- कोविड -19 महामारी के दौरान पता चला कि सरकार राजस्व कमाने के लिए पेट्रोलियम प्रोडक्ट पर किस तरह निर्भर है। केंद्र सरकार के राजस्व का लगभग 25 प्रतिशत फॉसिल फ्यूल (जीवाश्म ईंधन) पर लगे कर से आता है। इसकी तुलना में राज्य सरकारें अपने कुल राजस्व का करीब 13 प्रतिशत ऊर्जा पर कर लगाने से कमाती हैं।
- भारत सरकार का फॉसिल फ्यूल पर अत्यधिक कर लगाना नया नहीं है। सरकार कहती रही है कि इससे लोग पेट्रोल-डीजल का कम इस्तेमाल करेंगे और यह जलवायु परिवर्तन के लिहाज से सही होगा। पर सरकारी आंकड़े बताते हैं कि कीमत बढ़ाने से पेट्रोल-डीजल की खपत कम नहीं होती।
- विशेषज्ञ इस बात पर जोर देते हैं कि वर्तमान कर संरचना के साथ एनर्जी ट्रांजिशन नहीं हो सकता। एनर्जी ट्रांजिशन से तात्पर्य पारंपरिक ऊर्जा स्रोतों की खपत कम कर नवीन ऊर्जा जैसे सौर, वायु, बायो गैस इत्यादि पर निर्भरता बढ़ाना है।
हाल में हुए पेट्रोल-डीजल के दामों में बेतहाशा वृद्धि ने कई तरह के सवाल खड़े किए। तब भी पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़े रहे जब अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत रही। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि सरकार ने इसपर करीब 60% का कर लगा रखा है। इसकी वजह से बढ़ती महंगाई और पेट्रोल डीजल की कीमत के सैकड़ा छूने की तो काफी चर्चा हो रही है। लेकिन एक बात पर चर्चा नहीं हो पा रही है कि फॉसिल फ्यूल से होने वाली यह आमदनी क्या देश को नवीन ऊर्जा की तरफ बढ़ने में मदद होगी या मुश्किल पैदा करेगी।
कोविड-19 महामारी के दरम्यान यह स्पष्ट हुआ कि सरकार अपने राजस्व के लिए पेट्रोलियम प्रोडक्ट पर किस तरह आश्रित है। एक तरफ लोग सरकार से पेट्रोलियम प्रोडक्ट पर टैक्स कम करने की मांग करते रहे तो दूसरी तरफ सरकार इस बढ़े टैक्स को राजकोषीय स्थिति में सुधार के नाम पर बचाव करती है। वित्त राज्य मंत्री अनुराग सिंह ठाकुर ने 15 मार्च को लोकसभा में कहा, “मौजूदा राजकोषीय स्थिति को ध्यान में रखते हुए इतना उत्पाद शुल्क लगाया गया हैं।”
