- वन अधिकार कानून-2006 को जम्मू-कश्मीर में भी लागू किए जाने की घोषणा हो चुकी है। इसके बावजूद भी आदिवासी समुदाय जंगलों से दूर हैं। इस कड़कड़ाती ठंढ में भी उन्हें उनकी झोपड़ियों से बाहर निकाला जा रहा है और उन्हें बेघर किया जा रहा है।
- दूसरी तरफ पनबिजली योजनाओं और अन्य विकास की योजनाओं के नाम पर सरकार ने हजारों हेक्टेयर वनभूमि और लाखों पेड़ कुर्बान होने दिए।
- करीब 800 मेगावाट के बुरसर परियोजना को लेकर पर्यावरण के जानकार आरोप लगा रहे हैं कि यह किश्तवाड़ नेशनल पार्क के महज 10 किमी की दूरी पर है। पर्यावरण के स्तर पर इस परियोजना को मंजूरी देने के पहले इस क्षेत्र का निरीक्षण तक नहीं किया गया।
- वर्ष 2014 में आई बाढ़ के बाद जम्मू-कश्मीर में पर्यावरण को हुए क्षति को लेकर चिंता जताई जा रही है। सरकार की एक रिपोर्ट के मुताबिक यहां 10 प्रतिशत जंगल कम हो गया है।
जम्मू-कश्मीर की ऊंची पहाड़ियों पर घने जंगलों के किनारे बेहद छोटी-छोटी झोपड़ियां नजर आती हैं। पत्थर, मिट्टी और घास-फूस से बने ये घर गुज्जर समुदाय के लोगों का आशियाना है। यह समुदाय भेड़ चराकर अपना जीवन यापन करता है।
हाल ही में वन विभाग की कार्रवाई से इन घरों में रहने वाले लोग हलकान हो रहे हैं। वन विभाग की इस कार्रवाई के वीडियो हाल के दिनों में खूब वायरल हुए, जिसमें लोग घर न तोड़ने की गुहार लगाते और घर छूटने के दर्द में रोते-बिलखते नजर आ रहे हैं। इस साल जब कड़ाके की ठंढ पड़ने की भविष्यवाणी की जा रही है, इसी समय में इन लोगों के सर से छत छीन ली गई।
विभाग की इस कार्रवाई के बाद अब पेड़-पौधों के बीच अपना गुजर-बसर करने वाले इस समुदाय के लोगों को जंगल छूट जाने का डर सता रहा है। कई गुज्जर परिवारों को विभाग ने जंगल की जमीन को ‘गैरकानूनी रूप से हथियाने’ का नोटिस भी थमाया है।
वनवासियों को जंगल पर अधिकार देने के लिए वर्ष 2006 में अनुसूचित जनजाति और अन्य परम्परागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) कानून आया था। वर्ष 2008 में केंद्र सरकार इसे नोटीफाई कर पूरे देश में लागू कर दिया था। जम्मू-कश्मीर को छोड़कर। वर्ष 2019 में हुए केंद्र सरकार के धारा 370 को हटाने के बाद यह कानून अब जम्मू-कश्मीर पर भी लागू हो सकता है।
वन अधिकार कानून जंगल में रहने वाले लोगों को विस्थापन से सुरक्षा और जंगल पर दूसरे कई अधिकार देता है जिसमें घास चराना भी शामिल है।
इन सबके बावजूद भी जम्मू-कश्मीर में जंगलों के पास बने मिट्टी के घर वन विभाग की नजर में अतिक्रमण है।
जम्मू-कश्मीर सरकार ने हाल ही में घोषणा की कि वन अधिकार कानून 2006 को राज्य में लागू किया जाने वाला है। हालांकि इसमें यह नहीं स्पष्ट नहीं किया गया कि जम्मू और दूसरे जिले के जंगलों में रहने वाले इन परिवारों का क्या होगा।
“अगर सरकार वन अधिकार कानून को लागू करने वाली है तो इन झोपड़ियों में रहने वाले लोगों को सर्दी के दिनों में बेघर क्यों किया जा रहा है? अभी भी लोगों को गैरकानूनी रूप से रहने का नोटिस क्यों भेजा जा रहा है,” रजा मुजफ्फर ये सवाल पूछते हैं? मुजफ्फर एक समाजसेवी हैं जो सूचना के अधिकार और पर्यावरण पर काम करते हैं।
इधर, सरकारी मंशा से हो रहा जंगल का विनाश
स्थानीय समाज और पर्यावरणविद् सवाल करते हैं कि क्या जम्मू-कश्मीर के जंगलों का विनाश सरकार की रजामंदी से हो रहा है? उनका सवाल है कि वर्षों से विकास के नाम पर हजारों हेक्टेयर जंगल साफ किए जा चुके हैं। कभी पनबिजली परियोजना तो कभी बिजली पहुंचाने के लिए लाइन बनाने और दूसरे विकास की परियोजनाओं के नाम जंगल काटे जाते रहे।
उदाहरण के लिए जनवरी 2016 में भारत के कई प्रबुद्ध लोगों ने प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को लिखकर पूछा कि किश्तवाड़ की 1856 मेगावाट सावलकोटे पनबिजली परियोजना के पर्यावरण मंजूरी में इतनी खामियां क्यों हैं?
