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ग्राम: छोटे किसानों को सही दाम दिलाने के लिए तीन साल पहले लायी गयी योजना कागजों तक सीमित

मध्यप्रदेश के झाबुआ जिले का एक ग्रामीण हाट। ऐसे हाट किसानों को अपनी उपज बेचने में मददगार हैं। तस्वीर- श्रीकांत चौधरी

मध्यप्रदेश के झाबुआ जिले का एक ग्रामीण हाट। ऐसे हाट किसानों को अपनी उपज बेचने में मददगार हैं। तस्वीर- श्रीकांत चौधरी

  • केंद्र सरकार ने करीब तीन सालों पहले ग्रामीण कृषि बाजार बनाने की घोषणा की थी। इसके तहत छोटे और मझोले किसानों को अपनी फसल सही दाम में बेचने की सहूलियत मिलने की बात की गई थी। तीन साल हो गए और यह विचार अभी भी कागज तक सीमित है।
  • पहले दो साल में सरकार को करीब 10,000 कृषि हाट बना लेना था लेकिन अब तक सिर्फ एक राज्य ने ग्राम नाम की इस योजना में दिलचस्पी दिखाई है। कृषि मंत्रालय का कहना है कि अन्य राज्यों को इसके लिए तैयार कराया जा रहा है।
  • तमाम अध्ययन बताते हैं कि बाजार के सुलभ न होने से किसानों को उनकी फसल का उचित दाम नहीं मिल पाता है। छोटे किसान अपनी फसल बेचने के लिए दूर मंडी तक नहीं जा सकते और स्थानीय स्तर पर उन्हें सस्ते दरों पर ही अपनी उपज बेचनी पड़ती है।
  • कृषि हाट के दिशानिर्देश भी हाल ही में आए तीन नए कृषि कानून की तरह ही है। इस दिशानिर्देश भी कृषि हाट को कम से कम नियंत्रित करने की बात करता है। विशेषज्ञों का मानना है कि अगर नियंत्रण नहीं रहा तो इससे किसानों को फायदा नहीं मिलेगा।

करीब दो महीने तक राजधानी की सीमा के बाहर हाड़ कंपा देने वाले सर्दी में संघर्ष करने के बाद लाखों किसानों गणतंत्र दिवस के दिन दिल्ली की सीमा में ट्रैक्टर जुलूस के साथ प्रवेश कर पाए। केंद्र सरकार द्वारा लाए गए  तीन कृषि कानूनों  का विरोध का विरोध कर रहे किसानों में से एक की मौत हो गयी और पुलिस के लाठी चार्ज में कई किसान घायल हुए। सौ के करीब किसान पहले ही ठंड की वजह से अपनी जान गंवा चुके हैं। ये किसान सरकार के इस दावे से संतुष्ट नहीं है कि इन कानूनों से उनका भला होगा। इनको सरकार की नियत पर संदेह है। किसानों की आय बढ़ाने के सरकार के पिछले आदेश को देखा जाए तो ये संदेह और पुख्ता होता है। 

अपने 2018-19 के बजट भाषण के दौरान, पूर्व वित्त मंत्री अरुण जेटली ने घोषणा की कि सरकार करीब 22,000 मौजूद ग्रामीण हाटों को कृषि हाट के तौर पर विकसित करेगी। इससे छोटे और मझोले  किसानों को उनकी फसल का बेहतर दाम मिल सकेगा। इसकी पहली समय-सीमा 31 मार्च 2020 निर्धारित की गई थी। इस समय-सीमा को बीते एक साल होने को जा रहा है और इस मामले में अब तक कुछ भी नहीं हुआ है।

मोंगाबे-हिन्दी द्वारा दायर एक आरटीआई के जवाब में कृषि और किसान कल्याण विभाग ने जनवरी 19 को बताया किया राज्य सरकारों को डीटेल प्रोजेक्ट रिपोर्ट (डीपीआर) भेजने के लिए तैयार कराया जा रहा है। अभी तक बस एक राज्य (गुजरात) से ही यह रिपोर्ट भेजी गयी है। इस रिपोर्ट को देखा-परखा जा रहा है।

इस योजना के समय-सीमा के बारे में दिशा-निर्देश में लिखा है कि 31 मार्च 2020 तक जो राज्य रिपोर्ट भेजेंगे और अगर उसपर सहमति बन गई तो उन राज्यों को इस योजना के तहत सहायता मिलेगी।

