- पूर्वी लद्दाख में हिम तेंदुए और भेड़ियों की तरफ वहां के लोगों के व्यवहार को लेकर वैज्ञानिक अध्ययन कर रहे हैं।
- लोगों ने अध्ययनकर्ताओं से बातचीत में बताया कि वे भेड़ियों और तेंदुओं को घर के आसपास देखकर क्या रुख अपनाते हैं।
- भेड़ियों के प्रति लोगों में सकारात्मक व्यवहार पनप रहा है। इस अध्ययन के अनुसार हिम तेंदुआ के मामले में व्यक्ति का व्यवहार जानवर के साथ उसके पुराने अनुभव पर निर्भर करता है।
- वैज्ञानिक मानते हैं कि इस अध्ययन में सामने आए निष्कर्ष न सिर्फ लद्दाख के लिए बल्कि पूरे देश में इंसान और जानवरों के बीच हो रहे संघर्ष को कम करने में मददगार साबित हो सकते हैं।
कल्पना कीजिए आपके घर के आसपास कोई मांसाहारी जीव नजर आ जाए। ऐसे जीव को देखकर आपकी क्या प्रतिक्रिया होगी! आपको गुस्सा आ सकता है, आप डर सकते हैं या हो सकता है कि उसे देखकर आपको खुशी ही मिले। अगर गुस्सा आए तो एक संभावित वजह यह हो सकती है कि उस जानवर ने कभी आपको या आपके किसी पालतू जानवर को नुकसान पहुंचाया हो।
किसी जीव के प्रति आपका व्यवहार कई तथ्यों पर निर्भर करता है। इसमें उस खास प्रजाति के जानवर के साथ आपके पुराने खट्टे-मीठे अनुभव का बड़ा अहम योगदान होता है। इसको आधार बनाकर उन गांव वालों की मनःस्थिति को समझा जा सकता है जो जंगल के करीब रहते हैं।
इसको समझने के लिए हिमालय के क्षेत्र में बसे जंगली जीवों और आस-पास के ग्रामीणों के व्यवहार पर आधारित एक अध्ययन किया गया। इसके तहत ग्रामीणों और वन्य जीव (हिम तेंदुआ और भेड़िया) के बीच टकराव की वजह को समझा गया।
भारत के समूचे हिमालय क्षेत्र में न सिर्फ शाकाहारी जानवर रहते हैं बल्कि तेंदुए और भेड़िये जैसे मांसाहारी जीव भी रहते हैं। इसके साथ यहां इंसानों की एक बड़ी आबादी बसती है जो कि यहां खेती और पशु पालन कर अपना गुजर-बसर करती है।
ऐसे स्थानों पर मनुष्य और जंगली जीवों के बीच टकराव सामान्य बात है। इसकी बड़ी वजह है, जंगल के शाकाहारी जीवों को लोगों की फसल का नुकसान करना और मांसाहारी जीवों के लिए आसान शिकार के तौर पर पालतू जानवरों को निशाना बनाना। ऐसे में इंसान जंगली जीवों से होने वाले क्षति का बदला उनको मारकर लेना चाहते हैं।
ऐसे टकराव को दूर करने के लिए सरकारी संस्थाएं और नेचर कंजर्वेशन फाउंडेशन (एनसीएफ) जैसी संस्थाएं जंगली जानवरों से होने वाले नुकसान की भारपाई करती है ताकि इन इलाकों में शिकार खत्म किया जा सके।
हिमालय पर इंसान-जानवर के बीच टकराव
इंसान और जानवरों के बीच भले ही टकराव की स्थितियां बनती रही हों, पर लोगों में वन्य जीवों के प्रति एक सकारात्मक झुकाव भी देखने को मिलता है। लद्दाख के हेमिस नेशनल पार्क में इसपर एक अध्ययन हुआ और पाया गया कि अधिकतर इंसान जानवरों के शिकार को गलत मानते हैं। ये लोग उनके संरक्षण संबंधी गतिविधियों में शामिल होना चाहते हैं। इस अध्ययन में लोगों से तेंदुए को लेकर उनके विचार पूछे गए।
इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी, बॉम्बे की फेलो सलोनी भाटिया ने पाया कि सामान्यतः वैज्ञानिक लेखन में इंसान और वन्यजीव के आपसी संबंधों को टकराव के रूप में ही देखा गया है। उन्होंने यह अध्ययन अपने एक पूर्व सहकर्मी के साथ नेशनल कंजर्वेशन फाउंडेशन (एनसीएफ) और यूनिवर्सिटी ऑफ एबरडीन में पिछले वर्ष किया था।
यह अध्ययन 250 अध्ययनों पर आधारित है, जिसमें 55 तरह के कारक शामिल किए गए हैं। ये वो कारक हैं जिससे लोगों का वन्य जीव से रिश्ता प्रभावित होता है। इनमें समाजिक-सांस्कृतिक, आर्थिक, मनोस्थिति और पारिस्थितिकी जैसे कारक शामिल हैं।
इन सभी कारकों को पांच मुख्य वर्ग में बांटा गया है। लोगों के मानस में जीव का मूल्य, सामाजिक स्तर पर जीवों के बारे में बातचीत, पालतू पशुओं पर लोगों की निर्भरता (जिन्हे वन्य जीव के द्वारा शिकार का खतरा रहता है), जंगली जीवों से खतरे की धारणा और जानवरों के प्रति भावना (गुस्सा या डर)।
