- वर्ष 2012 से ही तटबंध बनाये जाने का विरोध कर रहे हैं मुजफ्फरपुर और दरभंगा के 109 गांवों के किसान पर सरकार तटबंध बनाने की पुरजोर कोशिश कर रही
- किसानों का मनाना है कि तटबंध के बन जाने से वे उस उपजाऊ मिट्टी से वंचित रह जायेंगे जो हर साल बागमती अपने साथ लाती है। बागमती पर जहां तटबंध बने हैं, वहां के खेतों की उर्वरकता घटी है।
- वर्ष 2018 में सरकार ने तटबंध बने या ना बने इसपर विचार करने के लिए एक कमेटी भी बनाई पर इस कमेटी से राय लिए बिना फिर पुनः तटबंध बनाने की तैयारी में लग गयी।
बिहार के मुजफ्फरपुर में बागमती नदी के किनारे रहने वाले बाशिंदे एक बार फिर से एकजुट होने लगे हैं। उन्होंने तय किया है कि वे किसी भी सूरत में अपने इलाके में बागमती नदी पर तटबंध नहीं बनने देंगे। इसके लिए मुजफ्फरपुर जिले के गायघाट और बेनीबाद इलाके में लगातार बैठकों का दौर चल रहा है। दूसरी तरफ सरकार कह रही है कि इस इलाके को बाढ़ से बचाने के लिए बागमती नदी के शेष बचे इलाके पर तटबंध बना लेना जरूरी हो गया है।
सालाना बाढ़ से प्रभावित होने वाले इस इलाके के लोग आखिर क्यों बाढ़ सुरक्षा के नाम पर बनाये जा रहे तटबंध के खिलाफ हैं, यह सवाल कई लोगों के लिए चकित कर देने वाला हो सकता है। मगर बागमती के इलाके के लोगों के लिए यह बहुत सरल मामला है।
कल्याणी गांव के जगरनाथ पासवान कहते हैं, तटबंध बन जायेगा तो बाढ़ नहीं आयेगी। बाढ़ नहीं आयी तो उपजाऊ मिट्टी नहीं आयेगी। फिर हम सबकी खेती चौपट हो जायेगी। हमारा हाल भी वैसा ही हो जायेगा, जैसा उन इलाके के लोगों का हो गया है, जहां तटबंध बन गये हैं। हम बाढ़ की आपदा को सह सकते हैं, मगर खेती चौपट हो गयी तो हम कहीं के नहीं रहेंगे।
मौजूदा परिप्रेक्ष्य में जब बिहार में तटबंध निर्माण ही बाढ़ सुरक्षा का सबसे बड़ा उपाय माना जा रहा है उस वक्त जगरनाथ पासवान का यह तर्क हमें उलटबांसी जैसा लग सकता है। मगर दिलचस्प है कि इस तर्क से उन 109 गांव के ज्यादातर लोग सहमत हैं, जहां बागमती बाढ़ प्रबंधन योजना’ के फेज 3(बी) और फेज 5(ए) के तहत इस बार तटबंध बनने जा रहे हैं। बिहार सरकार ने मुजफ्फरपुर के गायघाट से लेकर दरभंगा के हायाघाट तक के बीच बागमती नदी पर न सिर्फ तटबंध बनाने का फैसला कर लिया है, बल्कि मौजूदा बजट में इसके लिए 548.13 करोड़ रुपये का प्रावधान भी कर लिया गया है। यह खबर इन इलाके के लोगों के वज्रपात जैसी है, क्योंकि वे 2012 से ही ऐसी किसी परियोजना का खुलकर विरोध कर रहे हैं।
कमिटी बनी पर कागज तक सिमट कर रह गयी
वर्ष 2018 में जब लोगों के विरोध के बावजूद यहां तटबंध निर्माण शुरू हो गया था तो हजारों किसानों ने हाईवे जाम कर दिया। इस विरोध के बाद सरकार ने काम रोक दिया और इसकी समीक्षा के लिए तीन सदस्यीय कमिटी का गठन किया था।
मोंगाबे-हिन्दी से बात करते हुए उस कमिटी के एक महत्वपूर्ण सदस्य अनिल प्रकाश कहते हैं कि कमेटी को काम भी नहीं करने दिया गया और उसकी रिपोर्ट भी तैयार नहीं हुई। इससे पहले ही सरकार ने अपनी मर्जी से काम शुरू कर दिया।
