Site icon Mongabay हिन्दी

हरियाली बचाने के वास्ते गोंड समुदाय ने शवों को नहीं जलाने का लिया फैसला

छत्तीसगढ़ के कबीरधाम जिले में हुए गोंड महासम्मेलन में समाज के प्रतिनिधियों ने शव को न जलाने का फैसला लिया। तस्वीर- सर्व आदिवासी समाज, छत्तीसगढ़/फेसबुक

छत्तीसगढ़ के कबीरधाम जिले में हुए गोंड महासम्मेलन में समाज के प्रतिनिधियों ने शव को न जलाने का फैसला लिया। तस्वीर- सर्व आदिवासी समाज, छत्तीसगढ़/फेसबुक

  • संख्या में सबसे बड़ा आदिवासी समुदाय गोंड ने हरियाली बचाने के उद्देश्य से शव के अंतिम संस्कार का तरीका बदलने का निर्णय लिया है। अब वे शव को जलाने के बजाए दफनाएंगे।
  • देश में हर साल शवों के अंतिम संस्कार के लिए 6 करोड़ पेड़ काटे जाते हैं। इससे 80 लाख टन कार्बन डायऑक्साइड और पांच लाख टन राख पैदा होती है। राख अक्सर नदी में बहा दी जाती है।
  • यद्यपि हिन्दू रीति रिवाज के मुताबिक शवों को लकड़ी के ढेर पर जलाया जाता है पर गोंड समुदाय में पहले शवों को दफनाया ही जाता था। इसे मिट्टी संस्कार के नाम से जाना जाता है। समय के साथ इस समुदाय ने भी शवों को जलाना शुरू कर दिया।
  • शव जलाने में लकड़ी का उपयोग खत्म करने के लिए कुछ संस्थाएं बिजली चलित भट्ठी के उपयोग को प्रोत्साहित करने की मांग करती रही हैं।

देश के सबसे बड़े आदिवासी समाज के तौर पर गोंड समुदाय की पहचान होती है। हाल ही में इस समुदाय ने शवों के अंतिम संस्कार की अपनी वर्षों पुरानी परंपरा की तरफ लौटने का फैसला लिया। इस परंपरा में शवों को जलाने की बजाय दफनाया जाता है। इसे मिट्टी संस्कार का नाम दिया जाता है। 

मार्च 6-7 को हुए महासम्मेलन में गोंड समुदाय के गणमान्य लोगों ने मिलकर यह फैसला लिया। इस महासम्मेलन में गोंड समाज के करीब दो हजार प्रतिनिधि शामिल हुए थे।

“गोंड समाज का प्रकृति के साथ गहरा नाता रहा है। जंगल को हम देवता मानते हैं। पृथ्वी को बचाने के लिए पेड़-पौधों को बचाना जरूरी है। हम इसे बचाने की हर संभव कोशिश करेंगे। इसी को ध्यान में रखकर फैसला लिया गया है कि अब शवों के अंतिम संस्कार के लिए लकड़ियों का प्रयोग नहीं किया जाएगा,” कहते हैं सिद्ध राम गोंड जो छत्तीसगढ़ के कबीरधाम जिले के गोंड सेवा समिति में सचिव हैं। 

“अगर हम अपनी पुरानी दफनाने वाली परंपरा को फिर से अपनाना शुरू कर दें तो लकड़ी को जलाने की जरूरत नहीं होगी। इससे पेड़ बचेंगे। इसको देखते हुए समाज ने शवों को दफनाने के नियम को अपने संविधान में शामिल करने का फैसला लिया,” वह कहते हैं। 

जंगल गोंड समाज के अस्तित्व के लिए जरूरी है। आदिवासी समाज भोजन से लेकर औषधि, घर, पानी और जीने के दूसरी जरूरी चीजें के लिए वनों पर ही आश्रित है। इस बात की पुष्टि एक अध्ययन से भी होती है। यह अध्ययन  छत्तीसगढ़ के बीजापुर जिले के भैरमगढ़ में पड़ने वाले मंगलनार नाम के एक गांव के लोगों पर किया गया। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की सहायक प्रोफेसर श्राबनी सान्याल और शासकीय नवीन कॉलेज, बीजापुर के रामयश के इस अध्ययन में जंगल और गोंड समाज के सह-अस्तित्व की बात सामने आई। 

समाज के इस फैसले के बारे में जब गोंड आदिवासी चैतराम राज धुर्वे से पूछा गया तो उन्होंने इस फैसले का समर्थन किया। कबीरधाम निवासी धुर्वे को देखकर ही उनकी जंगल पर निर्भरता का अंदाजा लगाया जा सकता है। धुर्वे के सर पर घास का एक बड़ा गट्ठर लिए पास के जंगल से घर की तरफ लौट रहे थे। अपने एक हाथ में सूखी लौकी का खोल थामे हुए थे जिसमें वह पीने का पानी भरकर रखते हैं। बातचीत के दरम्यान भी धुर्वे घास का गट्ठर सर पर उठाए चलते रहे। “यह फैसला काफी सराहनीय है। मैंने भी अंतिम संस्कार की परंपरा को दोबारा चलन में लाने का प्रण लिया है” धुर्वे का कहना है। 

