गाजर घास यानी पार्थेनियम हिस्टेरोफोरस ने जंगलों पर कब्जा जमाना शुरू किया है।यह घास जानवरों के खाने लायक नहीं होता, और इससे तमाम तरह की बीमारियां फैलती है।मध्यप्रदेश के संरक्षित जंगलों में गाजर घास बढ़ता ही जा रहा है। पन्ना टाइगर रिजर्व का एक बड़ा हिस्सा इसकी चपेट में है।घास को समाप्त करने के लिए वैज्ञानिकों ने एक कीड़ा विकसित किया है, लेकिन शोध के अभाव में इसका प्रयोग बड़े स्तर पर नहीं हो रहा है। पन्ना टाइगर रिजर्व के घने जंगलों के बीच एक उजड़ चुका गांव हैं उमरावन। विशाल पेड़ों और झाड़ियों के झुरमुट से गुजरता एक पथरीला रास्ता इस गांव को जाता है। उमरावन के शुरू होते ही गाजर घास का एक विशाल हरा-भरा समंदर दिखता है। विडंबना देखिए कि इस हरियाली के बीच रहते हुए भी जनका देवी को मवेशियों के चारे के लिए बहुत संघर्ष करना पड़ता है। उमरावन की रहने वाली जनका देवी के एक दर्जन बकरियों और आधे दर्जन दूसरे मवेशियों के लिए आसानी से भोजन उपलब्ध नहीं होता। “इस घास के जंगल ने हमारे मवेशियों का खाना छीन लिया। इसे न खा सकते हैं, न ही इसके आसपास मवेशियों को जाने दे सकते। घास से मवेशियों के चमड़े से जुड़ी बीमारियां हो जाती हैं। अब तीन-चार किलोमीटर दूर से मवेशियों का खाना लाना पड़ता है,” जनका ने मोंगाबे हिन्दी से बातचीत में कहा। इस स्थान पर पहले उमरावन नाम का एक गांव हुआ करता था, लेकिन बाघ संरक्षण के लिए गांव को विस्थापित कर दिया गया। अब यहां सिर्फ दस परिवार रहता है, जिनका विस्थापन नहीं हुआ है। जनका बाई कहती हैं कि कुछ साल पहले तक यहां हरियाली थी, गाजर घास का नामोनिशान नहीं था। पहले जंगल वाले चाहते थे कि हम गांव छोड़कर चले जाएं, अब इस घास ने जीना मुश्किल कर दिया है, जनका कहती हैं। जनका जिस घास का जिक्र कर रही हैं उसे गाजर घास कहते हैं। इनके दूसरे नाम हैं चटक चांदनी या कांग्रेस घास। आज से करीब सत्तर साल पहले तक भारत में इन शब्दों का वजूद नहीं था, न ही ऐसी कोई घास यहां होती थी। करीब सत्तर साल पहले ये नाम वजूद में आए और तब से भारत में तबाही मचा रहे हैं। इसे अंग्रेजी में पार्थेनियम हिस्टेरोफोरस कहते हैं। नेशनल सेंटर फॉर बायोटेक्नोलॉजी के शोध के मुताबिक ऐसा माना जाता है कि इस पौधे के बीज वर्ष 1950 में अमेरिकी संकर गेहूं पी.एल. 480 के साथ भारत आए। इस सबसे पहले पूना में देखा गया, लेकिन अब देश का ऐसा कोई भी कोना नहीं जहां गाजर घास न दिखता हो। उत्तर प्रदेश, बिहार, पंजाब, हरियाणा, मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र जैसे महत्त्वपूर्ण कृषि उत्पादक राज्यों में गाजर घास ने किसानों को परेशान कर रखा है। अब राजस्थान, केरल, गुजरात यहां तक कि जम्मू और कश्मीर भी इससे अछूता नहीं रहा। कहने को यह एक हरा भरा पौधा है, लेकिन वनस्पति खाने वाले जानवर इससे दूर ही रहते हैं। यह खाने लायक तो दूर, अगर पास से गुजर गए तो कई तरह की एलर्जी हो जाती है। जिस खेत में उगते हैं वहां जमीन से फसलों का पोषण चुरा लेते हैं। बढ़ने की रफ्तार इतनी है कि कुछ ही दिनों