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आदमकद कछुए: लिटिल अंडमान में पाए जाने वाले जीव पर पड़ सकती है ‘विकास’ की मार

लेदरबैक कछुआ देश में पाई जाने वाली सभी पांच प्रजातियों में सबसे बड़ा है। कई बार इसका आकार आदमकद भी हो जाता है। तस्वीर- अदिथ स्वामीनाथन

लेदरबैक कछुआ देश में पाई जाने वाली सभी पांच प्रजातियों में सबसे बड़ा है। कई बार इसका आकार आदमकद भी हो जाता है। तस्वीर- अदिथ स्वामीनाथन

  • अंडमान को लेकर नीति आयोग ने विकास की परियोजना बनाई है, जिसका सीधा असर यहां रहने वाले दुर्लभ लेदरबैक कछुओं पर हो सकता है।
  • भारत में समुद्री कछुओं की पांच प्रजातियां मिलती है। लेदरबैक कछुआ इन सब में सबसे बड़ा कछुआ है और दक्षिण एशिया में यह प्रजाति भारत और श्रीलंका में पाई जाती है।
  • लिटिल अंडमान द्वीप पर दुर्लभ ओंग जनजाति के लोग भी रहते हैं, जिनकी संख्या मात्र 112 है। इस समुदाय पर भी विलुप्त होने का खतरा है।

लेदरबैक टर्टल यानी ऐसा कछुआ जिसकी पीठ चमड़े जैसी दिखती हो। दुनियाभर में समुद्री कछुए की सात प्रजातियां पाई गई हैं। इनमें से पांच प्रजातियां भारत में पाई जाती हैं। इन्हीं पांच में से एक प्रजाति है लेदरबैक जिसका एक महफूज आशियाना है लिटिल अंडमान। 

लिटिल अंडमान की पहचान है साफ-सुथरे रेतीले समुद्र तट और शानदार झरने। यह दक्षिण अंडमान द्वीप के दक्षिण में अंडमान और निकोबार की राजधानी पोर्ट ब्लेयर से लगभग 120 किमी की दूरी पर स्थित है।

यहां पाया जाने वाला लेदरबैक कछुआ देश में पाई जाने वाली सभी पांच प्रजातियों में सबसे बड़ा है। कई बार इसका आकार आदमकद भी हो जाता है। 6 से 7 फीट लंबाई वाला कछुआ हजार किलो वजन का भी हो सकता है। जैली फिश खा-खाकर यह इतना वजन हासिल करता है। इस प्रजाति के कछुए हजारों किलोमीटर का सफर तैरकर पूरा करते हैं। 

तमाम खूबियों से लैश ये कछुए इंसानी गतिविधियों की वजह से परेशानी में हैं। कछुए की कई प्रजातियों की संख्या में विश्वभर में कमी देखी जा रही है। इनके आशियाने पर अब एक नया खतरा मंडराने लगा है। खतरे का नाम है ‘विकास’।

नीति आयोग ने अंडमान के टिकाऊ विकास को लेकर एक 58 पृष्ठ का विजन डॉक्यूमेंट तैयार किया है। इस दस्तावेज के मुताबिक 675 वर्ग किलोमीटर इलाके को विकसित करने की बात की गयी है ताकि इस द्वीप पर विकास की अधिक से अधिक संभावनाएं तलाशी जा सके। इस द्वीप का 95 फीसदी हिस्सा जंगल से ढका हुआ है। 

क्या अंडमान में भी शुरू होगी विकास की होड़

इस दस्तावेज में कहा गया है कि अंडमान को विकास के लिए खोलने की जरूरत है और कुछ इलाकों में विकास होने देना चाहिए। नीति आयोग के द्वारा तैयार इस दस्तावेज पर कोई तारीख नहीं लिखी है। यह आम जनता के अवलोकन के लिए उपलब्ध नहीं है, लेकिन मोंगाबे-हिन्दी ने दस्तावेज का अध्ययन किया है। इस दस्तावेज में इंडोनेशिया के बाली और थाइलैंड के फुकेट से अंडमान की तुलना की गयी है। 

इसमें सिंगापुर से भी तुलना की गयी है। दस्तावेज के मुताबित प्रति वर्गकिलोमीटर में अंडमान में 47 लोग रहते हैं, जो कि सिंगापुर में 7,615 प्रति वर्गकिलोमीटर है। “ऐसी क्या बात है कि हम संभावनाओं से भरे इस द्वीप पर विकास नहीं कर रहे हैं,” दस्तावेज में सवाल उठाया गया है?

