- वर्षों पहले झारखंड में अभ्रक खनन पर रोक लगा दी गयी थी। पर न तो अभ्रक के खानों पर कोई काम हुआ और न ही उससे प्रभावित लोगों का पुनर्वास। नतीजा यह कि अवैध रूप से अभ्रक खनन जारी है।
- कमजोर वर्ग के लोग अपने जीविकोपार्जन के लिए अभी भी ढिबरा यानी माइका स्क्रैप पर निर्भर है। इनके जान-माल के नुकसान का कोई हिसाब-किताब मौजूद नहीं है।
- स्थानीय कार्यकर्ता और मानवाधिकार के लिए कार्य कर रहे लोगों का मानना है कि ग्रामीण तो बस ढिबरा चुनने का काम करते हैं जबकि ठेकेदार बड़े स्तर पर अवैध अभ्रक खनन में लिप्त हैं।
श्याम (नाम बदला हुआ) जंगल की तरफ से दौड़ता हुआ आया। साथ लगे गुमटी से मुठ्ठी भर चने खरीदे और उसी गति से वापस भाग गया। ये चने उसने खुद के लिए और अपने बड़े भाई के लिए खरीदे थे। पास के अभ्रक के खानों में दिन भर समय गुजारने के बाद, ये दोनों घर लौटे थे और इन्हें जोरों की भूख लगी थी। जिस खान के आस-पास इनलोगों ने आज पूरा दिन गुजारा है वह खान सरकारी दस्तावेजों में अब सक्रिय नहीं है। यहां खनन नहीं होता! यह खनिज संपदा से संपन्न गिरिडीह जिले का तिसरा नाम का एक गांव हैं।
पिछले साल इन्हीं खानों में श्याम ने अपने एक अभिन्न मित्र को हमेशा-हमेशा के लिए खो दिया था। अपनी आंखों के सामने हुई उस दुर्घटना की दहशत ऐसी कि महीनों तक श्याम इन खानों की तरफ झांकने तक नहीं आया। पर वही पापी पेट! अकेले भाई के ढिबरा चुनने से पेट भरने वाला नहीं था। एक टोकरी ढिबरा इकठ्ठा कर उसे बेचने पर बाजार से इन्हें बमुश्किल 20 रुपये मिल पाता है। अपनी दहशत पर काबू पाने के सिवा श्याम के पास कोई और चारा नहीं था।
सस्ती क्वालिटी केअभ्रक को स्थानीय भाषा में ढिबरा के नाम से बुलाया जाता है और बड़ी संख्या में स्थानीय लोग इसके सहारे अपना जीवन-यापन करते हैं।
अगस्त 2019 में श्याम के आंखों के सामने वह दुर्घटना हुई थी। उसे सोचकर श्याम आज भी बेचैन हो उठता है। लेकिन गांव वालों ने उस घटना को दबा देना ही उचित समझा। मोंगाबे के पूछने पर श्याम का बड़ा भाई झटक देता है, “ऐसा कुछ हुआ ही नहीं।”
इस क्षेत्र में सक्रिय मानवाधिकार कार्यकर्ता दावा करते हैं कि ग्रामीण ऐसे मामलों को भरसक दबाने की कोशिश करते हैं। इनको डर रहता है कि सरकार कहीं इस गैरकानूनी अभ्रक खनन पर सख्ती न कर दे। यही इनके आजीविका कमाने का एकमात्र स्रोत बचा है। अगर इसपर भी सख्ती होगी तो ये लोग फिर क्या करेंगे!
