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टिड्डी दल पर प्रयोग हुए कीटनाशक का असर इंसान और दूसरे जीवों पर भी

दक्षिण एशिया की फसल को टिड्डी ने इस तरह तबाह कर दिया। फोटो- खाद्य एवं कृषि संस्था

दक्षिण एशिया की फसल को टिड्डी ने इस तरह तबाह कर दिया। फोटो- खाद्य एवं कृषि संस्था

  • देश में हाल ही में टिड्डी दल का बहुत बड़ा हमला हुआ था। पिछले तीन दशक में सबसे बड़ा। इन टिड्डी दलों पर काबू पाने के लिए बड़ी मात्रा में कीटनाशक का प्रयोग किया गया।
  • कीटनाशकों के प्रयोग से न सिर्फ टिड्डी दल नियंत्रित हुए बल्कि स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र पर भी काफी असर हुआ।
  • जानकारों के मुताबिक भारत में टिड्डी दल का हमला दोबारा भी हो सकता है और इससे निपटने के लिए स्थायी योजना बनाने की जरूरत है।
  • टिड्डियों के दल से निपटने के लिए अगर जैविक कीटनाशक या कारगर पारंपरिक तकनीक का प्रयोग शुरू हो तो रासायनिक कीटनाशकों के नकारात्मक प्रभाव से बचा जा सकता है।

इस साल देश में टिड्डी दलों का बड़ा हमला हुआ था। मार्च 2020 से शुरू हुए इस हमले के बाद करीब पांच महीने तक टिड्डियों ने देश के कई हिस्सों में भारी तबाही मचायी।  खड़ी फसलों और पेड़-पौधों को काफी नुकसान पहुंचाया। इस भीषण हमले से बचने के लिए भारत और पाकिस्तान, दोनों देशों को हजारों दल तैनात करने पड़े।

हालांकि, टिड्डियों की समस्या कुछ हद तक अब काबू में आ चुकी है। संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) ने अपने हालिया अपडेट में इसकी पुष्टि भी की है। लेकिन यह राहत कितनी दिनों की है किसी को नहीं मालूम। इस विषय के जानकारों का मानना है कि ऐसे हमले आने वाले समय में बढ़ सकते हैं।

पर्यावरण और स्वास्थ्य को खतरा

जब टिड्डे अपनी संख्या बढ़ाने लगते हैं और एक दल में बदल जाते हैं तो उन्हें काबू करना मुश्किल हो जाता है। फिर भारी मात्रा में कीटनाशक छिड़कने के अलावा कोई चारा नहीं रह जाता।

पर टिड्डी दलों को खत्म करने के  लिए जिन कीटनाशकों का इस्तेमाल होता है उससे पर्यावरण को भी काफी क्षति होती है। इंसानों के स्वास्थ्य पर भी गहरा असर होता है। जानकार मानते हैं कि इन कीटनाशकों से पर्यावरण में मौजूद अच्छे कीट-पतंगे भी मारे जाते हैं।

एफएओ के कीटनाशकों के प्रभाव को कम करने वाले मैनुअल के लेखक और पर्यावरणविद् हैरोल्ड वैन डेर वाल्क कहते हैं कि टिड्डी पर प्रयोग होने वाले कीटनाशक सामान्यतः रासायनिक होते हैं, जैसे, पायरेथ्राइड, नियोनिकोटिनॉड्स और ऑर्गेनोफॉस्पेट इत्यादि।

टिड्डी दलों को खत्म करने के  लिए जिन कीटनाशकों का इस्तेमाल होता है उससे पर्यावरण को भी काफी क्षति होती है।
टिड्डी दलों को खत्म करने के  लिए जिन कीटनाशकों का इस्तेमाल होता है उससे पर्यावरण को भी काफी क्षति होती है। फोटो- चंदन सिंह

इस मामले में गुजरात के सरदार कृष्णानगर दांतीवाड़ा कृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक चेतन देसाई मानते हैं कि टिड्डी दल को खत्म करते समय पर्यावरण पर होने वाले कुप्रभावों को कम करना आसान नहीं है। इसका सबसे अच्छा तरीका है कि मरुस्थल में ही टिड्डियों को खत्म कर दिया जाए, जहां ये प्रजनन करते हैं।