में हजारों एकड़ के क्षेत्र में यह फैल जाती है। खेतों में तबाही मचाने के बाद गाजर घास जंगलों की तरफ रुख कर चुकी है। कई इलाकों में गाजर घास से किसानों के खेत पटे पड़े हैं। इन्हें हाथ से उखाड़कर नष्ट करना पड़ता है। कई किसान सिर्फ इस काम के लिए कई दिन तक खेतोॆ में अपना समय व्यर्थ करते हैं। फसल के साथ गाजर घास उगने पर पैदावार कम हो जाती है। फोटो- मनीष चंद्र मिश्र/मोंगाबे हिन्दी टाइगर रिजर्व में गाजर घास का जंगल टाइगर रिजर्व के फील्ड डायरेक्टर उमेश शर्मा ने मोंगाबे हिन्दी को बताया कि इस पौधों की वजह से जंगल में दूसरी वनस्पति नहीं पनप पाती, जिससे शाकाहारी जीव-जन्तुओं के खाने का संकट पैदा हो सकता है। “टाइगर रिजर्व में गाजर घास फैला हुआ है जो कि हमारे लिए बड़ी चुनौती है। जड़ से उखाड़ना ही इसके नियंत्रण का एक उपाय है जो कि पन्ना टाइगर रिजर्व के कर्मी समय-समय पर करते हैं,” शर्मा कहते हैं। वह बताते हैं कि इस वनस्पति का कोई भी उपयोग नहीं और अगर नियंत्रण नहीं किया गया तो पौधों की कई दूसरी प्रजाति खत्म होने लगेंगी। “लेंटाना की झाड़ी भी गाजर घास की तरह ही फैलती है, लेकिन इसका एक सीमित उपयोग है। घनी झाड़ियों के तले गर्मियों में जानवर आराम करते हैं, उनकी बेरी को पक्षी खाते भी हैं। लेंटाना के कोमल पत्तों को कुछ जानवर भी खाते हैं। लेकिन, गाजर खास किसी काम का नहीं,” शर्मा ने बताया। गाजर घास के फैलने का खतरा बांधवगढ़ के जंगल को भी है। यहां के फील्ड डायरेक्टर विंसेंट रहीम ने मोंगाबे हिन्दी को बताया कि रिजर्व प्रशासन को इस खतरे का अंदेशा है। “हम लगातार गाजर घास के फैलाव पर नजर रखते हैं। जंगल के बाहर उमरिया के खेतों में यह काफी देखा जाता है, लेकिन जंगल में इसे देखने पर उखाड़कर नष्ट कर दिया जाता है,” रहीम ने बताया। गाजर घास कई बीमारियों का स्रोत, जद में आ रहा पूरा भारत एनिमल एंड प्लांट साइसेज में प्रकाशित एक रिपोर्ट ने गाजर घास के बारे में विस्तार से बताया है। रिपोर्ट के मुताबिक इस पौधे की वजह से इंसान और जानवरों में चर्म रोग, ब्रोंकाइटिस (स्वास नली संबंधी रोग) और अस्थमा की शिकायत होती है। फसल का नुकसान तो होता ही है। गाजर घास से आने वाले समय में होने वाली तबाही पर यूनिवर्सिटी ऑफ कश्मीर के शोधकर्ताओं ने एक शोध किया है। शोध का मकसद जलवायु के मुताबिक इस पौधे का भारत के नए हिस्सों में पहुंचने का खतरा भांपना था। शोध से कि चला कि देश के 65 फीसदी हिस्से में गाजर घास फैला है। शोध के मुताबिक 1,998,402 वर्ग किलोमीटर में इसका साम्राज्य है, और आने वाले समय में दक्षिण के राज्य, पूर्वोत्तर और हिमालय वाले राज्यों में यह तेजी से फैलेगा। यूनाइटेड नेशन्स की फूड एंड एग्रीकल्चर ऑर्गेनाइजेशन (एफएओ) के मुताबिक विश्व के 30 से अधिक देशों में गाजर घास अपनी जड़ें जमा चुका है। इसके बीज हवा के माध्यम से दूर-दूर तक फैलते हैं और 8 डिग्री से 30 डिग्री सेल्सियस तापमान पर इसका अंकुरन हो सकता है। इसी वजह से देश के ज्यादातर हिस्से की आबोहवा गाजर घास के लिए मुफीद है।