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पचास साल में हुई डेढ़ लाख मौत, हर प्राकृतिक आपदा लेती है औसतन 20 लोगों की जान

बिहार में हर साल बाढ़ के रूप में प्राकृतिक आपदा लोगों का जनजीवन प्रभावित करती है। तस्वीर में मौजूद लोग कोसी नदी में आई बाढ़ की वजह से सुरक्षित स्थान पर जा रहे हैं। तस्वीर- चंदन सिंह/फ्लिकर

बिहार में हर साल बाढ़ के रूप में प्राकृतिक आपदा लोगों का जनजीवन प्रभावित करती है। तस्वीर में मौजूद लोग कोसी नदी में आई बाढ़ की वजह से सुरक्षित स्थान पर जा रहे हैं। तस्वीर- चंदन सिंह/फ्लिकर

  • एक अध्ययन में सामने आया है कि बाढ़ और चक्रवाती तूफान जैसे मौसम संबंधी आपदा में सबसे अधिक जानें गई हैं। लू लगने से होने वाली मृत्यु को रोकने के लिए तत्काल कदम उठाने की जरूरत है।
  • ओडिशा, आंध्रप्रदेश, असम, बिहार, केरल और महाराष्ट्र जैसे अधिक जनसंख्या वाले राज्यों में आपदा में होने वाली मृत्यु का दर सबसे अधिक है। पिछले दो दशक में यह दर बढ़ी है।
  • अध्ययन कहता है कि इन राज्यों में आपदा प्रबंधन की नीति को और पुख्ता करने की जरूरत है ताकि लोगों की जिंदगी बचाई जा सके।
  • जानकार सुझाते हैं कि आपदा से निपटने के लिए मौसम का सटीक पूर्वानुमान और असामान्य मौसम की मार सह सकने वाले निर्माण कार्यों को बढ़ावा देना होगा।

जलवायु परिवर्तन की वजह से प्राकृतिक आपदा जैसी घटना अब आम-बात हो गयी है और इसमें होने वाले जान-माल की क्षति भी। हाल ही में हुए एक अध्ययन में पता चला कि पिछले पचास सालों में इन प्राकृतिक आपदाओं की वजह से करीब डेढ़ लाख लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी है। हरेक आपदा में औसतन बीस लोगों की जान जाती है। 

पिछले पचास वर्षों में आईं आपदा और उसमें हुए जान के नुकसान पर सामने आए इस विश्लेषण के अनुसार उष्णकटिबंधीय  चक्रवात सबसे घातक है। आंकड़े कहते हैं कि पिछले पचास वर्षों में प्राकृतिक आपदाओं में हुई मौत में 28.6 प्रतिशत मौत चक्रवाती तूफान की वजह से हुई। 

लोगों की जान लेने के मामले में बाढ़ दूसरे स्थान पर है।  बाढ़ और उष्णकटिबंधीय चक्रवाती तूफान मिलकर लगभग 75 प्रतिशत मौत के लिए जिम्मेदार होते हैं। हालांकि, लू और आकाशीय बिजली ऐसे दो आपदा हैं जिसपर तत्काल ध्यान देने की जरूरत है। इनसे हुई मौत के आंकड़े जरूर कम हैं लेकिन हाल के दिनों में इनका असर बढ़ा है। अगर इस तरफ ध्यान दिया जाए तो भविष्य में होने वाली कई मौतों को रोका जा सकता है। यह मानना है जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय से संबंधित महलानोबिस राष्ट्रीय फसल पूर्वानुमान केंद्र का जिसे पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय द्वारा स्थापित किया गया है। यह केंद्र वैज्ञानिक पीसी महलानोबिस के नाम पर स्थापित किया गया है।

 इस अध्ययन में वर्ष 1970 से लेकर 2019 तक के भारतीय मौसम विभाग (आईएमडी) के आंकड़ों को शामिल किया गया है। आईएमडी बाढ़, चक्रवात, लू, शीत लहर और आकाशीय बिजली जैसी प्राकृतिक आपदाओं से होने वाली मृत्यु के आंकड़े एकत्रित करता है।