जीवाश्म ईंधन में पेट्रोलियम प्रोडक्ट के साथ-साथ कोयला इत्यादि भी शामिल है। इस पर सरकार का अधिक कर लगाना नया नहीं है। वर्तमान सरकार ने सत्ता में आने के बाद से जीवाश्म ईंधन पर टैक्स बढ़ाकर काफी राजस्व अर्जित किया है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार 2013-14 में, भारत सरकार ने पेट्रोल, डीजल और प्राकृतिक गैस पर केंद्रीय उत्पाद शुल्क से 12,35,870 करोड़ रुपये कमाए। उस साल सरकार के कुल अर्जित राजस्व में इसका योगदान करीब 4.3% रहा। अगर इसकी तुलना बीते साल से की जाए तो अप्रैल से लेकर जनवरी तक- महज दस महीनों में सरकार ने उत्पाद शुल्क से करीब 24,23,020 करोड़ रुपये कमाए। यह सरकार के कुल राजस्व का 12.2% है।
हाल ही में ‘एनर्जी: टैक्स एंड ट्रांज़िशन इन इंडिया’ से एक अध्ययन प्रकाशित हुआ जिसमें जीवाश्म ईंधन पर सरकार की निर्भरता का अध्ययन किया गया। पुणे स्थिति एक गैर-लाभकारी संस्था प्रयास के इस अध्ययन में कहा गया है, “ऊर्जा क्षेत्र से 2018-19 में केंद्र और राज्यों के कर राजस्व में लगभग 18% का योगदान हुआ। अपने राजस्व कमाने के वास्ते केंद्र सरकार जीवाश्म ईंधन पर अधिक आश्रित है। करीब 25 फीसदी। बनिस्बत इसके, राज्य सरकारें जीवाश्म ईंधन से करीब 13% राजस्व कमाती हैं।”
ऊर्जा क्षेत्र से सरकार कई तरह से राजस्व अर्जित करती है। इसमें वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी), जीएसटी क्षतिपूर्ति सेस, कस्टम ड्यूटी, उत्पाद शुल्क, राष्ट्रीय आपदा आकस्मिक शुल्क और बिक्री कर आदि शामिल हैं। इसके अतिरिक्त सरकार को कोयले, कच्चे तेल और प्राकृतिक गैस पर रॉयल्टी के माध्यम से भी राजस्व मिलता है। सरकार के राजस्व में जिला खनिज निधि (डीएमएफ ) का भी योगदान है।
जीवाश्म ईंधन के अर्थशास्त्र पर ध्यान देने की जरूरत
मोंगाबे-हिन्दी ने कई विशेषज्ञों से बात की और सबका मानना था कि स्वच्छ ऊर्जा की तरफ बढ़ने की गति पर सरकार की इस कमाई का प्रतिकूल असर पड़ेगा। प्रयास संस्था से जुड़े एक विशेषज्ञ और इस अध्ययन के लेखकों में शुमार अशोक श्रीनिवास ने कहा कि पारंपरिक ऊर्जा के स्रोतों से नवीन ऊर्जा की तरफ जाने में कम से कम 10 से 20 साल लगने वाले हैं। पारंपरिक ऊर्जा के स्रोतों से नवीन ऊर्जा की तरफ जाने के इस प्रक्रिया को अंग्रेजी में एनर्जी ट्रांजिशन का नाम दिया गया है। इस ट्रांजिशन में सरकार की टैक्स प्रणाली महत्वपूर्ण भूमिका अदा करने वाली है।
जब भी एनर्जी ट्रांजिशन की चर्चा होती है तो अक्सर तकनीकी से संबंधित मुद्दों या लोगों की नौकरी की बात की जाती है। जैसे कोयले के खदानों में काम करने वाले मजदूरों का क्या होगा। पर शायद ही कभी जीवाश्म ईंधन पर सरकार के लगाए टैक्स और इससे जुड़े अर्थ तंत्र की बात होती है। यह भविष्य को कैसे प्रभावित करेगा!
