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क्या आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस के प्रयोग से बदलेगी उत्तराखंड वन्यजीव संरक्षण की तस्वीर!

क्या आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस के प्रयोग से बदलेगी उत्तराखंड वन्यजीव संरक्षण की तस्वीर!

पिथौरागढ़ में सुरक्षा बलों की ट्रैनिंग के दौरान ली गयी तस्वीर। वन्यजीव के खाल की पहचान कर उसके क्षेत्र के बारे में सटीक जानकारी देने में सक्षम है एआई। तस्वीर क्रेडिट- सिक्योर हिमालय

  • उत्तराखंड में संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम के प्रोजेक्ट सिक्योर हिमालय ने एआई तकनीक से राज्य में वन्यजीवों की मौजूदा स्थिति को समझने का प्रयास किया। इसके लिए सबसे पहले राज्य में वर्ष 2009 से 2020 तक वन्यजीवों के अपराध, मानव-वन्यजीव संघर्ष या वन्यजीवों से संबंधित अन्य मामलों का सारा डाटा वन विभाग की फाइलों से निकालकर कंप्यूटर पर दर्ज किया गया।
  • दस वर्षों का डाटाबेस ऑनलाइन तैयार होने पर आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के ज़रिये इसकी पड़ताल की गई।
  • एआई से मिली रिपोर्ट के आधार पर वन्यजीवों के शिकार-व्यापार से जुड़े पैटर्न को समझने की कोशिश की गई। कुछ क्षेत्रों में बाघों के लिहाज से सतर्कता बरती जा रही थी लेकिन एआई डाटा बताता है कि वहां शिकारियों के निशाने पर भालू थे। कहीं हाथी की निगहबानी की जा रही थी और पेंगोलिन निशाने पर थे। ये पैटर्न वन्यजीव संरक्षण से जुड़ी नीति बनाने में सहायक है।
  • अफ्रीका समेत विश्व के कई देश वन्यजीवों की गणना, मॉनीटरिंग और संरक्षण के लिए एआई तकनीक का इस्तेमाल कर रहे हैं

उच्च हिमालयी क्षेत्र में पाया जाने वाला हिम तेंदुआ जितना शर्मीला है, उसकी पहचान उतनी ही मुश्किल है। यह जीव पर्यावरण से जुड़े बदलते परिवेश और शिकार जैसे कई चुनौतियों का सामना कर रहा है। अभी यह तक स्पष्ट नहीं है कि देश में इनकी कुल संख्या कितनी है। पहली बार हिम तेंदुओं की गिनती की जा रही है और यह संभव हो पा रहा है आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) की मदद से।

पहले इस हिम तेंदुए की गणना आसान नहीं थी। वाइल्ड लाइफ़ इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया के वैज्ञानिक डॉ सत्य कुमार कहते हैं “बाघ या गुलदार की तुलना में हिम तेंदुए के शरीर पर फ़र बहुत अधिक होता है। हवा चलने से उसके फर के पैटर्न में बदलाव आता है। इसलिए कैमरा ट्रैप में एक ही हिम तेंदुए की तस्वीर अलग-अलग दिखाई दे सकती है। गणना के दौरान एक ही जीव की दो बार शामिल हो सकता है। लेकिन आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की मदद से इस तरह की चूक की गुंजाइश बेहद कम हो जाती है।”

वाइल्ड लाइफ़ इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया वन्यजीव की गति (मोशन डिटेक्टर) और उसके शरीर के तापमान (थर्मल डिटेक्टर) का आकलन कर अर्ली वार्निंग सिस्टम तैयार करने में भी एआई के इस्तेमाल को लेकर शोध कर रहा है। ताकि मानव-वन्यजीव संघर्ष से बचाव के लिए इसका इस्तेमाल किया जा सके।

इस नई तकनीक से वन विभाग की कई और चुनौतियां होने वाली हैं आसान

कुल 442 बाघ, 2026 हाथी और 800 से अधिक गुलदार समेत वन्यजीवों की संख्या के लिहाज़ से उत्तराखंड समृद्ध राज्य है पर इसकी अपनी चुनौतियां भी हैं। वर्ष 2020 में राज्य में शिकार के 52 मामले दर्ज किये गए जबकि 32 मामलों में स्थिति स्पष्ट नहीं थी। वर्ष 2019 में शिकार के 47 मामले दर्ज हुए और 32 मामलों में स्थिति स्पष्ट नहीं थी।

उत्तराखंड इस एआई तकनीक का इस्तेमाल कर वन्यजीवों के शिकार को रोकने के लिए करने का प्रयास कर रहा है। हाल ही में पिथौरागढ़ क्षेत्र में इसको लेकर एक पायलट प्रोजेक्ट की शुरुआत की गयी है।

