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मध्य प्रदेश में वनों को कॉर्पोरेट को देने की कोशिश हुई तेज, हो सकता है मुखर विरोध

पन्ना टाइगर रिजर्व के इलाके में जंगल से मवेशी चराकर आते आदिवासी। मध्यप्रदेश के जंगल आदिवासियों की जीवनरेखा है। फोटो- मनीष चंद्र मिश्र/मोंगाबे हिन्दी

पन्ना टाइगर रिजर्व के इलाके में जंगल से मवेशी चराकर आते आदिवासी। मध्यप्रदेश के जंगल आदिवासियों की जीवनरेखा है। फोटो- मनीष चंद्र मिश्र/मोंगाबे

  • मध्य प्रदेश में मौजूद कुल जंगल के लगभग एक तिहाई हिस्से को निजी उद्यमियों व कंपनियों को देने की बात हो रही है। सरकार के इस आदेश के अनुसार इन ‘बिगड़े वनों’ में निजी कंपनियां निवेश कर इनका ‘सुधार’ करेंगी।
  • वर्ष 2015 से केंद्र सरकार वनों को निजी हाथों में देने की बात कर रही है। पहले वन, पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय की तरफ से यह बात मीडिया में आई। फिर 2018 में राष्ट्रीय वन नीति के मसौदे में भी इसकी झलक देखने को मिली।
  • मध्य प्रदेश सरकार के इस फैसले के विरोध में जय आदिवासी युवा शक्ति (जयस) ने 25 नवंबर को प्रदेश के 41 जिला मुख्यालयों पर ज्ञापन दिया और प्रदेशव्यापी आंदोलन की चेतावनी भी दी।

देश की राजधानी दिल्ली में किसान सड़कों पर हैं और आरोप लगा रहे हैं कि केंद्र सरकार द्वारा लाया गया तीन कृषि कानून किसान-विरोधी है और निजी कंपनियों को फायदा पहुंचाने वाला है। इसी समय मध्य प्रदेश में भी कुछ ऐसा ही माहौल बनता दिख रहा है। बस अंतर यह है कि मध्य प्रदेश में किसान के बदले आदिवासी समाज का एक तबका आंदोलन की तैयारी कर रहा है। क्योंकि यहां राज्य सरकार एक तिहाई वन को निजी हाथों में देने की कोशिश में है।   

राज्य सरकार के फैसले के विरोध में जय आदिवासी युवा शक्ति (जयस) ने 25 नवंबर को प्रदेश के 41 जिला मुख्यालयों पर ज्ञापन दिया और प्रदेशव्यापी आंदोलन की चेतावनी भी दी।

इस पूरे मामले की शुरुआत हुई 20 अक्तूबर 2020 को हुआ जब प्रधान मुख्य वन संरक्षक, सतपुड़ा भवन, भोपाल की तरफ से एक आदेश/परिपत्र सार्वजनिक हुआ। इसमें कहा गया कि मध्य प्रदेश में मौजूद कुल जंगल में से लगभग एक तिहाई हिस्से को निजी निवेश के लिए चिन्हित किया जाए। इन ‘बिगड़े वनों’ में निजी कंपनियां निवेश करेंगी ताकि इनका ‘सुधार’ हो सके। मध्य प्रदेश में कुल 94,689 वर्ग किलोमीटर के संरक्षित वन (प्रोटेक्टेड फॉरेस्ट) हैं जिनमें से 37,420 वर्ग किलोमीटर को इस निजीकरण के दायरे में लाया जाएगा।

सरकार ने अपने आदेश में कहा है कि ‘बिगड़े वनों’ में निजी कंपनियां निवेश करेंगी और इनका ‘सुधार’ करेंगी। फोटो- मनीष चंद्र मिश्र/मोंगाबे हिन्दी
सरकार ने अपने आदेश में कहा है कि ‘बिगड़े वनों’ में निजी कंपनियां निवेश करेंगी और इनका ‘सुधार’ करेंगी। फोटो- मनीष चंद्र मिश्र/मोंगाबे हिन्दी

