- नियमगिरि पहाड़ी के डोंगरिया कोंध को विरासत में ऐसे नायाब बीज मिले हैं जिसपर बदलते मौसम की मार का असर कम होता है।
- बार-बार आ रहे सूखे और बाढ़ की समस्या को देखकर इस समाज के लोग अपने पुरखों के खोजे समाधान की तरफ रुख कर रहे हैं।
- पहाड़ों को पूजने वाले ये आदिवासी दर्जनों प्रकार के बीजों को अपनी अगली पीढ़ी के लिए सहेज रहे हैं। इससे समुदाय में कुपोषण खत्म होने की उम्मीद भी जगी है।
- पत्रकार सोनाली प्रसाद और फोटोग्राफर इंद्रजीत रखोवा बीजों के संरक्षण की झलकियां दिखा रहे हैं।
नियमगिरि पहाड़ियों पर सुंदर और घने वनों के बीच आधुनिकता से दूर एक आदिवासी समाज रहता है। अपने में अनोखे इस समाज को डोंगरिया कोंध के नाम से जानते हैं।
डोंगरिया ओड़िशा के दक्षिणी हिस्से के नियमगिरि के पहाड़ियों में रहते हैं। आधुनिकता से अब तक खुद को बचाए रखने वाले इस समाज तक विकास की विभीषिका पहुंच चुकी है और वे बाढ़ और सूखे की मार झेलने को मजबूर हैं। रहन-सहन, पहनावा और जीवनशैली में विशुद्ध पारंपरिक डोंगरिया समाज के लोग मौसम में आए बदलावों को भी पारंपरिक तरीके से ही निपटने की कोशिश कर रहे हैं।
खाद्य-सुरक्षा के मद्देनजर ये आदिवासी पारंपरिक बीजों का अधिक से अधिक इस्तेमाल कर रहे हैं। ताकि अधिक या कम बारिश की स्थिति में भी उपज पर असर कम हो सके।
ओडिशा के रोदांगो गांव की गात्री कादराका (30) ने आंगन में धूप में सूखने के लिए तरह-तरह के रंग-बिरंगे बीज बिखेर रखे हैं। इनमें मोटे अनाज के बीज अधिक हैं। इन अनाजों में दो तरह के रागी, कई तरह के बाजरा, स्थानीय धान, ज्वार, काला चना, मटर, अरंडी, ककड़ी, कद्दू, लौकी, पालक, साबूदाना और हल्दी शामिल है।
“ये सभी बीज हमारे नियमगिरि पर्वत के देवता ‘नियम राजा’ को समर्पित है,” वह कहती हैं।
डोंगरी कोंझ खुद को नियम राजा के राजसी परिवार के वंशज मानते हैं और नियम राजा के दिए सभी प्राकृतिक संसाधनों में उनकी गहरी आस्था है। डोंगरिया मानते हैं कि यही प्राकृतिक संसाधन उनके जीवन की रक्षा करते हैं।
“जब तक हम अपने पहाड़ों, नदियों और मिट्टी का सम्मान करते रहेंगे, हमारे देवता हमे बचाते रहेंगे,” गात्री कादराका मानती हैं।
गात्री कादराका के बीज तो उन बीजों के मुकाबले कुछ नहीं जो एक वक्त में डोंगरी कोंध के पास होते हैं। डोंगरी के बीज जंगल खराब होने के साथ-साथ खोते गए और साथ में उनकी एक शानदार बीजों की विरासत भी कमजोर पड़ती गयी। इस तरह डोंगरी समाज की खाद्य सुरक्षा पर भी संकट मंडराने लगा। वर्ष 1990 में सरकार ने अधिक उपज वाले धान के बीजों को सब्सिडी के तहत गांव-गांव तक पहुंचाए, जिसके बाद धान की दर्जनों पारंपरिक प्रजातियां विलुप्त हो गईं।