देसाई ने बताया कि टिड्डी नियंत्रण के लिए कीटनाशकों का प्रयोग इंसानी आबादी वाले इलाके और जानवरों के स्थान पर नहीं किया गया।

बल्कि, जहां इंसानों की आवाजाही कम थी वहीं पर इसका छिड़काव हुआ। इसके अलावा, उन स्थानों पर लोगों को सचेत करने के लिए चेतावनी के पोस्टर भी चिपकाए गए थे।

एफएओ के कीटनाशक विशेषज्ञ अलेक्जेंड्रे लैचिनिन्स्की का कहना है कि टिड्डी दल से प्रभावित क्षेत्र को जल्द से जल्द चिन्हित कर त्वरित कारवाई करने से इससे निपटा जा सकता है। जैविक कीटनाशक और कीट की वृद्धि रोकने वाले पदार्थ इस काम के लिए सबसे मुफीद होंगे।

इस साल आए डिट्टी दल के संकट की तरफ देखें तो यह रेगिस्तान में बेमौसम बारिश की वजह से हुआ जिससे टिड्डीयों को अपनी संख्या बढ़ाने में मदद मिली और ऐसे मौसम में बचाव के उपाय करना असंभव सा हो गया। मार्च से लेकर बीच जुलाई तक पाकिस्तान के कई इलाकों में टिड्डी दल के हमले की सूचना आई और फिर भारत के सात राज्यों में भी टिड्डी दल ने तबाही मचायी।

लैचिनिन्स्की मानते हैं कि अगर इस तरह की स्थिति पैदा हो तो रासायनिक कीटनाशकों का प्रयोग करना ही होगा ताकि टिड्डी की संख्या कम की जा सके। जानकार कहते हैं कि इस तरह के रसायनों को बड़े इलाके में इतनी बड़ी मात्रा में छिड़काव करने के कई दुष्परिणाम भी हो सकते हैं।

कीटनाशकों का जहरीला प्रभाव

दिल्ली के इंद्रप्रस्थ यूनिवर्सिटी के वन्यजीव जीवविज्ञान शिक्षक सुमित दूकिया मानते हैं कि टिड्डी को मारने के लिए उपयोग किया गया कीटनाशक वातावरण में काफी लंबे समय तक मौजूद रहता है जिससे वहां का स्थानीय वातावरण भी प्रदूषित होता है।

जब इस तरह का छिड़काव होता है तो उन इलाकों से मवेशी, चारवाहों, आसपास के रहवासियों को उस जगह से दूर रहने की सलाह दी जाती है और छिड़काव के तुरंत बाद वहां आने से बचने को कहा जाता है। पर ऐसे निर्देशों का पालन करवाना मुश्किल होता है और इतनी मात्रा में कीटनाशक छिड़कने के बाद दूसरे जीव-जंतुओं के संपर्क में आने की आशंका बनी रहती है।

इससे बचाव के लिए हैराल्ड सलाह देते हैं कि जब ऐसे कीटनाशक के प्रयोग के बाद फसलों को काटा जाए तो प्रयोग और कटाई के बीच उचित समय दिया जाए। इसके साथ ही, पेय जल के स्रोतों पर कभी भी कीटनाशक का छिड़काव नहीं होना चाहिए।

रेगिस्तानी टिड्डी दल से खतरे की आशंका दिखाती यह तस्वीर। भारत और पाकिस्तान दोनों तक इसपर कीटनाशकों की मदद से काबू पाया गया। फोटो- खाद्य एवं कृषि संस्था
रेगिस्तानी टिड्डी दल से खतरे की आशंका दिखाती यह तस्वीर। भारत और पाकिस्तान दोनों देशों में इसपर कीटनाशकों की मदद से काबू पाया गया। फोटो- खाद्य एवं कृषि संस्था

हालांकि, अगर इन सब निर्देशों का पालन नहीं किया गया तो इंसानों पर खतरा बना रहेगा। एफएओ की गाइडलाइन के मुताबिक जहां छिड़काव हुआ है वहां मवेशी और इंसानों को कुछ दिन बाद ही प्रवेश करना चाहिए। फसल की कटाई भी कुछ दिन रुककर ही की जानी चाहिए।

लैटचिनिन्सकी मानते हैं कि रासायनिक कीटनाशकों का नकारात्मक असर होता ही होता है। कुछ रासायन कम तो कुछ अधिक खतरनाक होते हैं।