इस कमिटी में अनिल प्रकाश के अलावा प्रसिद्ध नदी विशेषज्ञ दिनेश कुमार मिश्र और आईआईटी, कानपुर से जुड़े प्रोफेसर राजीव सिन्हा शामिल हैं। अनिल प्रकाश कहते हैं कि अब तक उस कमिटी की एक ही बैठक हुई है। हां, समय-समय पर उसका समय बढ़ाया जाता रहा है। ताजा सूचना के अनुसार उसका समय 31 दिसंबर, 2020 तक कर दिया गया था। उसके बाद की सूचना उपलब्ध नहीं है।
कमिटी के एक अन्य महत्वपूर्ण सदस्य दिनेश कुमार मिश्र जिन्होंने ‘बागमती की सदगति’ नाम से एक महत्वपूर्ण पुस्तक भी लिखी है, कहते हैं- दरअसल बागमती के दो हिस्से पर पहले से तटबंध बन चुके हैं। इनमें से एक हिस्सा हायाघाट से खगड़िया तक का है तो दूसरा हिस्सा सीतामढ़ी जिले के ढेंग जहां से बागमती नदी नेपाल से भारत में प्रवेश करती है, से मुजफ्फरपुर के गायघाट तक का है। सीतामढ़ी के खोरीपाकर से दरभंगा के कनौजर घाट के बीच का हिस्सा जो बच गया वहां बागमती की धारा अभी स्थिर नहीं हुई है, वह बार-बार अपना रास्ता बदलती रही है। इस इलाके का आकार किसी तश्तरी जैसा है, जहां हर बार पानी फैल जाता है। इसलिए इसे कभी तटबंध निर्माण के अनुकूल नहीं माना गया। वे पूछते हैं कि राज्य के इंजीनियरों ने ही जब यहां तटबंध बनाने के मसले पर दो दफा मना कर दिया था तो अब सरकार इस काम के लिए जोर क्यों दे रही है!
वे कहते हैं, इसके अलावा जिन इलाकों में बागमती पर तटबंध बने हैं, उसके अनुभव भी बहुत अच्छे नहीं रहे। उस आसपास के इलाके में मिट्टी की उर्वरकता घटी है और मछुआरों की हालत खराब हुई है। इसलिए लोग तटबंध के खिलाफ हैं।
तटबंध बाढ़ के साथ रोक देते हैं मिट्टी के लिए जरूरी खाद-पानी
दिनेश कुमार मिश्र की पुस्तक बागमती की सद्गति में यह वर्णित है कि बागमती को नेपाल में वैसा ही सम्मान हासिल है, जैसा भारत में गंगा को। नेपाल की राजधानी काठमांडू के करीब से बहने वाली बागमती की उर्वरकता के बारे में यह मिथकीय कथा प्रसिद्ध है कि अगर उसकी धारा में सूखी लाठी भी रोप दी जाये तो उसमें भी कोपलें फूंट पड़ती हैं। बागमती के किनारे के किसान भी इस बात से सहमत हैं।
दरभंगा-मुजफ्फरपुर जिले की सीमा पर बसा गांव धनौर इसका सटीक उदाहरण है। इस गांव का नाम धनौर इसलिए पड़ा था, क्योंकि यहां धान का काफी उत्पादन होता था। मगर जब से यहां तटबंध बना यहां की उर्वरकता प्रभावित होने लगी।
गांव के एक मल्लाह उपेंद्र सहनी कहते हैं, हमारा सबसे अधिक नुकसान इस तटबंध ने किया है। पहले बरसात में नदी का पानी आसपास फैलता था तो गांव के तालाब और गड्ढे भर जाते थे। हमलोग वे गड्ढे जमीन मालिकों से मोल ले लेते थे और फिर वहां मछलियां पकड़ते थे। अब जब से ये तटबंध बना हैं, हमलोगों को भात-रोटी पर भी आफत है। हमें मजबूरन पलायन करने और खेतिहर मजदूर बनने पर विवश होना पड़ा है।
मगर सरकार का ध्यान इन बातों पर नहीं है। वह हर हाल में बागमती नदी के बचे हिस्से पर तटबंध बनाने का काम पूरा कर लेना चाहती है। दरअसल बिहार सरकार की बाढ़ नियंत्रण नीति का सारा दारोमदार ही तटबंधों के निर्माण पर है और अब तक राज्य की लगभग सभी नदियों पर 3760 किलोमीटर से अधिक तटबंध बन चुके हैं। हालांकि इसका आकलन नहीं किया जाता कि इतने तटबंध बने, उसका फायदा हुआ या नुकसान!
