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भारत में रंगीन कपास पर तीन दशक से चल रहा प्रयोग, अगले साल तक खेतों में लहलहा सकती है फसल

वैज्ञानिकों ने जंगली कपास को उन्नत किस्म में बदलने का प्रयास किया है। फोटो- एससीसीएफ नेटिव लैंडस्केप एंड गार्डन सेंटर

वैज्ञानिकों ने जंगली कपास को उन्नत किस्म में बदलने का प्रयास किया है। फोटो- एससीसीएफ नेटिव लैंडस्केप एंड गार्डन सेंटर

  • भारत में प्राकृतिक रूप से रंगीन कपास उगाए जाते रहे हैं। हालांकि, सफेद कपास की प्रजाति को नुकसान न हो इसलिए इसे बाजार में नहीं उतारा जा रहा था।
  • भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने हाल के वर्षों में रंगीन कपास को काफी तरजीह दी है और इसको लेकर कई शोध हो रहे हैं।
  • शोध के परिणामों को देखकर रंगीन कपास को वर्ष 2021 में बाजार में उतारने की उम्मीद जताई जा रही है।
  • इस कपास के उपलब्ध होने से कपड़ों को रंगने में हानिकारक रासायनिक रंगों का इस्तेमाल कम होगा। ऐसा होने से प्रदूषण स्तर में भी कमी आएगी।

कपास या रूई का नाम सुनते ही हमारे जेहन में सफेद रंग की छवि बनती है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि कपास भी रंग बिरंगा होता है? दुनिया भर में कई रंगों के कपास की खेती होती है। इनमें काला, भूरा और हरा रंग भी शामिल है। भारत के तमाम देसी कपास की नस्ल में गुलाबी रंग का भी कपास शामिल है। पूरी संभावना है कि अगले साल तक देश के किसान इन रंग बिरंगे कपास की फसल काट सकेंगे।

रंगीन कपास का प्रयोग बढ़ने से कपड़ों को रंगने में इस्तेमाल होने वाले रासायनिक रंगों से काफी हद तक छुटकारा मिल जाएगा। इसका सबसे बड़ा फायदा पर्यावरण को होने वाला है।

रंगीन कपास इस दुनिया के लिए कोई नई बात नहीं है। पर व्यापक रूप से इसकी खेती नहीं किए जाने के पीछे दो खास वजहें हैं। कम उत्पादन और सफेद कपास के बीज के साथ रंगीन कपास के बीज के मिलावट का डर।

हालांकि, भारत में तकरीबन तीन दशक तक चले प्रयोगों के बाद अब रंगीन कपास के हमारे बीच आने की पूरी संभावना है। अगले साल इन अलग-अलग रंगों के कपास पर अंतिम चरण का परीक्षण होने वाला है। इसके बाद इसे बाजार में उतारना संभव हो जाएगा।

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के प्रोजेक्ट कॉर्डिनेटर एएच प्रकाश कहते हैं कि अप्रैल 2021 के अंत तक यह काम हो जाना चाहिए। इसके बाद किसान इसे उगा सकते हैं और बाजार में इन रंग-बिरंगे कपास से कपड़े भी तैयार होने लगेंगे।

रंगीन कपास की राह आसान क्यों नहीं

कर्नाटक के धरवाड स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ एग्रीकल्चर साइंसेज (यूएएस) और नागपुर स्थित सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ कॉटन रिसर्च (सीआईसीआर) ने प्राकृतिक रूप से रंगीन कपास पर लगातार शोध किया है। इसके बाजार में उतारने से पहले एक बड़ी चिंता इसके बीज के सफेद कपास में मिल जाने का था। अगर रंगीन कपास के बीज सफेद से मिल गए तो सफेद कपास की फसल में मिलावट की आशंका होगी। हालांकि, सरकार की इच्छाशक्ति और भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के एक के बाद एक शोध सामने आने के बाद इसका रास्ता अब साफ होता नजर आ रहा है।

