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पर्यावरण के लिए कोयला खनन बंद होना जरूरी पर ऐसी स्थिति में बेरोजगार हो रहे लाखों लोगों के भविष्य का क्या!

कोयला खदान

कोयला खदान। फोटो- श्रेष्ठा बैनर्जी/ आई फॉरेस्ट

  • झारखंड के रामगढ़ जैसे देश के कई जिलों की अर्थव्यवस्था सीधे तौर पर कोयले पर टिकी हुई है। भारत की अर्थव्यवस्था का आधार भी कोयला है।
  • पर्यावरण पर काम करने वाली संस्था आईफॉरेस्ट के एक ताजा अध्ययन में सामने आया है कि अगर इन शहरों से कोयले का खनन अचानक रोक दिया जाए तो लाखों लोग बेरोजगार हो जाएंगे।
  • इस अध्ययन में कहा गया है कि पर्यावरण को देखते हुए कोयले से हटकर नवीन ऊर्जा के स्रोतों की तरफ बढ़ना ही होगा। पर इस बदलाव में स्थानीय लोगों के रोजगार की भी चिंता की जानी चाहिए।
  • खनन से पर्यावरण को हो रहे नुकसान और उससे प्रभावित समुदायों की बेहतरी के लिए ऊर्जा के नवीनतम स्रोतों की तरफ सरकार कदम बढ़ा रही है। लेकिन क्या सरकार ऐसे लोगों की भी चिंता कर रही है जो खनन बंद होने से बेरोजगार हो जाएंगे?

झारखंड का रामगढ़ जिला भविष्य में आने वाली एक अजीबोगरीब चुनौती से रू-ब-रू कराता है। इस जिले के 54,000 घर अपने जीवन-यापन के लिए कोयला-खदानों पर निर्भर हैं। इनमें से आधे से अधिक कोयला चुनकर या बेचकर अपना जीवन चलाते हैं। कोयले के खनन ने यहां की आबो-हवा भी खराब कर दी। खेत खराब हो गए। पानी प्रदूषित हो गया। इस खनन की वजह से यहां कोई अन्य उद्योग भी पनप नहीं पाया। इस जिले को ऐसे मोड़ पर लाकर, अब कोयला भी यहां के लोगों का साथ छोड़ता दिख रहा है। यहां की खदानें अब बंद हो रहीं हैं। सवाल है कि अगर इस जिले से कोयला खदान भी खत्म हो जाएंगे तो यहां के लोगों का जीवन कैसे चलेगा?

मंगलवार को रिलीज हो रही एक रिपोर्ट से पता चलता है कि इस जिले के कोयला खदान बंद होने ही वाले हैं। इंटरनेशनल फोरम फॉर एनवायरमेंट, सस्टेनेबिलिटी एंड टेक्नोलॉजी (आईफॉरेस्ट) नामक संस्था के इस ताजा अध्ययन से पता चला है कि रामगढ़ में खनन संबंधी गतिविधियां लगभग आधी हो गई हैं। इस जिले के आधे खदान या तो पूरी तरह से बंद हो गए या अस्थायी रूप से इनपर ताला लग गया। जो खदान चल रहे हैं उनमें से भी बस एक-तिहाई ही फायदे में हैं। इसका मतलब यह हुआ कि इस जिले में कोयले से जुड़ी गतिविधियां अगले 10 से 20 साल में खत्म हो जाएंगी।

फिर क्या होगा? जानकारों को यह चिंता सता रही है कि क्या सरकार रामगढ़ और इस तरह के अन्य जिलों के भविष्य को लेकर सचेत है? 

