- ट्राउट मछली पालने वाले हिमाचल के मछली पालक अपना पेशा छोड़ने को मजबूर हैं। मछली के बीजों की आपूर्ति न होने और बार-बार आने वाली बाढ़ से उन्हें नुकसान हो रहा है।
- किसानों को अपनी ही सरकार से प्रतिस्पर्धा भी करना पड़ रहा है। मछली का बीज बेचने वाले सरकारी संस्थान खुद भी बाजार में मछली बेचते हैं।
- समस्या से निपटने के लिए सरकार ने मछली पालन करने वालों का बीमा भी कराना शुरू किया है ताकि आपदा की स्थिति में किसानों की क्षतिपूर्ति हो सके।
“सब कुछ मेरे सामने हुआ। मैंने बाढ़ के पानी को टैंक की तरफ आते हुए देखा। बाढ़ के पानी के साथ सारी मछलियां बहकर जाने लगीं। मैंने बदहवास हो गया। हाथों से ही मछलियों को रोकने की कोशिश करने लगा,” हरीश धनोतिया अपना दर्द बयान करते हैं। हिमाचल प्रदेश के कांगरा के रहने वाले धनोतिया मछली पालन का व्यवसाय करते हैं। उस बाढ़ ने धनोतिया को तोड़कर रख दिया। कुछ ऐसा नुकसान हुआ कि उन्होंने मछली पालन से तौबा ही कर ली।
स्वाद और पोषण से भरपूर ट्राउट मछली एक समय पहाड़ी इलाके के किसानों की तकदीर बदलने वाली मछली कहलाती थी। लेकिन बाढ़ और दूसरी समस्याओं ने इन क्षेत्र में मछली पालन को इतना विकट कर दिया कि अब लोग इस पेशे को छोड़ने को मजबूर हैं।
ट्राउट मछली ठंडे पानी की मछली मानी जाती है। इसमें ओमेगा थ्री, फैटी एसिड नामक तत्व होता है। इस मछली को स्वास्थ्य के लिहाज से काफी फायदेमंद माना जाता है।
स्वास्थ्य के मद्देनजर इस मछली की खूबियों और इसको पालने में आने वाली कठिनाइयों की वजह से बाजार में इसकी कीमत 1,000 से 1,500 रुपए किलो तक होती है।
धनोतिया को देखें। इन्होंने इंजीनियरिंग की शिक्षा लेने के बाद देश की एक प्रतिष्ठित कंपनी में नौकरी की। उस नौकरी को छोड़ इन्होंने मछलीपालन का पेशा चुना था। यह 2015 की बात है। बार-बार आने वाली बाढ़ ने कुछ ऐसी स्थिति कर डाली कि धनोतिया ने महज पांच साल में इसे मछली पालन को छोड़ने का निर्णय ले लिया। बीते साल यानी 2020 में इन्होंने यह फैसला ले लिया था। जीवनयापन के लिए अब वे एक दुकान चलाते हैं।
“ट्राउट पालना जुआ है,” धनोतिया ने मछली पालन में हुए नुकसानों को याद करते हुए कहा। मुझे इस काम से रत्ती भर का भी मुनाफा नहीं हुआ, उन्होंने बताया।
हरीश धनोतिया कोई अकेले किसान नहीं जिन्होंने नुकसान से तंग आकर पेशा छोड़ा हो। बल्कि हिमाचल में हरीश जैसे किसानों की भरमार है।
इन किसानों की मुश्किलें बढ़ाने में सिर्फ बाढ़ ही नहीं, बल्कि सरकार की बेरुखी का भी अच्छा-खासा योगदान है।
देश के उत्तरी हिस्से के ट्राउट मछली पालक बीज, तारे और दूसरी जरूरतों के लिए सरकार पर निर्भर हैं। बावजूद इसके सरकार खुद भी इस बाजार में उतरकर मछली पालकों को प्रतिस्पर्धा दे रही है। हिमाचल सरकार ने भी मछली पालन के लिए ढ़ांचा खड़ा किया है। सरकार मछली पालन और मछली बेचने का काम भी करती है। सरकार के वृहत संसाधनों के सामने छोटे किसानों का टिक पाना लगभग नामुमकिन है।
किसानों का पक्ष यह है कि जिन सरकारी संस्थाओं पर मछली पालन से जुड़े जरूरी सामानों के लिए निर्भर हैं, उन्हीं संस्थाओं से इन्हें बाजार में मुकाबला भी करना पड़ रहा है। ट्राउट पालना किसानों के लिए घाटे का सौदा बनता जा रहा है।
हिमाचल मछली पालन विभाग उम्मीद लगाए बैठा है कि ट्राउट पालन में अधिक से अधिक निजी लोग शामिल होंगे। जमीनी सच्चाई यह है कि यहां के मछली पालक अपना व्यापार बंद करते जा रहे हैं।
चारे से लेकर बीज की आपूर्ति तक में समस्याएं