यूनाईटेड नैशन डेवलपमेंट प्रोग्राम (यूएनडीपी) के सिक्योर हिमालय प्रोजेक्ट की उत्तराखंड प्रोजेक्ट ऑफिसर अपर्णा पांडे कहती हैं “अब तक हमारे पास फाइलों में डाटा तो था लेकिन व्यवस्थित तरीके से उसकी पड़ताल कर वन्यजीवों के शिकार-व्यापार से जुड़े पैटर्न को जानने की कोशिश नहीं की गई। हमने कुछ ख़ास पैरामीटर सेट कर पिछले दस वर्षों के डाटा की पड़ताल की। इससे हमें यह समझ आ रहा है कि कहां अलर्ट रहना है। किस तरह की गतिविधियों का संज्ञान लेना है। शिकार के लिहाज से संवेदनशील क्षेत्र या समय के लिहाज से निगरानी बढ़ानी है।”

जैसे कुछ क्षेत्रों में हम बाघों के लिहाज से सतर्क थे लेकिन एआई डाटा बताता है कि वहां शिकारियों के निशाने पर भालू थे। ऐसे कई अन्य महत्वपूर्ण जानकारियां मिलीं हैं, अपर्णा कहती हैं।

एआई रिपोर्ट से वन विभाग के अधिकारियों को ये भी पता चला कि जनवरी में बर्फ़बारी के समय नेपाल-धारचुला सीमा ज्यादा संवेदनशील है। जब आम लोगों की आवाजाही यहां कम हो जाती है। इसी आधार पर मई-जून की तेज़ गर्मी का समय शिकारियों के लिए ज्यादा माकूल हो जाता है।

बाघ की खाल पर बने पैटर्न के आधार पर एआई वन्यजीव विशेष को चिन्हित कर सकता है। तस्वीर- सिद्धांत उमरिया, डब्ल्यू डब्ल्यू इंडिया
बाघ की खाल पर बने पैटर्न के आधार पर एआई वन्यजीव विशेष को चिन्हित कर सकता है। तस्वीर- सिक्योर हिमालय

दरअसल वन्यजीव संरक्षण के लिए एक बड़े लैंडस्केप में कोई मॉनीटरिंग सिस्टम नहीं था। डाटा एनालिसिस के बाद मिली एआई रिपोर्ट राज्य के स्तर पर इस तस्वीर को स्पष्ट करती है।

उत्तराखंड वन विभाग में मुख्य वन संरक्षक वन्यजीव आरके मिश्रा बताते हैं, “एआई एनालिसिस से हमें ये सटीक जानकारी मिली कि राज्य में वन्यजीव अपराध से जुड़े हॉटस्पॉट कहां-कहां हैं। कौन सा क्षेत्र किस वन्यजीव के लिहाज़ से अधिक संवेदनशील है। हमें ये भी पता चला कि शिकारियों की मौजूदगी के लिहाज से अति-संवेदनशील क्षेत्र कौन से हैं। किस मौसम या किन महीनों में शिकारी ज्यादा सक्रिय मिले। इस रिपोर्ट में राज्य में वन्यजीवों की मौजूदा स्थिति को आंकड़ों, डाटा और ग्राफ के ज़रिये समझने की कोशिश की गयी। एआई से मिली रिपोर्ट के आधार पर हम वन्यजीव संरक्षण की नीति बनाने पर काम कर रहे हैं।”


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क्या है आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस?

एआई कंप्यूटर विज्ञान का एक क्षेत्र है। एआई से उपलब्ध डाटा पर हम कंप्यूटर प्रोग्रामिंग भाषा ( जैसे पाइथन, आर, नेचुरल प्रॉसेसिंग लैंग्वेज) और एल्गोरिदम (कंप्यूटर फॉर्मुला) का इस्तेमाल कर सटीक नतीजे हासिल कर सकते हैं। मिसाल के तौर पर हमें ये जानना हो कि उत्तराखंड में पिछले दस वर्षों में किस वन्यजीव का सबसे अधिक शिकार हुआ या किस वन्यजीव का सबसे कम शिकार हुआ। डाटाबेस का एनालिसिस कर एआई इस जानकारी को कुछ ही सेकेंड्स में उपलब्ध करा देगा। यही जानकारी हमें खुद निकालने के लिए कई फ़ाइलों के पन्ने पलटने पड़ेंगे। कई दिन बिताने पड़ेंगे।

भविष्य में वन्यजीव संरक्षण में एआई से जुड़ी संभावना

उत्तराखंड में फिलहाल एआई के ज़रिये डाटाबेस की पड़ताल कर वन्यजीव अपराध के पैटर्न को समझने की कोशिश की गई है। लेकिन इसका इस्तेमाल वन क्षेत्र में लगे कैमरा ट्रैप्स से मिलनेवाली तस्वीरों, वीडियो पर भी किया जा सकता है। हालांकि ये महंगा कार्य है और इसके लिए उन्नत मशीनों की आवश्यकता होगी।