रंगीन कपास के प्रयोग से इस तरह के कपड़े तैयार किए जा सकते हैं। इस चित्र को ग्राफिक्स के माध्यम से दर्शाया गया है। फोटो- यूएडी धारवाड
रंगीन कपास के प्रयोग से इस तरह के कपड़े तैयार किए जा सकते हैं। इस चित्र को ग्राफिक्स के माध्यम से दर्शाया गया है। फोटो- यूएएस धारवाड

मोंगाबे से बात करते हुए प्रकाश बताते हैं, “देसी कपास (Gossypium arboreum) को पावरलूम मशीनों में चलाना संभव नहीं होता है। वैज्ञानिक इसे मजबूत बनाने के लिए दूसरी किस्मों के कपास के साथ इसे मिलाकर कपास की नई किस्म तैयार करने की कोशिश कर रहे हैं।”

कृषि अनुसंधान परिषद ने पांच रंग के कपास के बीजों को अंतिम दौर के परिक्षण के लिए उपयुक्त पाया है। वे इन बीजों को सिंचाई की जरूरत, फसल में लगने वाले रोग, उत्पादकता, रंग और मजबूती जैसे मापदंड़ों पर परख रहे हैं।

अबतक के परिक्षण में सामने आया है कि ये बीज 10 से 15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक की उपज दे सकते हैं। इसकी पुष्टि सेंट्रल इंस्टीट्यूट फॉर रिसर्च ऑन कॉटन (सीआरसीओटी) मुंबई ने की है। अमूमन, सफेद कपास की उत्पादकता भी 12 से 20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर के आसपास रहती है।

प्रकाश का कहना है कि एआईआरसीपी ने फसल लगाने में एक सावधानी बरतने की सलाह दी है। इसे सफेद कपास से दूर लगाया जाए ताकि बीजों के आपस में मिलने का खतरा उत्पन्न न हो। कृषि से जुड़े विश्वविद्यालय भी किसानों के साथ मिलकर इन बीजों का इस्तेमाल कर पाएंगे और प्रसंस्करण के लिए कपड़ा मिलों से संपर्क भी साध सकेंगे।

चीन, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया में रंगीन कपास का वर्चस्व

ऑस्ट्रेलिया का कपास बाजार 2 अरब डॉलर का है। इस बाजार को इंतजार है कॉमनवेल्थ साइंटिफिक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च ऑर्गेनाइजेशन (सीएसआईआरओ) के नए शोध का। इसमें वैज्ञानिकों ने बीजों में अनुवांशिक बदलाव कर काले और दूसरे गहरे रंगों के कपास के बीज तैयार किए हैं। कपास उद्योग का भविष्य इसकी सफलता पर निर्भर है।

साल 1980 के बाद से कैलिफॉर्निया की सैली फॉक्स का भूरा कपास दुनिया भर में मशहूर है। रंगीन कपास के मामले में चीन का लोहा दुनियाभर के देश मानते हैं। हालांकि, यहां के मिलों में मजदूरों के साथ हो रही नाइंसाफी की वजह से इसकी आलोचना भी होती रही है। खबरों के मुताबिक यहां मजदूरों को जबरन काम में लगाया जाता है।

अमेरिका की सैली फॉक्स रंगीन कपास के क्षेत्र में पिछले 40 साल से सक्रिय हैं। मोंगाबे इंडिया से मेल के माध्यम से बातचीत में उन्होंने कहा कि इस काम में उनकी पूरी जिंदगी खप गई।  इन्होंने 90 के दशक में भारत के कई मिलों का दौरा किया था। उनकी कोशिश थी कि भारत में भी रंगीन कपास को लेकर उत्साह जग सके।

भूरा कपास की किस्म डीडीसीसी-1 को 2021 में खेतों तक पहुंचने की उम्मीद है। फोटो- यूनिवर्सिटी ऑफ एग्रीकल्चर साइंसे
भूरा कपास की किस्म डीडीसीसी-1 को 2021 में खेतों तक पहुंचने की उम्मीद है। फोटो- यूनिवर्सिटी ऑफ एग्रीकल्चर साइंसे

