- पिछले कुछ सालों में सभी घरों को बिजली और एलपीजी कनेक्शन से जोड़ने की मुहिम चली और अच्छी-खासी सफलता भी मिली है। बावजूद इसके बिजली और एलपीजी का प्रचलन में आना अभी बाकी है।
- सरकार की पुरजोर कोशिश के बाद लगभग सभी घरों में बिजली तो पहुंच गयी है पर 24X7 बिजली पाना अभी भी सपना ही है। अधिकतर घरों के लिए। गांव-खेड़े में जब बिजली की जरूरत होती है तो यह मौजूद नहीं होती।
- बिजली और गैस इत्यादि का इस्तेमाल इस पर निर्भर करता है कि लोग इसपर पैसे खर्च करने में सक्षम हैं कि नहीं। विशेषज्ञों का मानना है कि स्वच्छ ऊर्जा स्रोत को अपनाने का सीधा संबंध क्रय शक्ति से है। लोगों की आमदनी बढ़ेगी तभी लोग एलपीजी और बिजली खरीद पाएंगे।
- कोविड-19 महामारी से गरीबी के बढ़ने का अनुमान लगाया जा रहा है। इसका तात्पर्य यह है कि आने वाले दिनों में लोगों को स्वच्छ ऊर्जा अपनाने में दिक्कत बढ़ने वाली है।
स्वतंत्र भारत के इतिहास में 1991 को एक अहम पड़ाव माना जाता है जब देश ने वैश्विक पूंजी के लिए अपनी अर्थव्यवस्था खोलने की शुरुआत की। तब हक्की बाई करीब पांच साल की थीं और अपने मां के साथ जंगल में लकड़ी चुनने जाया करती थीं। उन्हीं लकड़ियों का इस्तेमाल कर उनकी मां घर के तीन जनों के लिए भोजन पकाती थीं। तीसरे सदस्य उनके पिता थे। अब हक्की बाई 35 वर्ष की हो गयी हैं पर अब भी गांव की अन्य महिलाओं के साथ जंगल में लकड़ी चुनने जाती हैं ताकि अपने और अपने 15-साल के बेटे के लिए भोजन पका सकें। हक्की बाई कोटा गुंजापुर गांव की रहने वाली हैं जो हीरे के लिए मशहूर पन्ना जिले में पड़ता है।
पहले और अब में अंतर पूछने पर मुस्करा कर कहती हैं, “मुझे नहीं पता कि मेरे माता-पिता के मन में मुझे लेकर कोई सपना था या नहीं। पर मैं तो यही सोचते हुए जीवन गुजारती हूं कि मेरा बेटा बृज पढ़-लिखकर इज्जत की जिंदगी जिए।” कोविड महामारी ने इनके इस छोटे से सपने पर भी आघात कर दिया है। बृज नौवीं कक्षा का छात्र है पर उसका स्कूल मार्च 2020 से बंद है, जब पहली बार देशव्यापी लॉकडाउन की घोषणा हुई थी।
हक्की बाई कहती हैं कि उनका बेटा न तो स्कूल जाता है और न ही घर पर पढ़ाई करता है। दिनभर गांव के लड़कों के साथ खेलता रहता है। रात में गांव में घुप्प अंधेरा होता है तो पढ़ने की संभावना ऐसे ही खत्म हो जाती है। गांव में बिजली नहीं है। “मैं इंतजार कर रही हूं कि या तो गांव में बिजली आ जाए या बच्चे का स्कूल खुल जाए,” हक्की बाई कहती हैं।
वर्ष 1991 से लेकर अब तक की हक्की बाई की यात्रा का यही लब्बोलुआब है। वर्ष 1991 में भारत की प्रति व्यक्ति बिजली खपत 360 किलोवाट आवर (kWh) थी जो 2020 में लगभग तीन गुना बढ़कर 972 kWh हो गयी।
हक्की बाई को 2017 में प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना के तहत एक एलपीजी कनेक्शन भी मिला था। पर वह इसका इस्तेमाल नहीं कर पा रहीं हैं क्योंकि उनके पास गैस भराने का पैसा नहीं होता। हक्की बाई उन लाखों-करोड़ों भारतीय नागरिकों का प्रतिनिधित्व करती हैं जिन्हें हाल में भारत सरकार आधुनिक ऊर्जा से जोड़ने की कोशिश की है और सफलता भी पायी है।
इसको समझाते हुए द एनर्जी एंड रिसोर्स इंस्टीट्यूट (टेरी) के रूरल एनर्जी एंड लाइव्लीहुड विभाग के निदेशक डॉ देबजीत पालिट कहते हैं, “लोगों को कनेक्शन तो मिल गया है। पर लोगों ने इसे अभी तक अपनाया नहीं है।”
