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जिस गंगा डॉल्फिन का जिक्र पौराणिक कथाओं में उसे क्यों भूलने लगे हम

गंगा डॉल्फिन
  • गंगा-डॉल्फिन हिमालय क्षेत्र के प्राचीनतम जीवों में से एक है पर त्रासदी यह है कि इस क्षेत्र के रहने वाले लोग अभी भी मछली समझ इसे मार देते हैं। इस बेरुखी का शिकार यह जीव अभी कई खतरों से जूझ रहा है।
  • विलुप्त होने का खतरा झेल रही गंगा-डॉल्फिन भारत के लिए और हिमालय से निकली नदियों के लिए भी बहुत खास है। पौराणिक कथाओं से लेकर सम्राट अशोक के बनाए शिलालेख में इस भी इस जीव का जिक्र मिलता है।
  • भारत सरकार पिछले कई दशक से इस जलीय जीव के संरक्षण के प्रयास में है लेकिन अभी भी स्थिति संतोषजनक नहीं हो पाई है। पिछले दिनों उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले में जिस तरह कुछ लोगों ने एक डॉल्फिन पर हमला किया उससे इस सारे प्रयास पर प्रश्न-चिन्ह लग जाता है।

पिछले सप्ताह एक बेचैन करने वाला विडियो वायरल हुआ जिसमें कुछ लोग एक डॉल्फिन पर लाठी, डंडे और कुल्हाड़ी जैसे हथियार से अंधाधुंध हमला करते दिखे। उसपर हमला करने वाले ये लोग उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले से हैं। शारदा नदी से जुड़े नहर में दिसंबर में हुए इस घटना में स्थानीय पुलिस ने अब तक तीन लोगों को गिरफ्तार कर लिया है और अन्य लोगों की तलाश जारी है।

जिस प्राचीन जीव को बचाने के लिए भारत सरकार हजारों करोड़ खर्च करने को तैयार है उसको लेकर गांव के प्रधान और स्थानीय पुलिस ने मीडिया को बताया कि हमला करने वाले लोगों ने इसे बड़ी मछली समझ लिया। अगर इसमें तनिक भी सच्चाई है तो इससे इस जीव से जुड़ी त्रासदी का पता चलता है। हिमालय से जुड़ी नदियों में प्राचीनतम जीवों में से एक डॉल्फिन को इस क्षेत्र में रहने वाले लोग अभी तक पहचानते तक नहीं हैं। पहचान के इस संकट से होने वाले खतरे के अलावा भी गंगा-डॉल्फिन कई अन्य संकट से जूझ रही है।

वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फंड (डब्ल्यूडब्ल्यूएफ) के अनुसार गंगा-डॉल्फ़िन दुनिया के सबसे पुराने जीवों में से एक है। कछुए, मगरमच्छ और शार्क की तरह। हालांकि गंगा-डॉल्फिन की आधिकारिक तौर पर खोज 1801 में हुई थी। इसे स्थानीय भाषा में सोंस बुलाया जाता है।

करीब 40 वर्षों से गंगा-डॉल्फिन पर काम कर रहे और पटना विश्वविद्यालय से जुड़े रहे आर के सिन्हा इसको और स्पष्ट करते हुए बताते हैं कि पौराणिक कथाओं में भी इस जीव का जिक्र मिलता है। गंगा के डॉल्फिन का प्रामाणिक उल्लेख अशोक के स्तम्भ लेख संख्या पांच में जिक्र मिलता है। 246 ईसा पूर्व सम्राट अशोक ने एक राज्यादेश निकाला था जिसमें अन्य जीवों के साथ पपुता यानी गंगा-डॉल्फिन के शिकार पर भी रोक लगा दी थी।

इनका कहना है कि जब से गंगा का अवतरण हुआ है तभी से इसका ज़िक्र है। इनके अनुसार कुछ जगहों पर गंगा का वाहन डॉल्फिन को भी माना गया है। कुछ जगहों पर मगरमच्छ को गंगा का वाहन माना जाता है।

लेकिन यह दुर्भाग्य ही है कि हिमालय से निकली नदियों के क्षेत्र में इतने सालों से मौजूद होने के बाद भी लोग इस मछली समझते हैं जबकि यह एक स्तनपायी जीव है, सिन्हा कहते हैं।

गंगा डॉल्फिन
गंगा नदी का डॉल्फिन। हिमालय से जुड़ी नदियों और सहायक नदियों में यह जीव हजारों सालों से मौजूद है पर इस क्षेत्र में लोग अभी भी इसे मछली समझते हैं। तस्वीर- शुभाशीष डे

क्यों है गंगा-डॉल्फिन खास!