आंकड़ों के विश्लेषण से अध्ययनकर्ताओं ने मौत के दर में साल-दर-साल मामूली कमी दर्ज की है। हालांकि, विश्लेषण कहता है कि चक्रवात को छोड़कर दूसरी आपदाओं में वृद्धि हो रही है। बेहतर मौसम पूर्वानुमान की वजह से मौत में कमी तो हुई है, लेकिन इन आपदाओं की वजह से आर्थिक नुकसान बहुत अधिक हुआ है। 

“अगर रुझान को देखें तो आपदाओं की संख्या में काफी तेज वृद्धि दिखती है। जलवायु परिवर्तन की वजह से ऐसा हो रहा है,” कहते हैं एम राजीवन जो पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय में सचिव हैं और इस विश्लेषण में सह लेखक की भूमिका में हैं। 

पचास साल में हुई डेढ़ लाख मौत, हर प्राकृतिक आपदा लेती है औसतन 20 लोगों की जान
बिहार में कोसी नदी हर साल बाढ़ लेकर आती है, जिससे हजारों लोगों का जीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है। तस्वीर– कुमार राकाजी/विकिमीडिया कॉमन्स

मोंगाबे-हिन्दी से बातचीत में उन्होंने कहा कि आपदा प्रबंधन में लगी संस्थाओं के लिए यह आंकड़े काम के हैं। आगे की योजना बनाने में इन आकड़ों से मदद मिल सकती है। गुजरात और ओडिशा जैसे राज्य में आपदा प्रबंधन के लिए मजबूत तंत्र मौजूद है। लेकिन दूसरे राज्यों में ऐसा नहीं है, राजीवन आगे कहते हैं।

 “आंकड़े साफ इशारा करते हैं कि बेहतर मौसम पूर्वानुमान के होने की वजह से मृत्यु में कमी आई है। आने वाले समय में समाज के हर तबके तक आपदा से संबंधित जागरुकता आने पर इस संख्या को और भी कम किया जा सकता है,” अध्ययन के सह लेखक कमलजीत राय ने कहा। वह पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय में वरिष्ठ वैज्ञानिक हैं।

 “देश में कई तरह की असमानता की वजह से मृत्यु के आंकड़ों में अंतर है। उदाहरण के लिए कम आमदनी वाले लोग जो खुले में काम करते हैं, उन्हें लू लगने या आकाशीय बिजली का शिकार होने की आशंका दूसरे लोगों की तुलना में अधिक रहती है,” राय कहते हैं। 

शोधकर्ताओं ने इस अध्ययन की सीमा को भी स्वीकार किया। इनके अनुसार प्राकृतिक आपदा से होने वाली सारी मौतें शामिल की गईं हो, इसकी गारंटी नहीं दी जा सकती। जैसे कई लोगों की जान अप्रत्यक्ष कारण से होती है। या आपदा से प्रभावित होते हुए भी मौत देर से होती है और उनका हिसाब नहीं रखा जाता। ऐसी अन्य कई वजहें हैं जिसकी वजह से कई लोगों की मौत इस अध्ययन में शामिल नहीं हो पाई हों। 

एक आपदा में गईं औसतन 20 लोगों की जान

पिछले पचास वर्षों में कुल 7,063 ऐसी आपदाएं आई हैं जिनमें कम से कम एक जान गई हो। इनमें 1,41,308 लोगों की मृत्यु हुई। यानी एक आपदा में औसतन 20 लोगों की जान गई। आंध्रप्रदेश, बिहार, केरल और महाराष्ट्र जैसे राज्य जहां अधिक जनसंख्या है वहां पिछले दो दशक में मौत के मामले भी अधिक हैं।  विश्लेषण कहता है कि ऐसे स्थानों के लिए अलग आपदा प्रबंधन नीति बनाने की जरूरत है। 