हक्की बाई की कहानी पर लौटते हैं। उनके गांव में करीब 88 घर हैं जो आदिवासी समाज से आते हैं। सभी ने बिजली का दशकों तक इंतजार किया। वर्ष 2017 में जब ट्रैक्टर-ट्रॉली से उनके गांव में बिजली के खंभे लाए जाने लगे तो लोगों के सपने को पंख लग गए। पर इन सपनों को जैसे किसी की नजर लग गयी, कहते हैं रामविशाल गोंड जो इसी गांव के रहने वाले हैं। इन्होंने अपने आठ साल की बेटी को दिए की रौशनी में पढ़ते हुए तस्वीर की और कहा, “मैं तो किरोसिन तेल का खर्च वहन कर सकता हूं। शहर जाता हूं तो कुछ कमाई हो जाती है पर अधिकतर गांव वाले ऐसा नहीं कर सकते।”
इनके गांव में जो बिजली के खंभे लाए गए वह भरत सरकार की 2017 में शुरू की गयी प्रधानमंत्री सहज बिजली हर घर योजना (सौभाग्य) के तहत किया गया था। सभी घरों को बिजली से जोड़ने की इस कार्यक्रम के तहत 2.81 परिवार को बिजली कनेक्शन दिया गया। 18 मार्च, 2021 को लोकसभा में ऊर्जा राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) आरके सिंह ने बताया कि सौभाग्य पोर्टल पर राज्यों द्वारा सभी घरों में बिजली पहुंचाने की सूचना दी गयी है। केवल छत्तीसगढ़ में 18,734 घर छूट गए क्योंकि वे नक्सल प्रभावित क्षेत्र में आते हैं।”
इसी प्रकार भारत सरकार ने गरीबी रेखा से नीचे (बीपीएल) श्रेणी में आने वाले परिवारों को एलपीजी कनेक्शन देने के उद्देश्य से 2016 में उज्ज्वला योजना की शुरुआत की। बाद में अन्य गरीब परिवारों को भी इसमें शामिल कर लिया गया। भोजन पकाने के लिए स्वच्छ ईंधन और घरेलू वायु प्रदूषण को कम करने के वास्ते लाई गयी इस योजना के तहत 7 सितंबर, 2019 तक आठ करोड़ परिवारों को गैस कनेक्शन दिया गया।
इन प्रयासों की सफलता और आगे की चुनौती को रेखांकित करते हुए कौंसिल ऑफ एनर्जी, इनवायरनमेंट एण्ड वाटर (सीईईडब्ल्यू) से जुड़े अभिषेक जैन कहते हैं कि पिछले कुछ वर्षों में लोगों को ऊर्जा से जुड़ी बुनियादी जरूरतों के पूरा करने पर खासा जोर दिया गया। बिजली का कनेक्शन हो या भोजन पकाने के लिए गैस कनेक्शन।
“लेकिन अभी वह समय दूर है जब हम लोग यह दावा कर सकेंगे कि देश में सबको चौबीसों घंटे बिजली मिलती है। गांव-कस्बे में अधिक से अधिक 12 से 15 घंटे की बिजली उपलब्ध रहती है,” कहते हैं अभिषेक जैन।
बिजली का कनेक्शन और उपलब्ध बिजली
विवेक सिन्हा पेशे से पत्रकार हैं और धनबाद में रहते हैं। अपने शहर के बिजली को लेकर कहते हैं, “हर 24 घंटे में कम से कम 24 बार बिजली कटौती होती है। कुछ मिनट से लेकर कुछ घंटों तक के लिए।” धनबाद से बमुश्किल पांच किलोमीटर दूर झरिया बसा है जो कोयला खनन का एक प्रमुख केंद्र रहा है और यहां से निकले कोयले से देश के अन्य हिस्सों को ऊर्जा मिलती रही है।
सिन्हा का कहना है कि ग्रामीण इलाकों में स्थिति बदतर है। हजारीबाग, चतरा (झारखंड) जैसे जिले में, बमुश्किल से 10-12 घंटे की अनियमित बिजली उपलब्ध रहती है। लोगों के जरूरत के समय तो बिजली नदारद ही होती है। अत्यधिक गर्मी या सर्दी के दिनों में।