डब्ल्यूडब्ल्यूएफ इंडिया संस्था में नेशनल लीड फॉर टाइगर कंजर्वेशन डॉ प्रणव चंचानी कहते हैं “देशभर में वन क्षेत्र में बड़े पैमाने पर कैमरा ट्रैप्स लगाए गए हैं। जिसमें एक ही समय में विभिन्न तस्वीरें कैद होती हैं। हाथी-गुलदार से लेकर सांप-नेवले से लेकर वहां मौजूद लोग भी इन कैमरों में रिकॉर्ड होते हैं।”

आगे कहते हैं, “जिस तरह एयरपोर्ट या रेलवे स्टेशन पर लगे कैमरों की मॉनीटरिंग से संदिग्ध व्यक्तियों की पहचान की जाती है। उसी तरह जंगल में अगर कोई बंदूक लेकर चल रहा है तो वह फॉरेस्ट गार्ड होगा या शिकारी। ऐसे एआई एप्लीकेशन मौजूद हैं जो बंदूक को चिन्हित कर सकते हैं। बल्कि एआई एक ही व्यक्ति के बार-बार एक ही स्पॉट पर दिखाई देने या किसी ख़ास समय में एक ही जगह पाए जाने जैसी संदिग्ध गतिविधियों को लेकर अलर्ट जारी कर सकता है।”

बाघ को खुले जंगल में छोड़ते हुए संरक्षणकर्ता। आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस की मदद से बाघ की खाल पर बने पैटर्न के आधार पर इन्हें पहचाना जा सकता है। इस तकनीक की वजह से संरक्षणकर्ताओं को बाघ पहचानने में काफी आसानी हो रही है। तस्वीर- सिद्धार्थ उमरिया/डब्लूडब्लूएफ इंडिया
बाघ को खुले जंगल में छोड़ते हुए संरक्षणकर्ता। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की मदद से बाघ की खाल पर बने पैटर्न के आधार पर इन्हें पहचाना जा सकता है। इस तकनीक की वजह से संरक्षणकर्ताओं को बाघ पहचानने में काफी आसानी हो रही है। तस्वीर- सिद्धार्थ उमरिया/डब्लूडब्लूएफ इंडिया

आर्टिफिशिल इंटेलिजेंस वन्यजीव विशेष की भी पहचान कर सकता है। शरीर पर धब्बे, लकीरों, पैटर्न के आधार पर हर वन्यजीव की अपनी अलग पहचान होती है। जैसे दो बाघों के शरीर पर पीली सफ़ेद काली लकीरों का पैटर्न अलग-अलग होगा। चंचानी बताते हैं “आपके पास बाघ, गुलदार और अन्य वन्यजीवों की तस्वीरों का पूरा डाटा बेस है। किसी वन्यजीव की खाल बेची गई तो एआई आधारित एप्लीकेशन के आधार पर हम उस वन्यजीव की पहचान कर सकते हैं। डाटा बेस से हमें ये सूचना मिल जाएगी कि वो वन्यजीव किस क्षेत्र का था। कुछ ख़ास क्षेत्रों से लगातार वन्यजीवों की खाल, हड्डियां और अन्य अंग पकड़े जाते हैं। इससे हमें पता चलेगा कि ये कहां से लाए गए और कहां बेचे गए। विश्व में इनका बाज़ार कहां तक फैला है।”

देशभर में वन्यजीव अपराध नियंत्रण में एआई के इस्तेमाल का प्रस्ताव

भविष्य में एआई के इस्तेमाल को लेकर वाइल्ड लाइफ क्राइम कंट्रोल ब्यूरो में उत्तरी क्षेत्र में उप निदेशक एचवी गिरीश बताते हैं “कार्बेट टाइगर रिजर्व में कुछ कैमरा टावर लगाए हैं। हमारे पास पांच साल का डाटा तैयार हो जाता है तो हम एआई की एलगोरिदम इस तरह से तैयार कर सकते हैं कि वो अवैध गतिविधियों की पहचान कर सके। जो वाइल्ड लाइफ़ प्रोटेक्शन एक्ट या इंडियन फॉरेस्ट एक्ट के तहत अपराध की श्रेणी में आते हैं। मशीन में हम इससे जुड़ी विशिष्ट सूचनाएं दर्ज करते हैं। मशीन जब अपने क्षेत्र में ऐसी गतिविधि देखती है तो हमें अलर्ट भेजती है। ये वर्चुअल फेन्सिंग कहलाता है। समय के साथ डाटा का आकार बढ़ने पर ये इंटैलिंजेस सिस्टम अधिक बेहतर कार्य करेगा”।