करीब 10 से अधिक जान लेने वाली आपदाओं पर नजर रखने वाली बेल्जियम स्थित संस्था ईएम-डीएटी का अनुमान है कि भारत में आपदाओं की वजह से पिछले पचास वर्ष में भारतीय मुद्रा में 72 खरब (99 बिलियन अमेरिकी डॉलर) से भी अधिक का नुकसान हुआ है। ईएम-डीएटी-अंतरराष्ट्रीय आपदाओं के आंकड़ों का संग्रहण हैं। यहां उन सारे प्राकृतिक आपदाओं के आकड़े इकट्ठे किए जाते हैं जिसमें दस से अधिक लोगों की जान गई हो हैं। 

 आपदाओं में वृद्धि की वजह से एक ही स्थान पर कई तरह की आपदाएं आने लगी है। कुछ वर्ष पहले समुद्री इलाकों में सिर्फ चक्रवात की आशंका रहती थी, लेकिन अब इन्हीं इलाकों में लू जैसी आपदाएं भी अपना असर दिखाने लगीं हैं।

 “समुद्री इलाके में रहने वाले लोग चक्रवात और बाढ़ जैसी आपदाओं से परेशान रहते थे। लेकिन हाल के दशक में देखा गया है कि लू और आकाशीय बिजली से भी आंध्र प्रदेश और ओडिशा जैसे राज्यों में लोगों की मौत हो रही है,” राय कहते हैं। 

यह अध्ययन कहता है कि ओडिशा में बिजली गिरने से होने वाली मौतों में 61 प्रतिशत का इजाफा हुआ है। 

प्राकृतिक आपदा से जान-माल के नुकसान को बचाने के लिए बेहतर मौसम पूर्वानुमान तंत्र स्थापित करने की जरूरत है। देश के कुछ राज्यों में अभी भी मौसम के सटीक पूर्वानुमान से आपदा का बेहतर प्रबंधन हो रहा है। तस्वीर- सीसीएएफएस/फ्लिकर
प्राकृतिक आपदा से जान-माल के नुकसान को बचाने के लिए बेहतर मौसम पूर्वानुमान तंत्र स्थापित करने की जरूरत है। देश के कुछ राज्यों में अभी भी मौसम के सटीक पूर्वानुमान से आपदा का बेहतर प्रबंधन हो रहा है। तस्वीर– सीसीएएफएस/फ्लिकर

जलवायु परिवर्तन से निपटने की क्या है तैयारी

राय ने बताया कि देश में वातावरण और जलवायु के क्षेत्र में शोध के लिए एक वृहत्त योजना तैयार हो रही है। इसके तहत एक तंत्र विकसित किया जाना है जिसे एटमॉस्फीयर एंड क्लाइमेट रिसर्चः मॉडलिंग, ऑबसर्विंग सिस्टम एंड सर्विस (एक्रॉस) के नाम से जाना जाएगा। यह तंत्र पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के द्वारा तैयार किया जा रहा है। इसके तहत ओडिशा और आसपास के इलाकों में आकाशीय बिजली पर अगले पांच साल के लिए शोध होना है।  इस तरह की कोशिशों से वैज्ञानिक जमीन, समुद्र और वातावरण को बेहतर तरीके से समझकर बारिश और आकाशीय बिजली के पीछे के संबंधों को समझ पाएंगे।

इसके अलावा, इस योजना में रडार का तंत्र भी दुरुस्त किया जाएगा जिससे मौसम का पूर्वानुमान और सटीक हो सके। 

इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ ट्रॉपिकल मेट्रोलॉजी, पुणे (आईआईटीएम) के जलवायु वैज्ञानिक  रॉक्सी मैथ्यू कोल्, कहते हैं कि पूर्वानुमान के ऐसे तंत्र की जरूरत है, जो धरती और समुद्र पर होने वाले मौसम परिवर्तन को भांप सके। रॉक्सी मैथ्यू कोल् इस अध्ययन से नहीं जुड़े हैं। 

