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[वीडियो] उत्तराखंड: बर्फ़बारी की बढ़ती अनिश्चितता से सेब बागवान निराश

उत्तरकाशी स्थित हर्षिल इलाके के सेब। तस्वीरः सचेंद्र पंवार

उत्तरकाशी स्थित हर्षिल इलाके के सेब। तस्वीरः सचेंद्र पंवार

  • अभी स्पष्ट नहीं हुआ है कि उत्तराखंड के चमोली में आया सैलाब जलवायु परिवर्तन की वजह से हुआ या किसी अन्य वजह से। लेकिन बदलते मौसम का असर उत्तराखंड के खेती-किसानी पर दिखने लगा है। इस साल उत्तराखंड में जनवरी के महीने में लगभग नहीं के बराबर बर्फबारी हुई है और किसानों को डर सता रहा है कि इस साल सेब तथा अन्य फलों का उत्पादन प्रभावित होगा। किसान फरवरी महीने में बर्फबारी की उम्मीद लगाए बैठे हैं।
  • कम बर्फबारी होने से सेब जैसे फलों को जरूरी तापमान जिसको चीलिंग आवर (शून्य या उससे कम तापमान के जरूरी घंटे) नहीं मिल पाते। इससे फलों की गुणवत्ता और उत्पादन दोनों प्रभावित होता है।
  • उत्तराखंड और यहां के किसानों के लिए सेब और सर्दी में उगने वाले तमाम फल से होने वाली आमदनी की बड़ी भूमिका है। उत्तराखंड के सकल घरेलू उत्पाद में सेब और कुल फलों का दस फीसदी से अधिक का योगदान है। राज्य के करीब ढाई लाख किसान सेब और अन्य फलों के उत्पादन में लगे हैं।
  • बदलते मौसम की मार का असर उत्तराखंड के सेब के उत्पादन पर दिखने लगा है। अब इस राज्य में खेती के दायरे के साथ-साथ उत्पादन में भी कमी आने लगी है।

एक तरफ उत्तराखंड के चमोली में आए सैलाब और उससे हुए जान-माल से सब आहत हैं। दूसरी तरफ वहां के किसान बर्फबारी में अनियमितता और उससे खेती-किसानी पर पड़ने वाले संकट को लेकर चिंतित हैं। बीते जनवरी महीने में राज्य में एकदम बर्फबारी नहीं हुई और अगर फरवरी में भी ऐसा ही हुआ तो सेब तथा अन्य फल उगाने वाले किसानों के लिए यह साल बुरा गुजरेगा।

“पिछली सर्दियों में इस समय मेरे सामने के पहाड़ बर्फ़ से ढके बिलकुल सफ़ेद दिखाई दे रहे थे। इस समय पहाड़ नंगे दिखाई दे रहे हैं,’ उत्तरकाशी के सुखी टॉप गांव के सेब बागवान मोहन सिंह कहते हैं। मोहन सिंह इस बार मौसम के रुख को देखकर थोड़े निराश हैं। इनको डर है कि अगर फरवरी महीने में भी बर्फ नहीं गिरी तो सेब की फसल अच्छी नहीं होगी।

मोहन सिंह कहते हैं, “ जनवरी का पूरा महीना सूखा बीत गया। दो दिन बाद यानी 6 जनवरी को महज 3 इंच बर्फ़ गिरी। दिसंबर में थोड़ी बर्फ़ गिरी थी। लेकिन जनवरी सूखा रहने से उस बर्फ़ का भी बहुत असर नहीं रह जाता।”

सेब की फसल का इनके जीवन में बड़ा महत्व है। पत्नी और तीन बच्चों सहित कुल पांच लोगों के परिवार की कमाई का स्रोत सेब ही है। इसके अतिरिक्त ये आलू और राजमा भी उगाते हैं पर इससे इनकी आमदनी काफी कम है। सेब की अच्छी पैदावार होने पर उन्हें तकरीबन दो लाख तक की आमदनी होती है।

सेब की फसल और बर्फबारी के महत्व को देखते हुए मोहन सिंह पिछले 5-6 वर्षों से बर्फ़ का पूरा हिसाब रखना शुरू कर दिया। इनका दावा है कि एक इंच भी बर्फ़ गिरती है तो ये उसे माप लेते हैं। इससे अनुमान हो जाता है कि फसल कैसी होगी!

