- वेबसाइट के इस्तेमाल में डेटा का आदान-प्रदान होता है जिस प्रक्रिया में कार्बन डाईऑक्साइड का उत्सर्जन होता है।
- वेब डेवलपर्स ने वेबसाइट को बनाने का नया तरीका अपनाया है जिससे कार्बन उत्सर्जन में 95 प्रतिशत तक की कमी देखी गई है।
- दुनिया भर के वेबसाइट को होस्ट करने वाले डेटा सेंटर्स की वजह से विमानन क्षेत्र जितना कार्बन उत्सर्जन होता है।
कोविड-19 महामारी की वजह से लगाए लॉकडाउन की वजह से अर्थव्यवस्था को करोड़ों-अरबों का नुकसान हुआ, लेकिन आम धारणा यह बनी कि पर्यावरण पर इसका अच्छा प्रभाव हुआ। लॉकडाउन के दौरान चलने वाली ऑनलाइन क्लास और वर्क फ्रॉम होम ने सड़कों पर गाड़ियों से होने वाले प्रदूषण को कम किया। लेकिन इस दौरान इंटरनेट का इस्तेमाल भी बढ़ा।
चौंकाने वाली बात यह है कि इंटरनेट के बढ़े इस्तेमाल से भी पर्यावरण को नुकसान हुआ है। इंटरनेट के इस्तेमाल से डेटा का आदान-प्रदान होता है। जितनी मात्रा में डेटा का आदान-प्रदान होता है उसी अनुपात में डेटा सेंटर्स से कार्बन उत्सर्जन भी होता है।
दूरसंचार विभाग की रिपोर्ट कहती है कि लॉकडाउन में देश में इंटरनेट के इस्तेमाल में सामान्य से 13 प्रतिशत वृद्धि देखी गयी ।
ऐसा सिर्फ भारत में ही नहीं हुआ। बल्कि पूरे विश्व में लोग अधिक से अधिक डिजिटल दुनिया पर निर्भर होते जा रहे हैं। इसकी वजह से कार्बन उत्सर्जन बढ़ रहा है। इस कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिए कुछ वेबसाइट अब नए रूप में परिवर्तित हो रहीं हैं और इसे लो कार्बन वेबसाइट का नाम दिया जा रहा है।
इंडियन नेटवर्क ऑन एथिक्स एंड क्लाइमेट चेंज (आईएनईसीसी) संस्था ने अपनी वेबसाइट में बदलाव कर कार्बन उत्सर्जन में 95 प्रतिशत तक कमी का दावा किया है। वेबसाइट में बदलाव कर कार्बन उत्सर्जन का यह देश में संभवतः पहला मामला है। यह संस्था जलवायु परिवर्तन के प्रति विश्व भर में अभियान चलाकर लोगों को जागरूक करती है।
आईएनईसीसी ने अनुमान लगाया है कि एक वर्ष में उनकी वेबसाइट 500 किलो तक कम कार्बन का उत्सर्जन करेगी। वेबसाइट के पुराने डिजाइन पर 10 हजार पेज व्यूज की स्थिति में करीब 517 किलो कार्बन उत्सर्जन होता था। अब नए वेबसाइट के बन जाने के बाद मात्र 24.6 किलो कार्बन उत्सर्जन होता है।
“सूचना और प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल से बिजली की खपत भी बढ़ती है। यह स्थिति तबतक नहीं बदलेगी जबतक बिजली के वैकल्पिक स्रोत का उपयोग न किया जाए,” मोंगाबे को आईएनईसीसी के प्रियदर्शिनी ने बताया।
कैसी वेबसाइट कम कार्बन उत्सर्जन करती है?