मछली पालन के लिए बीज यानी मछली के अंडे से निकली छोटी मछलियां काफी महत्वपूर्ण होती है। इसके बाद बारी आती है मछली को बढ़ने में मदद करने वाले पौष्टिक चारे की। ट्राउट के अंडे से बीज तैयार करना और चारा तैयार करना तकनीकी तौर जटिलताओं वाला काम है। किसानों को इस काम के लिए सरकार पर निर्भर रहना पड़ता है।
“बीज के लिए मुझे 36 घंटे की यात्रा कर किन्नौर स्थित सरकारी फार्म पर जाना पड़ता था,” धनौतिया ने बीज पाने की जद्दोजहद के बारे में मोंगाबे-हिन्दी को बताया। जबकि धनौतिया के फार्म से 4 किलोमीटर दूर सरकार का खुद का फार्म है जहां से मछली बाजार में बेची जाती है।
“जब सरकार का फार्म इतना नजदीक है तो मुझे 36 घंटे की यात्रा करने की क्यों जरूरत पड़ी?” सरकार की नीयत पर सवाल उठाते हुए धनौतिया ने कहा।
ट्राउट पालन न सिर्फ तकनीकी जटिलता वाला है बल्कि इनको बड़ा करने में समय भी काफी लगता है। एक बार तालाब पर बाढ़ या किसी दूसरी वजह से मुसीबत आई तो दोबारा उत्पादन शुरू करने में काफी समय लगता है। उदाहरण के लिए कुल्लू में 2018 में आए बाढ़ से बाद जो किसान प्रभावित हुए थे वे अब तक मछली का उत्पादन शुरू नहीं कर पाए हैं।
हिमाचल में सरकार के द्वारा कुल्लू स्थित पत्लिकुहल मछली फार्म से मछली के बीज बेचा जाता है। यह प्रदेश का सबसे बड़ा सरकारी फार्म है। यहीं से प्रदेश के हर किसान तक बीज और चारा जाता है।
“ट्राउट मछली पालने में असफल होने की भरपूर आशंका रहती है,” कहते हैं नरेश कपूर, जो कभी मनाली के हरिपुर में एक बड़ा फार्म चलाते थे। उन्होंने वर्ष 2007 से 2013 तक ट्राउट पालन का काम किया।
“पत्लिकुहल का फार्म समय पर चारा नहीं तैयार कर पाता है। वहां दक्षिण भारत के किसी राज्य से चारा तैयार करने का कच्चा माल आता है जिससे चारा तैयार करने में काफी समय लगता है,” वह कहते हैं।
कई किसानों को शिकायत है कि सरकारी फार्म से खराब दर्जे का चारा मिलता है। कपूर ने बताया कि एक बार उन्होंने चारा खरीदा था जिसमें फंगस लगा हुआ था। ज्यादातर किसान मानते हैं कि चारे का बड़ा भाग खराब होता है।
वर्ष 1989 में नॉर्वे की सरकार ने हिमाचल प्रदेश की सरकार के साथ ट्राउट पालन की तकनीक हस्तांतरित करने का करार किया था। तब से हिमाचल में मछली पालन की तकनीक को अपडेट नहीं किया गया है। यहां की तकनीक पुरानी मानी जाने लगी है।
मछली पालन विभाग का कहना है कि विभाग सरकार पर किसानों की निर्भरता को कम करना चाहता है। इसके लिए सब्सिडी के माध्यम से बीज और चारा तैयार करने वाले संयंत्र लगाने में निजी क्षेत्र की मदद की जा रही है।
इस बात पर कपूर कहते हैं,“मेरा फार्म इलाके में सबसे बड़ा माना जाता था। मेरे पास खुद बीज तैयार करने का संयंत्र भी था, लेकिन बावजूद इनके मेरा फार्म नुकसान में गया।”
कुल्लू में मछली पालन कर रहे किसान आशू कहते हैं, “सरकार को हर किसी किसान को बीज और चारा बनाने की तकनीक देने पर ध्यान देने के बजाए इसके आपूर्ति पर ध्यान देना चाहिए। अगर सरकार से हमें बीज और चारा मिलता है तो मुझे खुद इसे तैयार करने की क्या जरूरत है। एक तो खुद बीज तैयार करना महंगा है ऊपर से इसे चलाने के लिए भी लोगों को मजदूरी देनी होगी।”
कपूर कहते हैं कि उन्होंने भी मछली फार्म बनाया था। वह कहते हैं कि मछली पालन में असल समस्या बीज और चारे की है। इसके अतिरिक्त सरकार खुद सस्ते दाम में मछलियां बाजार में उतार रही है। ऐसे में किसान प्रतिस्पर्धा में टिक नहीं पा रहा।
“सरकार को बीज और चारे की गुणवत्ता पर ध्यान देना चाहिए,” आशू ने बताया।
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कर्ज और बाढ़ का कुचक्र