राज्य के वन मुख्यालय से प्रधान मुख्य वन संरक्षक राजेश श्रीवास्तव द्वारा विभाग के समस्त क्षेत्रीय मुख्य वन संरक्षकों को संबोधित यह आदेश मूलत: एक विभागीय परिपत्र है जो प्रशासनिक निर्णय को अमलीजामा पहनाने के लिए जारी किया गया है। तात्पर्य यह कि वनों के निजीकरण  की दिशा में प्रदेश सरकार ने तमाम नीतिगत वैधानिक ज़रूरतें पूर्ण कर ली हैं या इस मंशा पर ‘सैद्धान्तिक रूप से’ मुहर लगाई जा चुकी है। इस पत्र में भी सरकार के स्तर पर ‘सैद्धान्तिक सहमति’ की बात लिखी हुई है।

इस आदेश के सार्वजनिक होने से पहले 15 अक्तूबर 2020 को एक स्थानीय अखबार के जबलपुर संस्करण में ‘वन भूमि निजी हाथों में देने की तैयारी’ शीर्षक से इस बावत एक खबर प्रकाशित हुई। इस खबर के अनुसार कॉन्फिडरेशन ऑफ इंडस्ट्री (सीआईआई) द्वारा आयोजित इस वेबिनार में कई बड़े निजी कंपनियों के प्रतिनिधि शामिल हुए। यहां मध्य प्रदेश के वन मंत्री विजय शाह ने निवेशकों के साथ इस योजना पर चर्चा की।

हालांकि जिस विचार-पत्र की बात मंत्री ने अपने बयान में की है वह अभी सार्वजनिक नहीं है। लेकिन मुख्य वन संरक्षक के आदेश में उसकी झलक विस्तार से दिखाई देती है।

इस आदेश को लागू करने में आएगी ढेरों समस्याएं

इस आदेश में बिगड़े वनों को निजी निवेश के लिए आकर्षित करने की योजना के बारे में बताया गया है। वन अधिकारियों को दिए गए इस आदेश में प्रदेश में मौजूद तमाम ‘बिगड़े वनों’ का चयन करने के लिए कहा गया है ताकि इन बिगड़े वनों में निजी निवेश किया जा सके।

बिगड़े वन से तात्पर्य वन के उस हिस्से से हैं जहां पेड़ों की संख्या का घनत्व कम (0.4 छत्र घनत्व से भी कम) है। मध्य प्रदेश सरकार वन के इसी हिस्से को निजी हाथों में देने की दिशा में आगे बढ़ रही है और इसपर ‘सैद्धान्तिक सहमति’ बन चुकी है।

सरकारी पक्ष के अनुसार वनों के स्वस्थ स्थिति में लाने के लिए बड़े पैमाने पर पूंजी, तकनीकी व प्रबंधकीय कौशल की आवश्यकता है। इसे राज्य सरकार निजी निवेश को आकर्षित कर हासिल करना चाहती है।  निजी निवेश के माध्यम से सरकार जलवायु परिवर्तन, ग्रामीण स्थानीय आजीविका और पारिस्थितिकी सेवाओं मसलन जल चक्र आदि को सुचारू व सतत बनाने जैसे कथित लक्ष्य हासिल करना चाहती है।

वन अधिकारियों को लिखे पत्र में यह भी कहा गया है कि ये निजी निवेश 30 सालों की अवधि के लिए निजी -सार्वजनिक सहभागिता (पीपीपी) के तहत किया जाएगा। इसमें यह भी कहा गया है कि वनों में निजी निवेश से प्राप्त होने वाले राजस्व का 50% ग्राम वन समिति अथवा ग्राम सभा को दिया जाएगा।  

मध्यप्रदेश के छिंदवाड़ा जिला स्थित तामिया का जंगल। यहां आदिवासी जड़ी-बूटियों और भोजन के लिए जंगल पर निर्भर हैं। फोटो- मनीष चंद्र मिश्र/मोंगाबे हिन्दी
मध्यप्रदेश के छिंदवाड़ा जिला स्थित तामिया का जंगल। यहां आदिवासी जड़ी-बूटियों और भोजन के लिए जंगल पर निर्भर हैं। फोटो- मनीष चंद्र मिश्र/मोंगाबे हिन्दी