तटबंध बनने के साथ बढ़ता गया बाढ़ प्रभावित भूमि का दायरा
आंकड़े इस बात की गवाही देते हैं कि इन तटबंधों ने बाढ़ के खतरे को बढ़ाने का ही काम किया है। आजादी के तत्काल बाद 1954 में जब राज्य में सिर्फ 160 किलोमीटर लंबे तटबंध थे तब राज्य की 25 लाख हेक्टेयर जमीन ही बाढ़ प्रभावित थी। अब बाढ़ प्रभावित जमीन का क्षेत्रफल सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 68.8 लाख हेक्टेयर और गैर सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 72.95 लाख हेक्टेयर पहुंच गया है। यानी तटबंध बने तो बाढ़ प्रभावित इलाका तीन गुना बढ़ गया।
मगर राज्य का जल संसाधन विभाग इन तर्कों पर ध्यान नहीं देता। वह लगातार तटबंधों का निर्माण कर रहा है। बिहार में 394 किलोमीटर की लंबाई में बहने वाली बागमती नदी पर पहले से 478.14 किलोमीटर लंबे तटबंध बनाये जा चुके हैं, अब सरकार इस नदी पर अलग-अलग चरणों में और 246 किलोमीटर लंबा तटबंध बनाने जा रही है। पिछले 12 साल में इस नदी पर तटबंध बनाने में करीब 18 सौ करोड़ रुपये खर्च हो चुके हैं। ताजा फेज में 548.13 करोड़ रुपये खर्च होने जा रहे हैं। इसके जरिये दरभंगा, मुजफ्फरपुर और समस्तीपुर जिलों के कुल 3.36 लाख हेक्टेयर क्षेत्र और 93.13 लाख आबादी को बाढ़ से सुरक्षा दिलाने का दावा भी है।
जबकि बागमती नदी के किनारे सीतामढ़ी से खगड़िया जिले तक बसने वाले ग्रामीणों को इस नदी की बाढ़ से ज्यादा परेशानी नहीं है। वे चाहते हैं कि बाढ़ का पानी हर साल उसके खेतों तक पहुंचे, ताकि बिना खाद के वह बंपर फसल उगा सके।
बिहार के एक अन्य रिवर एक्टिविस्ट रंजीव कहते हैं कि सरकार को यह देखना चाहिए कि बागमती पर बने तटबंध कितनी दफा टूट चुके हैं। इस बात का भी आकलन कर लेना चाहिए कि उपज किस क्षेत्र में अधिक होती है। जहां तटबंध बने हैं या जहां तटबंध नहीं बने हैं।
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दरअसल धीरे-धीरे बिहार में यह मुद्दा बहस का केंद्र बनता जा रहा है कि क्या तटबंध बाढ़ को रोकने में कारगर हैं? क्या तटबंधों की वजह से राज्य में खेतों की उर्वरकता घट रही है? क्या बाढ़ सिर्फ आपदा ही है।
इसका जवाब दिनेश कुमार मिश्र की पुस्तक बागमती की सदगति में ही मिलता है। वे लिखते हैं-“मिथिला क्षेत्र में बाढ़ के कई रूप देखने को मिलते हैं। नदी के पानी के खेतों तक आने को ‘बाढ़’ कहा जाता था। सिंचाई के लिए उसे छह या अधिक बार पानी की जरूरत होती थी, यह काम नदी बिना किसी लागत के पूरा कर देती थी। कभी-कभार नदी का पानी रिहाइशी इलाके के दरवाजों तक हिलोरें मारता था, उसे ‘बोह’ कहा जाता था। 25-30 साल के अंतराल पर ऐसे मौके आते थे जब नदी का पानी इतना अधिक हो जाये कि वह घरों की खिड़कियों को छूने लगे, ऐसी बाढ़ को ‘हुम्मा’ कहा जाता था। स्थिति और विकराल हो जाये और जानवरों को खूंटे से खोल कर छोड़ देना पड़े तो ऐसी बाढ़ को ‘साह’ कहा जाता था। अपने पूरे जीवनकाल में लोग एक या दो बार ही साह का अनुभव ले पाते थे। इसके बाद जो होता था उसे ‘प्रलय’ कहा जाता था।”