इनकी माने तो 2019-20 में अभ्रक खानों में कम से कम आधे दर्जन से अधिक बच्चों की मौत हो चुकी है। पर किसी मामले में कोई एफआईआर तक दर्ज नहीं हो पाया।
कोडरमा जिले के पुलिस अधीक्षक एहतेशाम वकारिब का भी कहना है कि जब से इन्होंने इस जिले की कमान संभाली है अभ्रक खानों में हुए किसी हादसे को लेकर कोई रिपोर्ट नहीं दर्ज हुई है! उनका तबादला यहां मई महीने में हुआ था। वकारिब स्वीकार करते हैं कि अभ्रक खान में ऐसे हादसे की उड़ती खबर आयी जरूर है और पुलिस इसकी छानबीन कर रही है।
अभ्रक– रक्षक और भक्षक
इंडियन नेशनल माइंस वर्कर्स फेडरेशन (आईएनएमडब्ल्यूएफ) के सचिव ऋषिकेश मिश्रा कहते हैं कि गिरिडीह और कोडरमा जिले के करीब 5,000 अति गरीब परिवारों के लिए ढिबरा ही जीविका चलाने का साधन है। कभी कभी इसकी वजह से इनकी जान भी चली जाती है।
इनके अनुसार, “अभ्रक का खनन दशकों से प्रतिबंधित है। पर सैकड़ों परिवार अभी भी जान जोखिम में डालकर जंगलों से इसे निकालते हैं और बहुत मामूली कीमत पर बिचौलियों को बेच देते हैं। ये बिचौलिए इस अयस्क को कोलकाता के रास्ते दूसरे देशों में बेचते हैं।” इनका दावा है कि गैरकानूनी तरीके से निकाले गए इस अभ्रक की बड़ी डिमांड पड़ोसी मुल्क चीन में है। वहां इसको ऑटोमोबाइल इंडस्ट्री में इस्तेमाल किया जाता है।
अभ्रक के उत्पादन के मामले में भारत दुनिया के सबसे बड़े उत्पादकों में एक है। अभ्रक का इस्तेमाल कार, भवन, एलेक्ट्रॉनिक्स और सौंदर्य प्रसाधन बनाने में होता है। इस विषय के विशेषज्ञ मानते हैं कि झारखंड कभी बेहतरीन गुणवत्ता वाले अभ्रक का उत्पादन किया करता था। सत्तर के दशक में यहां से अभ्रक का निर्यात किया जाता था।
इस क्षेत्र के लोगों में बड़ी संख्या में टीबी होने के पीछे अभ्रक से निकलने वाले धूल के कण हैं। अभ्रक के खानों में काम करने वाले लोगों को फेफड़े के रोग होने की पूरी सम्भावना बनी रहती है। क्योंकि ये लोग धूल के कण से बचने के लिए कोई सावधानी नहीं बरतते। अभ्रक के खानों में तो जो जान जाती है सो अलग, टीबी और फेफड़ों के रोग से भी बड़ी संख्या में लोग अपनी जान गंवाते हैं, कहते हैं कमल नयन जो स्थानीय पत्रकार हैं। इन्होंने गैरकानूनी तरीके से हो रहे अभ्रक खनन पर वर्षों कलम चलायी है।
उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में भारत में अभ्रक के खनन की कहानी शुरू होती है जब बंगाल-नागपुर जोन में रेल की पटरियां बिछाई गईं। बीसवीं सदी में पचास के दशक में आते आते देश में कुल 700 के करीब अभ्रक खान सक्रिय थे। इसमें करीब 24,000 लोगों को रोजगार मिला हुआ था। झारखंड स्टेट मिनरल डेवलपमेंट कारपोरेशन लिमिटेड के अनुसार उस समय राज्य में अभ्रक का 13,554 टन के करीब भंडार था।
वन सरंक्षण अधिनियम 1980 के आने के बाद झारखंड में अभ्रक के खनन पर रोक लगा दी गई। पर इस प्रतिबन्ध से ग्रामीणों के जीवन में कोई सुधार नहीं हुआ। इन खानों पर कोई काम नहीं किया गया और स्थिति जस की तस बनी रही। ग्रामीण इन खदानों में आते-जाते रहे।
अभ्रक की तलाश में, ग्रामीण सामान्यतः हाफ पैंट या धोती जैसा कुछ पहने इन 5-8 फुट गहरे गड्ढों में उतरते हैं। कोई सावधानी नहीं बरत पाते और उनके स्वास्थ्य पर इसका हानिकारक प्रभाव पड़ता है।
ऋषिकेश मिश्रा कहते हैं कि ग्रामीण जो इन अभ्रक खदानों में आते-जाते रहे हैं उनको सांस की बीमारी रहती है।
खनन को वैध करने की मांग
