री ने बताया कि ये नदी के किनारे ही पाए गए लेकिन गर्माहट के लिए उन्होंने गर्म पानी और घास से घिरे स्थान को अपना घर बनाया था।
जलवायु परिवर्तन और शिकार से अस्तित्व पर संकट
शोधकर्ता आचार्या का कहना है कि हिमालय में बढ़ रहे तामपान और बरसात के स्वरूप में हो रहे बदलाव की वजह से कई ऊभयचर अपनी जान गंवा रहे हैं। इस वजह से ये उभयचर अनुकूल तामपान वाली जगह पर बच गए हैं और अधिक ऊंचाई या कम ऊंचाई पर जाने की स्थिति में नहीं है।
तापमान बढ़ने की वजह से तीस्ता नदी में पानी बढ़ने का भी खतरा है जिससे सिक्किम में बड़े बदलावों की आशंका जताई जा रही है। ये आशंकाएं हिंदू कुश हिमालय क्षेत्र में हो रहे बदलाव से मिलती-जुलती हैं।
जलवायु परिवर्तन के अलावा मांस के लिए मेढकों का शिकार भी इनकी आबादी कम होने की एक बडी वजह है। छेत्री कहते हैं कि मांस के साथ मेढकों का दवाइयों के लिए भी शिकार होता है। हालांकि, विज्ञान मेढक से इलाज होने की पुष्टि नहीं करता है लेकिन भ्रांतियों की वजह से ऐसा हो रहा है।
तेजी से विलुप्त हो रहे मेढ़क, खतरे की घंटी
इस मामले के विशेषज्ञ अभिजीत दास बताते हैं कि उभयचरों की एक समय 430 तरह की प्रजाति देखी गई थी। अभी भी उनकी प्रजातियों की खोज जारी है। करीब 50 प्रतिशत नए प्रजाति की खोज पिछले 15 वर्षों में हुई है।
वह कहते हैं कि जिस समय प्रकृति पर सबसे अधिक खतरा मंडरा रहा है उसी समय नए प्रजातियों से हमारा परिचय हो रहा है और कई प्रजातियां खत्म भी इसी वक्त हो रही हैं। ऊभयचरों को बचाने के लिए बाघ या हाथी बनाने जैसी योजना नहीं हैं। इस वजह वजह से उनपर विशेष ध्यान देने की जरूरत है। हमें यह जानना होगा कि उभयचरों की प्रजातियां किस उद्देश्य से धरती पर हैं।
छेत्री भी मानते हैं कि सरीसृप और ऊभयचरों की प्रजातियों को खोजने के लिए और भी शोध होने चाहिए ताकि उनका संरक्षण किया जा सके। छेत्री ने नॉर्थ ईस्ट इंडस्ट्रियल एंड इन्वेस्टमेंट प्रमोशन पॉलिसी (एनइआईआईपीपी) के तहत दवाई निर्माण के क्षेत्र में हो रहे विकास को भी इन प्रजातियों के लिए खतरा बताया।
छेत्री ने कहा कि दवाई फैक्ट्रियों से जो कचरा और प्रदूषित जल नदी में मिलाया जाता है उससे पर्यावरण को काफी नुकसान पहुंचेगा और नदी के भीतर जैव विविधता बरकरार रखते के लिए ऐसी फैक्ट्रियों को नदी के किनारे बनने से रोकना चाहिए। हिमालय क्षेत्र में सिक्किम सबसे छोटा राज्य है लेकिन जैव विविधता को लेकर यह राज्य काफी महत्वपूर्ण है।
बैनर तस्वीर- तीस्ता नदी के किनारे शोधकर्ताओं ने मेढ़क की प्रजातियों की पहचान की। फोटो- बासुंधरा छेत्री