- उत्तराखंड के चमोली में 7 फरवरी 2021 को ऋषिगंगा नदी में सैलाब आ गया। संभवतः ग्लेशियर लेक यानी बर्फीले झील के फटने से। यह घटना आठ वर्ष पहले उत्तराखंड में आए जल प्रलय की पुनरावृत्ति लगती है। उस हादसे में हजारों लोगों की जान चली गई थी।
- हादसा इतना विकराल था कि चमोली स्थित पनबिजली परियोजना का पूरा ढांचा बह गया। इसके अतिरिक्त विष्णुगढ़ तपोवन स्थिति एनटीपीसी की 520 मेगावाट परियोजना भी प्रभावित हुई है। ऋषिगंगा परियोजना स्थल पर कई लोगों के मलबे के अंदर दबे होने की आशंका है।
- अभी तक राहत एवं बचाव कार्य के दौरान प्रशासन ने 30 मृत शरीर बरामद की है। यहां एनटीपीसी की सुरंग में दर्जनों लोगों के फंसने की आशंका है। भारतीय सेना ने राहत कार्य की जिम्मेदारी अपने हाथों में ले ली है।
- अभी तक इस हादसे के पीछे की सटीक वजह का पता नहीं चल पाया है, लेकिन इससे हिमालय क्षेत्र में बांध और अन्य ढांचे के अंधाधुंध विकास के खिलाफ उठती आवाज को नया बल मिला है। ऐसी परियोजना को विशेषज्ञ नाजुक हिमालय के क्षेत्र के लिए सही नहीं मानते हैं।
उत्तराखंड त्रासदी के तीन दिन बीतने के बाद भी ऋषिगंगा नदी के आसपास अफरातफरी मची हुई है। तीन दिनों से लगातार राहत एवं बचाव कार्य चल रहा है। सैलाब के साथ बहकर आया गाद और मलबा हटाने में बड़ी मशीनों को भी दिक्कत आ रही है।
“मैं यहां तीन दिन से बचाव कार्य में लगा हूं। हम में से कई लोग तो सो भी नहीं पाए। हादसे के दिन हमने 12 लोगों को बचाया, लेकिन उसके बाद राहत-कार्य मुश्किल होता जा रहा है। यहां कितना कीचड़ है आप खुद देख सकते हैं। मशीन से भी इसे हटाना मुश्किल होगा,” तपोवन स्थित जल-विद्युत परियोजना के स्थल पर राहत कार्य में सक्रिय एक जवान का कहना है। यह परियोजना उत्तराखंड के चमोली जिले में है।
सात फरवरी 2021 की सुबह ऋषिगंगा नदी में आए सैलाब के बाद चमोली के तपोवन की तस्वीर बदल गई। इसमें ऋषिगंगा नदी पर बने जोशीमठ के करीब स्थित 13 मेगावाट का तपोवन पनबिजली परियोजना का समूचा ढ़ांचा बह गया। भयावह जल सैलाब में जान-माल की काफी क्षति हुई है। नौ फरवरी की शाम तक 50 लोगों के मलबा में फंसे होने की आशंका है।
हादसे के पीछे की वजह का सटीक पता नहीं चल पाया है, लेकिन ऐसी संभावना जतायी जा रही है कि नंदा देवी हिम झील के नदी में गिरने से यह सैलाब आया।
इस बाढ़ का असर कुछ दूर स्थित एनटीपीसी की 520 मेगावाट की पनबिजली परियोजना पर भी हुआ है। परियोजना स्थल पर मौजूद 100 कर्मचारियों को निकालने के लिए राहत एवं बचाव कार्य तेजी से चल रहा है। संयंत्र स्थित दो किलोमीटर लंबी सुरंग में दर्जनों लोग फंसे हुए हैं। करीब चालीस घंटे के प्रयास के बावजूद भी कोई सफलता नहीं मिली है। बचाव कार्य के लिए हेलीकॉप्टर के माध्यम से राहत सामग्री पहुंचाई जा रही है। संयंत्र के आसपास मलबा और कीचड़ की वजह से बचाव कार्य में मुश्किल आ रही है। सुरंग के दोनों तरफ मलबा और कीचड़ जमा होने की वजह से वहां पहुंचने के रास्ते बंद हो गए हैं जहां करीब सौ लोगों के फंसे होने का अनुमान है।