“अगर हम कर व्यवस्था को यथावत रखते हैं, तो भविष्य में इससे बात नहीं बनने वाली है। सरकार कमाई के लिए जीवाश्म ईंधन पर कुछ ज्यादा ही निर्भर है। भविष्य के लिए इस कर व्यवस्था को बदलना होगा। कैसे और क्या- इसपर बात होनी चाहिए,” श्रीनिवास कहते हैं।
जीवाश्म ईंधन से होने वाली आमदनी और शाश्वत रहने वाला राजस्व घाटा
जब वर्तमान सरकार सत्ता में आई, तो उसने इस दावे के साथ ऊर्जा पर लगे टैक्स प्रणाली में आमूल-चूल परिवर्तन किए कि यह कार्बन टैक्स की तरह काम करेगा। अधिक कर लगाने से लोग पेट्रोलियम प्रोडक्ट का इस्तेमाल कम करेंगे। आर्थिक सर्वेक्षण, 2014-15 में पेट्रोलियम उत्पादों पर अधिक कर लगाने को सही साबित करने के लिए एक पूरा अध्याय ही समर्पित कर दिया गया था।
हालांकि, पेट्रोलियम प्रोडक्ट के बढ़ी कीमतों से इसके इस्तेमाल में कोई कमी नहीं आई। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि 2015-16 में, भारत में 18,46,74,000 मीट्रिक टन पेट्रोलियम उत्पादों की खपत हुई। वर्ष 2019-20 में यह खपत बढ़कर 21,41,27,000 मीट्रिक टन हो गयी।
हाल के दिनों में भी यही देखने को मिला। कोविड-19 महामारी के दौरान जब पेट्रोल और डीजल की कीमतें अपने चरम पर पहुंच रही थीं तब भी इसकी मांग में कोई कमी नहीं आई, कहती हैं अर्थशास्त्री आर. कविता राव जो नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनैन्स एण्ड पॉलिसी (एनआईपीएफपी) से जुड़ी हैं।
पेट्रोलियम प्रोडक्ट की बढ़ी कीमतों का इसकी खपत पर असर नहीं होने को लेकर आईफॉरेस्ट के अध्यक्ष और सीईओ, चंद्र भूषण कहते हैं कि यह समीकरण ही गलत है कि दाम बढ़ने से इसकी खपत कम होगी। पेट्रोलियम प्रोडक्ट आवश्यक वस्तुओं की श्रेणी में आता है। इसके बिना लोगों का काम नहीं चल सकता। ‘जरूरी चीजों के दाम बढ़ने से भी उसकी खपत कम नहीं होती। क्योंकि उसका कोई विकल्प मौजूद नहीं होता,” चंद्र भूषण कहते हैं। आईफॉरेस्ट दिल्ली स्थिति पर्यावरण और ऊर्जा पर काम करने वाली एक गैर-सरकारी संस्था है।
आर्थिक सर्वेक्षण के उसी रिपोर्ट में कोयले पर 50 रुपये प्रति टन सेस को 100 रुपया प्रति टन करने को इसी आधार पर सही साबित किया गया। बाद में यह सेस बढ़कर 400 रुपये प्रति टन कर दिया गया। इसे ‘कार्बन टैक्स’ के बराबर कहा गया जिसकी शुरुआत क्लीन एनर्जी सेस के नाम से 2010-11 में की गयी थी। इस सेस के तहत जमा सारे पैसे को बाद में जीएसटी के तहत राज्यों सरकारों को होने वाले घाटे की भरपाई करने में इस्तेमाल किया गया।
एक अध्ययन में कहा बताया गया है कि भारत में 2010 से 2018 के बीच इस सेस के तहत करीब 87200 करोड़ रुपये जमा हुए। स्वच्छ ऊर्जा को प्रोत्साहन देने के नाम पर जमा किए गए इस पैसे का इस्तेमाल जीसटी की वजह से हुए घाटे की भरपाई में कर दिया गया।
ऐसे अनेकों उदाहरण हैं। सितंबर 2020 में आए कैग की रिपोर्ट में कच्चे तेल पर लगाए गए सेस का जिक्र किया गया है। इसके तहत पिछले दस सालों में सरकार के खजाने में 1,24,399 करोड़ रुपये की आमद हुई। इस कर को पेट्रोलियम इंडस्ट्री को बढ़ावा देने, जरूरी अनुसंधान करने के लिए लगाया गया। पर सरकार ने इस पैसे को सही जगह पर भेजा ही नहीं।