जैसे इंसानी दुनिया के मूल्य निर्धारण में धर्म की महती भूमिका होती है। उसी तरह लोग, अगर वन्यजीवों के संरक्षण से संबंधित कानूनों के बारे में जानते हैं तो भी इसका फायदा होता है। ऐसे लोग उन संस्थाओं से वार्तालाप आसानी से कर सकते हैं जो इन जानवरों के संरक्षण के लिए काम करती हैं।
अब सवाल उठता है कि क्या ये सभी कारक जमीनी स्तर पर क्या मायने रखते हैं या कैसे एक दूसरे से जुड़े हुए हैं? इस सवाल का जवाब खोजने के लिए भाटिया और उनके साथी लद्दाख के रॉन्ग वैली स्थित गांवों के लोगों से मिले। वहां उन्होंने 172 लोगों से अलग-अलग बिंदुओं पर बातचीत की, जो कि संरक्षण के लिए महत्वपूर्ण हैं।
अध्ययन टीम ने पाया कि लोगों के मन में हिम तेंदुए को लेकर जो धारणा है वह बिल्ली प्रजाति के दूसरे जानवरों के आधार पर बनी है। अगर किसी व्यक्ति का ऐसे जानवरों से कभी पाला नहीं पड़ा है तो वह जंगल से जानवर के आसपास से गुजरते हुए भी बहुत नकारात्मक नहीं होगा।
हिम तेंदुए के प्रति सामाजिक स्तर पर कोई नकारात्मक भाव नहीं देखा जाता है।
इसी तरह भेड़िया के प्रति लोगों की अलग धारणा है। वे भेड़ियों को अपने लिए खतरा मानते हैं। ऐसे ही लोगों के बीच अगर वन्य जीव संरक्षण के क्षेत्र में काम करने वाली एजेंसियों के साथ संवाद होता है तो उनकी यह धारणा बदलती भी है।
“हमने यह पाया है कि अगर संरक्षण में लगी एजेंसी और सरकारी संस्थाओं से लोगो के संवाद होता है तो उसका फायदा मिलता है। लोगों में भेड़ियों के प्रति सकारात्मकता आती है,” भाटिया कहती हैं।
इस अध्ययन के परिणाम जर्नल ऑफ एनिमल कंजर्वेशन में प्रकाशिक हुए हैं।
टकराव को पूरी तरह से समझने में कारगर अध्ययन
भाटिया लिखती हैं कि लोगों के बीच जानवरों के लिए नकारात्मकता आर्थिक नुकसान की वजह से आता है, इसलिए अध्ययन में इसपर अधिक जोर दिया गया है।
इमेल के जरिए मोंगाबे इंडिया को बताते हुए वह कहती हैं,”डर, नफरत, घबड़ाहट और दूसरे सकारात्मक और नकारात्मक भावनाओं को समझना जरा मुश्किल है लेकिन इंसान और जानवरों के बीच के रिश्ते को समझने के लिए इन्हें समझना जरूरी है। संरक्षण की कोशिशों को समाजिक और सांस्कृतिक ताने-बाने के साथ जोड़कर देखना होगा। कई अध्ययनों में इस बात की चर्चा की गई है लेकिन संरक्षण को और कारगर बनाने के लिए इसे समग्रता के साथ समझना होगा।”
यूनिवर्सिटी ऑफ फ्लोरिडा, अमेरिका के वैज्ञानिक अर्जुन श्रीवथसा का कहना है कि यह अध्ययन भारत में संरक्षण को लेकर मौजूद जानकारियों में इजाफा करने वाला है और वन्यजीव और इंसान के बीच के संबंधों के लिए काफी महत्वपूर्ण है। हालांकि, इस अध्ययन में हिमालय के हिम तेंदुए और भेड़िये ही शामिल थे पर इस आधार पर देश के विभिन्न क्षेत्र और अन्य जानवरों के प्रति उनके व्यवहार को समझने में मदद मिलेगी।
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“इस अध्ययन में यह रेखांकित करना बिल्कुल सही है कि संरक्षण की कोशिशों को जल्दी परिणाम देने वाला बनाया जाता है। इसमें सामाजिक-सांस्कृतिक, राजनीति और आर्थिक पक्षों को महज सरसरी निगाह से ही समझने की कोशिश होती है। इसका नतीजा यह होता है कि समग्रता में समझ नहीं बन पाती। हो सकता है कि नीति निर्माण में भी ऐसे अध्ययन का दखल हो, और इसी वजह से अपेक्षित परिणाम नहीं मिल पा रहे हैं। एक वन्यजीव जीवविज्ञानी के तौर पर मैंने महसूस किया है कि इस काम को करने के लिए तमाम विषयों को शामिल किया जाना चाहिए। इसके परिणाम सामाजिक और पारिस्थितिक खांचे में अधिक फिट बैठेंगे। यह अध्ययन उस दिशा में एक कदम है,” वह कहते हैं।
शोधकर्ताओं ने नेपाल के हिमालय वाले हिस्से में भी लोगों के व्यवहार पर ऐसा शोध किया है। स्नो लेपर्ड कंजर्वेंसी से संबंध रखने वाले शोधकर्ता जोनाथन हैंसन नेपाल के इस अध्ययन में हालांकि, तेवर और प्रश्न अलग थे पर भाटिया के अध्ययन के साथ कुछ बातें मिलती-जुलती हैं, हैंसन कहते हैं।
बैनर तस्वीर- लद्दाख का गड़ेरिया। हिमालय में भेड़ जैसे शाकाहारी जीव पालने वाले लोगों के साथ ही कई दूसरे मांसाहारी जीव भी रहते हैं। ऐसे में उनका मांसाहारी जीवों के साथ संबंध काफी नाजुक होता है। फोटो – कोशी कोशी/फ्लिकर