हर साल ठंढ के मौसम में भारत की नदियां, तालाब-झील, उद्यान- इन रंग-बिरंगे पक्षियों की चहचाहट से गुलजार हो जाते हैं। फोटो- उदय किरण/विकिमीडिया कॉमन्स

पलायन की कहानी और गुलजार होता देश

हर साल ठंढ के मौसम में भारत की नदियां, तालाब-झील, उद्यान- इन रंग-बिरंगे पक्षियों की चहचाहट से गुलजार हो जाते हैं। इन प्रवासी पक्षियों की वजह से हमारे आस-पास की दुनिया की रौनक बढ़ने लगती है। वाराणसी और इलाहाबाद जैसे शहरों से गंगा में अठखेलियां करते इन पक्षियों को देखने अच्छी खासी तादाद में लोग आते हैं। श्रीनगर का डल झील हो या उड़ीसा का चिल्का झील, भोपाल की बड़ी झील- देश के हर कोने में लोग इन पक्षियों की खूबसूरती का लुत्फ ले रहे होते हैं।  देश में बर्ड-वाचर की एक पूरी जमात है जो इस मौसम का इंतजार करती है। भोपाल के रहने वाले मोहम्मद खालिक कहते हैं कि वे तो देश के कई हिस्सों में इन पक्षियों को देखने के लिए जाते हैं।  

पर हमारी आंखों  को आनंद देने वाले इस दृश्य का दूसरा पहलू भी है। ये पक्षी भी भूख की वजह से पलायन कर रहे होते हैं। और पलायन का दंश तो सब जानते हैं। 

इनके पलायन को भी जीवन के सामान्य सूत्र से समझा जा सकता है। जहां इनके जीने के लिए जरूरी संसाधन कम होते जाते हैं तो ये दूसरे क्षेत्र में उन संसाधनों की खोज में निकलते हैं। इनके लिए जरूरी संसाधनों में भी पेट पालने के लिए भोजन और ठहरने की व्यवस्था शामिल है। इतने भर के लिए ये पक्षी लाखों-करोड़ों की संख्या में हजारों किलोमीटर की यात्रा करते हैं। बढ़ते ठंढ की वजह से जब उत्तरी गोलार्ध में भोजन की कमी होने लगती है तो ये पक्षी दूसरे क्षेत्र में निकलते हैं जहां अभी कीड़े-मकोडे और अंकुरित होते नए पौधे भरपूर मात्रा में उपलब्ध होते हैं।

अपनी यात्रा के लिए ये पक्षी रास्ते, मनमाने तरीके से नहीं चुनते। बल्कि इसका भी एक पैटर्न होता है। पहले से आजमाए रास्ते होते हैं और इन रास्तों पर ठहरने के लिए उपयुक्त जगह और खाने के लिए भोजन उपलब्ध होता है। इन रास्तों के बेहतर समझ के लिए इन्हें नौ फ्लाइवे में बांटा गया है। जैसे इंसानों के चलने के लिए हाइवे, वैसे ही इनके लिए फ्लाइवे।

हालांकि यह उन सारे रास्तों को समझने का एक सरलीकृत तरीका भर है जहां से दुनिया के करीब 2,274 नस्ल के पक्षी उड़कर एक जगह से दूसरी जगह जाते हैं।

मोंगाबे-हिन्दी से बात करते हुए वेटलैंड इंटरनेशनल के दक्षिण एशिया के प्रमुख रितेश कुमार कहते हैं कि सेंट्रल एशियन फ्लाइवे (सीएएफ) इन्हीं नौ वैश्विक फ्लाइवे में से एक है जो साइबेरिया के ब्रीडिंग ग्राउन्ड से लेकर पश्चिम और दक्षिण एशिया के आखिरी छोर को जोड़ता है। इस फ्लाइवे पर 182 नस्ल के पक्षी यात्रा करते हैं। इस फ्लाइवे पर उड़ने वाले कुल पक्षियों में से करीब 71 प्रतिशत भारत में आराम फरमाते हैं।

देश में प्रत्येक साल सितंबर और अक्टूबर में बड़ी संख्या में पक्षी देखे जाते हैं। इससे पता चलता है कि पलायन की शुरुआत हो चुकी है। यह सालाना होने वाला पलायन है जब उत्तरी गोलार्ध से पक्षी भारतीय उपमहाद्वीप की तरफ आते हैं। इसमें श्रीलंका भी शामिल है। सेंट्रल एशियन फ्लाइवे करीब 30 देशों को जोड़ता है। भारत भी इनमें एक है। भारत अपनी जैव-विविधता के लिए जाना जाता है और यहां इन पक्षियों के लिए भरपूर भोजन मौजूद होता है, एस सिवकुमार कहते हैं जो बॉम्बे नैच्रल हिस्ट्री सोसाइटी के साथ जुड़े वैज्ञानिक हैं। इनके अनुसार एक ‘लिटल स्टिन्ट’ नाम का पक्षी है जो महज 20 ग्राम का होता है। यह नन्हा सा पक्षी साइबेरिया में प्रजनन करता है और करीब 8,000 किलोमीटर से अधिक की यात्रा कर भारत आता है।