इस फैसले का वास्तविक निहितार्थ क्या है इसको समझने के लिए मध्य प्रदेश के पिछले दो सालों के इतिहास को समझना पड़ेगा। मार्च 2019 से राज्य में राजनैतिक अस्थिरता रही है और 28 विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों के लिए उपचुनाव 3 नवंबर 2020 को ही सम्पन्न हुआ है। कोविड और अर्थव्यवस्था जैसी तमाम चुनौतियों के सामने इस मुद्दे को तरजीह देना, बताता है कि राज्य सरकार इसको लेकर कितना गंभीर है।

निजी हाथों में वन संपदा को देने की इस हड़बड़ी में सरकार इस मुद्दे की जटिलता को भी नजरअंदाज कर गई है। जैसे वन विभाग के आदेश में कहा गया है उन्हीं क्षेत्र को निजी कंपनियों को दिया जाएगा जो पूरी तरह अतिक्रमण मुक्त हो।

जबकि राज्य सरकार के ही एक टास्क फोर्स की रिपोर्ट कुछ और ही बयान करती है। राजस्व व वन विभाग के बीच वर्षों से उलझी ज़मीनों के विवाद के स्थायी समाधान के लिए 29 मई 2019 को एक टास्क फोर्स का गठन अतिरिक्त सचिव (वन) ए. पी. श्रीवास्तव की अध्यक्षता में किया था। जिसने अपनी रिपोर्ट 6 फरवरी 2020 को सरकार को सौंपी थी। इस रिपोर्ट से यह स्पष्ट होता है कि मध्य प्रदेश में कोई भी संरक्षित वन क्षेत्र ऐसा नहीं है जहां सामुदायिक निस्तार चलन में न हो। इस टास्क फोर्स ने ऐसी 15 ऐतिहासिक परिस्थितियों व मौजूदा विवादों से पैदा हुए मुद्दों को प्रकाश में लाया है जो पूरे मध्य प्रदेश में बदस्तूर जारी हैं। ऐसे में किसी ज़मीन को ‘विवादों से मुक्त मानना’ बहुत मुश्किल है।

वन विभाग की इस रिपोर्ट में समुदायों या व्यक्तियों के परंपरागत अधिकारों को लेकर कोई बात नहीं की गयी है।  

संयुक्त मध्य प्रदेश (छत्तीसगढ़ सहित) में पिछले तीन दशक से जंगल व ज़मीन के मुद्दों पर काम कर रहे अध्येयता व एडवोकेट अनिल गर्ग मानते हैं कि ‘प्राकृतिक संसाधनों पर पहला हक़ अनिवार्यता स्थानीय समुदायों का है। ऐसे संसाधनों के बारे में कोई भी योजना बनाते समय इन समुदायों से परामर्श किया जाना चाहिए। चूंकि बात बिगड़े वनों को लेकर है जो ज़ाहिर है कि आरक्षित वन नहीं हैं और स्थानीय समुदायों की निर्भरता ऐसे जंगलों पर है जो उनके लिए निस्तार के ज़रूरी साधन हैं। ऐसे में इन्हें नज़रअंदाज़ करके वनों के निजीकरण का प्रस्ताव न केवल अवैधानिक है बल्कि लोगों के साथ ऐतिहासिक अन्याय को जारी रखे जाने की मंशा से प्रेरित भी है।’

धार विधानसभा क्षेत्र से विधायक और जयस के राष्ट्रीय संयोजक हीरालाल अलावा ने मामला उजागर होते ही इस बावत आदेश जारी करने वाले प्रधान वन संरक्षक राजेश श्रीवास्तव को एक पत्र लिखा है।

अपनी आपत्तियों को विस्तार से लिखते हुए इन्होंने भी कहा है कि इस आदेश को जारी करने से पहले मध्य प्रदेश में जमीन विवादों के इतिहास को संज्ञान में नहीं लिया गया है जिन्हें राज्य सरकार स्वयं मानती है।