“नदी के मंजरने से लेकर बोह तक का समय समाज में उत्सव की तरह आता था। हुम्मा में परेशानियां तो थीं मगर वे जानलेवा नहीं होती थीं। साह से लोग डरते थे, मगर इसका आगमन सौ साल में एक या दो बार ही होता था। इसके बावजूद इसके लौटने के बाद फसल अच्छी होती थी,” आगे लिखते हैं।
मगर तटबंध निर्माण के बाद हर बाढ़ साह की तरह ही आने लगी है, जिससे बाढ़ एक खौफनाक प्रक्रिया में बदल गयी है। जिन इलाकों में तटबंध नहीं हैं, वे बाढ़ के लाभ को समझते हैं औऱ इसलिए वे थोड़ा संकट झेल कर भी बाढ़ को आने देना चाहते हैं। वे बाढ़ से बड़ी आपदा तटबंधों को समझते हैं।
बाढ़ से राहत या कुछ और है सरकार के इरादे!
दिनेश मिश्र बताते हैं कि बागमती की उपजाऊ मिट्टी का लालच किसानों में इतना है कि उन इलाकों में जहां तटबंध बन चुके हैं, वहां के किसान कई बार बाढ़ के दौरान तटबंध को काटकर अपने खेतों में बाढ़ का पानी घुसा लेते हैं। पूर्व सांसद स्व. रघुवंश प्रसाद सिंह से अनुरोध कर ग्रामीण तटबंध को कटवाते रहे हैं।
अनिल प्रकाश कहते हैं, अब तक यहां तटबंध 54 बार टूट चुका है। इसके बावजूद सरकार तटबंध बनाने की जिद पर अड़ी है।
आखिर इन बातों को सरकार क्यों समझ नहीं पा रही, इसका जवाब कल्याणी गांव के किसान जगरनाथ पासवान देते हैं, पहले इस तटबंध के निर्माण का ठेका आंध्र प्रदेश की एक कंपनी को मिला था, अब महाराष्ट्र की कंपनी के जिम्मे यह काम है। स्थानीय स्तर पर यह काम एक दबंग राजनेता को मिला है। वे विधायक भी हैं। उनके लिए हमारा मसला कोई मायने नहीं रखता। उनके लिए यह बस एक ठेकेदारी का काम है, जिससे उन्हें कुछ आमदनी हो जायेगी। भले उसकी वजह से लोग बर्बाद हो जायें।
मगर साथ ही वे यह भी कहते हैं कि वे लोग किसी भी सूरत में इस काम को शुरू नहीं होने देंगे। मुजफ्फरपुर में गायघाट के पास 30-32 गांव के लोग काफी सजग हैं और लगातार मोर्चाबंदी कर रहे हैं। स्थानीय ग्रामीणों ने लंबे समय से एक मोर्चा तैयार किया हुआ है, जिसका नाम है चास-बास जीवन बचाओ बागमती संघर्ष मोर्चा। इनके मजबूत प्रतिरोध की वजह से सरकार यहां से काम शुरू नहीं कर पा रही। अनिल प्रकाश कहते हैं कि सरकार की रणनीति अब दरभंगा जिले के हायाघाट की तरफ से काम शुरू करवाने की है, जहां अभी आंदोलन मजबूत नहीं है।
हालांकि आंदोलनकारियों ने अब दूसरे मोर्चे पर भी तैयारी शुरू कर दी है। अब देखना है सरकार वहां तटबंध निर्माण का कार्य शुरू कर पाती है या किसान सरकार को अपनी बात समझाने में सफल होते हैं।
बैनर तस्वीरः मुजफ्फरपुर जिले में बागमती नदी के किनारे बसा एक गांव। सालाना बाढ़ से प्रभावित होने वाले इस इलाके के लोग आखिर क्यों बाढ़ सुरक्षा के नाम पर बनाये जा रहे तटबंध के खिलाफ हैं। तस्वीर– मेट्रो मीडिया/आईडब्लूएमआई/फ्लिकर