- राज्य सरकार ने 2022 तक 3,433 मेगावाट अक्षय ऊर्जा की क्षमता विकसित करने का लक्ष्य रखा था। इस समय-सीमा के पूरा होने में महज एक साल रह गया है और बिहार में 194 मेगावाट की क्षमता ही विकसित हो पायी है।
- बिहार में अक्षय ऊर्जा के विकास की काफी संभावना है। सिर्फ सोलर रूफटॉप और सोलर पंप के जरिये हो सकता है 3600 मेगावाट सौर ऊर्जा का उत्पादन, मगर लालफीताशाही में उलझकर रह जाती हैं योजनाएं।
- विशेषज्ञ मानते हैं कि अन्य राज्यों की तरह बिहार में भी अक्षय ऊर्जा के विकास की संभावना है पर वहां निवेश और उद्यमिता को बढ़ावा नहीं दिया जाता। यह हर क्षेत्र में देखा जा सकता है। इसका नतीजा यह है कि अन्य मामलों में पिछड़ा बिहार इन नए मानकों पर भी फेल होता नजर आ रहा है।
इस वक्त कोरोना संक्रमण की दूसरी लहर में जब पूरे देश में कोरोना के इलाज के लिए अस्पतालों में एक सीट नहीं मिल रही, ऐसे में बिहार के एक छोटे से गांव में एक सर्वसुविधायुक्त कोविड केयर सेंटर कोरोना मरीजों के हर तरह की परेशानियों का इलाज कर रहा है। पटना के लगभग 35 किमी दूर फतुहा के मसाढ़ी गांव में स्थित इस कोविड केयर सेंटर में अब दूर-दराज के कोरोना मरीज इलाज के लिए आने लगे हैं। डॉक्टर्स फॉर यू संस्था की साझीदारी से संचालित यह विस्टैक्स अस्पताल इसलिए सफल है क्योंकि यहां ऊर्जा संबंधी जरूरतों के लिए सौर ऊर्जा को चुना गया है।
पिछले साल कोरोना के वक्त शुरू हुए इस अस्पताल और कोविड केयर सेंटर से जुड़ी निवेदिता बताती हैं कि इस अस्पताल की ऊर्जा संबंधी जरूरतों का 60 फीसदी हिस्सा सौर ऊर्जा से पूरा होता है। यहां 15 किलोवाट पावर का सोलर प्लांट लगा है जो अस्पताल के साथ-साथ स्वास्थ्यकर्मियों के आवास पर भी बिजली उपलब्ध कराता है।
स्वास्थ्य सुविधाओं को सौर ऊर्जा से लैस करना गेमचेंजर साबित हो सकता है। इससे बिहार जैसे राज्य की ग्रामीण गरीब आबादी को गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सुविधा उपलब्ध करायी जा सकती है, कहते हैं डॉ. रविकांत सिहं जो डॉक्टर्स फॉर यू संस्था के संस्थापक हैं।
इन बातों से अक्षय ऊर्जा खासकर सौर ऊर्जा का महत्व समझ में आता है। आजकल पूरी दुनिया नवीन ऊर्जा के इन स्रोतों को अपनाने पर जोर दे रही है। मगर क्या बिहार सरकार भी इसके महत्व को समझती है? सरकारी आंकड़ों से तो कुछ और ही झलकता है।
नौ दिन चले अढ़ाई कोस: समयसीमा नजदीक पर काम 1% भी नहीं हुआ
बिहार सरकार ने 2017 में खुद लक्ष्य तय किया था कि 2022 तक राज्य में अक्षय ऊर्जा से 3,433 मेगावाट बिजली की उत्पादन क्षमता विकसित की जाएगी। इसमें सौर तथा अन्य नवीन ऊर्जा के स्रोत को शामिल करने की बात की गयी थी।
समयसीमा समाप्त होने में महज एक साल बाकी है। पर राज्य में सिर्फ 194 मेगावाट बिजली की उत्पादन क्षमता ही विकसित हो पायी है। यह जानकारी हाल ही में जारी ‘इम्पावरिंग बिहार ‘थ्रू डीआरई इन पोस्ट कोविड वर्ल्ड-2021’ नाम की रिपोर्ट से ली गयी है। यह रिपोर्ट सेंटर फॉर इनवायरनमेंट एण्ड एनर्जी डेवलपमेंट (सीड) संस्था द्वारा जारी की गई है।
