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सुंदरबनः कहानी एक शिकारी के हृदयपरिवर्तन की, हत्या छोड़ अपनाई संरक्षण की राह

सुंदरबन

सुंदरबन बाघ

  • सुंदरबन क्षेत्र में बसे एक गांव में बाघों को बचाने के लिए लोगों ने शिकार का अपना पुश्तैनी पेशा छोड़ दिया। आजीविका के लिए अब ये लोग दूसरे काम करते हैं।
  • मोंगाबे के साथ बातचीत में सुंदरबन में कभी शिकारी रहे अनिल मिस्त्री ने शिकारियों के गांव को शिकार मुक्त क्षेत्र बनने की कहानी साझा की। अब अनिल मिस्त्री संरक्षण के कार्य में लगे हैं।
  • बाघ बचाने के बाद शिकारियों को बाघ के पर्यटन से फायदा होना शुरू हो गया। साथ ही, इलाके में जानवर और इंसानों के बीच होने वाले टकराव में भी कमी आई।

यह कहानी एक शिकारी के हृदय परिवर्तन की है। ऐसा हृदय परिवर्तन जिसने पूरे गांव को अपना पुश्तैनी शिकार का काम छोड़, वन्यजीवों के संरक्षण के लिए प्रेरित किया। यह कहानी पश्चिम बंगाल स्थिति सुंदरबन में मैंग्रोव के जंगलों में पले-बढ़े अनिल मिस्री की है जो लंबे समय तक अपने पुश्तैनी पेशे में ही सक्रिय थे। इनका पूरा कुनबा अपनी आजीविका चलाने के लिए वन संपदा पर आश्रित था। वन्यजीवों का शिकार सामान्य बात थी। फिर एक दिन इन्होंने एक ऐसा शिकार कर डाला जिससे दुनिया देखने की इनकी दृष्टि ही बदल गयी। उस एक शिकार के बाद अनिल मिस्त्री कभी किसी वन्यजीव को मारने की हिम्मत नहीं जुटा पाए। इसके उलट उन्होंने वन्यजीवों को बचाने की मुहिम शुरू कर दी।

मोंगाबे-हिन्दी से बात करते हुए सुंदरबन स्थित बाली द्वीप नाम के गांव में रहने वाले मिस्त्री कहते हैं,  “मैं यहीं पैदा हुआ। बचपन इन्हीं पेड़-पौधों और जानवरों के बीच गुजरा। मैंने अपने बड़े-बुजुर्गों को हमेशा इन्हीं चीजों से रोजी-रोटी का बंदोबस्त करते देखा था। मैं भी यही सोचते बड़ा हुआ कि यह सब मेरे इस्तेमाल के लिए ही है। मुझे भी यही करना है। पेड़-पौधों का दोहन और वन्यजीवों का शिकार। वैसे भी मेरे गांव में रोजगार के लिए कोई और तरीका मौजूद नहीं रहा।”

उनदिनों को याद करते हुए अनिल मिस्त्री कहते हैं, “हमलोग अक्सर हिरण और ऐसे छोटे जानवरों की तलाश में शिकार पर निकलते थे। अगर बाघ सामने आ जाता तो उसका भी शिकार कर देते थे।”

ऐसे ही एक बार मिस्त्री ने एक हिरण का शिकार कर दिया। उसके बाद इन्हें कभी किसी वन्यजीव को मारने के वास्ते निशाना लगाने की हिम्मत ही नहीं हुई।

“मैंने एकबार एक हिरणी का मार दिया। उसका छोटा बच्चा वहीं आसपास था। उस हिरण के बच्चे की परेशानी मुझसे देखी नहीं गयी। मां से दूर होने का दुख बच्चा झेल नहीं पाया और परलोक सिधार गया। यह सब मेरे लिए असहनीय था,” 52-वर्षीय मिस्त्री दो दशक पुरानी घटना को याद करते हुए कहते हैं।

उस हिरणी के शिकार के बाद अनिल के पास पश्चाताप करने के सिवा कोई चारा नहीं था। इस रास्ते पर चलते हुए गमगीन अनिल सर्वप्रथम वहां मौजूद वनक्षेत्र के अधिकारियों से मिले। अपना अपराध स्वीकार किया। इसी मंथन के दौरान उन्हें सुंदरबन के बिगड़ते हालात से रू-ब-रू होने का मौका मिला। उन्हें समझ में आया कि अगर सबकुछ ऐसा ही चलता रहा तो इस सुंदर वन की स्थिति भविष्य में और खराब हो जाएगी।

इस बातचीत के बाद अनिल मिस्त्री को एक संस्था बनाने का ख्याल आया। उन्होंने बाली नेचर एंड वाइल्डलाइफ कंजर्वेशन सोसायटी नामक एक संस्था की स्थापना की। फिर मैंग्रोव के जंगल और जंगली जीवों को बचाने के काम में लग गए। 