मोंगाबे-हिन्दी से एक फ़रवरी को हुई बातचीत के दौरान मोहन सिंह ने उम्मीद जताया कि अभी एक महीने (फरवरी) का समय है। इस दौरान अगर अच्छी बर्फ़बारी नहीं हुई तो पेड़ों पर फूल जल्दी खिल जाएंगे। समय से पहले फूल खिले तो उस पर सेब नहीं टिकेगा। उसकी गुणवत्ता, आकार, मिठास सब प्रभावित होंगे।

मोहन सिंह बताते हैं  “सेब के पेड़ों को जरूरी चिलिंग आवर्स (chilling hours) नहीं मिलने पर जून में अखरोट जितने बड़े आकार में ही फल टूट के गिरने लगते हैं ।”

यह चिंता सिर्फ मोहन सिंह की नहीं है। उनके गांव के करीब 200 परिवार सेब उत्पादन से जुड़े हैं और सबको यही चिंता सता रही है।

मौैसम अनुकूल रहने पर कभी उत्तरकाशी का धराली गांव इस कदर सेब के बगीचों से गुलजार होता था। तस्वीरः सचेंद्र पंवार
मौैसम अनुकूल रहने पर कभी उत्तरकाशी का धराली गांव इस कदर सेब के बगीचों से गुलजार होता था। तस्वीरः सचेंद्र पंवार

उत्तरकाशी का हर्षिल क्षेत्र सेबों के लिए मशहूर है। यहां आठ गांवों सुखी, जसपुर,पुराली, झावा, बगूरी, हर्षिल, मुखवा, धराली के तकरीबन चार हज़ार परिवार आजीविका के लिए मुख्य तौर पर इन्हीं सेबों पर निर्भर करते हैं। 

सुखीटॉप से थोड़ी अधिक ऊंचाई पर पहाड़ के पूर्वी छोर पर बसे उत्तरकाशी के धराली गांव के सचेंद्र पवार के पास सेब के करीब 400 फलदार पेड़ हैं। उन्हें अभी से यह एहसास हो गया है कि इस साल उनके बगान से सेब का उत्पादन मन मुताबिक नहीं होने वाला है। उनके गांव में धूप सीधे नहीं आती। जो सेब उत्पादन के लिहाज़ से अच्छी बात है। इसलिए मोहन सिंह की तरह इन्होंने उम्मीद नहीं हारी है। उम्मीद कर रहे हैं कि फरवरी और मार्च में ठंडक बनी रहे और सेब के पेड़ों को जरूरी चिलिंग आवर्स मिल जाएं।

राज्य में उपजने वाले फल-सब्जी पर मौसम की इस अनिश्चितता का असर साल दर साल बढ़ने लगा है। यह न केवल किसानों के लिए बल्कि स्थानीय अर्थव्यवस्था के लिए भी खतरे की घंटी है। 

 

घट रही बागवानी, आंकड़ों पर भी सवाल

उत्तराखंड के पर्वतीय जिलों में आमदनी का एक बड़ा ज़रिया खेती-बागवानी ही है। पर्वतीय हिस्सों में सेब के अलावा आड़ू, नाशपाती, अखरोट, प्लम, खुबानी जैसे फलों का उत्पादन किया जाता है। वर्ष 2018-19 के आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक राज्य में 2.83 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में बागवानी की जाती है। जो राज्य की आर्थिकी और स्थानीय स्तर पर आजीविका का प्रमुख स्रोत है। करीब 2.50 लाख किसान बागवानी से जुड़े हुए हैं। जिसमें से 88 प्रतिशत छोटे-मझोले किसान हैं। राज्य में बागवानी फसलों का सालाना व्यवसाय लगभग 3200 करोड़ है। वर्ष 2011-12 में राज्य की जीएसडीपी में कृषि का योगदान 14 प्रतिशत था जो वर्ष 2018-19 में घटकर 10.81 प्रतिशत हो गया। कृषि क्षेत्र की जीडीपी में बागवानी की 30 प्रतिशत से अधिक भागीदारी है। सकल घरेलू उत्पाद में खेती-बागवानी का योगदान लगातार घट रहा है। वर्ष 2011-12 में कृषि-बागवानी क्षेत्र  की हिस्सेदारी 7.05 प्रतिशत से घटकर 2018-19 में 4.67 प्रतिशत रह गई। कृषि से जुड़े बागवानी-फूल उत्पादन क्षेत्र का जीएसडीपी में 0.70 प्रतिशत योगदान है। कृषि को छोड़ बागवानी राज्य की जीएसडीपी 2018-19 में करीब 188.41 लाख करोड़ आंकी गई।