विशेषज्ञों के अनुसार गंगा के साथ-साथ गंगा-डॉल्फिन को यमुना, केन- बेतवा, सोन, गंडक तथा अन्य सहयोगी नदियों में भी देखा जा सकता है। लेकिन अब यह विलुप्त होने के कगार पर है। दिसंबर 2019 को संसद में दिए जवाब में केन्द्रीय मंत्री बाबुल सुप्रियो से जब पूछा गया कि क्या केंद्र सरकार के पास गंगा-डॉल्फिन की संख्या का कोई अनुमान है। इसके जवाब में उन्होंने कहा कि इस जीव के गणना की जिम्मेदारी राज्यों के वन विभाग की है। उन्होंने उत्तर प्रदेश और असम में क्रमशः 1,275 और 962 गंगा-डॉल्फिन होने की बात की। उसी साल बिहार में हुए एक सर्वेक्षण में पता चला कि इस राज्य की तीन नदियों में करीब 1,150 गंगा-डॉल्फिन मौजूद हैं। अनुमान के मुताबिक दुनिया में साफ पानी में या कहें नदियों में रहने वाले कुल डॉल्फिन की संख्या महज 3,700 के करीब है। इनमें से 3,200 डॉल्फिन भारत में मौजूद हैं।

गंगा नदी डॉल्फिन केवल सादे पानी में ही जीवित रह सकती है। बताया जाता है कि यह डॉल्फिन कुछ भी देख पाने में असमर्थ है। अपने भोजन के शिकार के लिए ये जीव अल्ट्रासोनिक ध्वनि का उत्सर्जन करता है। प्रतिध्वनि श्रवण। यह ध्वनि मछली या अन्य शिकार से टकराकर वापस आती है इससे डॉल्फिन को शिकार के मौजूद होने का आभास होता है।

डॉल्फिन के महत्व को समझाते हुए सिन्हा कहते हैं कि नदियों के लिए यह जीव उतना ही महत्वपूर्ण है जितना बाघ जंगल के लिए। खासकर हिमालय से निकलने वाली नदियां या उनकी सहायक नदियों के लिए यह एक तरह से संकेतक जीव है। नदियों में मौजूद सारे जीव में यह आहार शृंखला में सबसे ऊपर है। घड़ियाल हो या मगरमच्छ- कोई इसका आहार नहीं करता। शार्क करता है पर नदी में शार्क पाया नहीं जाता।

एक तरह से यह नदियों (गंगा इत्यादि) के स्वास्थ्य का दर्पण है यह। अगर नदियों में डॉल्फिन मौजूद है तो यह दर्शाता है कि वहां इसके लिए भोजन भी उपलब्ध है। इसका मतलब यह है कि इस नदी का पानी बहुत हद तक सही है, सिन्हा बताते हैं।

“जो चीज दुर्लभ हो और वह आपके पास मौजूद हो तो उसका महत्व अपने आप बढ़ जाता है। यह भारत के लिए एक प्राकृतिक जलीय विरासत है,” सिन्हा कहते हैं।

गंगा-डॉल्फिन संरक्षण में आर के सिन्हा ने महती भूमिका निभाई है। अपने अध्ययन के आधार पर इनका दावा है कि गंगा डॉल्फिन प्राचीन जीव है।  दूसरे जितने भी डॉल्फिन और व्हेल है वो कहीं ना कहीं इसी से उत्पन्न हुए हैं। इसमें बहुत सारे प्राचीन विशेषताएं (फीचर्स) हैं जो दूसरे किसी डॉल्फिन में पूरी दुनिया में नहीं मिलता। दुनिया में व्हेल-डॉल्फिन की कुल 90 प्रजातियां हैं और उनमें यही एक है जो इतना प्राचीन है।

गंगा डॉल्फिन के आकार-प्रकार को दर्शाता एक इलस्ट्रेशन। जॉर्ज शॉ ने इसे 1751 में बनाया था।
गंगा डॉल्फिन के आकार-प्रकार को दर्शाता एक इलस्ट्रेशन। जॉर्ज शॉ ने इसे 1751 में बनाया था। तस्वीर– रॉपिक्सल डॉट कॉम