हालांकि, इससे पहले और इस दस्तावेज के सामने आने के बाद भी विशेषज्ञ अंडमान द्वीप पर रहने वाले जीवों के अस्तित्व पर इस तथाकथित ‘विकास’ के खतरे बताते रहे हैं। लेदरबैक कछुओं (Dermochelys coriacea) का नाजुक आशियाना विकास की परियोजनाओं को नहीं झेल पाएगा।

लैदरबैक कछुए समुद्र की लहरों में हजारों किलोमीटर का सफर तय करने की क्षमता रखते हैं। एक शोध में पाया गया कि एक कछुआ 13,000 किलोमीटर की लंबी यात्रा कर अंडमान से मोजाम्बिक पहुंच गया। तस्वीर- अधिथ स्वामीनाथन
लैदरबैक कछुए समुद्र की लहरों में हजारों किलोमीटर का सफर तय करने की क्षमता रखते हैं। एक शोध में पाया गया कि एक कछुआ 13,000 किलोमीटर की लंबी यात्रा कर अंडमान से मोजाम्बिक पहुंच गया। तस्वीर- अधिथ स्वामीनाथन

सुनामी  के बाद मुश्किल से बचे लेदरबैक कछुए

दक्षिण फाउंडेशन बैंगलुरु के शोधकर्ता आधिथ स्वामीनाथन ने अप्रैल से जून 2018 के बीच करोड़ों वर्ष पुराने इस जीव को लेकर अपना अनुभव हॉर्नबिल मैग्जीन में साझा किया था। वह कहते हैं कि दक्षिण एशिया में श्रीलंका और भारत में लेदरबैक कछुओं की बड़ी आबादी रहती है। वर्ष 2009 के बाद से स्वामीनाथन एक शोध परियोजना का हिस्सा हैं जिसका मकसद 2004 की सुनामी के बाद बर्बाद हुए प्रजातियों का संरक्षण है। 

दक्षिण फाउंडेशन के नवीन नमूदरी और भारतीय विज्ञान संस्थान (आईआईएससी) बैंगलुरु के कार्तिक शंकर के साथ स्वामीनाथन सैटेलाइट टैगिंग की मदद से 10 लेदरबैक के ठिकानों की निगरानी करते हैं। उन्होंने पाया कि एक कछुआ 13,000 किलोमीटर की लंबी यात्रा कर अंडमान से मोजाम्बिक पहुंच गया। इसे पूरा करने में उसने 266 दिन लिए और एक दिन में तकरीबन 50 किलोमीटर तैरकर दूरी तय की। कछुए की एक बड़ी संख्या लिटिल अंडमान से तैरकर दक्षिण-पूर्व एशिया और ऑस्ट्रेलिया पहुंचती है। शोधकर्ता कछुए की गतिविधियों पर हर साल नवंबर से मार्च के दौरान नजर रखते हैं। 

जून 2019 में वैज्ञानिकों ने सबसे ताजा रिपोर्ट सरकार को सौंपी जिसमें कहा गया कि लिटिल अंडमान पर लेदरबैक कछुओं का आशियाना है। 

“हमने जो निगरानी की है उससे यह दिखता है कि 2004 की सुनामी के बाद लिटिल अंडमान पर कछुओं की आबादी में ठीक-ठाक बढ़ोतरी हुई है। वर्ष 2016 के बाद सैडेलाइट ट्रैकर के आंकड़े नहीं मिल पाए। फंड की व्यवस्था होने पर फिर से निगरानी शुरू हो पाएगी,” इस रिपोर्ट में कहा गया है। 

जनवरी 19, 2021 को लिखे एक पत्र में केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्री प्रकाश जावड़ेकर लिखते हैं, “ओलिव रिडले कछुआ का सबसे बड़ा घर होने का साथ-साथ भारत में पांच प्रजाति के समुद्री कछुए पाए जाते हैं। ये सभी वन्यजीव संरक्षण कानून, 1972 के तहत वर्ग एक की प्रजातियां हैं,” उन्होंने लिखा। 

यह पत्र ‘राष्ट्रीय समुद्री कछुआ कार्ययोजना को शुरू करते हुए लिखा गया है। पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय द्वारा ‘राष्ट्रीय समुद्री कछुआ कार्ययोजना’ जारी की गई है, इसके लिये अंडमान और निकोबार को प्रमुख स्थल के रूप में चुना गया है। इस कार्ययोजना का उद्देश्य समुद्री कछुओं और उनके आवास स्थलों को संरक्षण प्रदान करना है। इसे वर्ष 2021 से 2026 तक चलाने का लक्ष्य है। 

इस योजना का लक्ष्य समुद्री कछुए के पर्यावास को बचाए रखना है। इसकी शुरुआत कछुए की प्रजातियों, आवास और संरक्षण के बारे में आंकड़ा जुटाने से होगी। कछुए के संरक्षण में आ रही बाधाओं और उसकी संख्या कम होने के पीछे की वजहों को भी तलाशा जाएगा।