“कभी-कभार किसी काम में उम्मीद से अधिक समय लग जाता है। मैंने साल 1982 में रंगीन कपास पर काम करना शुरू किया था और उम्मीद थी कि इसे मशीन में चलाने लायक मजबूत बनाया जा सकेगा। शुरुआत में तो लोगों ने निराशाजनक बात ही की। लोग कहते थे कि ऐसा संभव नहीं है। पर अब स्थिति बदलती दिख रही है। भारत में भी उम्मीद की किरण दिखने लगी है। मुझे बेहद खुशी है कि मेरे जीवन भर की मेहनत को अब लोगों ने संजीदगी से लेना शुरू किया है,” फॉक्स कहती हैं।

अमेरिकी सरकार को लेकर फॉक्स कहती हैं कि यहां कपास के मामले में सरकार से कोई सहयोग नहीं मिला।

भारत में देसी किस्मों की भरमार

भारत रंगीन कपास के मामले में काफी समृद्ध रहा है। यहां बंगाल में गहरा भूरा कपास उगाया जाता था। गारो पर्वत पर पीले और देश के उपद्वीपों पर हल्के गुलाबी कपास उगाए जाते रहे हैं। आंध्रप्रदेश के गोलापारोलु का देसी कपास भी हल्का गुलाबी है। इसे येर्रा पाथी या लाल कपास के नाम से जाना जाता है।

अब तक भारत में देसी रंगीन कपास के 40 किस्म खोजे जा चुके हैं। इनमें से अधिकतर भूरे और हरे रंग से मिलते-जुलते हैं। इन्हें नेशनल जीन बैंक ऑफ कॉटन में रखा गया है। यहां के कुछ बीज स्थानीय हैं तो कुछ अमेरिका,  तत्कालीन यूएसएसआर, इजरायल, पेरू, मैक्सिको, मिस्र के हैं। यहां एशियाई कपास (G. arboreum and G. herbaceum) भी उपलब्ध हैं। इनका रंग भूरा है पर इसमें भी दस किस्म की कपास है।

सीआईसीआर के मुताबिक तीन देसी किस्म की कपास को वर्ष 1900 के दौरान आंध्र प्रदेश के बाजार में बेचने की अनुमति मिली थी। लेकिन इसके रेशों में अच्छी गुणवत्ता के अभाव की वजह से इसे बीच में ही रोकना पड़ा।

धारवाड़ स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ एग्रीकल्चर साइंसेज (यूएएस) के प्रमुख वैज्ञानिक राजेश पाटिल के मुताबिक एआईसीपीआर के प्रयोग में उनका संस्थान अग्रणी था। उनको उम्मीद है कि भूरा कपास की एक किस्म डीडीसीसी-1 को 2021 में बाजार में लाने की अनुमति मिल जाएगी। इसके साथ ही यहां के नौ रंगों के अन्य कपास पर हो रहे प्रयोग भी सफल हुए हैं।

वर्धा के गोपुरी आश्रम में रंगीन कपास को सूत काटने के लिए भेजा गया था। फोटो- मीना मेनन
वर्धा के गोपुरी आश्रम में रंगीन कपास को सूत काटने के लिए भेजा गया था। फोटो- मीना मेनन

इन प्रयोगों में मंजुला मारालप्पनावर का काफी योगदान हैं जिन्होंने 1996 से लेकर 2014 तक यहां काम किया। उन्होंने अपने प्रयोगों पर आधारित शोधपत्र प्रकाशित किया। इस शोध में हल्के भूरे रंग के कपास पर प्रयोग किए गए थे।

इस प्रयोग से निकला कपास डीएमबी-225 गुणवत्ता के मापदंड़ों पर खरा उतरा था।  लेकिन इस डर से कि इसके बीज सफेद कपास के साथ मिलकर उनकी गुणवत्ता खराब कर सकते हैं, इस बीज को बाजार में नहीं उतारा गया।

वर्ष 2002 में संस्था ने डीडीसीसी-1 को कम मात्रा में किसानों तक पहुंचाया था। इस प्रयोग के तहत कर्नाटक के एक गांव के 25 किसानों ने इसकी खेती की थी। कर्नाटक के खादी और ग्रामीण उद्योग बोर्ड ने इस कपास से शर्ट भी बनाया था।  लेकिन आर्थिक दिक्कतों की वजह से संस्था यह काम अधिक समय तक जारी नहीं रख सकी।

