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[कमेंट्री] स्वच्छ ऊर्जा का लक्ष्य: सिर्फ मंजिल नहीं रास्तों की भी करनी होगी परवाह

  • अमेरिका में नई सरकार आने के बाद भारत के साथ संबंधों में जलवायु परिवर्तन फिर से एक खास मुद्दा बनकर उभर रहा है। पहले भी ऐसे मौके आए हैं जब तनावपूर्ण माहौल में जलवायु परिवर्तन जैसे मुद्दे ने दोनों देशों के बीच संबंधों को मजबूत करने में अहम भूमिका निभाई है।
  • जलवायु परिवर्तन से निपटने को लेकर भारत एक अहम पड़ाव पर है। अपने अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं की वजह से भारत को नवीन ऊर्जा के विस्तार पर अधिक ध्यान देना है। पर हालिया नीतिगत फैसलों को देखें तो सरकार का संदेश मिश्रित हैं। एक तरफ तो सरकार अक्षय ऊर्जा को बढ़ावा दे रही है और दूसरी तरफ जीवाश्म ईंधन को भी नीतिगत समर्थन मिल रहा है।
  • यह स्पष्ट है कि भविष्य में नवीन ऊर्जा पर अधिक जोर रहने वाला है। पारंपरिक ऊर्जा से नवीन ऊर्जा की तरफ जाने की इस यात्रा में कई नई चुनौतियां भी आएंगी। पर यह स्पष्ट होना चाहिए कि लक्ष्य के साथ-साथ परिवर्तन के तरीकों पर भी ध्यान देना होगा। अन्यथा ऐसा भी हो सकता है कि जो नई स्थिति बने वह मनमाफिक न हो।

अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन के पदभार संभालने के बाद, जलवायु परिवर्तन भारत और अमरीका के संबंधों के बीच फिर से एक धुरी बनकर उभर रहा है। चतुर्भुज सुरक्षा संवाद (Quadrilateral Security Dialogue) या क्वाड देशों – ऑस्ट्रेलिया, भारत, जापान और संयुक्त राज्य अमेरिका के हाल में हुई ऑनलाइन बैठक में इस मुद्दे पर चर्चा हुई।

मार्च 12 को इन चार देशों के नेताओं के जारी संयुक्त बयान में कहा गया है, “हम एक क्लाइमेट वर्किंग ग्रुप का गठन करेंगे जिसका उद्देश्य जलवायु परिवर्तन से जुड़ी चुनौतियों, उसके समाधान, प्रौद्योगिकी तथा इसे जुड़े वित्तीय पक्ष से संबंधित प्रयासों को मजबूती देना होगा। हमारे विशेषज्ञ और वरिष्ठ अधिकारी नियमित रूप से मिलते रहेंगे।  हमारे विदेश मंत्री वर्ष में कम से कम एक बार बैठक करेंगे। शीर्ष स्तर पर भी 2021 के अंत तक एक बार बैठक का आयोजन किया जाएगा।”

संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति और भारत के प्रधान मंत्री के बीच पहली अहम बैठक (यद्यपि यह ऑनलाइन बैठक थी) में जलवायु परिवर्तन पर चर्चा होना काफी महत्वपूर्ण है। यद्यपि  यह पहली बार नहीं है जब भारत और अमेरिका के शीर्ष नेताओं के बीच जलवायु परिवर्तन का मुद्दा एक पुल का काम किया हो। 

मार्च 2000 को याद करें, जब अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बिल क्लिंटन भारत का दौरा कर रहे थे। मई 1998 में पोखरण में हुए परमाणु परीक्षण के बाद अमेरिका ने भारत पर प्रतिबंध लगा दिया था और दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय संबंध पर लगभग विराम लग गया था। क्लिंटन की उस यात्रा के दौरान विशेषज्ञों का अनुमान था कि अमेरिका के राष्ट्रपति रक्षा के मुद्दे पर बात करेंगे। पर कुछ ऐसे भी संकेत मिल रहे थे कि ग्रीन डिप्लोमेसी इनके बातचीत का अहम मुद्दा होने वाला है।

ऐसा ही हुआ। ताज महल के प्रांगण से बोलते हुए  क्लिंटन ने ग्रीन सपोर्ट पैकेज की घोषणा की। उन्होंने कहा कि अगर ताज महल की दीवारों को ‘संगमरमर का कैंसर’ हो सकता है तो सोचिए बच्चों की सेहत पर इस प्रदूषण का क्या प्रभाव पड़ेगा। इसके साथ ही उन्होंने स्वच्छ, नवीन ऊर्जा और पावर सेक्टर के रिफॉर्म इत्यादि में सहयोग करने का वादा किया। बाद में जब 2020 में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने अमेरिका का दौरा किया तब भी यह ग्रीन डिप्लोमेसी जारी रही।