अनेक खतरों से जूझ रहा है यह जीव

प्रतापगढ़ में हुए हादसे से यह स्पष्ट होता कि इस क्षेत्र के लोग इस बेशकीमती जीव के संरक्षण को लेकर सचेत नहीं हैं। नतीजा यह निकला कि अब यह जीव विलुप्त होने के कगार पर पहुँच गया है। इसकी घटती संख्या देखकर भारत सरकार ने 1972 में गंगा-डॉल्फिन को वन्यजीव संरक्षण अधिनियम के तहत कानूनी सुरक्षा प्रदान की और इसे भी बाघ, शेर और चीते की तरह अनुसूची एक में रखा गया।

प्रकृति संरक्षण अंतर्राष्ट्रीय संघ (आईयुसीएन) से जुड़े विशेषज्ञ अब्दुल वकीद का कहना है कि मछली पकड़ने के दौरान गैर इरादतन हत्या, तेल निकालने के लिए इनकी हत्या इत्यादि की वजह से यह जीव संकट में है। इंसानी गतिविधियों, डैम या बैराज बनाने से भी यह जीव प्रभावित हुआ है।

इस जीव के अस्तित्व पर आए संकट पर बात करते हुए सिन्हा बताते हैं कि गंगा के डॉल्फिन पर दो तरह के मुख्य खतरे हैं। पहला है इनकी हत्या। एक तो इरादतन हत्या जब लोग इसे धारदार हथियार जैसे भाले, बरछी इत्यादि से हमला कर मार देते हैं। दूसरा है गैर-इरादतन हत्या। इसमें मछुवारे अपनी जाल डालते हैं और उसकी धागा बहुत पतला और मजबूत होता है। जाल में अगर मछलियां फंस गयी और डॉल्फिन को अगर प्रतिध्वनि सुनाई दे तो वह इन मछलियों को पकड़ने जाती है। इस महीन पर मजबूत धागे से बने जाल में डॉल्फिन के दांत फंस जाते हैं। इनको सांस लेना दूभर हो जाता है।

इरादतन हत्या के बारे में पूछने पर सिन्हा कहते हैं कि इनके शरीर में चमड़े के नीचे पांच से छः मीटर वसा की परत होती है। इसको ब्लब्बर कहते हैं। गंगा-डॉल्फिन का मांस खाने के लिहाज से स्वादिष्ट नहीं होता तो सामान्यतः इसके लिए इसकी हत्या नहीं होती। सामान्यतः इसके शरीर से तेल निकालने के लिए इसे मारा जाता है। कई मछलियां इसके तेल की तरफ आकर्षित होती हैं और मछली पकड़ने में इससे आसानी होती है। इस तेल का इस्तेमाल कुछ लोग घरेलू उपचार में भी कर लेते हैं, सिन्हा बताते हैं।

दूसरा जो सबसे बड़ा खतरा है वह है इनके वास स्थान का जिसका लागातर क्षरण होता जा रहा है। गंगा सागर से लेकर ऊपर ये जहां तक तैर कर जा सकें- सब इनका वास स्थान रहा है। हरिद्वार या उससे भी ऊपर। अब गंगा के प्रवाह में कमी आ गई है जो सबसे बड़ा खतरा है। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि इस नदी में पानी की बहुत कमी हो गयी है। इस जीव को प्रवाह भी चाहिए और नदी की गहराई भी। हरिद्वार, बिजनौर, नरोरा, कानपुर, फरक्का इत्यादि में बैराज बन गए। ये बैराज ऐसी बाधा हैं जिसको डॉल्फिन पार कर नदी के दूसरे हिस्से में नहीं जा सकती। बैराज बन जाने से डॉल्फिन छोटे छोटे कुनबे में बंट गए हैं। इससे इनके जीन का आदान-प्रदान नहीं हो पाता और ये आनुवंशिक तौर पर कमजोर होते जा रहे हैं।

गंगा डॉल्फिन पर नदी में छोटे-बड़े जहाजों के चलने की वजह से ध्वनि प्रदूषण पैदा होता है। इससे डॉल्फिन को खतरा है। तस्वीर- मायुख डे
गंगा डॉल्फिन पर नदी में छोटे-बड़े जहाजों के चलने की वजह से ध्वनि प्रदूषण पैदा होता है। इससे डॉल्फिन को खतरा है। तस्वीर- मायुख डे

प्रदूषण के बढ़ते खतरे

नदियों में बढ़ते विभिन्न तरह के प्रदूषण से भी इस जीव पर संकट बढ़ा है। कृषि में इस्तेमाल होने वाले जितने कीटनाशक या अन्य जरूरतों के लिए इस्तेमाल किये जाने वाले कीटनाशक इस जीव के वसा में घुलनशील होता है और सब इसके शरीर में जमा होता जाता है, सिंह कहते हैं।