जब आरटीआई आवेदन में समय-सीमा के बारे में पूछा गया तो विभाग ने बताया कि पहले 31 मार्च 2020 थी जिसे कोविड की वजह से एक साल के लिए बढ़ा दिया गया है। सनद रहे कि 24 मार्च 2020 को केंद्र सरकार ने लॉकडाउन की घोषणा की थी। साल के आखिरी दिन यानी 31 मार्च से महज छः दिन पहले। अगर नई समय-सीमा को भी देखा जाए तो इसे पूरा होने में महज दो महीने बाकी हैं और धरातल पर नतीजा सिफर है।

 कृषि विशेषज्ञ देविंदर शर्मा कहते हैं कि इससे सरकार की गंभीरता का पता चलता है। सरकार कृषि क्षेत्र के लिए आधारभूत संरचना को लेकर कितनी गंभीर है! देश में अभी 7,000 के करीब मंडियाँ हैं और कुल 42,000 की जरूरत बताई जाती है। भारत जैसे देश के लिए इतनी मंडी खड़ा कर देना कोई बड़ी बात नहीं थी पर सरकारों ने जानबूझकर इसपर ध्यान नहीं दिया। अब इसको ढंकने के लिए वर्तमान सरकार ने ग्राम हाट की घोषणा कर दी जिसे  ईनाम  से जोड़ा जाना था। ईनाम कृषि व्यवसाय का एक अनलाइन प्लेटफॉर्म है। 

कृषि क्षेत्र में काम करने वाले पोर्टल असलीभरत.कॉम के संपादक अजीत सिंह कहते हैं कि इससे यही पता चलता है कि सरकार किसानों को सही दाम दिलाने को लेकर कितनी सक्रिय है! सरकार ने तीन साल पहले बड़े वादे किये लेकिन जमीन पर अभी तक कुछ भी नहीं बदला। अब सरकार नए कानून लाकर कॉर्पोरेट को कह रही है कि जाईए बाजार पर कब्जा कर लीजिए।


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बाजार का सुलभ नहीं  होना: किसानों की फसल का उचित दाम नहीं मिलने का बड़ा कारण

वर्ष 1995 से 2011 के बीच  , करीब तीन लाख किसानों ने आत्महत्या कर ली। घटती आमदनी और क्लाइमेट चेंज से बढ़ती अनिश्चितता ने किसानों की मुश्किलें बढ़ाईं ही हैं। परिणामस्वरूप अभी भी हर साल, हजारों  किसान आत्महत्या करने को मजबूर हैं। स्थिति सुधारने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2016 में वादा  किया कि सरकार 2022 तक देश के किसानों की आमदनी दोगुनी कर देगी।

कई रपट जिसमें सरकार द्वारा बनाई गई कमिटी की रपट भी शामिल हैं ने इसका अध्ययन किया और बताया कि बाजार का सुलभ नहीं होना छोटे और मझोले किसानों के कम आय का मुख्य कारण है। कमेटी कहती है, “भारत में अधिकतर किसान छोटे और मझोले श्रेणी में आते हैं और औसतन 1.1 हेक्टेयर भूमि पर खेती करते हैं। ऐसे में अच्छी उपज और अच्छे दाम पाना एक चुनौती है।”

दिल्ली स्थित आजादपुर मंडी का एक दृश्य
दिल्ली स्थिति आजादपुर मंडी में किसान और आढ़तिये रोजमर्रा की गतिविधि में शामिल। तस्वीर: श्रीकांत चौधरी

हाल ही में प्रकाशित एक  रपट   प्रकाशित हुई जिसमें बिहार, उड़ीसा और पंजाब के कृषि बाजार का अध्ययन किया गया था। इसमें कहा गया था कि खेत की भौगोलिक दूरी से तय होता है कि किसान को उसके फसल का कैसा दाम मिलेगा। जिनके खेत बाजार से बहुत दूर हैं उनके लिए उचित दाम मिलना लगभग नामुमकिन है। अव्वल तो किसान को उसकी फसल का कम दाम मिलता है क्योंकि दूर मंडी में ले जाने का उसका खर्च बढ़ जाता है। मंडी में अपनी फसल नहीं ले जा पाने की सूरत में उनके पास एक ही विकल्प बचता है कि वे किसी को भी अपनी फसल बेचने दें। क्योंकि सुदूर क्षेत्र में फसलों के कई खरीददार आते ही नहीं। इस अध्ययन को पेन्सिलवेनिया विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर एडवांस्ड स्टडी ऑफ इंडिया ने बीते दिसंबर में प्रकाशित किया था।