पर्यावरण मंजूरी की रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया था कि 900 हेक्टेयर जमीन बांध के डूब क्षेत्र में आएगी। इसमें 1099 हेक्टेयर जमीन की जरूरत होगी। हालांकि अब यह दायरा बढ़ गया है। वर्तमान में ये आंकड़े क्रमशः 29 (1158.75 हेक्टेयर) और 23 (1401.35 हेक्टेयर) फीसदी बढ़ गए हैं। पर अंतिम रिपोर्ट में बिना इन सब पर विचार किए ही इसे मंजूरी दे दी गई।
यही हाल बुरसर के 800 मेगावाट परियोजना का भी है। यह किश्तवाड़ स्थित ऊंचाई वाले नेशनल पार्क से 10 किलोमीटर की सीमा में स्थित है। इस प्रोजेक्ट को बिना जमीनी निरीक्षण के पर्यावरणीय मंजूरी दे दी गई। मंजूरी देने के लिए बनी कमेटी ने अक्टूबर 24, 2017 को हुई नौवीं बैठक में लिखा है, “इनवायरनमेंट अप्रेजल कमेटी के सदस्यों ने पाया कि प्रस्ताव घनी जैवविविधता वाले क्षेत्र से 10 किमी के दायरे में है। जमीनी निरीक्षण की रिपोर्ट के बाद पर्यावरणीय मंजूरी के लिए प्रस्ताव पर विचार किया जाएगा।”
हालांकि, 10वीं बैठक में दिसंबर 5, 2017 को कमेटी ने इसकी अनुशंसा करते हुए लिखा, “सदस्य सचिव ने जानकारी दी है कि प्रस्तावित जगह पर मौसम ठीक होने पर 7 महीने बाद निरीक्षण के लिए जाया जा सकता है। इस देरी को देखते हुए सदस्यों ने बिना जगह देखे ही इसे मंजूरी दे दी है।”
नौवीं बैठक के बैठक के ब्योरे के मुताबिक इस परियोजना में 1779.33 हेक्टेयर जमीन में से 1149 हेक्टेयर जमीन जंगल की होगी। और डूब क्षेत्र में आने वाले 1442.71 हेक्टेयर जमीन में से 883.31 हेक्टेयर जमीन भी जंगल की होगी। मोंगाबे इंडिया को एक विशेषज्ञ ने बताया कि इससे 15 लाख पेड़ नष्ट हो जाएंगे।
बिना नियम और शर्तों के विकास!
