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बस्तर में है छत्तीसगढ़ के राजकीय पक्षी पहाड़ी मैना का आशियाना, शुरु हुए संरक्षण के प्रयास

पहाड़ी मैना

पहाड़ी मैना। तस्वीर- उदय किरण/विकिमीडिया कॉमन्स

  • छत्तीसगढ़ की राज्य पक्षी पहाड़ी मैना तेजी से विलुप्त हो रही है। गहरे काले रंग की यह चिड़िया घने जंगलों में रहना पसंद करती है।
  • बस्तर स्थित कांगेर घाटी राष्ट्रीय उद्यान में इनको देखा जाता है। राज्य सरकार इस पक्षी के संरक्षण के उपायों पर शोध कराने की तैयारी में हैं।
  • जानकारों के मुताबिक जंगलों की कटाई, विकास और लकड़ी के लिए जंगलों में साल के वृक्ष लगाने की वजह से इस चिड़िया का आशियाना संकट में है।
  • वन विभाग और संरक्षणकर्ता साथ मिलकर इस चिड़िया के व्यवहार और रहवास पर शोध कर रहे हैं ताकि इनको रहने लायक माहौल दिया जा सके।

गहरा काला रंग, नारंगी चोंच और पीले रंग के पैर और कलगी। यह पहचान है खूबसूरत पहाड़ी मैना की। इन्हें देखना हो तो छत्तीसगढ़ के बस्तर स्थित घने जंगलों का रुख करना होगा। इस पक्षी के लिए बस्तर के कांगेर घाटी राष्ट्रीय उद्यान का घना वन, पहाड़ों से कल-कल बहता झरना और पहाड़ियों में बनी गुफाएं,  मुफीद आशियाना उपलब्ध कराती हैं। हालांकि वहां जाने पर भी इस पक्षी के दर्शन हो पाएंगे कि नहीं, इसमें थोड़ा संदेह है।  

पहाड़ी मैना को इंसानों से दूर घने जंगल में रहना पसंद है। लेकिन इंसानों के संपर्क में आने पर ये पक्षी उनकी हूबहू नकल कर सकते हैं। इंसानों की नकल करने की कला ने इस पक्षी को पिंजड़े का पक्षी बना दिया है। इन्हें अक्सर बंद पिंजड़े में गैरकानूनी पशु-पक्षी के बाजारों में बिकता हुआ देखा जा सकता है। इस पक्षी को भारत के अलावा चीन और श्रीलंका में भी देखा जा सकता है।

कई दशक से हो रहा संरक्षण का प्रयास पर नतीजा सिफ़र

कभी कांगेर घाटी का घना जंगल पहाड़ी मैना का सबसे पसंदीदा ठिकाना हुआ करता था। इसको देखते हुए इसके संरक्षण के प्रयास बहुत पहले शुरू हो गए।

छत्तीसगढ़ के कांगेर घाटी के इलाके को 1983 में पहाड़ी मैना के लिए संरक्षित क्षेत्र घोषित किया था। तब छत्तीसगढ़ बतौर राज्य अस्तित्व में नहीं था।   

इसके बाद वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम 1972 में वर्ग एक में शामिल इस चिड़िया को छत्तीसगढ़ शासन ने वर्ष 2002 में राजकीय पक्षी का दर्जा दिया था। लेकिन 18 साल बीत जाने के बावजूद भी इस पक्षी के अस्तित्व पर संकट मंडरा रहा है।

हाल के वर्षों में यहां जंगल की कटाई की वजह से इनकी संख्या कम होती दिख रही है। तोते और कठफोड़वा की तरह ही पहाड़ी मैना को विशाल पेड़ों की खोह में रहना पसंद है। सूखे साल के पेड़ों में कठफोड़वा द्वारा बनाए गए खोह में भी पहाड़ी मैना को रहते देखा जाता है। अपना घर चुनने में यह पक्षी काफी सतर्क रहती है और एक खोह में रहने से पहले कई और घरों का निरीक्षण करती है।

“कांगेर घाटी में ऐसे 14 स्थान हैं जहां ये पक्षी फल लगने वाले मौसम में खाने और रहने के लिए आते हैं। मैंने अपने तीन साल के अनुभव में देखा है कि सूखे के समय ये चिड़िया सूख चुके पेड़ों की खोह में शरण लेती है। जल स्रोत के आसपास ही 20 से 25 मीटर ऊंचे पेड़ों पर ये रहती है। दूसरे जीवों से खुद की सुरक्षा के लिए पहाड़ी मैना ऊंचे स्थान चुनती होगी,” कहते हैं रवि नायडू। नायडू कंजर्वेशन एंड रिसर्च ऑफ वाइल्डरनेस (सीआरओडब्लू) संस्था से जुड़े हैं।