हालांकि यहां संदर्भ थोड़ा अलग हैं। कार्बन डाइऑक्साइड इनफॉर्मेशन एनालीसिस सेंटर (सीडीआईएसी) से संकलित आंकड़ों के अनुसार, 2000 में भारत का कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन (CO2) 0.97 बिलियन टन (बीटी) था और अमेरिका में यह 6 बीटी के करीब था। वहीं 2019 में, भारत का CO2 का उत्सर्जन बढ़कर 2.62 बीटी हो गया था, जबकि अमेरिका में घटकर 5.28 बीटी हो गया। वर्ष 2000 में भारत में प्रति व्यक्ति CO2 उत्सर्जन 0.93 टन था और अमेरिका में 21.29 टन था। वही 2019 में भारत का प्रति व्यक्ति CO2 उत्सर्जन बढ़कर 1.91 टन हो गया, जबकि अमेरिका का घटकर 16.06 टन पर आ गया।

वर्ष 2000 में अमेरिका उन देशों में शामिल था जिनके लिए जलवायु परिवर्तन कन्वेंशन के तहत उत्सर्जन में कमी के लक्ष्य निर्धारित किए गए थे।  भारत इन देशों में शामिल नहीं था। क्योटो प्रोटोकॉल ने दोनों देशों के लिए क्लीन डेवलपमेंट मेकनिज्म के तहत सहयोग को संभव बना दिया था जहां अमेरिका को भारत में मिटीगेशन और अडैप्टेशन कार्य के लिए कार्बन क्रेडिट मिल सकता था। इसको सरल भाषा में समझें तो यह कि जलवायु परिवर्तन से उपजने वाली समस्या में अगर अमेरिका भारत की मदद करता तो कार्बन क्रेडिट कमा सकता था।

पर 2021 में स्थिति बदली हुई है। अमेरिका की तरह भारत भी उत्सर्जन को कम करने के लिए प्रतिबद्ध है। दिसंबर 2015 के पेरिस समझौते ने हर देश को उत्सर्जन में कमी का लक्ष्य निर्धारित करने के लिए बाध्य किया था। यद्यपि यह लक्ष्य स्व निर्धारित और स्व-शासित थे। इसको अंग्रेजी में इन्टेन्डिड नैशनली डिटरमाईंड कान्ट्रीब्यूशन (आईएनडीसी) का नाम दिया गया। इस बदले परिवेश में जब भारत ने भी जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए नवीन ऊर्जा और अन्य प्रयासों के मद्देनजर महत्वाकांक्षी लक्ष्य निर्धारित कर रखे हैं, तब अमेरिका और भारत के बीच कूटनीतिक और व्यवसायिक सहयोग की ढेरों संभावनाएं बनती हैं।

भारत में अक्षय ऊर्जा को बढ़ावा मिल रहा है। वर्ष 2019-20 में अक्षय ऊर्जा के स्रोतों का विकास 9.12% रहा जबकि पारंपरिक ऊर्जा के स्रोतों का विकास महज 0.12% रहा। तस्वीर- विश्व बैंक/कर्ट कार्नेक/फ्लिकर
भारत में अक्षय ऊर्जा को बढ़ावा मिल रहा है। वर्ष 2019-20 में अक्षय ऊर्जा के स्रोतों का विकास 9.12% रहा जबकि पारंपरिक ऊर्जा के स्रोतों का विकास महज 0.12% रहा। तस्वीर– विश्व बैंक/कर्ट कार्नेक/फ्लिकर

भारत के परिप्रेक्ष्य में एनर्जी ट्रांजिशन

पेरिस में कान्फ्रेंस ऑफ पार्टीज से पहले 2 अक्टूबर, 2015 को भारत ने उत्सर्जन में कमी के लिए अपने लक्ष्य की घोषणा की। इस लक्ष्य में कहा गया कि भारत 2030 तक अपने सकल घरेलू उत्पाद की उत्सर्जन तीव्रता को 33 से 35 प्रतिशत कम करेगा। इसके लिए 2005 को आधार माना गया। इस लक्ष्य में यह भी कहा गया कि भारत 2030 तक अपनी कुल बिजली उत्पादन का 40 फीसदी गैर-जीवाश्म ईंधन स्रोत से हासिल करेगा। इसके अतिरिक्त यह भी लक्ष्य निर्धारित किया गया कि 2030 तक देश में इतने वन और हरियाली लगाई जाएगी ताकि ढाई सौर से तीन सौ करोड़ टन CO2 को सोखा जा सके।

