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गुजरात में पाए जाते हैं तैरने वाले ऊंट, मंडराने लगा है इनके अस्तित्व पर खतरा

खराई ऊंट
  • ऊंटों की सामान्य पहचान रेत, रेगिस्तान वगैरह से जोड़कर बनी है। पर गुजरात के कच्छ में खराई ऊंट की प्रजाति पाई जाती है जो तैरने में माहिर होती हैं। यह ऊंट की अकेली प्रजाति है जिन्हें तैरना आता है।
  • ये ऊंट मैंग्रोव और दूसरी समूद्री खर-पतवार खाकर जीवित रहते हैं। मैंग्रोव से तात्पर्य उन पेड़-पौधों से हैं जो तटीय क्षेत्र में पाए जाते हैं और खारे पानी में भी जीवित रहते हैं।
  • मानसून में ये ऊंट समूहों में तैरकर मैंग्रोव वाले टापुओं पर चले जाते हैं और पूरी बारिश वहीं रहते हैं।
  • बढ़ते उद्योगों की वजह से मैंग्रोव खत्म हो रहे हैं जिससे इन ऊंटों को खाने की समस्या आने लगी है। पूरे गुजरात में मात्र 4500 खराई ऊंट बचे हैं।

ऊंट को रेगिस्तान का जहाज कहा जाता है। ऐसा इसीलिए क्योंकि ऊंचे गर्दन वाला यह जीव रेत के बीच भी तेजी से भागता है। गर्म दिनों में कई दिनों तक बिना पानी के रह सकता है। हालांकि, कम ही लोग होंगे जो यह जानते होंगे कि ऊंटों की एक ऐसी प्रजाति भी है जो रेत के साथ-साथ उफनते समंदर में भी इतनी आसानी से यात्रा कर सकती है। खराई  प्रजाति के ये ऊंट गुजरात में पाए जाते हैं। खराई यानी खारे पानी का ऊंट।

तैरने वाले इन ऊंटों को गुजरात के कच्छ क्षेत्र में आसानी से देखा जा सकता है। इनका खाना समुद्र के आसपास उगने वाले खर-पतवार और मैंग्रोव हैं। मैंग्रोव से तात्पर्य उन पेड़-पौधों से हैं जो तटीय क्षेत्र में पाए जाते हैं और खारे पानी में भी जीवित रहते हैं।

अब बदलते वक्त में तथाकथित ‘विकास’ की मार अब इनके जीवन को भी प्रभावित करने लगी है। अब मैंग्रोव के जंगल खत्म हो रहे हैं और आए दिन भूख की वजह से ऊंटों की मृत्यु हो रही है। इस खास प्रजाति के ऊंटों की संख्या तेजी से कम हो रही है। इस तरह पानी में तैर सकने वाले अनोखे खराई ऊंट विलुप्त होने की कगार पर पहुंच गए हैं।

ऊंट की उत्पत्ति के पीछे एक अनोखो मिथक भी जुड़ा हुआ है। कच्छ की किदवंतियों में कहते हैं कि 400 वर्ष पहले रैबारी परिवार के दो भाई एक ऊंट के मालिकाना हक को लेकर झगड़ पड़े। मामले को सुलझाने के लिए वे सांवला पीर के दर पर गए। पीर ने मोम का एक विशाल ऊंट बनाया जो कि असली ऊंट जैसा दिख रहा था। पीर ने दोनों भाइयों को अपना-अपना ऊंट चुनने को कहा। बड़ा भाई ने असली ऊंट पहचान लिया और छोटे के हिस्से में मोम का नकली ऊंट आया।

सांवला पीर ने छोटे भाई को मोम के ऊंट को समुद्र में विसर्जित करने की सलाह दी। ऐसा करने के बाद हजारों ऊंट समुद्र में से निकलकर छोटे भाई के पीछे हो चले। ये सब खराई ऊंट थे।

रैबारी और जाट, दो समुदाय के लोग इस ऊंट को परंपरागत रूप से पालते आ रहे हैं। कुछ लोगों का मानना है कि राजाओं ने इन दोनों समुदाय को ऊंट पालने की जिम्मेदारी दी थी।

मरुस्थल के जहाज के तौर पर पहचाने जाने वाले ऊंटों की एक प्रजाति ऐसी भी है जो पानी में तैर सकती सकती है। खराई ऊंटों का एक जत्था। तस्वीर- सहजीवन
मरुस्थल के जहाज के तौर पर पहचाने जाने वाले ऊंटों की एक प्रजाति ऐसी भी है जो पानी में तैर सकती सकती है। खराई ऊंटों का एक जत्था। तस्वीर- सहजीवन