मौसम में आ रहे उतार-चढ़ाव का असर बागवानी पर पड़ रहा है। उद्यान विभाग में संयुक्त निदेशक जगदीश चंद्र कांडपाल बताते हैं कि इसकी वजह से राज्य में सेब का उत्पादन घट रहा है। वह बताते हैं कि वर्ष 201920 में उत्तराखंड में 25,785 हेक्टेयर क्षेत्र में 62,089.51 मीट्रिक टन सेब का उत्पादन हुआ। वर्ष 2018-19 में 25,675.87 क्षेत्र में 57,753.49 मीट्रिक टन उत्पादन हुआ। 2017-18 में ये 25,318.10 हेक्टेयर में 58,659.18 मीट्रिक टन था। जबकि 2016-17 में 25,201.58 हेक्टेयर में 62,061.98 मीट्रिक टन सेब का उत्पादन हुआ। 

उत्तरकाशी में बर्फबारी की कमी की वजह से सेब के बगान उजड़े-उजड़े नजर आते हैं। तस्वीर- मोहन सिंह
उत्तरकाशी में बर्फबारी की कमी की वजह से सेब के बगान उजड़े-उजड़े नजर आते हैं। तस्वीर- मोहन सिंह

संयुक्त निदेशक के मुताबिक पेड़ों की गिनती के आधार पर उत्पादन का आकड़ा तैयार किया जाता है। ये बिलकुल सटीक नहीं होता। लेकिन बदलते मौसम की वजह से सेब का उत्पादन कम हो रहा है, यह स्पष्ट है।

हालांकि सरकारी आंकड़ों में तमाम खामियां हैं। उद्यान विभाग के आंकड़ों के उलट ग्राम विकास एवं पलायन आयोग की पौड़ी, टिहरी और अल्मोड़ा की रिपोर्ट में फल उत्पादन के आकड़े अपेक्षाकृत बेहद कम पाए गए। उद्यान विभाग ने पौड़ी में फल उत्पादन का क्षेत्रफल 20,781 हेक्टेयर दिखाया है। जबकि पलायन आयोग की वर्ष 2018-19 सर्वे में पाया कि पौड़ी जनपद में मात्र 4710.19 हेक्टेयर क्षेत्रफल में बागवानी होती है। इसी तरह सेब उत्पादन को लेकर वर्ष 2016-17 में उद्यान विभाग के आंकड़ों के मुताबिक पौड़ी में 1125 हेक्टेयर में सेब उत्पादन हुआ। जबकि पलायन आयोग की रिपोर्ट में मात्र 212.34 हेक्टेयर क्षेत्र में सेब उगाया गया। यानी तकरीबन 5 गुना कम क्षेत्र में सेब पैदा हो रहा है। टिहरी और अल्मोड़ा पर पलायन आयोग की रिपोर्ट में भी कहा गया है कि बागवानी लगातार कम हो रही है।

मौसम में परिवर्तन और बागवानी के घटते आंकड़े राज्य के पर्वतीय क्षेत्रों के किसानों-बागवानों की मुश्किल स्थिति को बयान करते हैं। जो पूरी तरह मौसम पर निर्भर हो गए हैं और मौसम अनिश्चित हो गया है।