कछुओ की बढ़ने की रफ्तार काफी धीमी होती है, लेकिन इनका जीवनकाल भी काफी लंबा होता है। भारत में कछुओं को वन्यजीव संरक्षण कानून, 1972 के तहत श्रेणी एक की प्रजाति की मान्यता प्राप्त है। तस्वीर- आधिथ स्वामीनाथन
कछुओ की बढ़ने की रफ्तार काफी धीमी होती है, लेकिन इनका जीवनकाल भी काफी लंबा होता है। भारत में कछुओं को वन्यजीव संरक्षण कानून, 1972 के तहत श्रेणी एक की प्रजाति की मान्यता प्राप्त है। तस्वीर- आधिथ स्वामीनाथन

समुद्री कछुए बहुत धीमे बढ़ते हैं और बहुत लंबा जीते हैं। इनके बारे में जानने के लिए लंबे समय तक अध्ययन की जरूरत है।  ‘राष्ट्रीय समुद्री कछुआ कार्ययोजना सिर्फ पांच साल चलने वाली है। जानकार मानते हैं कि यह समय पर्याप्त नहीं होगा। इसके अलावा, अगर नीति आयोग की विकास की योजना अगर अंडमान में लागू हुई तो करोड़ों वर्षों से समुद्र में बैखौफ तैरने वाले कछुओं की प्रजाति पर संकट पैदा हो सकता है। 

“लिटिल अंडमान कछुओं के लिए एक महत्वपूर्ण प्रजनन स्थल है। इस द्वीप का दूसरा महत्व यहां रहने वाले विलुप्तप्राय ओंग जनजाति के लोग हैं। हमें विकास के साथ कोशिश करनी होगी कि वहां की परंपरा और जैव-विविधता सुरक्षित रहे,” कहते हैं कार्तिक शंकर, जो सेंटर फॉर इकोलॉजी सांइस, आईआईएससी बैंगलुरु के प्रोफेसर हैं। 

ओंग जनजातियों का घर लिटिल अंडमान

आदिवासी लोगों के अधिकारों के लिए वैश्विक आंदोलन ‘सर्वाइवल इंटरनेशनल’ ने ओंग को लिटिल अंडमान का स्थानीय समुदाय के रूप में सूचिबद्ध किया है। वर्ष 1940 से पहले यहां सिर्फ इसी जनजाति के लोग रहते थे। अब यहगां 18000 लोग रहने लगे हैं। इस वजह से ओंग का दायरा सिमटता जा रहा है। आंकड़ों के मुताबिक अब इनकी संख्या मात्र 112 बची है।

समाज विज्ञानी पंकज सेकसरिया ने दो दशक तक अंडमान-निकोबार द्वीप समूह पर अध्ययन किया है।  वह कहते हैं कि यह इलाका सिस्मिक जोन 5 (पांच) में आता है जो कि भूकंप के लिहाज से देश का सबसे खतरनाक इलाका है। दिसंबर 2004 में सुनामी का केंद्र इस द्वीप के समीप ही था। 

दूसरी तरफ नीति आयोग के द्वारा तैयार किये गए दस्तावेज में विभिन्न तरीकों से इसे न्यायोचित ठहराया गया है। “ऐसा नहीं है कि द्वीप की सारी भूमि पर विकास कार्य होगा और आदिवासियों का इतिहास बना दिया जाएगी, लेकिन अगर कुछ स्थान का उपयोग किया जाए तो यह काफी अच्छा होगा,” नीति आयोग के दस्तावेज में एक अधिकारी ने टिप्पणी की।

लिटिल अंडमान के एक अधिकारी ने नाम ना प्रकाशित करने की शर्त पर कहा कि 26 सितंबर, 2020 ने इस प्रस्ताव पर एक पत्र लिखकर जवाब दिया। यह एक निजी पत्र था जिसकी प्रति मोंगाबे-हिन्दी के पास मौजूद है। इसमें कहा गया कि विकास की परियोजना जहां बन रही है वहां 24 लाख पेड़, 16 लाख बेंत और कई तरह की दूसरी हरियाली मौजूद है।

“द्वीप की मिट्टी अपेक्षाकृत नई है और यहां कटाव का खतरा बना रहता है। वर्ष 2020 में 3,774 मिलीमीटर बारिश हुई थी। अगर पेड़-पौधे न रहें तो ऊपरी मिट्टी बह जाएगी,” उन्होंने लिखा। 

अधिकारी ने अपने पत्र में वर्ष 2002 के एक सुप्रीम कोर्ट के फैसले का जिक्र किया जिसमें आरा मशीन को बंद कराया गया था। इसके अलावा रेड पाम आयल लगाने पर भी कोर्ट ने प्रतिबंध लगाकर जमीन वन विभाग को वापस कर दी थी। 

“द्वीप की जैव-विविधता काफी विराट होती है और अगर पर्यावरण को नुकसान हुआ तो इसे वापस ठीक नहीं किया जा सकेगा,” उन्होंने चेताया। 

 

बैनर तस्वीरः लेदरबैक कछुआ देश में पाई जाने वाली सभी पांच प्रजातियों में सबसे बड़ा है। कई बार इसका आकार आदमकद भी हो जाता है। तस्वीर- अधिथ स्वामीनाथन

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