ट्राउट पालन की शुरुआत के लिए एक किसान को पहले एक विस्तृत ढांचा का निर्माण करना पड़ता है। इसपर काफी खर्च करना होता है। इसके लिए किसानों को अमूमन कर्ज लेना पड़ता है। बलबीर सिंह नामक एक किसान ने 48 लाख का कर्ज लेकर वर्ष 2008 में 18 रेसवे से फार्म शुरू किया था। रेसवे एक तरह का मानव-निर्मित पानी का ढांचा होता है जो मछलियां को पालने के लिए बनाया जाता है। इसमें उन्हें सरकारी सहायता भी मिली थी।
“शुरुआत में तो मछली पालन का काम काफी आकर्षक लगा। लेकिन जल्दी ही चारे और बीज की समस्याएं आने लगीं। सरकार के साथ सीधा मुकाबला तो था ही। मैं जैसे-तैसे फार्म चला रहा था। पर बाढ़ आई और सारी मछलियां खत्म हो गईं। इस वजह से इतना नुकसान हुआ कि कर्ज चुकाना मुश्किल हो गया,” सिंह कहते हैं।
सिंह को 2013 में आखिरकार अपना मछली फार्म बंद करना पड़ा।
एक और मछली पालक आलम चांद के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ। कहते हैं, “मैंने चालीस लाख का कर्ज लिया था। इसके लिए सरकार की मदद भी मिली। सब्सिडी की मदद से मछली पालने के लिए तीन टैंक स्थापित किए और बीज और चारा सरकार से लिया। वर्ष 2018 में बाढ़ ने सब तबाह कर दिया और सभी मछलियां मर गईं।” इस काम को शुरू करने से पहले वे टैक्सी चलाकर गुजारा करते थे। काम बंद होने के बाद अब मजदूरी करते हैं।
मछली पालन विभाग के साथ इस समय 592 किसान पंजीकृत हैं, कहते हैं विभाग के डायरेक्टर और वार्डन सतपाल मेहता। मोंगाबे-हिन्दी से बातचीत में उन्होंने बताया कि यह संख्या साल-दर-साल बढ़ती जा रही है।
हालांकि, विभाग के पास काम छोड़ चुके किसानों का कोई आंकड़ा उपलब्ध नहीं है, मेहता ने बताया।
ट्राउट फिशरीज फार्मर्स असोसिएशन ने वर्ष 2020 में मछली पालन विभाग को एक पत्र लिखा था जिसमें 2018 में कुल्लू में आई बाढ़ के बाद 70 सदस्यों में से सिर्फ 15 के मछली पालन में बचे रहने की बात कही गई थी।
इसके लिए प्राकृतिक आपदा जिम्मेदार है, मेहता कहते हैं।
“समस्या को देखते हुए अब विभाग बीमा की सुविधा लाने पर भी विचार कर रहा है। इससे मछली या फार्म को हुए नुकसान की भारपाई की जा सकेगी,” उन्होंने कहा।
बीज और चारे की आपूर्ति के मामले पर मेहता बताते हैं कि अभी 14 लाख बीजों का उत्पादन किया जा रहा है, जबकि जरूरत 35 लाख की है। यही वजह है कि सरकार चाहती है कि किसान खुद भी बीज उत्पादन के काम में लगें।
मछली पालन विभाग से जुड़े एक उप संचालक ने नाम न जाहिर करने की शर्त पर बताया कि विभाग में कर्मचारियों की बेहद कमी है। “विभाग के अलावा किसान भी हमारे निर्देशों का पूरी तरह पालन नहीं करते। अगर किसान विभाग के साथ संपर्क में रहें तो नुकसान की गुंजाइश कम है,” उन्होंने फोन पर बताया।
कपूर कहते हैं कि मछली पालन विभाग में खुद कोई विशेषज्ञ नहीं है तो वे किसानों को क्या प्रशिक्षण देंगे?
ट्राउट फिशरीज एसोसिएशन के अध्यक्ष शक्ति सिंह जामवाल ने मोंगाबे-हिन्दी से बातचीत में बताया कि ट्राउट पालना काफी तकनीकी जटिलता वाला काम है। “बिना बीज-चारे के कितने दिन किसान मछली पालन कर पाएंगे? इस तरह के काम के लिए महज एक दिन का प्रशिक्षण दिया जाता है, जो काफी नहीं है,” जामवाल कहते हैं।
जामवाल ने आगे कहा कि सरकार को किसानों की मदद करनी चाहिए। “सरकार को किसानों के साथ प्रतिस्पर्धा भी नहीं करनी चाहिए। साथ ही, मछली पालन की तकनीक को अपडेट करने की भी जरूरत है,” उन्होंने कहा।
किसानो से जब ये पूछा गया कि नए लोगों को ट्राउट पालन में आने की सलाह देंगे? इस सवाल के जवाब में धनौतिया कहते, “मेरा तो सिर्फ कर्जा हुआ बस, कुछ फायदा नहीं हुआ।”
बैनर तस्वीरः पत्लिकुहल में ट्राउट के बीज तैयार किए जाते हैं। यह प्रदेश का सबसे बड़ा सरकारी मछली फार्म है। तस्वीर– पार्थिव हल्दीपुर/फ्लिकर