इस ऊंट से जुड़ा इतिहास कुछ धुंधला सा हो सकता है लेकिन इतना जरूर है कि इस प्रजाति के ऊंटों को काफी सम्मान से देखा जाता है। कुछ वर्ष पहले तक इन्हें इतना पवित्र माना जाता था कि इससे निकला दूध और ऊन का क्रय-विक्रय नहीं होता था।

नर ऊंटों का उपयोग छोटी गाड़ी खींचने के लिए किया जाता है, जिससे व्यापारी अपना सामान अंदरुनी गांवों में ले जाते हैं। महज ढुलाई के लिए ऊंट का उपयोग होने की वजह से पालकों की आर्थिक स्थिति कुछ ठीक नहीं है।

इस ऊंट के अस्तित्व पर सबसे बड़ा संकट मैंग्रोव के टापुओं से इनका छिनता अधिकार है। मैंग्रोव पर भी विकास का संकट मंडरा रहा है और इन ऊंटों के लिए उपलब्ध भोजन में कमी आ रही है।

टापू पर मानसून बिताने जाते हैं ऊंट

बारिश के मौसम में मैंग्रोव के टापू तट से दूर हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में हर वर्ष इस मौसम में ऊंट, तैरकर टापू पर जाते हैं और वहीं रहते हैं। इन ऊंटों के साथ इनके पालक भी वही रहते हैं और ऊंटनी के दूध पीकर अपना पेट भरते हैं।

मैंग्रोव के जंगल पर ऊंट साल में आठ महीने निर्भर रहते हैं। खाने को समुद्र के किनारे हरे पत्ते और पीने को बारिश का जमा हुआ पानी मिल जाता है। गर्मियों में ये ऊंट अपने पालक के साथ गावों की तरफ लौटते हैं जहां उनके खाने-पीने की व्यवस्था की जाती है।

बढ़ते औद्योगिकीकरण से खत्म हो रहे मैंग्रोव

वर्ष 2001 में भुज में आए भुकंप के बाद कच्छ क्षेत्र पर भी इसका काफी असर हुआ। इसके बाद शहर को दोबारा से विकास की रफ्तार देने के लिए समुद्र के किनारे निर्माण कार्य तेजी से हुए। यहां नमक और सीमेंट की ढेरों फ्रैक्ट्रियां लगाईं गईं। गैर सरकारी संस्था सहजीवन से जुड़े महेंद्र भनानी कहते हैं कि फैक्ट्रियों की वजह से ज्वार का पानी मैंग्रोव तक नहीं पहुंच पाता है जिससे वहां सूखा पड़ने लगता है। ऐसा नमक की फैक्ट्रियों के लिए बने मेढ़ों की वजह से होता है। पानी न मिलने पर पेड़ सूख जाते हैं जिसके बाद मशीनों से उसे उखाड़ दिया जाता है। नमक की फैक्ट्रियों की वजह से ऊंट मैंग्रोव की टापुओं तक नहीं पहुंच पाते हैं। सहजीवन संस्था पिछले कई वर्षों से खराई ऊंटों के संरक्षण का काम कर रही है।

“कच्छ के अब्दसा, भचाऊ, लखपत, और मुन्द्रा जैसे स्थानों पर खराई ऊंट पाए जाते हैं। इन्हीं इलाकों में तेजी से उद्योगों का विकास भी हुआ है। इस वजह से टापुओं तक ऊंट का जाना मुश्किल हो गया है। नाव को रखने के लिए बने स्थल भी ऊंट और टापुओं के बीच आते हैं। कुल मिलाकर इन ऊंटों को अब अपना प्रिय भोजन (मैंग्रोव) मिल पाता है। इससे इनके अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा है,” भनानी ने कहा।

गुजरात इंस्टीट्यूट ऑफ डेजर्ट इकोलॉजी के कोस्टल एंड मैरिन इकोलॉजी डिविजन के प्रमुख वैज्ञानिक जीए थिवाकरन कहते हैं कि जाखौ-कोरी, मुंद्रा, और कंडला-सूरजबरी इलाके के मैंग्रोव काफी क्षतिग्रस्त हैं।