जंगल, ज़मीन व अन्य सभी तरह के प्राकृतिक संसाधनों पर सामुदायिक अधिकारों को लेकर आज़ादी के बाद से निरंतर प्रावधान किए गए हैं जिनमें संविधान की ग्यारहवीं अनुसूची, पांचवीं अनुसूची और इसके तहत आदिवासी समुदायों के स्व-शासन की दिशा में पेसा कानून,1996, भू-राजस्व संहिता 1959, संविधान के 73वें संशोधन और पंचायती राज्य अधिनियम, 1993 और वन अधिकार मान्यता कानून, 2006 को लेकर स्पष्ट दिशा निर्देश हैं जिनके तहत संसाधनों पर पहला हक़ स्थानीय समुदायों का है।

ऊंचाई से पन्ना टाइगर रिजर्व का जंगल कुछ इस तरह दिखता है। मध्य प्रदेश में कुल 94,689 वर्ग किलोमीटर के संरक्षित वन (प्रोटेक्टेड फॉरेस्ट) हैं। फोटो- मनीष चंद्र मिश्र/मोंगाबे हिन्दी
ऊंचाई से पन्ना टाइगर रिजर्व का जंगल कुछ इस तरह दिखता है। मध्य प्रदेश में कुल 94,689 वर्ग किलोमीटर के संरक्षित वन (प्रोटेक्टेड फॉरेस्ट) हैं। फोटो- मनीष चंद्र मिश्र/मोंगाबे हिन्दी

जंगल, ज़मीन व अन्य सभी तरह के प्राकृतिक संसाधनों पर सामुदायिक अधिकारों को लेकर आज़ादी के बाद से निरंतर प्रावधान किए गए हैं जिनमें संविधान की ग्यारहवीं अनुसूची, पांचवीं अनुसूची और इसके तहत आदिवासी समुदायों के स्व-शासन की दिशा में पेसा कानून,1996, भू-राजस्व संहिता 1959, संविधान के 73वें संशोधन और पंचायती राज्य अधिनियम, 1993 और वन अधिकार मान्यता कानून, 2006 को लेकर स्पष्ट दिशा निर्देश हैं जिनके तहत संसाधनों पर पहला हक़ स्थानीय समुदायों का है।

मध्य प्रदेश के विशेष संदर्भों में ऐसे कितने मामले हैं जिनका रिकॉर्ड खुद वन विभाग के पास नहीं है। कई रिकार्ड को तो संकलित करने के प्रयास भी नहीं किए गए। इसी बात को आगे बढ़ाते हुए डॉ.  अलावा बताते हैं कि – भारतीय वन कानून, 1927 की धारा 4 के तहत 1988 से जो कार्यवाही की गईं या धारा 34 (अ) के तहत जो कार्यवाही हुई और वनों के डी-नोटिफिकेशन की अधिसूचनाओं के आधार पर वन विभाग ने अपने रिकार्ड दुरुस्त नहीं किए हैं। ऐसे में तमाम संवैधानिक व कानूनी प्रावधानों को ताक पर रखकर इस तरह का आदेश जारी करने से प्रदेश में प्रशासनिक अराजकता की स्थिति ही बनेगी।

वनों को निजी हाथों में दिए जाने का प्रयास

वनों के निजीकरण के संबंध में पहली गंभीर कोशिश हमें 7 मार्च 2019 को भारत सरकार के वन, पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन के मंत्रालय द्वारा प्रस्तावित भारतीय वन कानून 1927 में संशोधन के मसौदे के मार्फत मिली थी। इसके तमाम प्रावधानों से गुजरते हुए स्पष्ट होता है कि भारतीय वन अधिनियम 1927 में जो संशोधन प्रस्तावित है वो अंतत: वनों में निजी निवेश को प्रोत्साहित करने के लिए हैं।

इस मसौदे का देशव्यापी विरोध हुआ था। जिसे झारखंड विधानसभा चुनावों के मद्देनज़र भाजपा-नीत केंद्र सरकार ने वापस ले लिया था।

नीति आयोग की तरफ से वनों के निजीकरण की पैरवी व सिफ़ारिशें की जाती रही हैं जिनका प्रभाव हमें राष्ट्रीय वन नीति 2018 के मसौदे में भी दिखाई देता है।

वर्ष 2015 में वन, पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने बिगड़े वन क्षेत्रों को निजी कंपनियों को देने की बात की थी।

क्या है वनों को निजी हाथों में देने के खतरे?