आईएनडीसी में भारत ने 2022 तक 175 गीगा वाट क्षमता के नवीन ऊर्जा के स्रोत स्थापित करने का लक्ष्य भी निर्धारित किया गया। 23 सितंबर, 2019 को संयुक्त राष्ट्र महासचिव द्वारा आयोजित जलवायु कार्रवाई शिखर सम्मेलन में बोलते हुए, प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने 2022 तक 175 गीगावाट अक्षय ऊर्जा से भी आगे जाने का संकल्प लिया। प्रधानमंत्री ने उसके बाद का लक्ष्य 450 गीगावाट करने की घोषणा की।

पेरिस समझौते के बाद से अपनी आईएनडीसी प्रतिबद्धता के अनुसार भारत अक्षय ऊर्जा के साथ-साथ  पारंपरिक ऊर्जा के स्रोतों में लागातार वृद्धि कर रहा है। वर्ष 2015-16 में अक्षय और पारंपरिक ऊर्जा स्रोतों क्रमशः 6.47% और 5.64% की वृद्धि हुई थी।  वहीं 2019-20 में अक्षय ऊर्जा के स्रोतों के विकास की गति बढ़कर 9.12% हो गया पर पारंपरिक ऊर्जा के स्रोतों का विकास महज 0.12% रहा।

फरवरी 2021 तक भारत में बिजली की कुल स्थापित ऊर्जा क्षमता। स्रोत- ऊर्जा मंत्रालय
फरवरी 2021 तक भारत में बिजली की कुल स्थापित ऊर्जा क्षमता। स्रोत– ऊर्जा मंत्रालय

2040 तक क्या होगा ऊर्जा क्षेत्र का दृश्य

भारत एनर्जी आउटलुक 2021 के अनुसार कोविड19 महामारी ने भारत की ऊर्जा मांग को प्रभावित किया है। पहले यह अनुमान लगाया गया था कि 2019 और 2030 के बीच ऊर्जा की मांग 50% बढ़ जाएगी। अब इस वृद्धि को घटाकर 35% कर दिया गया है।  “एक विकासशील अर्थव्यवस्था, बड़ी जनसंख्या, बढ़ते शहरीकरण और औद्योगीकरण के मद्देनजर 2040 तक भारत में ऊर्जा की मांग किसी भी अन्य देश के मुकाबले अधिक बढ़ेगी। “

इस रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि आने वाले दो दशक में भारत के कुल ऊर्जा स्रोतों में सौर ऊर्जा और कोयला से बनने वाली ऊर्जा का हिस्सा लगभग बराबर हो जाएगा। ऐसे में देश में मजबूत ग्रिड की जरूरत पड़ेगी। भारत बैटरी स्टोरेज में भी अग्रणी देश बन सकता है। इन सारे प्रयासों से भारत को 2030 तक आईएनडीसी के अपने गैर-जीवाश्म से 40% बिजली उत्पादन के लक्ष्य को पाने में मदद मिलेगी।  भारत एनर्जी आउटलुक में अनुमान लगाया गया है कि तब तक अक्षय ऊर्जा की हिस्सेदारी 60% तक हो गयी रहेगी।

भारत में सौर ऊर्जा ने कई गांव रोशन किए हैं। यहां कई संस्थाएं ग्रामीण इलाकों में लोगों को प्रशिक्षण देकर सोलर लैंप बनाने का तरीका सिखाया। तस्वीर- अंतर्राष्ट्रीय विकास विभाग (डीएफआईडी), यूके/फ्लिकर
भारत में सौर ऊर्जा ने कई गांव रोशन किए हैं। यहां कई संस्थाएं ग्रामीण इलाकों में लोगों को प्रशिक्षण देकर सोलर लैंप बनाने का तरीका सिखाया है। तस्वीर– अंतर्राष्ट्रीय विकास विभाग (डीएफआईडी), यूके/फ्लिकर

जब भारत जैसे देश जिसकी जनसंख्या 130 करोड़ से भी अधिक है, ऊर्जा परिदृश्य में बदलाव की कोशिश करते हैं तो विश्व का ध्यान आकर्षित करना स्वाभाविक है। इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी की इंडिया एनर्जी आउटलुक 2021 में कहा गया है, “जब दुनिया ऊर्जा क्षेत्र में परिवर्तन की गति को तेज करने के तरीकों की तलाश में है तब भारत अपने कम कार्बन और समावेशी विकास के सहारे एक नए मॉडल का रास्ता दिखा सकता है।” 


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दो कदम आगे और एक कदम पीछे!

