मध्यप्रदेश का छतरपुर जिला बुंदेलखंड क्षेत्र में आता है। बुंदेलखंड में पानी की बेहद कमी है। यहां की गंगा राजपूत (बाएं) और बबिता राजपूत (दाएं) ने महिलाओं की एक टोली बनाकर तालाबों का संरक्षण किया। इलस्ट्रेशन- आवेशा।

गांव में बचाया पहाड़ का पानी

इस गांव के पास में ही अगरोठा की 19 वर्षीय बबिता राजपूत ने भी जल संरक्षण के लिए नायाब तरीका अपनाया। जल सहेली अभियान से जुड़ने के बाद बबिता ने अन्य महिलाओं की मदद से पहाड़ से बहकर गांव आने वाले वर्षा जल को सहेजने की योजना बनाई।

गांव में इस पानी को रोकने की कोई व्यवस्था नहीं थी, इसलिए हर वर्ष पानी बहकर बेकार हो जाता था। बबिता ने गांव वालों की मदद से पास में स्थित 70 एकड़ में फैले एक तालाब की तरफ वर्षा जल का रुख मोड़ दिया। इसके लिए 107 मीटर लंबा और 12 फीट चौड़ा एक नहर खोदा गया। अब पहाड़ का पानी गांव के तालाब में आने लगा।

“इस योजना के सफल होने पर महिलाओं ने गांव में पौधे भी लगाए,” परमार्थ संस्था से जुड़े मानवेंद्र सिंह कहते हैं।

“हमने इस योजना पर दो वर्ष मेहनत की। गांव के लोगों को हम पर यकीन नहीं था, लेकिन हमने कर दिखाया,” बबीता का कहना है। बबिता इस समय स्नातक की पढ़ाई कर रही है।

“जब महिलाओं ने यह काम करने की ठानी तो गांव के पुरुषों को आपत्ति भी हुई, लेकिन हमने उन्हें समझा-बुझाकर यह काम अपने हाथों में लिया,” बबिता ने मोंगाबे-हिन्दी से कहा।

बबिता की सहेली कमला लोधी कहती हैं कि जो पानी बछेरी नदी में बहकर हमसे दूर हो जाता था, इस एक नहर की वजह से आज हमारे काम आ रहा है। कोविड-19 की वजह से लगे लॉकडाउन से पहले यहां 200 महिलाओं ने जी तोड़ मेहनत की है।

परमार्थ से जुड़े धनी राम ने बताया कि अगरोठा के तालाब पर हुए काम की तारीफ वन विभाग के अधिकारियों ने भी किया।

बड़ा तालाब पर बने चेक डैम पर महिलाओं की टोली खड़ी है। इन्होंने कड़ी मेहनत से इस तालाब को नया जीवन दिया है। तस्वीर- परमार्थ समाजसेवी संस्थान
बड़ा तालाब पर बने चेक डैम पर महिलाओं की टोली खड़ी है। इन्होंने कड़ी मेहनत से इस तालाब को नया जीवन दिया है। तस्वीर- परमार्थ समाजसेवी संस्थान

जल संरक्षण से महिला सशक्तिकरण तक

परमार्थ संस्थान ने वर्ष 2012 में जल पंचायत नाम से एक अभियान चलाया और इसके तहत महिलाओं को जल सहेली के रूप में जोड़ा। इस समय 27 गांवों में जल संरक्षण का काम चल रहा है।

संस्था से जुड़े संजय सिंह कहते हैं कि इस अभियान को शुरू करने का ख्याल एक महिला से मिलने के बाद आया। उस महिला को खाना समय पर न बनाने की वजह से पति के गुस्से का सामना करना पड़ा था। “जल सहेली से जुड़ने के बाद महिलाएं काफी सशक्त महसूस करती हैं। इन गांवों में महिलाएं इतनी सशक्त हुई हैं कि पंचायत की बैठक में पुरुषों के बराबर बैठती हैं,” संजय सिंह कहते हैं।

“पानी की समस्या सिर्फ महिलाओं को परेशान नहीं करती, बल्कि पानी की खोज में भटकते बच्चों का स्कूल भी छूट जाता है,” मानवेंद्र सिंह कहते हैं।

सिंह बताते हैं कि इन गांवों में महिलाओं से सीधे बात करना कठिन होता है, और इसके लिए घर के पुरुषों को भी साथ लेना होता है। “कुछ गांव में देखा गया कि अगर कोई महिला घर से निकलती है तो उनके घर के पुरुषों के लिए यह अपमानजनक होता है। ऐसे में महिलाओं को अभियान से जोड़ना बड़ी चुनौती थी,” सिंह ने कहा।


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बैनर तस्वीरः इलस्ट्रेशन को मोंगाबे के लिए आवेशा ने बनाया है। वह पश्चिम बंगाल के सिलीगुड़ी से हैं। उनकी कला पारंपरिक कला से प्रेरित है। वह महिला सशक्तिकरण को चटख रंगों से रेखांकित करती हैं। 

Article published by Manish Chandra Mishra
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