दूसरे, नदियों में ध्वनि प्रदूषण बढ़ रहा है। इससे इनका जीवन प्रभावित हो रहा है। नवंबर 2017 से अप्रैल 2018 तक बिहार के चार जगहों पर इसका अध्ययन किया गया। इन जगहों के नाम हैं कहलगांव, बरारी, डोरीगंज और एक अन्य स्थान। इस अध्ययन में पता चला कि नदियों में बढ़ते शोर से यह जीव तनाव में आ रहा है। सनद रहे कि इस जीव के भोजन ढूंढने का तरीका भी आवाज पर ही आधारित है। नहीं देख पाने की सूरत में गंगा-डॉल्फिन 20 से 160 किलो हर्ट्ज के बीच आवाज निकालता है और प्रतिध्वनि से अपने शिकार के होने का अनुमान लगाता है।

सिन्हा कहते हैं कि पहले मशीन से चलने वाले नाव चलते नहीं थे। अब हर तरफ मोटर से चलने वाले नाव आ गए। इनसे आवाज होती है। इसके अतिरिक्त कहीं स्टीमर चल रहा है तो कहीं कार्गो-शीप चल रहा है। इससे दोनों तरह के खतरें हैं। एक तो ध्वनि का और दूसरा चोट लगने से होने वाली मृत्यु। आने वाले भविष्य में नदियों में ध्वनि प्रदूषण बढ़ने ही वाला है क्योंकि भरत सरकार का नदियों में परिवहन को प्रोत्साहन दे रही है और गंगा नैशनल वाटर वे-1 है। इसमें कार्गो वगैरह चलाने का प्रयास किया जा रहा है।

हाल ही में आए एक अध्ययन से यह बात सामने आई कि मछली पकड़ने के लिए इस्तेमाल होने वाले समान से उपजने वाला कूड़ा भी गंगा-डॉल्फिन के लिए खतरनाक साबित हो रहा है।

गंगा नदी में पानी की गुणवत्ता जांचते शोधकर्ता। तस्वीर- मायुख डे
गंगा नदी में पानी की गुणवत्ता जांचते शोधकर्ता। तस्वीर- मायुख डे

इसके संरक्षण के लिए हो रहे सरकारी प्रयास

पंद्रह अगस्त को लाल-किला के प्राचीर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने प्रोजेक्ट डॉल्फिन की घोषणा की। स्वतंत्रता दिवस पर दिए भाषण में प्रोजेक्ट लॉयन की भी घोषणा हुई। प्रोजेक्ट डॉल्फिन में विशेष रूप से गणना और शिकार रोधी गतिविधियों में आधुनिक तकनीक के उपयोग से डॉल्फिनों और उनके जलीय निवास स्थानों का संरक्षण शामिल होगा।

वर्ष 1972 में वन्यजीव संरक्षण अधिनियम के तहत कानूनी सुरक्षा मिले इस जीव को लेकर हाल फिलहाल सरकार भी सचेत हुई है। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के कार्यकाल के समय राष्ट्रीय जलीय जानवर का दर्जा दिया गया। इसके बारे में बताते हुए सिन्हा कहते हैं कि गंगा को राष्ट्रीय नदी का दर्जा 2008 में मिल और अक्तूबर 5, 2009 प्रधानमंत्री ने इस जीव को राष्ट्रीय जलीय जानवर का दर्जा देने पर सहमति दी जिसकी घोषणा 10 मई 2010 को किया गया।

 बिहार सरकार पिछले एक दशक से डॉल्फिन अध्ययन केंद्र बनाने का वादा कर रही है। वर्ष 2012 में तब योजना आयोग के उपाध्यक्ष रहे मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने पटना में एशिया का पहला डॉल्फिन शोध केंद्र खोलने की घोषणा की थी। हालांकि इस शोध केंद्र का वास्तविक स्वरूप लेना अभी भी बाकी है।

बैनर तस्वीर: गंगा नदी की सतह पर आता डॉल्फिन। विशेषज्ञों के अनुसार गंगा के साथ-साथ गंगा-डॉल्फिन को यमुना, केन- बेतवा, सोन, गंडक तथा अन्य सहयोगी नदियों में भी देखा जा सकता है। तस्वीर- रविंद्र सिन्हा 

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