इनके अनुसार, “दुर्भाग्य से इन्हीं इलाकों में सबसे तेजी से औद्योगिकरण हो रहा है। इस वजह से मैंग्रोव के पेड़ सघन नहीं रह गए हैं, बल्कि टुकड़ों में कहीं-कहीं नजर आते हैं। मालवाहक पोत की वजह से भी इनपर बुरा असर पड़ रहा है। इसके अलावा निर्माण की वजह से समुद्र का ताजा पानी मैंग्रोव की जड़ों में नहीं पहुंच रहा।“

गुजरात में खराई ऊंटों की संख्या में तेजी से गिरावट हो रही है। इसकी बड़ी वजह है ऊंटों के खाने लायक मैंग्रोव का तेजी से कम होना। तस्वीर- अजेरा परवीन रहमान
गुजरात में खराई ऊंटों की संख्या में तेजी से गिरावट हो रही है। इसकी बड़ी वजह है ऊंटों के खाने लायक मैंग्रोव का तेजी से कम होना। तस्वीर- अजेरा परवीन रहमान

समुद्र पर निर्माण का दवाब, किनारों से दूर होता पानी

आसपास के गांव वालों में औद्योगिकरण और निर्माण का असर समुद्र के पानी पर दिखने लगा है।  मुद्रा के एक गांव टुंडा वांध में ज्वार का पानी लोगों के घरों के आसपास तक पहुंचता था। अब पावर प्लांट के बनने की वजह से नहर ने इस गांव में समुद्र का पानी आने से रोक दिया है। इस वजह से अब रैबारी चरवाहों को अपने ऊंटों को काफी दूर ले जाना पड़ता है, जहां से वे पानी में तैरकर टापुओं तक पहुंचने की कोशिश करते हैं। कई ऊंट पालकों ने तो थक-हारकर ऊंट-पालन का काम ही छोड़ दिया। इस गांव में एक दशक पहले 2500 ऊंट हुआ करते थे, लेकिन अब इसकी संख्या मात्र 200 है।

सहजीवन ने ऊंटों की संख्या को लेकर एक सर्वे किया था जिसमें सामने आया कि कच्छ में पांच वर्ष पहले 2200 खराई ऊंट ही बचे थे। 2018 में यह संख्या घटक 1,800 हो गई। समूचे गुजरात में मात्र 4,500 खराई ऊंट बचे हैं।

नियमों को ताक पर रखकर मैंग्रोव का सफाया

ऊंट पालक आदमभाई मैंग्रोव नष्ट करने का एक वाकया याद करते हैं। सुबह-सुबह वह अपने ऊंटों को मैंग्रोव के पत्ते खिलाने ले गए थे, तभी उन्होंने एक भारी-भड़कम मशीन से उसे नष्ट करते हुए देखा। यह सब कांडला के दीनदयाल पोर्ट के नजदीक जंगल में खुलेआम हो रहा था। इन्होंने अपनी संस्था के माध्यम से इस मामले को उठाया। कोस्टल रेगुलेशन जोन एक्ट (2001) के तहत इस तरह के मशीनों से मैंग्रोव नष्ट करना कानूनी जुर्म है। कच्छ कलेक्टर ने मामले की जांच के लिए कमेटी बनाई और इसके बाद वन विभाग ने भी इसपर कार्रवाई की। विरोध की वजह से कुछ दिन काम रुका रहा, लेकिन इसे दोबारा शुरू कर दिया गया।

कैमल ब्रीडर एसोसिएशन के 370 सदस्य नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) में इस मामले को लेकर गए। एनजीटी ने पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय और  गुजरात राज्य तटीय क्षेत्र प्रबंधन प्राधिकरण को ऐसी गतिविधियों पर रोक लगाने के आदेश दिए। अगस्त 2018 में गुजरात प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने नमक निर्माण करने वाली कंपनियों के द्वारा ज्वार के पानी को अवरुद्ध करने वाले तटबंधों को तोड़ा।

उस्मान और उमर जाट ऊंट चराने निकले हैं। उन्होंने बीच में आराम करने के लिए लकड़ी जलाकर ऊंट के दूध से चाय बनाई। तस्वीर- अजेरा परवीन रहमान
उस्मान और उमर जाट ऊंट चराने निकले हैं। उन्होंने बीच में आराम करने के लिए लकड़ी जलाकर ऊंट के दूध से चाय बनाई। तस्वीर- अजेरा परवीन रहमान