नरेंद्र मोदी सरकार ने 2016 में किसानों की आय दोगुनी करने के उद्देश्य से एक कमेटी भी बनायी थी। इस कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि देश की मंडी व्यवस्था थोक कृषि उपज को ध्यान में रखकर बनाई गईं हैं। ये मंडियां औसतन 50 किलोमीटर की दूरी पर स्थित हैं। छोटे और मझोले किसान इन मंडियों तक नहीं पहुंच  पाते। ऐसी स्थिति में छोटे किसानों के पास कोई विकल्प नहीं रह जाता सिवाय इसके कि स्थानीय एजेंट को बेच दें। यह एजेंट अपनी मनमानी दाम पर फसल खरीदता है। 

इस मुश्किल से निपटने के लिए कमेटी ने सुझाव दिए कि देश में 30,000 के करीब छोटी-बड़ी मंडी का निर्माण किया जाए। इसमें खुदरा और थोक-दोनों तरह की मंडियां शामिल हों। इसी सुझाव में कमेटी ने कहा था कि देश में कुल 22,000 के करीब ग्रामीण हाट हैं और इन्हें कृषि हाट के तौर पर विकसित किया जाना चाहिए। कमेटी के अनुसार आस-पास के खेतों से इन हाटों की दूरी पांच से छः किलोमीटर की होती है और किसान यहां अपनी उपज आसानी से बेच सकता है।  

यह सामाधान बस कागज पर सिमट कर रह गया

केंद्र सरकार ने कमिटी के इस सुझाव को गंभीरता से लिया और देश के पूर्व वित्त मंत्री अरुण जेटली ने 2018-19 के अपने बजट भाषण में घोषणा की, “ सरकार देश में मौजूदा 22,000 ग्रामीण हाट को ग्रामीण एग्रिकल्चर मार्केट (ग्राम) के तौर पर विकसित करेगी। मनरेगा और अन्य सरकारी योजनाओं की भी मदद ली जाएगी। ये ग्राम हाट ईनाम से भी जोड़े जाएंगे। इससे किसानों को थोक विक्रेताओं और अन्य लोगों को अपनी फसल बेचने में सहूलियत होगी।” इस बाबत पूर्व वित्त मंत्री ने 2,000 करोड़ रुपये के अग्री-मार्केट इन्फ्रस्ट्रक्चर फंड की भी घोषणा कर दी।

इसके बाद कृषि मंत्रालय ने 2018-19 और 2019-20 के लिए दस हजार हाट का लक्ष्य निर्धारित किया। दो साल में दस हजार हाट को कृषि हाट में तब्दील करने के लक्ष्य निर्धारित करने के पीछे यह तर्क दिया गया कि देश में 11,811 हाट पंचायतों के अधीन हैं। इन्हीं हाटों के पुनर्निर्माण में मनरेगा और सरकारी योजनाओं की मदद ली जा सकेगी। इसलिए पहले इन्हीं हाटों को विकसित किया जाएगा।  इन 11,811 में से हजार के करीब हाट का कृषि हाट के तौर पर पहले ही विकास किया जा चुका था।  पूर्व वित्तमंत्री के घोषणा से पहले।

महाराष्ट्र के अहमदनगर का एक दृश्य
बाजार में दाम गिरने की वजह से महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के धवलपुरी गांव में किसान ने पत्ते गोभी की फसल चरने के लिए छोड़ दी। तस्वीर: श्रीकांत चौधरी

कृषि मंत्रालय के द्वारा तय किया गया यह लक्ष्य भी कागज तक सीमित होकर रह गया। आरटीआई में मिले जवाब में कहा गया, “ऑपरेशनल दिशा-निर्देश राज्यों को भेजी जा चुकी है और राज्यों को अपना प्रस्ताव भेजने के लिए तैयार किया जा रहा है। ताकि उनको इस स्कीम के तहत मदद की जा सके।”

सावधानी: नियंत्रित बाजार से ही किसानों को मिलेगा फायदा

मोंगाबे-हिन्दी ने जितने विशेषज्ञों से बात की लगभग सभी ने विनियमित मंडी की जरूरत पर बल दिया। ऐसी मंडी जहां सामान्य किसानों की सुरक्षा के मद्देनजर कुछ नियम-कानून हों।  खासकर तीन नए कृषि कानूनों और उससे जुड़े विवाद के बाद विशेषज्ञों का यह मानना है कि सरकारी मंडी हो या निजी मंडी पर इसको चलाने के लिए समुचित नियम-कानून होने चाहिए। तभी किसानों का भला होगा।