कार्तिक गणेशन जो कौंसिल ऑन एनर्जी, इनवायरनमेंट एण्ड वाटर (सीईईडब्ल्यू) के ऊर्जा विभाग से जुड़े हैं, कहते हैं, बीते दशक में पेट्रोलियम प्रोडक्ट के काम दाम का फायदा सरकार को अपने राजस्व बढ़ाने के रूप में हुआ। अधिक कर और सेस लगाकर। केंद्र सरकार ने अपने राजस्व घाटे को कम करने के लिए इसका इस्तेमाल किया। अगर ऐसा ही चलता रहा और जीवाश्म ईंधन से कमाई की यह परंपरा चलती रही तो एनर्जी ट्रांजिशन हाल-फिलहाल तो होने से रहा। इससे बस गरीबों पर महंगाई की मार बढ़ेगी।
महामारी से होगी एनर्जी ट्रांजिशन में देरी
लॉकडाउन के अर्थव्यवस्था की गति कम हुई। चारों तरफ से ग्रीन रिकवरी की मांग उठी। ऐसे व्यवस्था कि जिसमें पर्यावरण इत्यादि का भी खयाल रखा जाए। लेकिन सरकार की गतिविधियों से ऐसा नहीं लगता कि अभी पर्यावरण सरकार की प्राथमिकता में है।
आर कविता राव कहती हैं कि विश्व के सभी केंद्र सरकारों को अपनी अर्थव्यवस्था ठप करनी पड़ी है। कोविड-19 महामारी की वजह से। भारत में भी ऐसा ही हुआ। देश की केंद्र सरकार ने जीवाश्म ईंधन पर टैक्स बढ़ाए। बावजूद इसके सरकार जितना अपेक्षा कर रही थी उसका महज 82% राजस्व ही प्राप्त हो पाया।
अर्थव्यवस्था के पुनः बहाल होने कि गति अगर धीमी रहती है तो सरकार इसी कर व्यवस्था पर निर्भर रहेगी ताकि अपने कर्मचारियों को सैलरी दे पाए। अपने अन्य जिम्मेदारियों का निर्वहन कर पाए। अगर सरकार को इसके और ग्रीन रिकवरी के बीच तय करना हो तो जाहिर है सरकार क्या चुनेगी! इसी बीच फाइनैन्स कमिशन ने सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में टैक्स का अनुपात बढ़ाने का सुझाव दिया है। यह सब देखकर यह नहीं लगता कि पेट्रोलियम प्रोडक्ट पर टैक्स घटाने का विचार किसी के मन में चल रहा है, आर कविता राव का कहना है।
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यद्यपि चंद्र भूषण का मानना है कि ऊर्जा पर कर कुछ ज्यादा कर लगाया गया है। फिर भी वह एनर्जी ट्रांजिशन की जरूरत पर जोर देते हैं।
“एनर्जी ट्रांजिशन तो होना है। इसके लिए सरकार को अपने कर प्रणाली में बदलाव लाना होगा। राजस्व के लिए जीवाश्म ईंधन पर अपनी निर्भरता कम करनी होगी,” चंद्र भूषण कहते हैं।
इनका कहना है कि देश में बिजली के क्षेत्र में बड़े स्तर पर रिफॉर्म की जरूरत है। भविष्य में बिजली, ऊर्जा के मुख्य स्रोत के तौर पर काम करने वाली है। “अगर आप कोयले, तेल, गैस इत्यादि से छुटकारा चाहते हैं तो उसके लिए हाइड्रोजन, बिजली, बायोगैस इत्यादि पर अपनी निर्भरता बढ़ानी होगी। ऐसे में बिजली क्षेत्र में सुधार की अहमियत बढ़ जाती है। यह सबको मालूम होना चाहिए कि ऊर्जा क्षेत्र पर बहुत सब्सिडी खर्च होती है और फिर भी यह घाटे में है,” चंद्र भूषण कहते हैं।
इनका जोर पूरे ऊर्जा क्षेत्र को ध्यान में रखकर रणनीति बनाने पर है। अभी देश में सेक्टर के हिसाब से विचार किया जाता है। लेकिन इससे काम नहीं चलने वाला, चंद्र भूषण कहते हैं।
ऊर्जा क्षेत्र बहुत जटिल है और इसे पूरी जटिलता में देखना जरूरी है, चंद्र भूषण कहते हैं।
बैनर तस्वीरः फॉसिल फ्यूल से सरकार को राजस्व के रूप में मोटी आमदनी होती है। इससे सवाल उठता है कि यह आमदनी क्या देश को नवीन ऊर्जा की तरफ बढ़ने में मदद देगी या मुश्किल पैदा करेगी। तस्वीर– जोगोआक गोवा/फ्लिकर