विशेषज्ञ मानते हैं कि वेबसाइट पर ग्राफिक्स के इस्तेमाल को कम कर, ड्रॉप डाउन मेन्यू की संख्या घटाकर उन्हें जेपीईजी या जीआईएफ फॉर्मेट की तस्वीर में बदलकर वेबसाइट को हल्का किया जा सकता है। इससे कार्बन उत्सर्जन कम होगा। तस्वीर को छोटा कर और वीडियो की संख्या घटाकर भी वेबसाइट को हल्का बनाया जाता है। विशेषज्ञ यह भी सलाह देते हैं कि स्थानीय डेटा सेंटर का इस्तेमाल कर या क्लाउड पर अपना डेटा सहेजने से भी कार्बन उत्सर्जन में कमी लायी जा सकती है। वेबसाइट के कोड लिखते समय सावधानी से वेबसाइट को कम डेटा खपत वाला बनाया जा सकता है। डेटा सेंटर जहां वेबसाइट होस्ट की जाती है अगर वहां सौर उर्जा जैसे वैकल्पिक ऊर्जा का उपयोग हो तो भी कार्बन उत्सर्जन में कमी लायी जा सकती है ।
कैसे बना पहला इको फ्रेंडली वेबसाइट
आईएनईसीसी के मायरोन मेंडेस ने बताया कि पहली बार ऐसी वेबसाइट बनाने का ख्याल 2018 में आया। वेबसाइट को नए सिरे से बनाते समय उन्होंने कुछ बदलाव करना चाहा ताकि कम से कम डेटा खर्च हो। उन्हें ऐसे विशेषज्ञ की तलाश थी जो यह काम कर सके, लेकिन भारत में उन्हें ऐसा कोई भी नहीं मिला।
लो- कार्बन वेबसाइट को बनाने वाली चारलेन सेकेरा मानती हैं कि विश्व में भारत एक बड़ा तकनीकी का केंद्र है और यहां ग्राफिक्स और वेबसाइट से संबंधित अधिकतर काम होते हैं। फिर भी ऐसे विशेषज्ञ को यहां खोजना काफी मुश्किल साबित हुआ। सेकेरा कहती हैं कि कोई भी इतनी मेहनत नहीं करना चाह रहा था। आखिर में उन्हें पुर्तगाल में कुछ ऐसे लोग मिले यह काम करने को तैयार थे।
पुर्तगाल की कंपनी कोमुंह के सदस्य पेड्रो रीस ने आईएनईसीसी की कल्पना को साकार करने में मदद की। वह कहते हैं कि नए लोग अक्सर लो-कार्बन वेबसाईट बनाते हैं। “लो-कार्बन वेबसाइट यानी हल्की वेबसाइट। इसे बनाने के पीछे अक्सर पर्यावरण वजह नहीं होती, बल्कि डेवलपर्स अपनी वेबसाइट को सर्च इंजन में आने के लिए सुगम बनाना चाहते हैं,” वह कहते हैं।
रीस का मानना है कि इंटरनेट की स्पीड बढ़ने के साथ-साथ लोग अधिक ऊर्जा खपत करने वाले वेबसाइट की तरफ बढ़ रहे हैं। “एक ही वेबसाइट के पास ब्लॉग, वीडियो, सोशल मीडिया और फोटो गैलरी होती है। एक ही कंटेंट कई स्थानों पर मौजूद होता है। यह सब करने के दौरान कोई यह नहीं सोचता कि कार्बन उत्सर्जन से पर्यावरण को कितनी क्षति हो रही है,” रीस ने बताया।
रीस सलाह देते हैं कि अगर वेबसाइट को पर्यावरण के लिए हितकारी बनाना है तो कोशिश होनी चाहिए कि उसका डेटा कहीं आसपास के सेंटर पर ही होस्ट किया जाए। “इस तरीके से डेटा को कम सफर करना पड़ेगा और ऊर्जा की बचत होगी,” उन्होंने बताया।