यानी पिछले चार साल में लक्ष्य का महज आधा प्रतिशत (0.57%) हासिल किया जा सका है।
इससे जाहिर है कि बिहार में अक्षय ऊर्जा की क्षमता बढ़ाने का काम बहुत सुस्त गति से चल रहा है। तय सीमा तक इस लक्ष्य का दस फीसदी भी हासिल हो पायेगा यह कहना अभी मुश्किल लग रहा है।
बिहार आरई पॉलिसी के तहत सौर उर्जा के जरिये 2969 मेगावाट, बायोगैस और बायोमास के जरिये 244 मेगावाट और स्मॉल हाइडल के जरिये 220 मेगावाट बिजली उत्पादन का लक्ष्य रखा गया है।
बिहार रिन्युएबल इनर्जी डेवलपमेंट एजेंसी (ब्रेडा) को इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए प्रमुख एजेंसी माना गया है। इसकी वेबसाइट पर उपलब्ध जानकारी के अनुसार राज्य में रूफटॉप सोलर पावर प्लांट के जरिये सिर्फ 3.134 मेगावाट बिजली उत्पादित की जा सकी है। वह भी 112 सरकारी भवनों पर। इनमें सभी जिलों के समाहरणालय, अस्पताल और सर्किट हाउस, पटना के कुछ सरकारी भवन और छपरा, मुजफ्फरपुर और बक्सर के कुछ सरकारी भवनों का जिक्र है। सीड नाम की संस्था की हाल ही में आई रिपोर्ट-2021 के अनुसार अगर सोलर पंप के आंकड़ों को जोड़ दिया जाये तो कुल उत्पादन क्षमता 18.2 मेगावाट पहुंचती है।
निश्चित तौर पर बिहार जैसे राज्य के लिए अक्षय ऊर्जा साधनों से 3,433 मेगावाट बिजली का उत्पादन कर पाना एक बड़ा लक्ष्य है। खास तौर पर तब जब बिहार की कुल स्थापित क्षमता ही 7,404 मेगावाट है। इसमें से भी 7,050 मेगावाट केंद्रीय सेक्टर और 284.2 मेगावाट निजी क्षेत्र के उत्पादक हैं। सेंट्रल इलेक्ट्रिसिटी ऑथोरिटी के अनुसार बिहार राज्य की अपनी उत्पादन क्षमता सिर्फ 70.7 मेगावाट है।
सोलर पंप के जरिये सिंचाई की योजना
बिहार में सोलर पंप के जरिये सिंचाई की योजना भी शुरुआत में काफी तेजी से आगे बढ़ी थी। वर्ष 2011 में इस योजना के तहत छह जिले में सोलर पंप लगे थे। मगर दस साल बीत जाने के बाद भी राज्य में अब तक सिर्फ 2,772 सोलर पंप लग पाये हैं। ब्रेडा के अनुसार लक्ष्य 10 हजार सोलर पंप लगाने का था।
इस लक्ष्य के नहीं होने के पीछे राज्य सरकार द्वारा सब्सिडी कम किया जाना बताया जाता है। पहले इस योजना के तहत 90 फीसदी सब्सिडी दी जाती थी, अब इसे घटाकर 25 फीसदी कर दी गयी है।
इस योजना के पीछे रह जाने के लिए बिहार की ब्यूरोक्रेसी में मौजूद लाल फीताशाही को भी जिम्मेदार माना जाता है। यही हाल ऑन ग्रिड सोलर पावर प्लांट लगाने का है। इस योजना के तहत राज्य का कोई भी व्यक्ति अपनी छत पर सोलर प्लांट लगा सकता है और वह अपने उपभोग के अतिरिक्त जो बिजली उत्पादित करेगा उसकी कीमत उसे सरकार से मिल जायेगी। इस योजना को अपनाने के लिए राज्य में कई लोग उत्सुक नजर आते हैं, मगर इस योजना का लाभ लेना इतना मुश्किल है कि आवेदक अक्सर हिम्मत हार बैठता है।