अगर सरकारी नीतियों को देखा जाए तो इसके संदेश मिश्रित हैं। एक तरफ तो सरकार अक्षय ऊर्जा को बढ़ावा दे रही है और वहीं दूसरी ओर जीवाश्म ईंधन को भी नीतिगत समर्थन मिल रहा है। कोविड-19 की वजह से आए आर्थिक संकट से उबरने में मदद को लेकर जब पैकेज की घोषणा की गयी उसी समय कोयले के वाणिज्यिक खनन और निजीकरण के भी प्रयास शुरू किए गए।

कारोबार करने में आसानी और पर्यावरण प्रभाव आकलन अधिसूचना को आसान बनाने के लिए भारत सरकार ने खनन क्षेत्र में संरचनात्मक परिवर्तन की भी घोषणा की। अधिक कोयला खनन पर भी सरकार का जोर है। साथ ही यह भी की थर्मल पावर प्लांट अधिक से अधिक घरेलू कोयले का इस्तेमाल करें। खनन सुधार भी लाए गए। खान को लेकर सिंगल विंडो क्लीयरेन्स और जन सुनवाई को आसान बनाने के वास्ते। कुल मिलाकर यह संदेश जा रहा है कि सरकार कोयला खनन को प्रोत्साहित कर रही है।

यह विडंबना ही है कि सरकार कोयले से चलने वाले थर्मल पावर प्लांट को तब बढ़ावा दे रही है जब प्लांट लोड फैक्टर (अधिकतम बिजली के संदर्भ में बिजली उत्पादन) कम हुआ है। प्लांट लोड फैक्टर वर्ष 2009-2010 में 77.5%  था और 2019-20 में घटकर 55.99% हो गया। इसी अवधि में, एनर्जी डेफिसिट – देश की ऊर्जा जरूरतों और ऊर्जा उत्पादन के बीच का अंतर 2009-10 में 10.1% से घटकर 2019-20 में 0.5% हो गया। इन आंकड़ों से स्पष्ट है कि पिछले दस वर्षों में थर्मल पावर प्लांट अपनी क्षमता से कम बिजली का उत्पादन कर रहे हैं लेकिन फिर भी देश में एनर्जी डेफिसिट नहीं हुआ है।  इसका तात्पर्य यह हुआ कि अन्य ऊर्जा के स्रोतों से अधिक बिजली उत्पन्न हुई और देश की ऊर्जा जरूरत को पूरा किया गया।

तेलंगाना स्थित एक सोलर प्लांट का दृश्य। केंद्रीय विद्युत नियामक आयोग के एक अनुमान के अनुसार सौर फोटोवोल्टिक के प्रत्येक मेगावाट  में 2.5 हेक्टेयर भूमि की आवश्यकता होती है। पवन ऊर्जा और बायोमास के लिए भी अधिक भूमि की आवश्यकता होती है। वर्ष 2007 में आए केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण की एक गणना के अनुसार, स्वदेशी कोयले का उपयोग करने वाले 1,000 मेगावाट  थर्मल पावर प्लांट को 574 हेक्टेयर (1,420 एकड़) भूमि की आवश्यकता होगी। ऐसे में अगर सावधानी नहीं बरती गयी तो भूमि-विवाद जारी रहेंगे। तस्वीर– थॉमस लॉयड ग्रुप/विकिमीडिया कॉमन्स

नई चुनौतियों पर ध्यान नहीं दिया गया तो भविष्य की चमक फीकी रहेगी

एनर्जी ट्रांजिशन की सामान्य समझ यह है कि जीवाश्म-ईंधन आधारित ऊर्जा कम होती जाती है और अक्षय ऊर्जा उसका स्थान लेती जाती है। यह एक सकारात्मक पर्यावरण से जुड़ा परिवर्तन माना जाता है। लेकिन यह बस एक पक्ष को दर्शाता है। दूसरा पक्ष यह है कि इस परिवर्तन में कुछ पुरानी चुनौतियां सामने आती रहती हैं तो कुछ नई चुनौती भी देखने को मिलती है। इस तरह जब भारत वैश्विक स्तर पर हो रहे एनर्जी ट्रांजिशन के मुहाने पर खड़ा है तो यह प्रयास होना चाहिए कि इस परिवर्तन में पर्यावरण के साथ-साथ समाज के सब तबके का ख्याल रखा जाए।