गांव में रोजगार के अवसर न होने की वजह से अनिल मिस्त्री जैसे लोग शिकार की राह पर चल पड़ते हैं। अनिल ने एक घटना से प्रभावित होकर शिकार के बजाए संरक्षण का रास्ता चुना। एक संस्था की स्थापना की और लोगों को इससे जोड़ने के प्रयास में लग गए। तस्वीर- कार्तिक चंद्रमौली/मोंगाबे
गांव में रोजगार के अवसर न होने की वजह से अनिल मिस्त्री जैसे लोग शिकार की राह पर चल पड़ते हैं। एक घटना से प्रभावित होकर अनिल शिकार के बजाए संरक्षण का रास्ता चुना। एक संस्था की स्थापना की और लोगों को इससे जोड़ने के प्रयास में लग गए। तस्वीर- कार्तिक चंद्रमौली/मोंगाबे

मिस्त्री के काम को वाइल्डलाइफ प्रोटेक्शन सोसायटी ऑफ इंडिया (डब्लूपीएसआई) के साथ जुड़ने के बाद पहचान मिली। 

“हमने रोजगार के वैकल्पिक उपायों पर काम करना शुरू किया। इस तरह जंगल पर आस-पास के लोगों की निर्भरता कम हुई। अब मैं यह कह सकता हूं कि हमारे गांव के लोगों की जंगल पर निर्भरता न के बराबर रह गई है। एक समय हमारा गांव शिकार का केंद्र हुआ करता था पर पिछले 15-20 वर्षों में यहां शिकार की कोई घटना सामने नहीं आई है। यह हमारे लिए बड़ी उपलब्धि है। इसके साथ ही गांव के लोग पहले की अपेक्षा अब, आर्थिक रूप से अधिक संपन्न हैं,” वह कहते हैं।

मिस्त्री मानते हैं कि गांव में संरक्षण की बात करना एक चुनौती भरा काम है। संरक्षण से जुड़ी शिक्षा देना एक बात है। पर जब लोगों के पास कोई विकल्प न हो तो वह इसपर अमल करेंगे या नहीं इसकी कोई गारंटी नहीं है। इसलिए आय के वैकल्पिक स्रोतों पर काम करने की जरूरत थी। वन विभाग की मदद से सहकारिता समितियों का निर्माण हुआ जिससे बदलाव की बयार बहनी शुरू हुई।

“लोगों की मानसिकता बदलनी थी। उन्हें समझाया गया कि प्राकृतिक संसाधनों का अगर बेतहाशा दोहन हुआ तो एक दिन कुछ नहीं बचेगा। चूंकि ये लोग वनों के बीच रहते हैं इन्हें भी वन से काफी लगाव है, यह बात इन्हें बहुत जल्दी समझ में आ गयी। इस प्रयास में वन विभाग ने भी काफी सहयोग किया। वैकल्पिक आय के स्रोत मिलते ही वन संबंधी कानूनों का भी प्रभावी रूप से क्रियांवयन होना शुरू हो गया,” उन्होंने बताया।

जीव-जन्तुओं के घर पर इंसानों का कब्जा  

संरक्षण के प्रयास के शुरुआती दौर में स्थिति यह थी कि हर महीने तीन से चार बाघ गांव में आ जाते थे। मिस्त्री ने अब तक ऐसे 70 बाघों को गांव वाले इलाके से पकड़कर जंगल में छोड़ने का काम किया है।

अब स्थितियां बदल रही हैं। बाघ का शिकार बिल्कुल बंद हो गया है। अब गांव के चारो तरफ एक घेरा बना दिया गया है जिसकी वजह से बाघ अब मवेशी भी उठाकर नहीं ले जाते।

मिस्त्री मानते हैं कि बाघ की इसमें कोई गलती नहीं है।

“कई लोग बाघ के हमले के शिकार होते हैं, लेकिन ऐसा तभी होता है जब इंसान जंगल में जाते हैं। बाघ ने कभी गांव में घुसकर किसी को नहीं मारा है। हमने बाघ के इलाके पर कब्जा जमाया हुआ है। मेरे पूर्वज यहां आए और जंगलों को काटकर घर बना लिया। हमने पहले जंगल पर कब्जा किया और अब जंगल के भीतर खाने की खोज में जाते हैं। इसमें बाघ की गलती नहीं, बल्कि इंसानों की गलती है,” वह कहते हैं।