रीस वेबसाइट बनाने वालों को सोचने के तरीके में बदलाव लाने की सलाह देते हैं। “आने वाले समय में सरकार, जीवनशैली, पर्यावरण और कृषि क्षेत्र से जुड़े लोग इसको लेकर अधिक सतर्क होने वाले हैं और कभी न कभी वेबसाइट बनाने वालों को भी अपना तरीका बदलना ही होगा,” रीस चेताते हुए कहते हैं।
“एक व्यक्ति वेबसाइट पर बस कुछ सेकेंड बिताता है। इस छोटे से समय के लिए क्या इतनी ऊर्जा खर्च करना जरूरी है, वह भी पर्यावरण को नुकसान की कीमत पर?” रीस कहते हैं। रीस ने आईएनईसीसी वेबसाइट की बनावट के बारे में विस्तार से बताते हुए कहा कि इस वेबसाइट पर क्वेरी या कहें पूछताछ नाम की कोई सुविधा नहीं है जिसे चलाने के लिए जावास्क्रिप्ट फ्रेमवर्क की जरूरत होती है। इसका फायदा यह होता है कि उपयोग करने वाले को वेबसाइट पर ड्रॉप डाउन मेन्यू जैसी आकर्षक सुविधाएं दिखती है। आईएनईसीसी ने अपनी वेबसाइट को साधारण ही रखा है।
इस वेबसाइट को बनाने के लिए किसी टेमप्लेट का इस्तेमाल करने के बजाए कंपनी ने खुद जरूरत के मुताबिक कोड लिखे, जिससे 250 किलोबाइट के बजाए 8 किलोबाइट में ही काम हो गया।
सेकेरा कहती हैं कि उनकी वेबसाइट पर कोई भी रंगीन तस्वीर नहीं है। “हमने वेबसाइट पर सभी तस्वीर ब्लैक एंड व्हाइट ही रखा है। ये सारी तस्वीरें काफी हल्के आकार की हैं। वेबसाइट पर कोई वीडिया या फोटो गैलरी नहीं है, और फॉन्ट भी अलग से नहीं जोड़ा गया है,” उन्होंने कहा।
एलिफेंट डिजाइन के डायरेक्टर आशीष देशपांडे कहते हैं कि लॉकडाउन में डेटा का इस्तेमाल जमकर हुआ। वह कहते हैं कि लोग भूल ही जाते हैं कि उनका मोबाइल 24 घंटे डेटा का इस्तेमाल करता रहता है।
वह कहते हैं कि एक वेबसाइट को अपनी बात पहुंचाने के लिए कुछ ही तस्वीरों की जरूरत होती है, लेकिन अगर पूरा एलबम अपलोड कर दें तो डेटा की खपत तो बढ़ेगी और साथ में कार्बन उत्सर्जन भी बढ़ेगा।
लोग मानते हैं कि घर से काम करने से पर्यावरण को फायदा होगा, लेकिन इसके दूसरे परिणाम भी सामने हैं। ब्रिटिश लेखक जेम्स ब्रिजल ने अपनी किताब न्यू डार्क एज में लिखा है कि डेटा सेंटर जितनी ऊर्जा उपयोग करते हैं उसकी मात्रा हर चार साल में दोगुनी हो रही है। आने वाले 10 साल में इसकी मात्रा तिगुनी होने लगेगी। साथ ही, बिटकॉइन्स की वजह से भी कार्बन उत्सर्जन में काफी बढ़ोतरी हो रही है जिसकी मात्रा अटलांटिक सागर पार करने वाले एक लाख वायुयानों के बराबर है। वर्ष 2015 में हुए एक शोध के मुताबिक डेटा सेंटर से निकलने वाला कार्बन उत्सर्जन विश्व के कार्बन उत्सर्जन का 2 प्रतिशत है जो कि विमानन क्षेत्र के बराबर है।
(लेखक पुणे से स्वतंत्र पत्रकार हैं और 101reporters.com के सदस्य हैं।)
बैनर तस्वीर- कार्बन उत्सर्जन की प्रतिकात्मक तस्वीर। फोटो- कार्तिक चंद्रमौली/मोंगाबे इंडिया