लैटचिनिन्सकी इससे बचने का तरीका बताते हुए कहते हैं कि छिड़काव सुबह के समय सूरज उगने से पहले या शाम में सूरज ढलने के बाद किया जाए, इस समय कीट-पतंग कम सक्रिय रहते हैं। एफएओ का कहना है कि कीटनाशकों का प्रयोग पर्यावरण की  दृष्टि से संवेदनशील इलाकों, जैसे वेटलैंड आदि में कम से कम किया जाए। या फिर ऐसी जगहों पर जैविक कीटनाशकों का ही प्रयोग किया जाए।

भारत में छिड़काव की स्थिति 

ग्राम दिशा ट्रस्ट के आशीष गुप्ता ने आरोप लगाया कि भारत में ज्यादातर  जगहों पर एफएओ की गाइडलाइन के मुताबिक छिड़काव न करते हुए कीटनाशकों का अंधाधुंध इस्तेमाल हुआ है। कई रिपोर्ट के हवाले से इन्होंने कहा कि लोगों की सुरक्षा को दरकिनार कर टिड्डियों के ऊपर छिड़काव किया गया है। इसका कुप्रभाव पर्यावरण पर भी हुआ है।

पर्यावरण पर असर और कीटनाशकों की गुणवत्ता पर लैटचिनिन्सकी का मानना है कि आजकल के कीटनाशक पहले जैसे घातक नहीं होते और ये मिट्टी और हवा में जल्दी ही विलीन हो जाते हैं। उनका मानना है कि अगर इसका इस्तेमाल सही मात्रा में किया जाए तो इससे अधिक नुकसान नहीं होगा।

गुप्ता ऐसा नहीं मानते। ये कहते हैं कि भारत सरकार ने जिन कीटनाशकों को टिड्डी नियंत्रण के लिए चुना है उसमें मैलाथीन, क्लोरफाइरिफॉस और डेलटामेर्थिन होता है और  ये इंसान और जानवरों के लिए घातक हैं।

 विलुप्तप्राय प्रजातियों को भी खतरा

टिड्डियों को रेगिस्तान की जैव विविधता का अहम हिस्सा माना जाता है। यहां के कई पक्षी इन्हें अपने भोजन के तौर पर इस्तेमाल करते हैं। इनमें प्रोटीन की अधिकता की वजह से प्रजनन के समय ग्रेट इंडियन बस्टर्ड, ड्रोंगो, बुलबुल, गौरैया, बाज, चील और शिकरा जैसे पक्षी इसे खाते हैं।

दूकिया कहते हैं कि उन्होंने पक्षियों को हवा में टिड्डी पकड़कर खाते देखा है। अगर ऐसे में वो कीटनाशक से प्रभाविक टिड्डी खाएंगे तो इसका बुरा असर होगा। टिड्डी नियंत्रण में लगे दलों को इस बारे में जागरूक करना होगा ताकि वह पक्षियों वाले इलाके में रसायन का छिड़काव करने से बचें।

क्या है जहरीले रसायनों का विकल्प?

टिड्डियों के हमले को हमेशा से चुनौती की तरह ही देखा जाता रहा है। लेकिन आज के समय में इस समस्या से निपटने के जहरीले रसायन के अलावा भी कई उपाय हैं। देसाई और दूकिया जैसे जानकार कहते हैं कि जैविक कीटनाशक टिड्डियों को नियंत्रित करने में कारगर साबित हो सकता है। कृषि वैज्ञानिक एमएस स्वामीनाथन भी पारंपरिक तरीकों से टिड्डी नियंत्रण करने के पक्ष में हैं।

जारी किए गए बयान में स्वामीनाथन ने कहा कि पौधों पर नीम के तेल का छिड़काव करना इससे बचने का सबसे शानदार तरीका है।

नीम एक बेहद मजबूत कीटनाशक है जिसको खाद के रूप में भी इस्तेमाल किया जाता है। एक शोध में पाया गया कि अलसी तेल के साथ कुछ और तेल मिलाकर छिड़का जाए तो भी टिड्डी नियंत्रित हो सकते हैं।

 

बैनर तस्वीर- दक्षिण एशिया की फसल को टिड्डी दल ने तबाह कर दिया। फोटो- खाद्य एवं कृषि संस्था

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