सितंबर, 2020 में लोकसभा में पूछे गए एक सवाल के जवाब में, केन्द्रीय मंत्री आरके सिंह ने विभिन्न राज्यों में ग्रामीण क्षेत्रों को प्रदान की जाने वाली बिजली के ब्योरे साझा किए। इनके अनुसार झारखंड के ग्रामीण इलाकों में लगभग 18.39 घंटे बिजली की आपूर्ति होती है। ऐसे कई राज्य हैं जहां रोजाना महज 14-16 घंटे बिजली मिलती है। इसमें अरुणाचल प्रदेश, हरियाणा, जम्मू और कश्मीर, लद्दाख, मिजोरम, सिक्किम आदि शामिल हैं। उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड जैसे राज्यों को लगभग 18 घंटे बिजली की आपूर्ति होती है।
वर्ष 2018 में सीईईडब्ल्यू ने एक सर्वेक्षण किया था। इसमें कहा गया है कि बिहार में लगभग 76 प्रतिशत ग्रामीण घरों में बिजली का उपयोग होने लगा है। 2015 में केवल 21 प्रतिशत घरों में ही होता था। इसी तरह झारखंड के ग्रामीण इलाकों में भी 2015 से 2018 के बीच घरों में बिजली पहुंचने में करीब तीन गुना इजाफा हुआ है। 20 प्रतिशत से 60 प्रतिशत। पर बिजली उपलब्ध होने के घंटे में महज एक घंटे की बढ़ोत्तरी हुई है। पहले आठ घंटे बिजली रहती थी और अब नौ घंटे रहने लगी है। अभिषेक जैन, इस सर्वेक्षण के प्रमुख लेखकों में से एक हैं।
हाल ही में बिजली कनेक्शन की गुणवत्ता को लेकर रॉकफेलर फाउंडेशन, स्मार्ट पावर इंडिया के साथ मिलकर नीति आयोग ने एक अध्ययन किया। इस अध्ययन में बताया गया कि देश में ग्रिड से बिजली का उपयोग करने वाले घरों में 92 प्रतिशत लोगों के घरों कम लोड उठाने वाला कनेक्शन हैं। यह ग्राहक की मांग और बिजली की खपत करने की उनकी क्षमता को दर्शाता है।
क्रय शक्ति: आधुनिक ऊर्जा के विस्तार में सबसे बड़ी चुनौती
यद्यपि कई योजनाओं के माध्यम से केंद्र द्वारा कनेक्शन तो प्रदान किए गए हैं। पर क्रय शक्ति कम होने की वजह से बड़ी संख्या में लोग इन सुविधाओं का प्रयोग नहीं कर पा रहे हैं, कहते हैं डॉ देबजीत पालित जो टेरी नाम की संस्था से जुड़े हैं।
केंद्र ने सबके घरों बिजली के कनेक्शन देने की जिम्मेदारी उठा ली। बिजली की आपूर्ति करना राज्य सरकार के कार्यक्षेत्र में आता है। कई राज्य सब्सिडी देकर सस्ते दरों पर बिजली उपलब्ध करा रहे हैं। इसी तरह लगभग सभी घरों को एलपीजी कनेक्शन मिल गया है पर इसका उपयोग उस अनुपात में नहीं हो रहा है, पालित कहते हैं।
“जब तक लोगों की आमदनी नहीं बढ़ती है तब तक आधुनिक ऊर्जा का प्रसार अपेक्षित गति से नहीं होगा। खासकर भोजन पकाने के मामले में,” उन्होंने मोंगाबे- हिन्दी से बात करते हुए कहा।
प्रति व्यक्ति बिजली खपत के आंकड़े भी इसी सच को रेखांकित करते हैं। जितना गरीब राज्य उतनी कम बिजली खपत। 2019-20 में बिहार में प्रति व्यक्ति बिजली की खपत 332 kWh थी जो तीस साल पहले यानी 1991 में भारत के प्रति व्यक्ति बिजली खपत (360 kWh) से भी कम है। सनद रहे कि बिहार में 2019-20 में प्रति व्यक्ति शुद्ध राज्य घरेलू उत्पाद भी सबसे कम रही।
इस साल त्रिपुरा, नागालैंड, मिजोरम, मणिपुर, असम, पुडुचेरी, उत्तर प्रदेश, केरल जैसे कई राज्यों में प्रति व्यक्ति बिजली की खपत भारत की प्रति व्यक्ति बिजली की खपत से कम है। जबकि हरियाणा, पंजाब, दिल्ली, गुजरात, कर्नाटक, महाराष्ट्र, गोवा बिजली की खपत के मामले में शीर्ष पर हैं।
कोविड -19: आधुनिक ऊर्जा लोगों से होगी और दूर
लोगों की क्रय शक्ति और इसके साथ आधुनिक ऊर्जा के साथ संबंध स्थापित हो चुका है। ऐसे में आने वाले भविष्य की जो तस्वीर बन रही है वह बहुत सकरात्मक नहीं है। हक्की बाई जैसे अनेकों भारतीय घरों की माली हालत, हाल के दिनों में खराब ही हुई है।