ऐसे में अगर निजीकरण के बताए गए उद्देश्यों को देखें और वेबिनार में शामिल हुए नामों की सूची देखें तो भी स्पष्ट है कि देश के बड़े कॉर्पोरेट भी इन ‘बिगड़े’ जंगलों में गहरी रुचि रखते है। इनको इतनी रुचि क्यों हैं और ये ‘बिगड़े वनों’ को कितना बना पाएंगे, यह कौतूहल का विषय है।

सवाल ढेरों हैं। जैसे क्या ये कॉर्पोरेट जंगल को पुनः सही करते हुए जैव-विविधता का भी ख्याल रख पाएंगे! क्योंकि जंगल होने की अनिवार्य शर्त उस क्षेत्र में जैव-विविधता है, सिर्फ हरियाली नहीं। जैसे सिर्फ बांस की खेती करने मात्र से ‘बिगड़े क्षेत्र’ में हरियाली लाई जा सकती है पर इसे सम्पूर्ण वन की श्रेणी में लाने के लिए यह काफी नहीं है।

मध्यप्रदेश सरकार 37,420 वर्ग किलोमीटर को इस निजीकरण के दायरे में लाने का विचार कर रही है। फोटो- मनीष चंद्र मिश्र/मोंगाबे हिन्दी

मध्यप्रदेश सरकार 37,420 वर्ग किलोमीटर को इस निजीकरण के दायरे में लाने का विचार कर रही है। फोटो- मनीष चंद्र मिश्र/मोंगाबे हिन्दी

दूसरा सवाल है कैम्पा फंड को लेकर। वनों की क्षतिपूर्ति के लिए  बने कैम्पा कानून के तहत उपलब्ध फंडस जिसे कैफ (कम्पेन्सेटरी अफॉरेस्टेशन फंड) कहा जाता है उसमें कॉरपोरेट की कितनी हिस्सेदारी होगी? यह फंड काफी बड़ा है। सिर्फ 2019-20 में भारत सरकार ने इस फंड के लिए राज्यों को 47, 436 करोड़ रुपये दिए। तीस साल में इस फंड में आने वाली कुल रकम का अनुमान लगाया जा सकता है। ‘बिगड़े वनों’ को पुनः सही करने के नाम पर करों में छूट और अन्य प्रकार के प्रोत्साहन पैकेज तो अलग से हैं ही। निजी क्षेत्र इन वनों में किस तरह का मुनाफा खोज रहा है?

वन अधिकार मान्यता कानून को ध्यान में रखकर एक अच्छी व्यवस्था यह हो सकती थी कि ग्राम सभा की वन प्रबंधन समिति के माध्यम से इस फण्ड्स को इस्तेमाल किया जाए लेकिन उसकी बुनियादी शर्त यह होगी कि वन संसाधन पहले ग्राम सभा के नियंत्रण में हों।

कुल मिलाकर देखना यह होगा कि मध्य प्रदेश सरकार का वनों को निजी हाथों में देने की यह कोशिश क्या रूप लेती है। क्या राज्य के लोग सरकार के इस दावे को मानते हैं कि वनों का संरक्षण निजी हाथों में देने पर ही संभव है या वहां भी लोग इसके विरोध में सड़कों पर उतरते हैं!

(लेखक भारत सरकार के आदिवासी मंत्रालय के मामलों द्वारा गठित हैबिटेट राइट्स व सामुदायिक अधिकारों से संबंधित समितियों में नामित विषय विशेषज्ञ के तौर पर सदस्य हैं)

 

बैनर तस्वीर- पन्ना टाइगर रिजर्व के इलाके में जंगल से मवेशी चराकर आते आदिवासी। मध्यप्रदेश के जंगल आदिवासियों की जीवनरेखा है। फोटो- मनीष चंद्र मिश्र/मोंगाबे हिन्दी

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