पटना के एक सामाजिक कार्यकर्ता इश्तेयाक अहमद बताते हैं कि वे इस योजना का लाभ लेना चाहते थे, मगर पहले तो वे ऑनलाइन आवेदन नहीं कर पाये, क्योंकि जहां आवेदन लिया जाना था वहां फार्म ही खुल ही नहीं रहा था। अब वे बार-बार ब्रेडा के दफ्तर का चक्कर लगा रहे हैं, मगर उन्हें आवेदन करने की प्रक्रिया भी नहीं बतायी जा रही। अभी भी ब्रेडा के वेबसाइट पर आवेदन के लिए जो फार्म है, वह पीडीएफ फॉर्मेट में है और काफी जटिल है।
बिहार में अक्षय ऊर्जा की अपार संभावनाएं
हालांकि बिहार द्वारा 3,433 मेगावाट अक्षय ऊर्जा के लक्ष्य को हासिल करना इतना मुश्किल भी नहीं है। क्योंकि राज्य सरकार खुद मानती है कि राज्य में 16 हजार मेगावाट सौर उर्जा और 2,150 मेगावाट बायोमास उत्पादन की क्षमता है। बिहार में राज्य सरकार के साथ मिलकर वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों को बढ़ाने देने के लिए काम करने वाली संस्था सीड का मानना है कि सिर्फ विकेंद्रीकृत अक्षय ऊर्जा स्रोतों से राज्य में 3948 मेगावाट बिजली का उत्पादन किया जा सकता है।
सीड संस्था ने इसे लेकर एक अध्ययन किया है और इसकी रिपोर्ट 2021 में जारी की है। इम्पावरिंग बिहार थ्रू डीआरई इन पोस्ट कोविड वर्ल्ड नाम से जारी इस रिपोर्ट के मुताबिक बिहार कि रिन्युएबल एनर्जी पालिसी के तहत भी विकेंद्रीकृत अक्षय ऊर्जा स्रोतों की बात की गयी है और इसके तहत 100 मेगावाट बिजली उत्पादन का लक्ष्य रखा गया है, मगर अभी तक इसके जरिये सिर्फ 44 मेगावाट बिजली उत्पादित की जा सकी है।
इस रिपोर्ट के मुताबिक सोलर रूफटॉप और सोलर पंप के जरिये ही 3,948 मेगावाट बिजली उत्पादन के लक्ष्य का लगभग 95 फीसदी हासिल किया जा सकता है। शेष के लिए सोलर मिनी ग्रिड और स्ट्रीट लाइट की मदद ली जा सकती है। रिपोर्ट के मुताबिक राज्य के दस विभाग अगर एकजुट होकर प्रयास करें तो इस लक्ष्य का 95 फीसदी आसानी से हासिल किया जा सकता है। इसमें खास तौर पर ग्रामीण विकास विभाग, ग्रामीण कार्य विभाग, लोक स्वास्थ्य एंव अभियंत्रण विभाग, कृषि विभाग, स्वास्थ्य विभाग, ऊर्जा विभाग, शिक्षा विभाग, समाज कल्याण विभाग, परिवहन और जल संसाधन विभाग का जिक्र है।
सीड से जुड़े अश्विनी अशोक कहते हैं कि अगर सरकार इस दिशा में गंभीरता से काम करती है तो न सिर्फ बिहार वैकल्पिक ऊर्जा के अपने लक्ष्य को हासिल करने में सफल हो जायेगा बल्कि राज्य में 1.71 लाख नये रोजगार का भी सृजन होगा और राज्य के कार्बन उत्सर्जन में भी 73 लाख टन की कमी आयेगी।
इस रिपोर्ट के हिसाब से राज्य में सबसे अधिक संभावना सोलर पंप के जरिये वैकल्पिक ऊर्जा उत्पादन की है। अगर खेती, पेयजल और स्वच्छता तीनों को जोड़ दिया जाये तो इसके जरिये 2000 मेगावाट से अधिक सोलर ऊर्जा का उत्पादन हो सकता है। अभी इसके सिर्फ 5.7 मेगावाट सौर ऊर्जा उत्पादित हो रही है। वहीं छतों पर सोलर पावर प्लांट लगाने से 1600 मेगावाट सौर उर्जा का उत्पादन हो सकता है। जबकि इसके जरिये अभी सिर्फ 8.1 मेगावाट बिजली उत्पादित हो रही है। यह जानकारी सीड रिपोर्ट और ब्रेडा से ली गयी है।