महाराष्ट्र के खेतों में उड़ते सारस क्रेन। भोजन की तलाश में ये पक्षी हजारों किलोमीटर की यात्रा करते हैं। इनके रास्ते को फ्लाइवे कहते हैं। दुनिया में अभी कुल नौ फ्लाइवे मौजूद हैं। फोटो- पी जगन्नाथन/विकिमीडिया कॉमन्स

प्रवासी पक्षी के पलायन का दंश

प्रवास का बहुत कुछ मेजबानों की भूमिका से तय होता है।  नवम्बर के पहले सप्ताह में ओडिशा की पुलिस ने दो लोगों को गिरफ्तार किया। ये दोनों इन प्रवासी पक्षियों के शिकार में लिप्त थे। पुलिस ने इन लोगों के पास से 12 मृत पक्षियों का शरीर जब्त किया। यह कोई अकेली घटना नहीं है।

मोंगाबे-इंडिया ने पिछले साल रिपोर्ट किया था कि कश्मीर के सिर्फ होकरसर झील में हर साल करीब 20,000 से भी अधिक पक्षियों की हत्या कर दी जाती है। इन पक्षियों को बाजार में 700 रुपये से 1000 रुपये में बेचा जाता है। देश के हर हिस्से से ऐसी खबरें आती रहती हैं।

यह तो बस एक त्रासदी है। इसके अतिरिक्त वेट्लैन्ड या कहें जल जमाव के क्षेत्र की बिगड़ती स्थिति भी भारत में इन मेहमानों के जीवन में चुनौती पैदा कर रही है। पिछले साल ही खबर आई कि राजस्थान के सांभर झील में हजारों पक्षी अचानक से मरने लगे।

एक समय भारत में साइबेरिया के क्रेन खूब देखने को मिलते थे। भरतपुर का केवलादेव राष्ट्रीय उद्यान जो पहले भरतपुर बर्ड सेंचुरी के नाम से जाना जाता था वहां यह खूबसूरत पक्षी आखिरी बार 2002 में देखा गया था। माना जाता है कि अफगानिस्तान में इस पक्षी का अंधाधुंध शिकार किया गया और अब पूरे विश्व में महज 3,200 साइबेरियन क्रेन बचे हैं। 

फरवरी में आए स्टेट ऑफ इंडिया बर्ड्स की रपट बताती है कि पलायन कर भारत आने वाले पक्षियों की संख्या में भारी गिरावट दर्ज की जा रही है। यह देश में ही बसर करने वाले स्थानीय पक्षियों की संख्या में होने वाली गिरावट से काफी अधिक है।

मोंगाबे-हिन्दी से बात करते हुए मोहम्मद खालिक ने अपने अनुभव साझा किये। इनके अनुसार कई तरह के पक्षी जो भोज वेट्लैन्ड में 2006- 07 में हजारों की संख्या में आते थे अब उनकी संख्या घटकर महज कुछ सौ रह गई है। इसके पीछे तीन मुख्य कारण है। कृषि क्षेत्र का विस्तार, बिजली के तार और पक्षियों का शिकार। हाल के दिनों में कृषि क्षेत्र का काफी विस्तार हुआ है। अब लोग झील और तालाबों के अंदर तक खेती करने लगे हैं। बिजली के तारों का भी काफी विस्तार हुआ है। 

भोपाल स्थिति भोज वेटलैंड को रामसर साइट का दर्जा मिला हुआ है। बड़ी झील, छोटी झील और सीहोर तक फैले इस क्षेत्र में मोहम्मद खालिक सारस क्रेन के संरक्षण का काम कर रहे हैं। इनका मानना है कि अगर स्थानीय लोगों को जागरूक किया जाए तो स्थिति काफी बेहतर हो सकती है।

बैनर तस्वीर- प्रवासी पक्षी कॉमन क्रेन अपनी लंबी उड़ान भरता हुआ। प्रवास के लिए पक्षी हजारो किलोमीटर की उड़ान भरते हैं। फोटो– उदया किरण/विकिमीडिया कॉमन्स

Article published by Manish Chandra Mishra
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