कोयला खदान से कोयला निकालता मजदूर। खनन वाले इलाके में इस तरह की अस्थाई मजदूरी पर लोग निर्भर करते हैं। फोटो- आई फॉरेस्ट
कोयला खदान से कोयला निकालता मजदूर। खनन वाले इलाके में इस तरह की अस्थायी मजदूरी पर लाखों लोग निर्भर करते हैं। फोटो- श्रेष्ठा बैनर्जी/ आईफॉरेस्ट

आईफॉरेस्ट का यह अध्ययन ‘जस्ट ट्रांजिशन इन इंडिया’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ है। यह रिपोर्ट खनन वाले इलाकों में कोयले के बाद के भविष्य की पड़ताल करती है। अध्ययन के मुताबिक रामगढ़ जैसे इलाके में हर चार में से एक परिवार कोयला या खनन संबंधी गतिविधियों पर आश्रित है। अधिकतर लोग इससे असंगठित तौर पर जुड़े हैं और उनकी आमदनी काफी कम है।

अध्ययन में यह भी सामने आया है कि खनन के क्षेत्र में रहने वाले लोगों के जीवन स्तर में भी कोई खास सुधार नहीं हुआ है। रामगढ़ जैसे इलाके में घोर गरीबी है और स्वास्थ्य सुविधाएं भी बेहद खराब स्थिति में हैं। रामगढ़ जिले के बहुत कम लोगों को कोयला खनन के क्षेत्र में स्थायी नौकरी मिल पायी है। स्वास्थ्य सुविधाओं की हालत यह है कि लोग जिले से बाहर जाकर इलाज कराने के लिए मजबूर हैं। जिले में जितने प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र होने चाहिए उसका आधा भी मौजूद नहीं है। लोगों के पीने के लिए उपलब्ध साफ पानी और शिक्षा का स्तर भी कमोबेश ऐसा ही है।

कोयला से नवीन ऊर्जा तक की यात्रा

पिछले कुछ महीनों में सरकार ने कोयले को लेकर कई निर्णय लिए हैं। सरकार कोयले का आयात कम करने की कोशिश कर रही है। देश की सरकार चाहती है कि स्थानीय स्तर पर खनन में तेजी लाकर कोयले की जरूरत को पूरा किया जाए। ऐसे वक्त में जस्ट ट्रांजिशन (कोयले से नवीन ऊर्जा की तरफ कैसे बढ़ें) का महत्व और भी बढ़ जाता है।

सरकार अगर कोयला खनन की रफ्तार बढ़ाती है तो नए इलाकों में भी पर्यावरण और लोगों के साथ वही सबकुछ दोहराया जाएगा जैसा रामगढ़ में हुआ। पर्यावरण बचाने के मुद्दे पर सक्रिय लोग खनन को प्रोत्साहित नहीं करते।

इस अध्ययन में भी इस बात पर जोर दिया गया है कि नवीन ऊर्जा की तरफ आगे बढ़ना जरूरी है। पर कोयला खदानों को भी तुरंत बंद नहीं किया जा सकता। इन खदानों को बंद करते हुए कोशिश इस तरह से होनी चाहिए कि कम से कम आर्थिक और सामाजिक नुकसान हो। इस परिवर्तन के दौरान ही यह कोशिश की जानी चाहिए कि क्षेत्र में एक नई अर्थव्यवस्था खड़ी हो जाए ताकि स्थानीय लोगों की आजीविका सुरक्षित रहे। खासकर उनकी जो अपने जीवन-यापन के लिए कोयले पर ही निर्भर हैं।

झारखंड के कई शहर और गांव कोयला पर आधारित हैं। ग्रामीण को खदानों से रोजगार मिलता है पर आमदनी काफी कम होती है। फोटो- इंटरनेशनल अकाउंटबिलिटी प्रोजेक्ट
झारखंड के कई शहर और गांव कोयले पर निर्भर हैं। ग्रामीणो को खदानों से रोजगार मिलता है पर आमदनी काफी कम होती है। फोटो- इंटरनेशनल एकाउंटेबिलिटी प्रोजेक्ट

राष्ट्रीय विज्ञान शिक्षा एवं अनुसंधान संस्थान के मानविकी और सामाजिक विज्ञान शाखा के अमरेंद्र दास इस मामले को बेहद पेचीदा मानते हैं। उनका कहना है, “जो लोग प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से खनन से ठेकेदार या मजदूर के रूप में जुड़े हैं, वे खदान बंद होने के साथ ही बेरोजगार हो जाएंगे। विकास के पैमानों पर भी इस क्षेत्र की हालत काफी नाजुक है। इसको देखते हुए इन इलाकों में अगर समय रहते मानव संसाधन पर निवेश किया जाए तो स्थिति विस्फोटक नहीं होगी। यही बदलाव का सही तरीका होगा।”