बचाव कार्य में लगी टीम को सुरंग के 800 मीटर अंदर जाना है जहां कर्मचारी फंसे हुए हैं। प्रशासन ने 12 लोगों को हादसे में बचाया है और अब तक 30 मृत शरीर को मलबे से निकाला जा चुका है।
उत्तराखंड के मुख्यमंत्री टीएस रावत ने कहा कि 200 से अधिक लोग अब भी गायब हैं। मौके पर मौजूद कर्मचारियों ने मोंगाबे-हिन्दी से बात करते हुए आशंका व्यक्त की कि मरने वालों की संख्या 250 तक पहुंच सकती है।
“मौके पर कई मुश्किलें आ रही हैं। मशीन के अलावा फंसे हुए लोगों को बचाने के लिए लोगों को भी काम पर लगाया गया है। एनटीपीसी के आंकड़ों के मुताबिक सुरंग में 37 लोग फंसे हुए हैं,” मेजर जेनरल राजीव छिब्बर ने बताया। बाढ़ आने के दो दिन बाद सेना ने राहत कार्य का जिम्मा अपने हाथों में ले लिया है।
हादसे की वजह का सटीक कारण जानने की कोशिश की जा रही है पर पारिस्थितिकी रूप से नाजुक हिमालय क्षेत्र में अंधाधुंध बांध और विकास के नाम पर अन्य ढांचा निर्माण पर फिर लोगों ध्यान गया है। वर्ष 2013 में केदारनाथ में आई भीषण बाढ़ के बाद से यह चर्चा तेज है। यह हादसा भी एक ग्लेशियर से बनी झील के टूटने की वजह से हुआ था। वर्ष 2013 में हुए उस हादसे में करीब छह हजार लोगों की जान चली गयी थी और करोड़ों की संपत्ति का नुकसान भी हुआ था।
जहां मची बाढ़ से तबाही उस परियोजना के विरोध में थे स्थानीय लोग
चमोली मामले में स्थानीय लोगों दोनों परियोजनाओं के विरोध में थे। यह परियोजनाएं नंदादेवी बायोस्फीयर रिजर्व के बफर ज़ोन में आती हैं। मोंगाबे-हिन्दी ने आस-पास के गाँव वालों से बात की तो पता चला कि लोग काफी डरे हुए हैं। उन्हें डर है कि ऐसी घटना दोबारा हो सकती है।
सामाजिक कार्यकर्ता इंद्रेश मैखुरी ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया कि ऋषिगंगा में लोगों ने इतना मुखर विरोध किया था कि परियोजना का उद्घाटन तपोवन में न होकर राजधानी देहरादून में किया गया था।
“तपोवन परियोजना अभी चल ही रही थी। वहां पिछले 15 वर्ष से काम चल रहा था। लोगों ने इस निर्माण का काफी विरोध किया था। इस इलाके में लोगों का जंगल पर अधिकार खत्म कर उन्हें लकड़ी तक लेने नहीं दिया जाता है, पर सरकार यहां विशाल परियोजना चलाना चाहती है। इस हादसे का असर भी गरीब मजदूरों पर ही सबसे अधिक हुआ है,’ मैखुरी कहते हैं। वह भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) के सदस्य भी हैं।
नंदा देवी बायोस्फीयर रिजर्व के डायरेक्टर बीपी सिंह इन आरोपों को खारिज करते हैं।
“बायोस्फीयर एक बड़ा शब्द है। नंदा देवी नेशनल पार्क में सिर्फ एक कोर जोन ही है। कोई बफर जोन नहीं है। ग्लेशियर के टूटने की वजह से जो झील का हिस्सा टूटा है वह कोर जोन में ही हुआ है। कोर जोन से बाहर स्थिति इन दोनों परियोजनाओं का इस हादसे से कोई लेना-देना नहीं है। आप यह कह सकते हो कि ये दोनों परियोजनाएं नंदा देवी बायोस्फीयर के दायरे में ही आती हैं। पर इस इलाके में आर्थिक, सांस्कृतिक और अन्य विकास से जुड़ी गतिविधियों के किये जाने की अनुमति मिली हुई है। इन परियोजनाओं के विकास के लिए जरूरी पर्यावरण संबंधी लिया गया है,” सिंह ने जल बिजली परियोजना और उससे जुड़े निर्माण कार्यों का बचाव करते हुए कहा।