यह स्पष्ट है कि आने वाले दशकों में सौर ऊर्जा थर्मल पावर को पछाड़ कर शीर्ष पर आ जाएगी। ऐसे में अगर सावधानी नहीं बरती गयी तो भूमि-विवाद जारी रहेंगे। वर्ष 2007 में आए केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण की एक गणना के अनुसार, स्वदेशी कोयले का उपयोग करने वाले 1,000 मेगावाट थर्मल पावर प्लांट को 574 हेक्टेयर (1,420 एकड़) भूमि की आवश्यकता होगी। अगर पॉवर प्लांट आयात किए गए कोयले का इस्तेमाल करने लगें तो कम भूमि की जरूरत पड़ती है।

वहीं केंद्रीय विद्युत नियामक आयोग के एक अनुमान के अनुसार सौर फोटोवोल्टिक के प्रत्येक मेगावाट (MW) में 2.5 हेक्टेयर भूमि की आवश्यकता होती है। पवन ऊर्जा और बायोमास के लिए अधिक भूमि की आवश्यकता होती है। हाल ही में प्रकाशित नेचर ग्रुप की एक रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि अगर 2050 तक ऐसी स्थिति बने जिसमें कुल ऊर्जा उत्पादन का 54 प्रतिशत सौर ऊर्जा से आए तो इसके लिए देश के 0.7% से 0.9%  भूमि की आवश्यकता होगी।

भारत के ऊर्जा संबंधित बदले परिदृश्य में थर्मल ऊर्जा की तुलना में भूमि की अधिक आवश्यकता होगी। तात्पर्य यह है कि इसके लिए कृषि भूमि,  जैव विविधता से समृद्ध भूमि या अन्य विकास गतिविधियों के लिए सुरक्षित भूमि का भी इस्तेमाल होगा। मतलब भूमि से जुड़े विवाद बढ़ेंगे। घरों की छत पर सोलर पैनल के अधिक से अधिक इस्तेमाल करने पर इसको कुछ हद तक सुलझाया जा सकता है। लेकिन तब नई चुनौतियां होंगी। जैसे ऊर्जा का वरीकेंद्रीकृत स्वरूप और इसका वितरण। इसमें प्रबंधन संबंधी जटिलताएं आएंगी।

हाल में जलाशयों में सौर फोटोवोल्टिक पैनलों के इस्तेमाल की बात की जा रही है। इससे भी कई पर्यावरण संबंधी चिंताएं उभरेंगी।


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सबको साथ लेकर विकास करने का एक मौका

भारत की ऊर्जा विकास की कहानी अभी भी प्रगति पर है।  नवीकरणीय ऊर्जा की तरफ बढ़ने से ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन की गति को कम करने में मदद मिलेगी। अगर ऐसा हुआ तो भारतीय उपमहाद्वीप में औसत तापमान में कम वृद्धि होगी। इससे खेती-किसानी पर भी कम प्रभाव पड़ेगा, मौसम की अनियमित मार भी लोगों पर कम पड़ेगी।

कहने की जरूरत नहीं कि इसी लक्ष्य को पाने के लिए प्रयासरत रहना है। पर ऊर्जा क्षेत्र में परिवर्तन का तरीका भी उतना ही महत्वपूर्ण है जितना की इसके तहत हासिल किया जाने वाला लक्ष्य। अगर पर्यावरण और अन्य मुद्दों की परवाह किए बिना सिर्फ लक्ष्य हासिल करने पर ध्यान दिया गया तो हो सकता है कि भविष्य वैसा न हो जैसा देश चाहता है।  चुनौती यह है कि लक्ष्य के साथ-साथ समाधान के तरीकों पर भी नजर रखी जाए। यह एक मौका है जब देश के विकास को स्थायी और सबको साथ लेकर चलने वाला बनाया जाए।

 

बैनर तस्वीरः ओडिशा की मीनाक्षी दीवान यूनाइटेड किंगडम के अंतर्राष्ट्रीय विकास विभाग (डीएफआईडी) की मदद से अपने गांव में बिजली लेकर आई। वह सौर ऊर्जा की मदद से गांव को रोशन कर रही हैं। तस्वीर– एब्बी टायलर-स्मिथ / पैनोस पिक्चर्स/अंतर्राष्ट्रीय विकास विभाग (डीएफआईडी), यूके/फ्लिकर