उज्ज्वला योजना के तहत दिए गए एलपीजी सिलेंडर के भराने को लेकर हक्की बाई कहती हैं कि पहले दो साल तो उन्होंने एक-दो बार भरवाया था। बेटे की टिफिन या मेहमान के चाय इत्यादि में सहूलियत हो जाती थी। पर अब सिलिन्डर भरवाना मुश्किल हो गया है।
आगे बताती हैं, “मैं मजदूरी करके ही जीवन चलाती रही हूं। किसी के खेत में या कहीं घर बन रहा हो। जहां काम मिल जाए। महीने में 10-12 दिन काम मिल जाता था तो 200 रुपये के हिसाब से 2,000 से 2,200 कमा लेती थी। इस महामारी के आने के बाद से काम मिलना बंद हो गया। अब बस महुआ या तेंदू पत्ता ही सहारा रह गया है।”
इनकी कहानी अलग हो सकती है पर यह अनुभव देशव्यापी है। टेरी संस्था के डॉ देबजीत पालित ने वाराणसी के अपने अनुभव साझा किए जो कमोबेश यही कहानी कहती है। इनकी संस्था वाराणसी के बुनकर समुदाय के साथ मिलकर वहां सोलर लूम लगाने का काम कर रही है। इसपर आने वाले खर्च में बुनकरों को 40 प्रतिशत देना होता है। बाकी के 60 प्रतिशत संस्था कॉर्पोरेट सोशल रीस्पान्सबिलटी के तहत जुगाड़ करती है। “पहली बार लॉकडाउन के बाद जब अर्थव्यवस्था खुली तो हमने भी अपने काम शुरू किए। हमने पाया कि बुनकर अपने हिस्से की 40 फीसदी की रकम देने में असमर्थता व्यक्त कर रहे हैं क्योंकि इनकी आमदनी बुरी तरफ प्रभावित हुई है। उन्हें ऑर्डर नहीं मिल रहे हैं। उनकी सारी जमा-पूंजी खत्म हो चुकी है।”
और पढ़ें: सरकारी सर्वेक्षण से खुली प्रधानमंत्री उज्जवला योजना की पोल, बहुत कम इस्तेमाल हो रहा एलपीजी
हाल ही में पीईडब्ल्यू रिसर्च सेंटर द्वारा 18 मार्च को एक नया अध्ययन जारी किया गया। इसके अनुसार अफ्रीका और भारत जैसे देशों में गरीबी में बेतहाशा इजाफा होने वाला है। इसके अनुसार, “वैश्विक स्तर पर मध्यवर्ग के गरीब होने में एशिया का बड़ा योगदान रहने वाला है। दक्षिण एशिया में 3.2 करोड़ मिडल क्लास के लोग लोअर क्लास में आ जायेगें। भारत में ऐसे लोगों की संख्या सबसे अधिक होगी।”
भविष्य की आर्थिक स्थिति को समझने के लिए मोंगाबे-हिन्दी ने भारत के पूर्व मुख्य सांख्यिकीविद् और आर्थिक सांख्यिकी पर केंद्र की स्थायी समिति के प्रमुख प्रणब सेन से बात की। इस बातचीत में इन्होंने आज के आर्थिक हालात को पिछली सदी में आए महामारी से जोड़ा। उन्होंने कहा कि पूंजी का वितरण एक बड़ा मुद्दा होने वाला है। कुछ लोग अमीर हो जाएंगे तो अधिकतर लोग पहले से गरीब। अमीर हुए लोगों की वजह से वस्तुओं की खपत में कुछ दिन के लिए उछाल आ सकता है। पर यह अधिक दिन नहीं ठहरेगा क्योंकि जो लोग अमीर होंगे उनकी संख्या बहुत कम है। ऐसा ही कुछ 1920 के दशक में देखने को मिला था जब स्पैनिश फ्लू नाम की एक महामारी आई थी।
इस बार स्थिति और विकराल होगी क्योंकि पूंजी का वितरण अभी पहले से भी बुरा है।
जाहिर है गरीबी बढ़ेगी तो आधुनिक ऊर्जा आम आदमी से और दूर होगी। जैसा कि हक्की बाई की कहानी बताती है।
बैनर तस्वीर: राजस्थान के एक पहाड़ी गांव में महिलाएं सर पर जलावन की लकड़ियां ले जाती हुई। भारत सरकार ने खाना पकाने में साफ ईंधन के प्रयोग को बढ़ावा देने के लिए उज्ज्वला योजना के तहत एलपीजी कनेक्शन बांटे हैं, लेकिन जमीन पर यह योजना दम तोड़ती नजर आती है। तस्वीर– इंजीनियरिंग फॉर चेंज/फ्लिकर