मगर इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए बिहार में अक्षय ऊर्जा स्रोतों को बढ़ावा देने के लिए बनी संस्था को मिशन मोड में काम करने की जरूरत है। उसे किसानों और आम उपभोक्ताओं के लिए जो इन योजनाओं के संभावित आवेदक हो सकते हैं, सरल प्रक्रिया तैयार करने की जरूरत है। अभी तो विभाग की प्रक्रिया काफी जटिल है।
इन मसलों पर मोंगबे इंडिया की तरफ से ब्रेडा के निदेशक और कार्यक्रम पदाधिकारी से बात फोन पर करने की कोशिश की गयी। पर उनकी तरफ से कोई जवाब नहीं मिला।
बिहार में अक्षय ऊर्जा के विकास में इस धीमी गति के मूल कारणों को समझने के लिए मोंगाबे-हिन्दी ने आई-फोरेस्ट (इंटरनेशनल फोरम फॉर इनवायरमेंट सस्टेनिबिलिटी एंड टेक्नोलॉजी) के सीईओ चंद्रभूषण से बात की। इनका कहना है कि ऐसा नहीं है कि बिहार में अक्षय ऊर्जा की संभावना मध्य प्रदेश और गुजरात से कम है। पर राज्य में कोई आर्थिक विकास का माहौल नहीं है, यहां की सरकार और यहां का प्रशासन सहयोगी नहीं है, इसलिए अक्षय ऊर्जा ही नहीं विकास का कोई भी काम यहां ढंग से नहीं होता। वे कहते हैं, जहां तक रूफ टॉप सोलर प्लांट को लागू कराने की बात है, इसमें डिस्ट्रीब्यूशन कंपनी ही रुचि नहीं ले रही। जब तक किसी व्यक्ति को यह उम्मीद न हो कि वह रूफ टॉप सोलर प्लांट लगायेगा तो उसे कुछ लाभ होगा। या फिर ऐसा करने से बिल कम आएगा, तब तक वह इन चीजों पर निवेश क्यों करेगा!
कुसुम योजना के तहत सोलर पंप लगाने के मसले में भी वही हुआ। इसके जरिये 90 फीसदी सब्सिडी केंद्र और राज्य सरकार को देना है, 10 फीसदी किसान देते हैं। अब किसान अपना दस फीसदी देने के लिए तैयार है, केंद्र सरकार ने भी अपना पैसा भेज दिया। मगर राज्य सरकार ही अपना हिस्सा देने में आना-कानी करती है, तो फिर काम कैसे हो।
अगर आप किसी भी राज्य में इस तरह का बदलाव चाहते हैं तो उसके लिए आर्थिक गतिविधियों के लिए बेहतर माहौल होना चाहिए। अगर कोई कांट्रैक्ट साइन किया जाता है तो उसका निर्वाह होना चाहिए, कानून व्यवस्था बेहतर होनी चाहिए और सरकारी महकमे को सहयोगी होना चाहिए। ये चार मानक हैं, और इसमें बिहार काफी नीचे आता है। जब तक राज्य के अंदर उद्यमिता को प्रोत्साहित करने का माहौल नहीं होगा, तत्परता से काम नहीं होगा, भ्रष्टाचार इत्यादि कम नहीं होगा तो बदलाव संभव नहीं है। सिर्फ संसाधन होने से विकास नहीं होता है, चंद्र भूषण का कहना है।
बैनर तस्वीरः बिहार के नालंदा जिला स्थित हिलसा में किसानों ने गोबर के कंडे को धूप में सुखा रहे हैं। इसका उपयोग खाना बनाने के लिए ईंधन के तौर पर होगा। तस्वीर– मेलिसा कूपरमैन / आईएफपीआरआई/फ्लिकर