“लोग पारंपरिक खेती छोड़कर नए तरीके के बीज और अधिक उपज की तरफ रुख करते गए,” कहते हैं देबजीत सारंगी। सांरगी लिविंग फार्म्स नाम की एक गौरसरकारी संस्था चलाते हैं जिसका उद्देश्य पारंपरिक संसाधनों का प्रबंधन है।
“यह बदलाव कुछ ऐसा हुआ कि लोग खेती को फायदे से जोड़कर देखने लगे और बीज के लिए व्यापारियों पर निर्भर हो गए,” वह कहते हैं।
कुछ सीमित किस्म के धान उगाने की वजह से न सिर्फ बीज खत्म हुए, बल्कि अनाज की पौष्टिकता का भी कम हुई। मोटे अनाज छोड़कर चावल खाने की वजग से डोंगरिया में कुपोषण के मामले बढ़ने लगे। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि इस समाज में खाद्य असुरक्षा बढ़ने लगी।
पारंपरिक बीजों से दे रहे क्लाइमेट चेंज को चुनौती
ओडिशा में बीते कुछ वर्षों से मौसम की वजह से खेती में काफी मुश्किलें आ रही हैं। कभी अधिक बारिश से बाढ़ जैसी स्थिति बन जाती है जिससे धान की खेती प्रभावित होती है। ऐसे वक्त में डोंगरिया कोंध अपनी खेती बचाने के लिए वापस पारंपरिक तरीकों की तरफ मुड़ रहे हैं। अपने प्राकृतिक संसाधनों के लिए डोंगरिया ने एक खनन कंपनी के साथ 2013 में लड़ाई लड़ी। तब से उनमें अपनी परंपरा को बचाने का उत्साह जगा है। लिविंग फार्म्स जैसी संस्थाओं की मदद से वे अपने बीजों की परंपरा को बचाने की कोशिश कर रहे हैं।
बीज सुरक्षित रखने के अलग-अलग तरीके
पहाड़ी पर बसा हुंदिजली गांव में जितने घर हैं, बीज बचाने के उतने की नायाब तरीके इस्तेमाल किए जाते हैं। कुछ महिलाएं बीजों को नीम के पत्तों में मिलाकर रखती हैं ताकि कीड़ों से उन्हें बचाया जा सके। कुछ लोग गाय के गोबर के साथ उन्हें मिलाकर रखते हैं। बीजों को फसल के वक्त ही सहेजकर रख लिया जाता है। कुछ लोग अपने आसपास के लोगों से बीज बार्टर्ड सिस्टम यानी सामान के बदले सामान देकर बीज संरक्षित कर रहे हैं। गांवों का सामाजिक ताना-बाना इतना मजबूत है कि किसी के घर अगर बीज की कमी हुई तो दूसरे घर के लोग मदद के लिए सामने आते हैं। पूरा गांव एक दूसरे की मदद करता है।
इस समाज में लोग सामान्यतः बाजार जाकर बीज नहीं बेचते। हालांकि, अगर इलाज की जरूरत आई तो पैसों के लिए बीज के बजाए सब्जियां या फल जरूर बेचते हैं। इन फलों में कटहल, बांस के कोपल, शहद, जंगली फूल, संतरा और आम शामिल हैं। ये फल जंगल में ही उन्हें मिलते हैं।
जंगल से कटहल काटकर लाती एक डोंगरिया महिला। इसे वह बाजार ले जाकर बेचेगी। तस्वीर- इंद्रजीत राजखोवा.