करमपुरा बचाओ संघर्ष समिति से जुड़े इलयास अंसारी भी दास की बात का समर्थन करते हैं। अंसारी इस समिति के साथ जुड़कर खनन प्रभावित लोगों की बेहतरी के लिए काम करते हैं।

“भारत में खनन से पहले लोग मुख्य रूप से खेती पर निर्भर थे। खदान शुरू होने के बाद जमीनें बर्बाद हो गईं और उन्हें उसके बदले जो मुआवजा मिला वो काफी कम था,” अंसारी कहते हैं।

अंसारी मानते हैं कि लोगों के पास रोजगार के लिए कोई टिकाऊ रास्ता नहीं है क्योंकि उन्हें खनन कंपनी में नौकरी नहीं मिलती। खदान बंद होने के बाद खेत बंजर हो जाते हैं और पानी या तो खत्म कर दिया जाता है या प्रदूषित हो जाता है।

“नियमानुसार खनन के खत्म होने के बाद कंपनियां, किसानों से ली हुई जमीन को खेती लायक बनाने के लिए बाध्य होती हैं। लेकिन असल मे ऐसा होता नहीं है,” अंसारी ने कहा।

अंसारी कहते हैं कि सरकार अब खनन क्षेत्र में निजी कंपनियों को आमंत्रित कर रही है। इन कंपनियों का उद्देश्य सिर्फ लाभ कमाना होगा। खदान के आसपास के समुदाय और पर्यावरण से इनका कोई लेना-देना नहीं होगा। अंसारी दुःख जताते हुए कहते हैं कि इसका सबसे स्याह पक्ष यह है कि खनन से प्रभावित लोगों की देखभाल और पुनर्वास के लिए कोई योजना नहीं है।

ऐसे परिवर्तन की राह पर कहां खड़े हैं अन्य देश

ऐसा परिवर्तन सिर्फ भारत में ही नहीं हो रहा है। बल्कि दुनिया के कई और मुल्क इस चुनौती का सामना कर रहे हैं। ‘जस्ट  ट्रांजिशन’ शब्द का प्रयोग पेरिस-समझौता 2015 की प्रस्तावना में भी हुआ है।

वर्ष 2016 में कनाडा ने पारंपरिक ऊर्जा के स्रोत के तौर पर कोयले के उपयोग को बंद करने की घोषणा की। कनाडा 2030 तक इस लक्ष्य को हासिल कर लेना चाहता है। अप्रैल 2018 में यहां की सरकार ने जस्ट ट्रांजिशन पर एक टास्क फोर्स बनाया और कनाडा के कोयला क्षेत्र में काम कर रहे कामगारों के ऊपर बदलाव के प्रभावों का आंकलन किया। इस टास्क फोर्स के सदस्य खनन प्रभावित इलाकों के दौरे पर गए और अध्ययन करने के बाद सरकार को यह  सुझाया कि यह परिवर्तन कैसे किया जाना चाहिए। 

रामगढ़ के स्थानीय मजदूर साइकल पर कोयले की खेप लेकर शहर बेचने जा रहे हैं। फोटो- श्रेष्ठा बैनर्जी/आईफॉरेैस्ट
रामगढ़ का एक स्थानीय मजदूर साइकिल पर कोयले की खेप लेकर शहर की तरफ जाता हुआ। फोटो- श्रेष्ठा बैनर्जी/आईफॉरेैस्ट

यूरोप के देशों ने भी कुछ इसी तरीके से काम किया। जर्मनी ने एक एजेंसी का निर्माण किया। इसका काम कोयला क्षेत्र से जुड़े मजदूरों की स्थिति और बदलाव के साथ उनके लिए रोजगार के अवसर पैदा करना था। 

आईफॉरेस्ट के अध्यक्ष और मुख्य कार्यकारी अधिकारी (सीईओ) चंद्रभूषण कहते हैं, “जलवायु परिवर्तन के असर को देखते हुए भारत के लिए आने वाले 20-30 वर्षों में बदलाव करना जरूरी है।”