बदलता जलवायु और पहाड़ों पर खेती-बागवानी का संकट

उत्तराखंड में कुल 13 जिले हैं। जिसमें से हरिद्वार और उधमसिंह नगर मैदानी जिलों में आते हैं। देहरादून शिवालिक और हिमालय से घिरी हुई खुली घाटी है। इसका जौनसार बावर का हिस्सा पर्वतीय है। नैनीताल के उत्तरी हिस्से में हिमालयी पर्वत मालाएं हैं। जबकि दक्षिण हिस्सा मैदानी है।  इस बड़े क्षेत्र में बर्फ़बारी के आकलन के लिए देहरादून मौसम विज्ञान केंद्र का वेदर स्टेशन सिर्फ नैनीताल के मुक्तेश्वर में ही है। जो समुद्र तल से 2 हज़ार मीटर से अधिक ऊंचाई पर बसा है। इसके आंकड़ों के मुताबिक भी मौसम में अनिश्चितता बढ़ती जा रही है।

निदेशक बिक्रम सिंह के मुताबिक पिछले वर्ष मानसून के बाद अक्टूबर से दिसंबर तक बारिश सामान्य से 71 प्रतिशत तक कम रही। जबकि जनवरी में सामान्य से 19 प्रतिशत तक कम बारिश मिली। गढ़वाल में स्थिति फिर भी बेहतर रही। जबकि कुमाऊं मंडल बारिश-बर्फ़बारी के लिहाज से अपेक्षाकृत सूखा रहा।

मुक्तेश्वर से मिले बर्फ़बारी के आकड़ों के मुताबिक इस वर्ष जनवरी में कोई बर्फ़बारी नहीं हुई। न केवल बीते जनवरी बल्कि बर्फबारी में अनियमितता बढ़ती जा रही है।

उत्तराखंड: बर्फ़बारी की बढ़ती अनिश्चितता से सेब बागवान निराश

बीते 4-5 फरवरी को उत्तराखंड में ताज़ा बर्फ़बारी हुई। जिससे किसानों-बागवानों को कुछ राहत मिली। लेकिन बारिश-बर्फ़बारी में साल दर साल ये उतार चढ़ाव जलवायु परिवर्तन से जुड़ी चिंताओं को बढ़ाता है। जिसका असर खेती-बागवानी पर भी है।

दिल्ली में जेएनयू के स्कूल ऑफ इनवायरमेंटल साइंसेज़ में प्रोफेसर और शोधकर्ता एपी डिमरी कहते हैं कि मौसम में ये बदलाव सामान्य नहीं हैं। यहां बारिश-बर्फ़बारी को लेकर अनिश्चितता बढ़ती जा रही है। पिछली सर्दियों में राज्य में एक हज़ार मीटर तक ऊंचाई वाले हिस्सों में भी आश्चर्यजनक तौर पर बर्फ गिरी थी। इस सर्दियों में बर्फ़ बेहद कम रही। प्रोफेसर डिमरी कहते हैं कि सबसे बड़ी मुश्किल सही आकड़ों का न होना है। बारिश-बर्फ़बारी के पर्याप्त आकड़ें उपलब्ध नहीं हैं। जो मौसम पर शोध के लिए बहुत जरूरी हैं। जिसके आधार पर क्लाइमेट पॉलिसी तय की जा सकती है।

इस वर्ष जनवरी में मौसम विभाग का डॉप्लर रडार मुक्तेश्वर में लगा है। इससे सेटेलाइट के ज़रिये मौसम का सटीक अनुमान लगाने की बात कही गई है। ये रडार 100 किलोमीटर के रेडियस में जानकारी दे सकेगा। देहरादून मौसम विज्ञान केंद्र के मुताबिक ये जानकारी मौजूदा समय की ही होगी। दो अन्य रडार मसूरी से आगे सुरकंडा और पौड़ी में लगाया जाना है।

अन्य फलों पर भी दिख रहा बदलते मौसम का असर

उत्तरकाशी से थोड़ा नीचे टिहरी के सिलवाड़ पट्टी के बागवान कुंदन पवार के पास आड़ू के 350, प्लम के 50 और खुबानी के 200 पेड़ हैं।  कुंदन कहते हैं “ ये साल बागवानों को निराश करेगा। सुबह-शाम ठंड है लेकिन दिन का तापमान बढ़ा है। मिट्टी में पौधों के लिए जरूरी नमी नहीं है। गर्मी बढ़ने से आड़ू के फूल समय से पहले खिल गए हैं। फूल जल्दी खिलने का मतलब है कि फल की गुणवत्ता प्रभावित होगी। दिसंबर में थोड़ी बर्फ़ गिरी थी लेकिन जनवरी पूरा सूखा रह गया। पिछले सालों के और इस साल के तापमान में बहुत अंतर है।”