बीज का संग्रहण, उसकी रोपाई और खेती के अन्य मौके गांव वालों के लिए त्योहार की तरह हैं। इन त्योहारों में गांव की पुजारी बेजुनी की अहम भूमिका होती है।
खोए हुए बीजों को वापस चलन में लाने में बेजुनी ने पहाड़ों की खाक छाननी शुरू की। दूसरे गांव में कुछ बीज मिले। उस गांव के देवता के सामने मुर्गा, बकरी और कबूतर की कुर्बानी देकर वह बीज अपने गांव ले आए। परंपरा के मुताबित उस बीज से जो फसल उगाई गई उसका दोगुना उस गांव को वापस भी लौटाना होता है।
गांव में डोम समुदाय से जुड़े व्यक्ति को यह जिम्मेदारी दी गई कि वह गांव के हर घर में जाकर यह संदेश दे कि बीजों को बचाने का काम शुरू हो गया है।
डोंगरिया कोंध ने इस चरह से कोदो की एक ऐसी प्रजाति खोज निकाली जो 40 वर्ष से चलन में नहीं थी। यह फाइबर का उत्तम स्रोत होता है।
बीजों को बचाना एक उत्सव जैसा है। इस दौरान गीत गाए जाते हैं। बांस से बने नए और साफ टोकरी में बीज रखे जाते हैं। खेत में डालने से पहले इसकी पूजा की जाती है और पहाड़, नदी और पेड़ों को याद करते हुए इसे खेत में डाला जाता है।
“हम यह कामना करते हैं कि ये बीज हमारे साथ खुश रहें,” गांव की सबसे बुजुर्ग महिला हेजुनी कुमटाडी सिकोका कहती हैं।
खेती के पुराने तरीके से खराब मौसम में भी होती है उपज
डोंगरी अपनी खेती पहाड़ी पर ढलान वाले खेतों में करते हैं। एक ही खेत में 50 तरीके के बीज उगाए जाते हैं। इनमें दाल, अनाज, तिलहन, सब्जी आदि शामिल होते हैं।
एक साथ अलग-अलग किस्मों के बीजों को लगाने की वजह से खराब मौसम में भी कोई न कोई फसल अच्छी हो ही जाती है। वर्ष 2017 में सूखा, कीट और कई अन्य बीमारियों का हमला होने के बावजूद इस आदिवासी समाज के खेतों की पैदावार अच्छी रही। राज्य के दूसरे हिस्सों से फसल खराब होने पर किसानों के आत्महत्या की घटनाएं सामने आईं, लेकिन डोंगरी के गांवों में ऐसा कुछ भी सुनने को नहीं मिला।
“हमने अपने गांव में कभी पूरी फसल खराब होने की बात नहीं सुनी है। कोई न कोई फसल उपज ही जाती है चाहे मौसम कैसा भी हो,” बारमागुदा गांव के 42 वर्षीय किसान कालिया नोनराका कहते हैं।
रागी, ज्वार, बाजरा जैसी फसलें वैसे भी मौसम की मार झेल सकने में सक्षम होती हैं। डोंगरिया ऐसी फसलों को अधिक अहमियत देते हैं।
“क्लाइमेट चेंज जैसे भारी भरकम शब्दों के डोंगरिया भले ही परिचित न हों, लेकिन प्रकृति के साथ उनका जो रिश्ता है वह उन्हें टिकाऊ खेती का वैज्ञानिक नजरिया देता है,” लिविंग फार्म्स के सारंगी कहते हैं।
एक साथ कई फसल उगाने की वजह से मिट्टी की गुणवत्ता भी बनी रहती है। इसकी वजह यह है कि कई फसल धरती से कुछ पोषक तत्व लेते हैं तो दूसरे पोषत तत्व धरती में वापस भी छोड़ते हैं।
ऊंचाई पर ऐसी फसले लगाई जाती हैं जो बारिश और धूप झेल सकें और निचले हिस्से में मूंगफली जैसी पानी के बहाव को झेलने वाली फसल लगाई जाती है।
सारंगी कहते हैं कि ये किसान बिना किसी रासायनिक खाद या कीटनाशक के खेती करते हैं।
किसानों की कीटों की भी कोई अधिक चिंता नहीं होती है। “अगर हम खाते हैं तो चुड़िया, कीड़े और चिंटियों को भी खाने का हक है। यह धरती सिर्फ हमारी नहीं है,” 30 साल के द्रांबु जाकेसिका कहते हैं।