उत्तराखंड में बना हुआ था त्रासदी का खतरा, वजह अभी साफ नहीं
वर्ष 2013 में हुई घटना के बाद कई अध्ययन में संवेदनशील हिमालय क्षेत्र में ऐसी घटनाएं आगे भी हो सकती हैं। सर्वोच्च न्यायालय के आदेश से 2014 में पर्यावरणविद रवि चोपड़ा के नेतृत्व में बनी कमेटी ने कहा था कि अंधाधुंध बांध के निर्माण से 2013 में हुई घटना का असर कई गुना बढ़ गया। इस कमेटी ने 23 जल विद्युत योजना को बंद करने का सुझाव दिया था।
मंगलवार को संसद में बोलते हुए गृह मंत्री अमित शाह ने कहा कि भूस्खलन की वजह से यह घटना हुई। हालांकि विशेषज्ञ अभी भी इसकी पड़ताल में लगे हुए हैं कि यह घटना के पीछे की वास्तविक वजह क्या है।
इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी, इंदौर के ग्लेशियोलॉजी और हायड्रोलॉजी के असिस्टेंट प्रोफेसर मोहम्मद फारूक आजम का कहना है कि अभी तक बस यह स्पष्ट हुआ है कि एक ही समय में बर्फबारी और पत्थरों का गिरना- दोनों हुआ। खासकर वहां जहां बर्फ की कमजोर परत थी।
हालांकि इतनी अधिक मात्रा में पानी कहां से आया यह तभी पता चलेगा जब वैज्ञानिक घटनास्थल पर पहुंचकर वहां का विश्लेषण करें, आजम कहते हैं।
“इस बात में कोई संदेह नहीं है कि ग्लोबल वार्मिंग की वजह से पहाड़ों का बर्फ पिघल रहा है, और इसका असर चमोली में भी है। जलवायु परिवर्तन से इलाके में अधिक बर्फबारी और बारिश की घटनाएं हो रही हैं। सर्दियों में भी तापमान बढ़ा रहता है जिससे बर्फ पिघलने की रफ्तार तेज हुई है। पहले बर्फ का तामपान शून्य से करीब 6 डिग्री से लेकर 20 डिग्री सेल्सियस तक रहता था। अब यह महज शून्य से दो डिग्री कम पर आ गया है। इससे बर्फ पिघलने का खतरा हमेशा बना रहा है,” वह कहते हैं।
इस घटना के बाद उन सभी खतरों की तरफ इशारा किया है जिसको लेकर कई विशेषज्ञ वर्षों से आगाह करते रहे हैं।
उदाहरण के लिए जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल (आईपीसीसी) की महासागर और क्रायोस्फ़ेयर (पृथ्वी का बर्फ़ से ढंका क्षेत्र) पर जलवायु परिवर्तन का असर देखने वाली विशेष रिपोर्ट में भी यह बात कही गयी है। यह रिपोर्ट कहती है कि मौसम में बदलाव से पहाड़ों की स्थिरता कम होगी और बर्फीले झीलों की संख्या बढ़ेगी। परिणामस्वरूप सैलाब और भूस्खलन की घटनाएं भी बढ़ेंगी। उन इलाकों में भी ऐसी घटनाएं होंगी जहां ऐसा कभी नहीं हुआ हो।
वर्ष 2019 में जारी इस रिपोर्ट में कहा गया है कि बर्फ पिघल रहे हैं जिससे नए झीलों का निर्माण हो रहा है। उदाहरण के लिए दक्षिणी अमेरिका, एशिया और यूरोप के ऊंची पहाड़ी वाले इलाकों में ऐसा हो रहा है। वैज्ञानिकों के खेमे में इस बात को लेकर सहमति है कि आने वाले समय में ऐसे झीलों की संख्या और क्षेत्रफल में विस्तार होगा। इससे पहाड़ों के बाहरी परत कमजोर होंगे और बर्फीले झील के फटने की घटना बढ़ेगी।
चमोली में हुए हादसे के बाद वैज्ञानिक और प्रशासन के लोग मौके पर पहुंच चुके हैं ताकि इस सैलाब के आने की असली वजह का पता लगाया जा सके।
बैनर तस्वीरः चमोली में आए बाढ़ के बाद एनटीपीसी पनबिजली परियोजना को खासा नुकसान हुआ है। तस्वीर- हृदयेश जोशी