“समुद्र की परिस्थिति तेजी से बदल रही है, जिसकी बड़ी वजह ग्लोबल वार्मिंग है। पृथ्वी की गर्मी को समुद्र अवशोषित कर रहे हैं। ग्लोबल वार्मिंग की गर्मी का 93 प्रतिशत से भी अधिक भाग समुद्र सोख रहे हैं। चक्रवात की प्रकृति भी बदल रही है। अंफन और फानी जैसे तूफान का आक्रामक रुख हाल ही में दिखा है,” वह कहते हैं। 

पचास साल में हुई डेढ़ लाख मौत, हर प्राकृतिक आपदा लेती है औसतन 20 लोगों की जान
पश्चिम बंगाल में पिछले साल आए चक्रवाती तूफान अंफन से जान-माल को काफी नुकसान हुआ। इस आपदा में दर्जनों लोगों की जान भी गई थी। तस्वीर– यूएनडीपी क्लाइमेट/फ्लिकर

कोल् और उनके समूह ने एक अध्ययन में पाया कि फानी तूफान के समय समुद्री सतह गर्म होने की वजह से 36 घंटे तक अपनी तेज रफ्तार बनाए रखी। यह सामान्य घटना नहीं है। 

औसतन हर साल दो या तीन उष्णकटिबंधीय चक्रवात का निर्माण समुद्री सतह पर होता है। राय कहते हैं कि ऐसे तूफान काफी खतरनाक होते हैं। इनकी बात सही भी लगती है क्योंकि 2020 तक आए तूफानों में औसतन 345 जानें गई हैं।  

“पिछले दो दशक में तूफान में मौत के आंकड़ों में कमी आई है। वर्ष 2000 से 2019 तक मृत्यु दर सबसे कम (2.3 प्रतिशत) रही,” उन्होंने कहा। 

इस अध्ययन में आर्थिक नुकसान की बात नहीं की गई है, लेकिन राय ने इशारा किया कि भविष्य में आर्थिक नुकसान की दृष्टि से भी कोई अध्ययन हो सकता है। 


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टिकाऊ विकास के लक्ष्य 13: क्लाइमेट एक्शन के मुताबिक हर देश में जलवायु परिवर्तन संबंधी आपदाओं से निपटने की तैयारी का लक्ष्य रखा गया है।

इस बात को ध्यान में रखकर देश की पंद्रहवें वित्त आयोग (2021-26) ने केंद्र और राज्य के स्तर पर आपदा रोकने के लिए राशि के प्रावधान का सुझाव दिया है। राज्य आपदा प्रबंधन राशि के लिए 1,60,153 करोड़ रुपए का सुझाव है, जिसमें 1,22,601 करोड़ रुपए केंद्र सरकार को वहन करना होगा। 

ओडिशा के विशेष राहत कमिश्नर प्रदीप जेना के मुताबिक इस राशि का 20 प्रतिशत आपदा सह सकने योग्य निर्माण कार्य में लगाया जाएगा। 

वित्त आयोग के द्वारा तैयार किए डिजास्टर रिस्क इंडेक्स में ओडिशा जलवायु परिवर्तन का खतरा झेलने में पहले स्थान पर है। वर्ष 2013 में आए तूफान के बाद यहां बिजली बाधित हुई थी, जिसके बाद आपदा को सह सकने वाले बिजली वितरण तंत्र विकसित करने की जरूरत महसूस हुई थी।

जेना कहते हैं कि ओडिशा में 2600 करोड़ रुपए से ऐसा बिजली वितरण तंत्र स्थापित किया जा रहा है तो प्राकृतिक आपदा झेल सके।

 

बैनर तस्वीरः बिहार में हर साल बाढ़ के रूप में प्राकृतिक आपदा लोगों का जनजीवन प्रभावित करती है। तस्वीर में मौजूद लोग कोसी नदी में आई बाढ़ की वजह से सुरक्षित स्थान पर जा रहे हैं। तस्वीर– चंदन सिंह/फ्लिकर 

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