पहाड़ी मैना की चोंच नारंगी, पैर और कलगी पीले रंग की होती है। शरीर का बाकी हिस्सा गहरे काले रंग का होता है। तस्वीर- अमित मंडाविया
पहाड़ी मैना की चोंच नारंगी, पैर और कलगी पीले रंग की होती है। शरीर का बाकी हिस्सा गहरे काले रंग का होता है। तस्वीर- रवि नायडू

नायडू ने अमित मंडाविया के साथ मिलकर संस्था के लिए कुछ वर्ष पहाड़ी मैना पर अध्ययन किया था। मंडाविया मानते हैं कि जंगल की कटाई के साथ-साथ वन विभाग द्वारा जंगलों में न के बराबर गश्त की वजह से भी पक्षी की आबादी कम हो रही है। स्थानीय लोग भी चिड़िया का शिकार करते हैं।

“अगर पहाड़ी मैना को बचाना है तो उनके रहने लायक पेड़ों की संख्या बढ़ानी होगी। बरगद के पेड़ से इस पक्षी को वर्ष में दो बार खाना मिलता है। अगर पेड़ पर फल न भी लगे हों तो इन्हें बैठने का स्थान तो मिलता ही है,” वह कहते हैं।

क्या कम हो रही है पहाड़ी मैना की आबादी?

इस पहाड़ी मैना की आबादी को लेकर राज्य सरकार के पास कोई आंकड़ा नहीं है। लेकिन कहा जा रहा है कि यह पक्षी अब उतनी संख्या में नहीं दिखती। पिछली बार वर्ष 2017 में इनकी गणना हुई थी जिसमें इनके 100 जोड़े दिखे थे।

“प्रजनन करने वाले 100 जोड़ों को इस गणना में देखा गया था। वर्ष 2016 में पक्षी की गणना हुई थी और रिपोर्ट 2017 में सामने आया था। इसके बाद से इस पक्षी की संख्या का पता नहीं चला है। यह तय है कि संख्या और भी कम हुई है। करीब 20 साल पहले एक झुंड में 200 से 300 पक्षी दिखते थे, लेकिन अब बमुश्किल पांच से छह पक्षी एक झुंड में देखे जा सकते हैं,” मंडाविया कहते हैं।

वर्ष 2017 में पक्षियों की संख्या का अध्ययन करने वाले विशेषज्ञ अरुण एमके भरोस इस मामले में अलग राय रखते हैं। रायपुर में रहने वाले भरोस मानते हैं कि पक्षियों की आवाजाही बढ़ी है इसलिए संख्या कम हुई या बढ़ी इसका ठीक-ठीक अनुमान लगाना मुश्किल है।

“जहां खाने की व्यवस्था होती है वहां यह पक्षी उड़ जाती है। ये उड़कर पड़ोसी राज्य ओडिशा तक भी चली जाती है,” वह कहते हैं।

भरोस ने बताया कि उन्होंने कांगेर में 40 पक्षियों की गणना की थी। “फुदकती हुई इस चिड़ियां की गिनती करना काफी मुश्किल काम है। मेरे हिसाब से कांगेर में इनकी संख्या स्थिर लगती है, जो कि अच्छी बात है,” उन्होंने बताया।

कुछ वर्ष पहले पहाड़ी मैना के बड़े झुंड देखे जाते थे, लेकिन अब ऐसा दिखना दुर्लभ हो गया है। तस्वीर- ब्रायन राल्फ/फ्लिकर
कुछ वर्ष पहले पहाड़ी मैना के बड़े झुंड देखे जाते थे, लेकिन अब ऐसा दिखना दुर्लभ हो गया है। तस्वीर– ब्रायन राल्फ/फ्लिकर

संरक्षण केंद्र में प्रजनन की कोशिश

राज्य सरकार ने इनकी संख्या स्थिर रखने के लिए जगदलपुर स्थित संरक्षण केंद्र में पिंजड़े में प्रजनन की कोशिश चल रही है। इस परियोजना के बारे में कांगेर घाटी राष्ट्रीय उद्यान के संचालक विजया रात्रे ने कहा कि हर पिजड़े में एक जोड़े पक्षियों को रखा जाता है। “हालांकि, नर और मादा चिड़िया में भेद करना काफी मुश्किल होता है। दोनो दिखने में एक जैसे ही होते हैं,” उन्होंने बताया।