सांबा-अमरगढ़ का 1000 मेगावाट का 3000 करोड़ के खर्च से बनी बिजली लाइन को दो साल हो गए हैं। सरकारी दस्तावेजों को मुताबिक इस काम के बाद पर्यावरण पर प्रत्यक्ष प्रभाव के तौर पर देखा जाए तो 40,035 देवदार और कैल के पेड़ काटे जाने है। इनमें 35,322 घनी झाड़ियां भी शामिल हैं।
इसके अलावा, शोपियां, पुलवामा, बडगाम और बारामूला जिले में जंगल के बाद किसानों के भी हजारों पेड़ काटे गए।
मुजफ्फर आरोप लगाते हैं कि लोगों की नजर में धूल झोंकने के लिए सरकारी आदेश में ऐसे प्रोजेक्ट को मंजूरी बेहद तकनीकी भाषा में दी जाती है। उदाहरण के लिए इस प्रोजेक्ट में लिखा गया कि 40,035 पेड़ इस प्रोजेक्ट में शामिल हैं जिनमें से 9,953 को काटने की जरूरत पड़ सकती है। लेकिन, प्रोजेक्ट में शामिल पेड़ से कहीं दोगुने से भी अधिक पेड़ों की बलि दे दी गयी।
सबसे चौंकाने वाली बात यह कि मंजूरी के पिछले 6 दस्तावेजों में लिखा जाता है कि नियम और शर्तों के आधार पर यह मंजूरी दी जाती है, लेकिन वे नियम और शर्तें क्या है किसी को नहीं पता।
दो अन्य परियोजना, सांबा अमरगढ़ 1000 मेगावाट बिजली लाइन और श्रीनगर-लेह 220 किलोवाट बिजली लाइन के लिए क्रमशः 372 और 150 हेक्टेयर जमीन की मंजूरी भी इसी तरह से दी गई। आम नागरिकों के मुताबिक यहां मंजूरी से कई गुना अधिक पेड़ों की कटाई हुई।
सांबा-अमरगढ़ प्रोजेक्ट को लेकर इसे बनाने वाली कंपनी दावा करती हैं कि समय से पहले इसे पूरा कर लिया गया। हालांकि, वन्यजीव से जुड़े अधिकारियों का दावा है कि इसके लिए बड़ी मशीनों को इस्तेमाल में लाया गया। हीरपुर वन्यजीव अभयारण्य के भीतर भी इनका प्रयोग हुआ जहां मरखोर, मस्क हिरण और दूसरी कई प्रजातियां पाई जाती है।
इस मंजूरी में यह साफ लिखा था कि कंपनी को काम बिना मशीनों के पूरा करना है ताकि वन्यजीव पर इसका असर कम से कम हो।
खतरे में जम्मू-कश्मीर का पर्यावरण
वर्ष 2014 में जम्मू-कश्मीर में आई भीषण बाढ़ के बाद सरकार की डिपार्टमेंट ऑफ एनवायरनमेंट, इकोलॉजी एंड रिमोट सेंसिंग (डीईईआरएस) ने पाया कि पर्यटन की वजह से बीते दो दशक में 10 प्रतिशत जंगल खत्म हुए हैं। सरकार की एजेंसियों ने एक के बाद एक 727 हेक्टेयर शहरी जंगल क्षेत्र को विकास के लिए नष्ट होने की मंजूरी दी।
मुजफ्फर जंगलों के विनाश का एक वाकया सुनाते हुए कहते हैं कि पीर पंजाल जंगल में 2020 की गर्मियों में उन्होंने देखा कि दूधगंगा नदी की धार को एक पनबिजली योजना के लिए रोक दिया गया है।
बिजली परियोजनाओं से जम्मू-कश्मीर को क्या लाभ?
जम्मू-कश्मीर में बिजली उत्पादन क्षमता 16,475 मेगावाट बताई जाती है। इसका 22 फीसदी यानी 3608.46 मेगावाट बिजली उत्तरी ग्रिड के सहारे दूसरे राज्यों में चली जाती है। इधर जम्मू-कश्मीर को हर साल 7000 करोड़ रुपये की बिजली खरीदनी पड़ती है। भारत में एनएचपीसी की कुल क्षमता (7071 मेगावाट) के बड़े हिस्से का उत्पादन जम्मू कश्मीर में ही होता है। एनएचपीसी इस राज्य में 2339 मेगावाट बिजली का उत्पादन करती है।
इस क्षेत्र के लोगों को लगता है कि पर्यावरण को नुकसान पहुंचाकर भी राज्य की बिजली की जरूरत पूरी नहीं हो पा रही है। इस मामले पर कश्मीर यूनिवर्सिटी के वजाहत अली कहते हैं कि अगर हम विकास के लिए प्राकृतिक संपदा की इतनी कुर्बानियां दे रहे हैं तो इसका सीधा लाभ भी हमें ही मिलना चाहिए।
जम्मू कश्मीर पावर डेवलपमेंट डिपार्टमेंट के मुताबिक सर्दियों में क्षेत्र में 3000 मेगावाट की जरूरत होती है जो कि सर्वाधिक है। यह विभाग 3608 मेगावाट बिजली बनाता है लेकिन फिर भी इन्हें 7000 करोड़ रुपए की बिजली खरीदनी पड़ रही है। बावजूद इसके 60 फीसदी बिजली एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने में ही नष्ट हो जाती है।
बैनर तस्वीर- बुद्गम जंगल से गुजरता हुआ पावर लाइन। इन बिजली के तारों की वजह से पेड़ों को काटा गया। फोटो- अथर परवेज