ऊंट को खाने को मैंग्रोव नहीं, लेकिन आंकड़ों में यह बढ़ रहा है

चरवाहों के द्वारा मैंग्रोव खत्म होने की शिकायतों के बावजूद आंकड़ों में मैंग्रोव का क्षेत्रफल बढ़ता ही जा रहा है। गुजरात में वर्ष 2011 में मैंग्रोव का क्षेत्र 1,058 वर्ग किलोमीटर था, जो कि 2013 में बढ़कर 1,103 वर्ग किलोमीटर हो गया। 2015 में यह आंकड़ा बढ़कर 1,107 वर्ग किलोमीटर पहुंच गया। वर्ष 2016-17 में मैंग्रोव लगाने के लिए एक बड़ा अभियान चलाया गया था जिसमें 9,000 हेक्टेयर में इसे लगाया गया था। वन विभाग द्वारा इस स्थान पर ऊंटों को आने की मनाही है।

पर्यावरण संबंधी अनुमति देते समय भी 200 से 1,000 हेक्टेयर मैंग्रोव लगाने के निर्देश दिए जा रहे हैं।

थिवाकरन कहते हैं कि उन्हें ऐसे नहीं लगता कि मैंग्रोव और कम होती खराई ऊंट के बीच कोई सह-संबंध है। “फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया की रिपोर्ट और सैटेलाइट इमेज के माध्यम से हमने पाया है कि मैंग्रोव की संख्या 1969 से बढ़ती जा रही है। अगर इसका कोई संबंध है भी तो खराई ऊंट की वजह से मैंग्रोव का नुकसान ही होता है।” 

इसे समझाते हुए वह कहते हैं कि ऊंट के पंजे मैंग्रोव के नए पौधों को बढ़ने से पहले ही नष्ट कर देते हैं। हालांकि, जबतक सिर्फ ऊंट मैंग्रोव खाते थे, तबतक जंगल कम नहीं हुआ। ऊंट जितना खाता था उससे कहीं अधिक तेजी से मैंग्रोव बढ़ते हैं। लेकिन हाल के वर्षों में इन झाड़ियों को इंसानों ने भी काटना शुरू कर दिया है।

इस दावे को खारिज करते हुए उमर जाट कहते हैं कि ऊंट की वजह से मैंग्रोव को नुकसान नहीं बल्कि फायदा ही होता है। मैंग्रोव के बीज ऊंट के पंजों की वजह से जमीन में धंस जाते हैं जिससे समुद्र के पानी में वह बहते नहीं बल्कि उनमें पौधा पनपता है।

“हमारे ऊंट पूरा पौधा नहीं खाते बकल्कि थोड़ा खाकर आगे बढ़ते जाते हैं। इसलिए यह कहना कि ऊंट की वजह से मैंग्रोव को हानि होती है गलत होगा। ऊंट का पेशाब और गोबर पौधों के लिए खाद का काम करती है,” उमर कहते हैं।

उस्मान जाट अपने खराई ऊंट के साथ खाने की खोज में गांव से 50 किलोमीटर दूर निकल आते हैं। तस्वीर- अजेरा परवीन रहमान
उस्मान जाट अपने खराई ऊंट के साथ खाने की खोज में गांव से 50 किलोमीटर दूर निकल आते हैं। तस्वीर- अजेरा परवीन रहमान

खराई ऊंट आधारित जीवनपद्धति

खराई ऊंट और उससे जुड़े चरवाहा समुदाय के लोगों आजीविका के लिए लंबे समय से प्रयास किये जा रहे हैं। सहजीवन संस्था ने इसपर काफी काम किया है। राष्ट्रीय पशु आनुवंशिक संसाधन ब्यूरो (एनबीएजीआर) ने हाल ही में वर्ष 2015 में खराई ऊंट को अलग प्रजाति का दर्जा दिया है। इस कदम के बाद इस ऊंट पर नए शोध का रास्ता भी साफ हुआ है।

वर्ष 2016 में भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण (एफएसएसएआई) ने इस दूध को मनुष्यों के खाद्य योग्य पदार्थ की सूचि में भी जगह दे दिया। यह खराई ऊंट के लिए अच्छी खबर है, लेकिन उस्मान मानते हैं कि अभी भी ऊंट के दूध का बाजार मंदा ही है।

“गाय और भैंस के दूध में अपेक्षाकृत अधिक वसा है जिस वजह से लोग वही पसंद करते हैं। एक ऊंटनी दिन में सिर्फ दो लीटर दूध देती है, और लोग इसकी कीमत 15-20 रुपए लीटर ही देते हैं,” उस्मान ने बताया।

 

बैनर तस्वीरः मैंग्रोव वाले टापुओं पर तैरकर जाते गुजरात के खराई ऊंट। तस्वीर- सहजीवन

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