इंसानी चेहरे की पहचान में एआई अभी सटीक नतीजे नहीं दे रहा। गिरीश बताते हैं कि चेहरे की पहचान में इसकी एक्यूरेसी 50-60 प्रतिशत ही है। वह भी मानते हैं कि वन क्षेत्र में एआई के साथ अकेले काम नहीं होगा। एआई की सूचना के बाद कार्य के लिए आपको स्टाफ की ही जरूरत होगी। एआई खर्चीला सौदा भी है। इसके लिए बहुत सी मशीनें और उनके मेनेंटेनेंस की जरूरत होगी।

एचवी गिरीश बताते हैं “वाइल्ड लाइफ क्राइम कंट्रोल ब्यूरो के पास बड़ा डाटा है। एक बार पूरे देश का डाटा इसमें फीड हो जाएगा। तो एआई की कुशलता बढ़ जाएगी। हमने केंद्रीय वन, पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय को एआई को वाइल्ड लाइफ क्राइम कंट्रोल के तहत इस्तेमाल करने का प्रस्ताव रखा है। इसकी प्रक्रिया जारी है।”

रुद्रपुर में 17 मार्च को की गई थी हाथी दांत की बरामदगी। तस्वीर-वाइल्ड लाइफ क्राइम कंट्रोल ब्यूरो
रुद्रपुर में 17 मार्च को की गई थी हाथी दांत की बरामदगी। तस्वीर-वाइल्ड लाइफ क्राइम कंट्रोल ब्यूरो

कई देशों में हो रहा एआई तकनीक का इस्तेमाल

उत्तराखंड कुछ चुनिंदा राज्यों में शामिल है जहां वन्यजीव संरक्षण के लिए आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की मदद ली गई है। इसके अलावा केरल-कर्नाटक में भी इस तकनीक की मदद से अध्ययन कराए जा रहे हैं। लेकिन विश्व के कई देश इस तकनीक पर तेज़ी से कार्य कर रहे हैं। ख़ासतौर पर अफ्रीकी देश।

वर्ष 2018 में अध्ययन किया गया कि केन्या में जिराफ की आबादी 30 वर्षों के अंतराल में 70 प्रतिशत तक गिर गई है। जबकि पूरे अफ्रीका में इसी दौरान 40 प्रतिशत तक गिरावट देखी गई। इस खुलासे के बाद जीव विज्ञानियों को इस अदभुत जानवर की संख्या, उनके प्राकृतिक प्रवास, गतिविधियों से जुड़ी सूचनाओं की तत्काल जरूरत थी। पारंपरिक तरीके से किए जाने वाले अध्ययन में काफी समय और पैसे खर्च होते। लेकिन वाइल्ड-बुक नाम के एक एआई सॉफ्टवेयर के ज़रिये जिराफ़ की खाल पर बने पैटर्न के आधार पर गणना का कार्य बेहद आसान हो गया। सिर्फ दो दिनों में उत्तरी केन्या के तीन वन्यजीव अभ्यारण्य में जिराफ की गिनती पूरी कर दी गई। आर्टिफिशियल इंटैलिजेंस और कैमरा ट्रैप के ज़रिये इस कार्य को अंजाम दिया गया।

पूर्वोत्तर चीन में डब्ल्यूडब्ल्यूएफ संस्था साइबेरियन बाघों के संरक्षण और मॉनीटरिंग के लिए एआई तकनीक की मदद उपलब्ध करा रही है।

यूनाइटेड किंगडम की एआई कंपनी डीप माइंड  तंजानिया के सेरेनगेटी नेशनल पार्क में वन्यजीवों की लाखों तस्वीरों पर एआई का इस्तेमाल कर जानवरों की विभिन्न प्रजातियों की पहचान कर सटीक जानकारी देने में सक्षम है। 

हमारे देश में भी नेशनल टाइगर कंजर्वेशन अथॉरिटी एप्लीकेशन एम-स्ट्राइप (M-STRIPE) और CaTRAT (Camera Trap data Repository and Analysis Tool) जैसे एआई एप्लीकेशन का इस्तेमाल करती है। एम-स्ट्राइप एनटीसीए और भारतीय वन्यजीव संस्थान ने विकसित किया है। ये देश के ज्यादातर टाइगर रिजर्व और बहुत से फ़ॉरेस्ट डिविजन में बाघ विशेष की पहचान और गिनती के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है।

 

बैनर तस्वीरः पिथौरागढ़ में सुरक्षा बलों की ट्रैनिंग के दौरान ली गयी तस्वीर। वन्यजीव के खाल की पहचान कर उसके क्षेत्र के बारे में सटीक जानकारी देने में सक्षम है एआई।  तस्वीर क्रेडिट- सिक्योर हिमालय

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