संरक्षण केंद्र में प्रजनन कराकर इनकी संख्या में इजाफा करना थोड़ा मुश्किल है।

“हमें अबतक सफलता नहीं मिली है। इन्हें ढूंढना और पकड़ना भी आसान नहीं है। देश में छत्तीसगढ़ के बस्तर के अलावा आंध्रप्रदेश और ओडिशा में ये पक्षी देखे जाते हैं,” रात्रे का कहना है।

वाइल्डलाइफ ट्रस्ट ऑफ इंडिया के वरिष्ठ संचालक राहुल कौल का मानना है कि संरक्षण केंद्र में प्रजनन कराना संख्या बढ़ाने का एक तरीका हो सकता है। लेकिन प्राकृतिक माहौल में इनकी संख्या बढ़े इसके लिए कार्य करने की जरूरत है।

“संरक्षण केंद्र में प्रजनन कराकर पक्षी की संख्या बढ़ाना एक आधुनिक और कारगर तरीका है, लेकिन यह तभी करना चाहिए जब हमें पता हो कि चिड़िया की संख्या बेहद कम हो गई है और संरक्षण केंद्र में प्रजनन के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं बचा है,” वह कहते हैं।

संरक्षण के लिए आंकड़े जुटाने के प्रयास

उद्यान के संचालक ने बताया कि पहाड़ी मैना के संरक्षण के लिए 40 लाख रुपए की राशि उपलब्ध है। इसका उपयोग इनके रहने के स्थान और खाने-पीने की आदतों को जानने-समझने के लिए किया जाएगा।  यह परियोजना पिछले वर्ष अक्टूबर-नवंबर में शुरू की गई थी।

रात्रे बताते हैं कि सीआरओडब्लू इस परियोजना में सहायक के रूप में काम कर रहा है। “कैमरा ट्रैप की मदद से कांगेर के जंगलों में मैना के रहने के स्थान की निगरानी हो रही है। यह पक्षी काफी शर्मीली होती है, इसलिए इनके नजदीक जाना मुमकिन नहीं होता है। अध्ययनकर्ता जंगलों में घूमकर इनके व्यवहार को परखेंगे और फिर तय होगा कि संरक्षण केंद्र में इनका प्रजनन कैसे किया जाए,” रात्रे ने बताया।

रात्रे मानते हैं कि पक्षियों के सभी प्रजातियों को पिंजड़े में रखकर प्रजनन नहीं कराया जा सकता है। मंडाविया का भी यही मानना है कि शर्मीले प्रकृति के पक्षी पिंजड़े में तनाव में रहते हैं।


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नायडू ने इस चिड़िया की संख्या में कमी पर एक नई जानकारी दी। वह कहते हैं कि तोता का खाना और रहना पहाड़ी मैना से मिलता-जुलता है इसलिए इन्हें जीने के लिए जबदस्त प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ता है। यहां तक कि तोते इनका घर भी छीन लेते हैं। 

“लगातार निगरानी कर हमने पाया है कि मैना को कठफोड़वा द्वारा बनाए घर पर्याप्त संख्या में नहीं मिल पाते। साल के सूख चुके वृक्ष लकड़ी के लिए काट दिए जाते हैं, जो कि इनका घर हो सकते हैं। अगर पक्षी के लिए हम घर भी प्रदान कर पाए तो संरक्षण की तरफ यह हमारी बड़ी सफलता होगी,” वह कहते हैं।

भरोस कहते हैं कि थाइलैंड में भी प्रजनन संबंधी जानकारी हासिल करने की कोशिश हुई थी। करीब12 साल तक अध्ययन होने के बाद ही लोगों को इसमें सफलता मिल पाई।

“हम यह चाहते हैं कि जल्द से जल्द हमें जानकारियां हासिल हो जाए, लेकिन ऐसा संभव नहीं होता है। चिड़िया को घोंसले के बजाए पिंजड़े में रखकर, उन्हें सीमित खाना देकर प्रजनन की उम्मीद कैसे कर सकते हैं?” उन्होंने कहा।

नायडू ने पिछले वर्ष  नवंबर और दिसंबर के दौरान सिर्फ 22 पक्षियों को देखा। वह मानते हैं कि संरक्षण के लिए जल्दी से कोई ठोस कदम उठाना पड़ेगा नहीं तो पहाड़ी चिड़िया विलुप्त हो जाएगी।

बैनर तस्वीरः पहाड़ी मैना का पसंदीदा घर साल के वृक्ष होते हैं। सूखे साल के पेड़ों में कठफोड़वा द्वारा बनाए गए खोह को ये अपना घर बनाते हैं। तस्वीर– उदय किरण/विकिमीडिया कॉमन्स

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