खेती और खाद्य सुरक्षा
पुरानी पद्धति से खेती की वजह से डोंगरिया समाज पोषण की तरफ भी बढ़ा। हालांकि, पहाड़ के निचले हिस्स में कुछ किसान सरकार की तरफ से मिलने वाले चावल को खाना शुरू किया, लेकिन ऊपरी हिस्से के डोंगरिया अभी भी पारंपरिक भोजन पर निर्भर हैं। उनके खाने में मोटे अनाज प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होता है।
“रागी से जो ताकत मिलती है वह चावल से नहीं मिल सकती। चावल से सिर्फ पेट भरता है,” रोडांगो गांव की 18-वर्षीय लक्ष्मी कादराका कहती हैं।
रायगड़ा जिले के स्वास्थ्य अधिकारी लक्ष्मीनारायण पुश्ती कहते हैं कि डोंगरिया का पारंपरिक भोजन पोषण से भरपूर है।
“अगर किसी व्यक्ति के पास कई तरह के मोटे अनाज और सब्जियां भोजन में उपलब्ध हों तो उसके शरीर को जरूरी प्रोटीन, फाइबर और जरूरी एंटीऑक्सीडेंट्स मिलता रहता है। अकेले चावल में यह सब नहीं होता है,” वह कहते हैं।
डोंगरिया की कोशिश है कि पारंपरिक रूप से उनके खेतों में पर्याप्त खाना उग सके। इस तरह वहां कुपोषण की समस्या दूर हो सकेगी। एक शोध के मुताबित यहां 60 प्रतिशत स्कूली बच्चे कुपोषित हैं और 55 प्रतिशत वयस्क भी कमजोरी के शिकार हैं।
“दस से 15 वर्ष पहते तक हमारे लोग पहाड़ों में मिलने वाले मोटे अनाज खाते थे,” 31-वर्षीय दिन्जा जाकेसिका कहते हैं। वे कुर्ली गांव के सरपंच हैं।
“जब से हमने सरकार के द्वारा दिया जाने वाला चावल खाना शुरू किया है, कमजोर होते गए हैं। हमारे लोग जल्दी बूढ़े हो रहे हैं,” उन्होंने बताया।
पिछले पचास वर्षों में इस इलाके में मोटे अनाज की खेती 370,000 वर्ग किलोमीटर से घटकर 150,000 वर्ग किमी रह गई है। सरकार इस 60 फीसदी गिरावट की वजह लोगों के खाने के बदलते तरीके और चावल और धान की खेती का बढ़ते रकबे को मानती है।
सिर्फ धान ही नहीं बल्कि हल्दी, अनानस जैसे नगदी फसल की वजह से भी इलाके के पारंपरिक बीज खत्म होते गए, सुसांता कुमार दलाई का कहना है। वह डोंगरिया कोंध समुदाय के बीच समाजसेवा करते हैं।
“अगर आप डोंगरिया किसानो से बात करेंगे तो पाएंगे कि 50 फीसदी जमीन में नगदी फसल उगायी जाने लगी है,” वह कहते हैं।
ओडिशा सरकार भी वर्ष 2016 से मिलेट मिशन के तहत मोटे अनाज को बढ़ावा देने की कोशिश कर रही है। इसके लिए 60 हजार घरों को ध्यान में रखकर आसपास मिलेट प्रोसेसिंग के लिए मशीने लगाई गई हैं। इसका उद्देश्य मोटे अनाज से जरिए डोंगरिया समुदाय को समृद्ध भी करना है।
सोनाली प्रसाद क्लाइमेट चेंज से जुड़े मुद्दों पर जमीनी रिपोर्टिंग करती हैं। पूर्व में पुलिट्ज़र ट्रैवलिंग फ़ेलो रहीं सोनाली को अर्थ जर्नलिज़म का भी ग्रांट मिल चुका है। इनसे इंस्टाग्राम और ट्वीटर @sonaliprasad07 पर संपर्क किया जा सकता है।
इंद्रजीत राजखोवा फ्रीलांस फोटोग्राफर हैं जो प्रकृति से जुड़े मुद्दों पर खास पकड़ रखते हैं। इनसे इनके इंस्टाग्राम @indrarajkhowa पर संपर्क किया जा सकता है।
नोट: इस खबर की रिपोर्टिंग को इन्टरन्यूज अर्थ जर्नलिज़म नेटवर्क के सौजन्य से की गयी है।
बैनर तस्वीरः बीज का संग्रहण, उसकी रोपाई और खेती के अन्य मौके डोंगरिया के लिए त्योहार की तरह हैं। तस्वीर- इंद्रजीत राजखोवा