यह शोध कॉटन कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया (सीसीआई) के सौजन्य से हुआ था। तब के वरिष्ठ वैज्ञानिक बीएम खादी ने मोंगाबे इंडिया को बताया कि उस समय डीडीसीसी-1 को बड़े पैमाने पर जारी करने की योजना थी। इसके राह में दो रोड़े थे, पहली बीज किस्म के तौर पर पंजीयन का न होना और दूसरी वजह सफेद कपास में मिलावट का डर।

सीआईसीआर नागपुर में कपास की किस्मों पर काम करने में एक और महिला वैज्ञानिक का बड़ा योगदान रहा है। विनिता गोटमारे ने सीआईसीआर नागपुर में प्रमुख वैज्ञानिक के तौर पर कपास के जंगली प्रजातियों पर काम किया। ये कपास भारतीय मूल के नहीं थे। उन्होंने वैदेही-95 और एमएसएच 53 जैसे दो जंगली किस्मों को दूसरी किस्मों के साथ मिलाकर नई किस्म बनाने की कोशिश की। इस समय वह इन बीजों में रेशों की गुणवत्ता को बढ़ाने पर काम कर रही हैं।

भूरे रंग का कपास अधिक मजबूत

तमाम तरह के रंगीन कपास भूरे रंग के कपास को अधिक मजबूत माना जा रहा है। इसका रंग धूप में जल्दी नहीं उड़ता है। गोटमारे कहती हैं कि वैदेही 95 से प्रति हेक्टेयर 17 से 18 क्विंटल की उपज ली जा सकती है। इसका रेशा भी मजबूत होता है और फसल पर लगने वाले कीड़ों के हिसाब से भी काफी सही है। प्रकाश ने भी इस बात की पुष्टि की कि वैदेही 95 के भूरे रंग को एआईसीआरपी के परीक्षण में शामिल किया गया है।

इस किस्म को वर्धा के गोपुरी आश्रम में सूत काटने के लिए भेजा गया था। इसके अलावा सीआईआरसीओटी मुंबई ने इसका प्रयोग मशीन पर भी किया। पंजाबराव कृषि विद्यापीठ, अकोला के साथ सीआईआरसीओटी का करार भी हुआ है जिसके तहत बीजों का बड़े स्तर पर उत्पादन होना है। इस योजना के तहत उद्यमियों को भी इस कपास का उपयोग करने के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा।

परिक्षण के दौरान वैदेही 95 को खेत में लगाया गया। फोटो- विनिता गोटमारे
परिक्षण के दौरान वैदेही 95 को खेत में लगाया गया। फोटो- विनिता गोटमारे

सीआईसीआर के पूर्व संचालक ने रंगीन कपास से सफेद कपास पर खतरे की आशंका को खारिज किया। वह अब अमेरिका के इंटरनेशनल कॉटन एडवायजरी कमेटी के तकनीकी प्रमुख हैं। वह कहते हैं, “दुर्भाग्य से कुछ वैज्ञानिक इसकी आशंका जता रहे हैं, लेकिन इसका कोई महत्व नहीं है। भारत में बीजों का निर्माण काफी निगरानी में होता है और सरकार की तरफ से इसके लिए सख्त दिशानिर्देश हैं। कपास की कटाई के समय भी सफेद और रंगीन कपास को आपस से मिलने से रोका जा सकता है।”

उन्होंने बताया कि देश में 90 फीसदी बीज का निर्माण निजी क्षेत्र में होता है लेकिन वे इसका उत्पादन दूर-दराज के खेतों में करते हैं।

पाटिल के मुताबिक सरकार रंगीन कपास को लेकर कृषि विश्वविद्यालयों के साथ मिलकर कई पायलट प्रोजेक्ट शुरू करने की योजना बना रही है। सरकार का रुख देखकर लगता है देश में रंगीन कपास जल्द खेतों में लहलहाता नजर आएगा।

 

बैनर तस्वीर- वैज्ञानिकों ने जंगली कपास को उन्नत किस्म में बदलने का प्रयास किया है। फोटो- एससीसीएफ नेटिव लैंडस्केप एंड गार्डन सेंटर

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