आड़ू के वृक्षों पर अभी से फूल आने लगे हैं जो इस बात का संकेत है कि गर्मी बढ़ गई है। बागवानी विशेषज्ञ और उद्यान विभाग से सेवा निवृत्त डॉ राजेंद्र कुकसाल बताते हैं सर्दियों के फलों को अलग-अलग चिलिंग आवर्स की जरूरत होती है। चिलिंग आवर्स यानी शून्य या शून्य से कम तापमान। सेब को 1600 घंटे चिलिंग आवर्स चाहिए। जबकि आड़ू को करीब 800 घंटे। प्लम जैसे फल की जरूरत 300 घंटे की चिलिंग आवर्स में भी पूरी हो जाती है।

उत्तराखंड शीतोष्ण क्षेत्र में आता है। यानी हिमाचल या जम्मू-कश्मीर की तरह यहां सालभर ठंड नहीं रहती। इसलिए बर्फ़बारी न होने पर बागवानों की मुश्किल बढ़ जाती है। डॉ कुकसाल  बताते हैं कि पहले यहां 1600 मीटर की ऊंचाई तक सेब हो जाते थे। अब 2000 मीटर या उससे अधिक ऊंचाई पर ही सेब होता है।

जरूरी चिलिंग आवर्स नहीं मिलने पर फूल जल्दी लगते हैं और झर जाते हैं। फल नहीं बन पाते। यह एक तरह का हार्मोनल डिस-ऑर्डर हुआ। नवंबर से जनवरी तक का समय चिलिंग आवर्स के लिहाज से महत्वपूर्ण होता है। इसी समय ज्यादा सर्दी पड़ती है। लेकिन इस बार नवंबर से जनवरी तक बेहद कम बारिश-बर्फ़बारी ने निराश किया है। वह भी फरवरी-मार्च में मौसम की मेहरबानी की उम्मीद करते हैं।

उत्तरकाशी के धराली गांव स्थित सेब का बगीचा। यहां इस स्प्रे मशीन से पौैधों पर कीटनाशक का छिड़काव किया जाता है। तस्वीर-सचेंद्र पंवार
उत्तरकाशी के धराली गांव स्थित सेब का बगीचा। यहां इस स्प्रे मशीन से पौैधों पर कीटनाशक का छिड़काव किया जाता है। तस्वीर-सचेंद्र पंवार

कृषि की अनिश्चितता से बढ़ा पलायन!

स्टेट ऑफ माउंटेन एग्रीकल्चर रिपोर्ट-2019 के मुताबिक 2001 से 2011 के बीच 2,26,949 किसान परिवारों ने अपने पैतृक गांवों से पलायन किया है। खेत और बगीचे छोड़कर किसान मज़दूर बन गए। राज्य के पर्वतीय ज़िलों में 20 प्रतिशत से कम कृषि भूमि पर खेती हो रही है बाकी 80 प्रतिशत भूमि खाली छोड़ दी गई है।

उत्तराखंड के पर्वतीय हिस्सों में खेती-बागवानी पूरी तरह मौसम पर निर्भर है। मौसम अच्छा रहने पर उपज अच्छी होती है। लेकिन पिछले एक-डेढ़ दशक में बदलता मौसम किसानों की आमदनी पर विपरीत असर डाल रहा है। ये जलवायु से जुड़ी हुई खाद्य असुरक्षा है। रिपोर्ट के मुताबिक पर्वतीय किसानों की आमदनी कम हुई है।

 

बैनर तस्वीरः उत्तरकाशी के हर्षिल में सेब की फसल। यह क्षेत्र सेबों के लिए मशहूर है। यहां आठ गांवों सुखी, जसपुर,पुराली, झावा, बगूरी, हर्षिल, मुखवा, धराली के तकरीबन चार हज़ार परिवार आजीविका के लिए मुख्य तौर पर इन्हीं सेबों पर निर्भर करते हैं। तस्वीर- सचेंद्र पंवार

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