“खनन और उससे संबंधित उद्योगों के लिए यह समय काफी कम है। अगर हमने कोयले के बाद के भविष्य की तैयारी नहीं की, तो कोयले पर निर्भर क्षेत्र की अर्थव्यवस्था और समाजिक ताने-बाने को भारी चोट पहुंचेगी। जस्ट ट्रांजिशन को केंद्र में रखकर भारत दुनिया को एक मजबूत संदेश दे सकता है कि हम जलवायु परिवर्तन से लड़ाई में दुनिया का नेतृत्व करने के लिए तैयार हैं,” भूषण ने मोंगाबे को बताया।

उन्होंने जोर दिया कि जस्ट ट्रांजिशन से न सिर्फ वैश्विक स्तर पर हो रही कोशिशों को जोर मिलेगा, बल्कि भारत में कोयला आधारित क्षेत्रों को भी एक टिकाऊ विकल्प खोजने में मदद मिलेगी। “कोयले की खदानों को कुछ इस तरीके से बंद किया जाना चाहिए, जिससे उसपर आश्रित लोगों को आजीविका का वैकल्पिक साधन मिल सके। देश में ऊर्जा की कमी न हो और पर्यावरण भी सुरक्षित रहे,” भूषण कहते हैं।

समस्याओं का अंत नहीं

खदान शुरू होने के साथ आसपास रहने वाले समुदाय और पर्यावरण का नुकसान होना शुरू हो गया। हालांकि, इसके बंद होने के बाद भी परेशानियां बढ़ेंगी।

आईफॉरेस्ट की कार्यक्रम प्रमुख श्रेष्ठा बनर्जी कहती हैं कि कोयला खदान वाले क्षेत्र के लोग गरीबी की भट्ठी में जल रहे हैं। यहां विकास नहीं पहुंचा है। जस्ट ट्रांजिशन इस स्थिति को बदल सकता है।

“इन जिलों के लोग कोयला खदान से प्रभावित रहे हैं, लेकिन बिना योजना के खदानों के बंद होने से इनकी समस्या बढ़ी ही है। अगर योजना बनाकर आगे बढ़ा जाए तो पर्यावरण के साथ-साथ अर्थव्यवस्था को भी बेहतर किया जा सकता है,” बैनर्जी बताती हैं।


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इस मुद्दे के एक और जानकार एक नई समस्या की ओर ध्यान दिलाते हैं। “मैंने ऐसा कोई भी मामला नहीं देखा जहां खदान बंद होने के बाद जमीनों को स्थानीय लोगों को लौटाया गया हो। कई बार यह काम आधा-अधूरा हुआ है। कोयला हो या लौह अयस्क, झारखंड में हर खदान को एक तय सीमा के बाद लौटाना होता है,” यह कहना है समाजिक कार्यकर्ता और माइन्स मिनरल्स और राइट्स के संपादक रह चुके जेवियर डायस का।

समाधान कई, लेकिन इच्छाशक्ति का अभाव

कोयला को छोड़ ऊर्जा के नए स्रोतों की तरफ बढ़ने की ऐसी रणनीति बनायी जानी चाहिए कि अर्थव्यवस्था भी न बिगड़े और पर्यावरण का हित भी सध जाए।

आईफॉरेस्ट के अध्ययन में कहा गया है कि राज्य सरकार को एक नई दृष्टि बनानी होगी ताकि ज्यादा से ज्यादा लोगों की भागीदारी सुनिश्चित हो सके। अमरेंद्र दास कहते हैं कि जिला मिनरल फंड (डीएमएफ) की राशि या तो खर्च नहीं हो पाती या उसका इस्तेमाल बड़े निर्माण की योजनाओं में कर दिया जाता है।

“मेरा मानना है कि डीएमएफ को खर्च करने का अधिकार गांव के सरपंच के पास होना चाहिए। अभी यह बड़े अधिकारियों के हाथ में होता है। इस फंड का इस्तेमाल स्थानीय लोगों के कौशल विकास के लिए किया जाए। खदानों की वजह से बेकार हुई जमीन को वापस हासिल कर कृषि के लायक बनाने की कोशिश भी होनी चाहिए,” दास कहते हैं।

 

बैनर तस्वीर- कोयला खदानों पर धनबाद जैसे शहर की अर्थव्यवस्था आधारित है। फोटो- श्रेष्ठा बैनर्जी/ आई फॉरेस्ट

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