जानवर और बाघ के बीच टकराव की जो परिभाषा दी जाती है, मिस्त्री को उसपर भी ऐतराज है। “अगर कोई गांव से जंगल के बीच जाता है तो उसे टकराव नहीं बल्कि आत्महत्या कहेंगे। टकराव तो तब होगा जब बाघ गांव पर हमला कर लोगों को मार दे,” उन्होंने कहा।

वह कहते हैं कि इंडियन काउंसिल फॉर एग्रीकल्चर रिसर्च, सुंदरबन बायोस्फीयर रिजर्व और डब्लूपीएसआई जैसी संस्थाएं लोगों को वैकल्पिक रोजगार देने की कोशिश कर रही हैं, लेकिन इसके बावजूद कई गांव वाले जंगल में जाने से नहीं चूकते।

“कुछ लोग अभी भी नहीं समझे रहे हैं कि हमें जंगल पर से निर्भरता क्यों घटानी चाहिए। कुछ लोग इस बात को समझ भी रहे हैं और इन संस्थाओं की मदद से रोजगार भी पा रहे हैं। बावजूद इसके वह बीच-बीच में जंगल का रुख करते हैं और खुद को खतरे में डालते हैं,” वह कहते हैं।

हमारी वन की देवी बनबीबी पर लोगों का भरोसा है कि वह बाघ के हमले से लोगों को बचाएंगी। फिर भी कई बार हमले में लोग मारे जा रहे हैं।

“अगर देवी लोगों को बचाती तो बाघ के हमले में मारे गए पुरुषों की पत्नियों की इतनी खराब हालत नहीं होती,” मिस्त्री बताते हैं।

स्थानीय लोगों में आर्थिक संपन्नता आने की वजह से बाघ का संरक्षण आसान होता जा रहा है। तस्वीर- सौम्यजीत नंदी/विकिमीडिया कॉमन्स
स्थानीय लोगों में आर्थिक संपन्नता आने की वजह से बाघ का संरक्षण आसान होता जा रहा है। तस्वीर– सौम्यजीत नंदी/विकिमीडिया कॉमन्स

सुंदरबन के बाघ अधिक खूबसूरत और खतरनाक

सुंदरबन के बाघों को रॉयल बंगाल टाइगर के नाम से जाना जाता है और इनकी संख्या 86 के करीब है। पर मिस्त्री मानते हैं कि यहां बाघों की संख्या अधिक भी हो सकती है। देश के दूसरे हिस्सों के मुकाबले सुंदरबन के बाघ तैरना भी जानते हैं।

“बंगाल टाइगर पतले और शिकार की दृष्टि से अधिक फुर्तीले होते हैं। उनका रंग भी बाकी बाघों की तुलना में अलग होता है। साथ ही, वे दोस्ताना बिल्कुल नहीं होते हैं। कोई उन्हें कार के भीतर से नहीं देख सकता। ये बाघ दूसरों की तुलना में काफी साफ-सुथरे दिखते हैं। इसलिए कि ये पानी में तैरते हुए काफी समय बिताते हैं,” मिस्त्री ने बताया।

मिस्त्री कहते हैं कि लोगों को पर्यटन के जरिए भी रोजगार दिया जा सकता है। वह कम्यूनिटी आधारित टूरिज्म या कहें लोगों की भागीदारी के साथ पर्यटन के पक्षधर हैं जिसमें स्थानीय लोगों का रोजगार मिले और जंगल को नुकसान भी न हो।

“अगर पर्यटकों की संख्या बढ़ती है तो स्थानीय लोगों के लिए अच्छा ही होगा। पर्यटन से जो पैसा आता है वह वापस लोगों के कल्याण के लिए ही खर्च किया जाता है। पहले 25 प्रतिशत पैसा लोगों के काम आता था, लेकिन अब यह 45 फीसदी हो गया है,” अनिल मिस्त्री दावा करते हैं।

जैसे-जैसे लोग आर्थिक रूप से संपन्न होते जाएंगे, संरक्षण का काम आसान होता जाएगा, मिस्त्री कहते हैं।

“लोग और बाघ साथ-साथ रह सकते हैं। पिछले 10-15 वर्षों में कोई शिकार की घटना सामने नहीं आई है। अगर पर्यटन को और अधिक संगठित रूप से बढ़ावा मिलेगा तो स्थानीय लोग संरक्षण के प्रति और रुचि लेने लगेंगे और जंगल की तरफ नहीं जाएंगे,” मिस्त्री ने बताया।

बैनर तस्वीरः मैंग्रोव के जंगल में विचरण करते सुंदरबन के बाघ। ये बाघ पानी में लंबा समय बिताते हैं इसलिए दूसरे जंगल के बाघों की अपेक्षा अधिक साफ-सुथरे नजर आते हैं। तस्वीर– सौम्यजीत नंदी/विकिमीडिया कॉमन्स 

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