शव को जलाने में 500 किलो तक लकड़ी का इस्तेमाल होता है। एक अनुमान के मुताबिक शव जलाने के लिए सालभर में 6 करोड़ से अधिक पेड़ कटते हैं। तस्वीर- सतीश कृष्णामूर्ती/फ्लिकर
शव को जलाने में लगभग 500 किलो लकड़ी का इस्तेमाल होता है। एक अनुमान के मुताबिक शव जलाने के लिए सालभर में 6 करोड़ से अधिक पेड़ कटते हैं। तस्वीर– सतीश कृष्णामूर्ती/फ्लिकर

इतिहास में छिपा अंतिम संस्कार का यह तरीका

गोंड आदिवासी समाज का जिक्र रामचरित मानस ग्रंथ में भी आता है। गोंड राजाओं का साम्राज्य 1300 से 1600 शताब्दी तक माना जाता है।  

देश में गोंड आदिवासियों की संख्या 1.2 करोड़ से अधिक है। ये मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, ओडिशा, तेलंगाना और झारखंड जैसे राज्यों में मूल रूप से निवास करते हैं।

 खास बात यह है कि इंडियन स्टेट फॉरेस्ट रिपोर्ट 2019 में स्पष्ट किया गया था कि इन सभी राज्यों का कार्बन स्टॉक पिछले दो वर्षों में घटा है। इन राज्यों में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, तेलंगाना, छत्तीसगढ़, ओडिशा और झारखंड शामिल हैं, जहां गोंड की तादात सबसे अधिक है। 

शवों के अंतिम संस्कार को लेकर यह स्पष्ट है कि इस समुदाय में मिट्टी संस्कार की परंपरा रही है । पर, यह स्पष्ट नहीं हुआ है कि गोंड आदिवासी मिट्टी संस्कार के बजाए शव को जलाने की परंपरा कब से अपनाने लगे! इस समुदाय के कुछ लोग मानते हैं कि यह परिवर्तन मध्य-कालीन युग में हुआ होगा जब गोंड समुदाय के कई कुनबे हिन्दू समुदाय के कई रीति-रिवाजों को अपनाने लगे। 

 पर्यावरण की भी चिंता

पिछले कुछ वर्षों में लोगों के जीवन जीने के तरीकों में काफी बदलाव आया है। हालांकि, शवों के अंतिम संस्कार में आज भी सबसे प्रचलित तरीका लकड़ी से जलाना ही है। इस प्रक्रिया में भारी मात्रा में लकड़ी घंटों जलाई जाती है जिससे काफी मात्रा में राख और धुआं पैदा होता है। 

एक अनुमान के मुताबिक चिता चलाने की वजह से वर्ष में 6 करोड़ पेड़ों की बली दी जाती है। इनको जलाने से करीब 80 लाख टन कार्बन डाइऑक्साइड वातावरण में मिलता है। इससे 5,00,000 टन राख भी पैदा होती है जिससे सामान्यतः नदी में बहा दिया जाता है। 

बैनर तस्वीरः गोंड समुदाय ने पर्यावरण के हित में शवों को दफनाने का फैसला लिया है। गोंड समाज का प्रकृति के साथ गहरा नाता है। तस्वीर- अलीना/फ्लिकर/प्रतीकात्मक तस्वीर
गोंड समुदाय ने पर्यावरण के हित में शवों को दफनाने का फैसला लिया है। गोंड समाज का प्रकृति के साथ गहरा नाता है। तस्वीर– अलीना/फ्लिकर/प्रतीकात्मक तस्वीर

दिल्ली स्थित एक गैर सरकारी संस्था मोक्षदा ने पर्यावरण अनुकूल अंतिम संस्कार की पद्धति के बारे में लोगों को जागरूक किया है। संस्था ने कम लकड़ी के प्रयोग से शव को पूरी तरह जलाने की तकनीक विकसित की है। 

“पारंपरिक तौर से तैयार चिता में 500 से 600 किलो लकड़ी की जरूरत होती है, जबकि इस नए तरीके में एक शव को दो घंटे में 150 से 200 किलो लकड़ी में भी जलाया जा सकता है,” कहते हैं मोक्षदा के अंशुल गर्ग। 

इस पद्धति के तहत चिमनी का इस्तेमाल किया जाता है जिससे इसका तापमान का ह्रास नहीं होता। 

इनके दावे के अनुसार इस तकनीक से न सिर्फ लकड़ी की बचत होती है, बल्कि धुएं का उत्सर्जन भी 60 फीसदी तक कम होता है।

 बीते वर्षों में सरकार और पर्यावरण से संबंधित संस्थाओं ने बिजली से चलने वाले दाह-संस्कार केंद्रों को बढ़ावा दिया है। 

 

बैनर तस्वीरः छत्तीसगढ़ के कबीरधाम जिले में हुए गोंड महासम्मेलन में समाज के प्रतिनिधियों ने शव को न जलाने का फैसला लिया। तस्वीर– सर्व आदिवासी समाज, छत्तीसगढ़/फेसबुक

 

Exit mobile version