मई 29, 2020 को राज्य के पहले मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी ने वर्तमान मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को पत्र लिखकर कोडरमा और गिरिडीह जिले में अभ्रक के खनन को पुनर्जीवित करने की मांग की। उन्होंने सुझाव दिया कि व्यवस्था ऐसी बने जिसमें अभ्रक के फ्लेक्स इक्कठा करते पाए ग्रामीणों के खिलाफ पुलिस कोई कार्यवाही न करे। मरांडी ने ई-ऑक्शन का सुझाव देते हुए कहा कि इससे कोविड-19 के दौरान शहरों से लौटे मजदूरों को भी रोजगार मिलेगा।
गैरकानूनी अभ्रक खनन की वजह से हो रही मौतों और इसके स्वास्थ्य पर पड़ने वाले बुरे प्रभाव के मद्देनज़र सरकार अभ्रक खनन को नियमित करने की सोच रही है। यह बात झारखंड के पूर्व खनन आयुक्त अबूबक्कर सिद्दीकी ने रॉयटर्स से बात करते हुए कही है। वर्ष 2017 में जब राज्य में भारतीय जनता पार्टी की सरकार (भाजपा) थी तब सौ के करीब पुरानी ढेर की नीलामी की गई थी।
मोंगाबे इंडिया से बात करते हुए कोडरमा के जिला खनन अधिकारी मिहिर सलकर ने बताया कि पिछले साल गिरिडीह और कोडरमा के अभ्रक के दो खानों के नीलामी के लिए टेंडर भी जारी किये गए थे। अलबत्ता अभी तक अधिकृत तौर पर यह स्पष्ट नहीं है कि इन खानों के लिए कोई खरीददार सामने आए कि नहीं।
“गैरकानूनी तौर पर अभ्रक के खनन और इसके परित्यक्त खदानों से अभ्रक के टुकड़े चुनने में अंतर है। ग्रामीण अधिकतर यही टुकड़े चुनने का काम करते हैं,” सलकर का कहना है।
2019 में राज्य में झारखंड मुक्ति मोर्चा, कांग्रेस पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल ने गठबंधन की सरकार बनायी। मानवाधिकार की रक्षा और राज्य के औद्योगिक विकास के वादे के सहारे हेमंत सोरेन सत्ता में पहुंचे। पर ढिबरा चुनकर अपना भरण-पोषण करने वाले गरीबों के लिए, वर्तमान सरकार कोई विकल्प नहीं ढूंढ पायी है। एक बार जब अभ्रक के ढेर और खदान नीलाम हो जायेंगे तो ये ग्रामीण क्या करेंगे?
कोडरमा से सांसद और पूर्व राज्य मंत्री अन्नपूर्णा देवी मानती हैं कि कोडरमा जिले के कम से कम आठ पंचायत अपने जीविकोपार्जन के लिए इसी ढिबरा पर निर्भर हैं। इन्होने इन क्षेत्रों में करीब दो दशक तक काम किया है और इनके अनुसार अभ्रक खनन को वैध बनाना बहुत जरुरी है। इससे खनन भी नियमित होगा और लोगों को रोजगार भी मिल सकेगा।
अन्नपूर्णा देवी की मानें तो हाल ही में वन विभाग के अधिकारीयों ने कोडरमा जिले के सिरसिरवा में बड़े स्तर पर चल रहे अवैध खनन का भंडाफोड़ किया है। ठेकेदारों ने जंगल के बीचोबीच ढाई सौ फीट गहरा गढ़ा खोद दिया था। प्रशासन ने 22 लोगों के खिलाफ मामला भी दर्ज किया है। “अगर सरकार खनन को वैध करती है तो ऐसी गतिविधियों पर रोक लग जायेगी,” अन्नपूर्णा देवी मानती हैं।
व्यावसायिक अभ्रक खनन के और भी खतरे
पर्यावरणविद डरते हैं कि अगर सरकार व्यावसायिक खनन स्थानीय पर्यावरण के लिए नुकसानदायक साबित हो सकता है क्योंकि अभ्रक के सारे खान वन क्षेत्र में ही पड़ते हैं।
कोडरमा क्षेत्र में सालों से काम करने वाले पर्यावरणविद नितीश प्रियदर्शी कहते हैं कि सरकार को चाहिए कि पहले वातावरण पर पड़ने वाले खनन के संभावित प्रभाव का आकलन करने के बाद ही इस दिशा में कोई कदम उठाये। सरकार को इससे अंदाजा हो जायेगा कि अभ्रक खनन का वन क्षेत्र, पानी और हवा की गुणवत्ता पर क्या असर हो सकता है।
अभ्रक खनन के नियमित और वैध हो जाने के बाद भी सम्भावना कम ही है कि इस क्षेत्र में बाल मजदूरी कम होगी। कोयले के क्षेत्र का उदाहरण देते हुए ऋषिकेश मिश्रा कहते हैं कि यह क्षेत्र नियमित होने के बाद भी यहां बच्चे अभी भी बड़ी संख्या में कोयला चुनते देखे जा सकते हैं।
(सौरव, झारखंड से स्वतंत्र पत्रकार हैं और 101Reporters.com के सदस्य हैं।)
बैनर तस्वीर- कोडरमा और गिरिडिह जिले में अभ्रक का अवैध खनन बेरोकटोक जारी है। फोटो- विशेष प्रबंध