लेकिन गौर करने की बात यह है कि तीन साल पहले आए इस योजना के दिशा-निर्देश में कृषि हाटों को कम से कम नियंत्रित करने की बात की गई है। इसमें कहा गया है कि राज्य सरकार को सुनिश्चित करना चाहिए कि ए ग्राम हाट अनियंत्रित या नॉन-रेगुलटेड एनवायरनमेंट में काम करें।

मोंगाबे-हिन्दी से बात करते हुए प्रोफेसर और भारतीय प्रबंधन संस्थान (आईआईएम) में कृषि में प्रबंधन केंद्र के पूर्व अध्यक्ष सुखपाल सिंह कहते हैं, “मैं मानता हूं कि नियम-कानून होना बहुत जरूरी है। इससे किसानों के साथ कोई भी मनमानी नहीं कर सकता। एक आदिवासी समाज के बारे में सोचिए जहां साक्षरता का स्तर काफी कम है। अगर कोई वहां जाता है और उनकी फसल खरीदते वक्त कुछ गड़बड़ करता है तो वह किसान भला किसके पास जाएगा। अपनी सुरक्षा कैसे करेगा।”

इस बात को कई तरह से समझाया जा सकता है। छोटे और मझोले किसान मंडी को पूरी छूट होनी चाहिए कि वो कहीं भी अपनी उपज बेच सकें। निजी मंडी हो या कान्ट्रैक्ट फ़ार्मिंग हो। कहीं भी।

“लेकिन यह स्पष्ट होना चाहिए कि किसान को न केवल बाजार चाहिए बल्कि ऐसा बाजार चाहिए जहां उसकी फसल का उचित दाम मिल सके। ऐसे बाजार का क्या फायदा जहां फसल की बोली ही नहीं लगे। ऐसे में किसान को कैसे पता चलेगा कि उसके फसल का इससे अधिक दाम भी मिल सकता था! इससे कोई नहीं मना कर सकता कि इन सबके लिए किसानों को मंडी की आवश्यकता है पर इससे अधिक जरूरी है नियम-कानून की जो उनकी फसल का दाम दिला सके। बिहार का उदाहरण देख लीजिए। वहां मंडी है पर नियंत्रित नहीं है। इसलिए वहां किसानों को उचित मूल्य नहीं मिल पा रहा,” प्रोफेसर सुखपाल सिंह कहते हैं।

इसी बात को फूड सोवरनिटी अलायंस से जुड़ी जन्तु वैज्ञानिक सागरी आर रामदास जोर देते हुए कहतीं हैं कि बिना नियंत्रण के ये ग्राम हाट किसानों को उनकी फसल का उचित दाम नहीं दिला पाएंगे। ऐसा लग रहा है कि सरकार एक ऐसी जगह बना रही है जहां सारे किसान अपनी उपज लेकर जमा हों ताकि खरीदने वाले को सहूलियत हो सके। खरीददार को एक ही जगह पर सारे किसान मिल जाएंगे और उसे लोगों के पास घूम-घूमकर मोल-भाव नहीं करना पड़ेगा।

उन्होंने एक कानूनी मुश्किल का भी जिक्र किया। नए कृषि कानून हो या ग्राम हाट के दिशा-निर्देश। इनके अनुसार आदिवासी क्षेत्र खासकर अनुसूची पाँच के दायरे में आने वाले क्षेत्र में ग्राम सभा ही सबकुछ तय करती है। ऐसे क्षेत्रों में ये मंडियां कैसे काम करेंगी! ये मंडियां क्या सरकार के बनाये नए कानून से चलेंगी या ग्रामम सभा का इनमें हस्तक्षेप होगा! अगर ग्राम सभा को हस्तक्षेप करने की अनुमति नहीं होगी तो क्या यह पुराने कानून का उल्लंघन नहीं माना जाएगा!   क्या इनपर ग्राम सभा अपने नियम थोप सकेगी या सरकार पुराने कानूनों को ताक पर रखना चाहती है! पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार) अधिनियम के तहत देश के कई इलाकों को खास प्रावधान के तहत ग्राम सभा को अत्यधिक ताकत दी गयी है। अभी बहुत कुछ स्पष्ट नहीं है, रामदास कहतीं हैं।

बैनर तस्वीरः मध्य प्रदेश के झाबुआ जिले के एक स्थानीय हाट में एक महिला अपने खेतों से लाई उपज बेचती हुई। तस्वीर- श्रीकांत चौधरी

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