- जब से जो बाइडेन सत्ता अमेरिका के राष्ट्रपति बने हैं तब से जलवायु परिवर्तन को रोकने की कोशिशों को पुनः बल मिला है। इधर 2021 में होने वाली अंतर्राष्ट्रीय बैठक में यह उम्मीद की जा रही है कि दुनिया के तमाम देशों ने पेरिस समझौते के तहत जो स्वैच्छिक लक्ष्य निर्धारित किया था उसमें विस्तार कर नए लक्ष्य की घोषणा करेंगे। इसी बीच कई बड़े देशों ने अपने नेट ज़ीरो की समय-सीमा घोषित की है जब उस देश का कार्बन उत्सर्जन नगण्य हो जाएगा। भारत से भी वैश्विक समुदाय ऐसा ही कुछ उम्मीद कर रहा है।
- इस पर बहस चल रही है कि भारत का अगला कदम क्या होना चाहिए। इस बीच एक बड़े सवाल की लगभग अनदेखी हो रही है। भारत जैसे देश में, जलवायु परिवर्तन के खिलाफ लड़ाई में राज्यों की भूमिका क्या है? क्या जलवायु परिवर्तन से लड़ाई में जो महत्वाकांक्षी लक्ष्य निर्धारित किये जा रहे हैं उनमें राज्यों की भूमिका क्या है?
- बहस इस बात को लेकर भी है कि क्या भारत नेट-जीरो का साल घोषित करने की स्थिति में है। विशेषज्ञों का मानना है कि भारत को लगातार जलवायु परिवर्तन पर होने वाले बहस में सक्रिय रहना चाहिए पर ऐसे विकासशील देश के लिए नेट ज़ीरो की समय सीमा तय करना आसान नहीं है।
संयुक्त राज्य अमेरिका के नव निर्वाचित राष्ट्रपति जो बाइडेन के आह्वान पर, अप्रैल में लगभग 40 देशों ने नेट-जीरो हासिल करने के लिए समय-सीमा की घोषणा की। भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ऐसी कोई घोषणा तो नहीं की लेकिन उसी वर्चुअल मुलाकात में 2030 तक अक्षय क्षमता के 450 गीगावाट स्थापित करने की अपनी प्रतिबद्धता दोहराई। इन सबको देखते हुए भारत के अकादमिक और दिल्ली के गलियारों में नेट-ज़ीरो का मुद्दा गर्म रहा कि क्या भारत को भी अपने नेट-जीरो साल की घोषणा करनी चाहिए! इस आपाधापी में एक महत्वपूर्ण सवाल छूटता दिख रहा है कि कार्बन उत्सर्जन को कम करने की इस डगर पर ऐसे बड़े लक्ष्य निर्धारित कौन करता है? इसमें राज्यों की भूमिका क्या होती है?
यह सवाल पूछने पर नई दिल्ली स्थिति आईफॉरेस्ट के अध्यक्ष और सीईओ चंद्र भूषण स्पष्ट कहते हैं कि केंद्र ही इन सारे महत्वाकांक्षी लक्ष्यों को निर्धारित करता है। वह चाहे 450 गीगावॉट अक्षय ऊर्जा का लक्ष्य हो, नेट-जीरो या जलवायु परिवर्तन से जुड़ा कोई अन्य लक्ष्य हो। आईफॉरेस्ट पर्यावरण से जुड़े मुद्दे पर काम करती है।
मोंगाबे-हिन्दी ने सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च (सीपीआर) से जुड़े प्रोफेसर नवरोज के डुबाश से बात की, जो जलवायु-परिवर्तन से संबंधित विषय और विकासशील दुनिया में रेगुलेशन की राजनीति पर लेखन करते रहे हैं।
इन सवालों के जवाब में डुबाश का भी कहना है, “ये डीकोर्बोनाइजेशन का लक्ष्य मुख्य रूप से केंद्र ही निर्धारित करता है। जलवायु परिवर्तन से निपटने में हमें कई चीज़ों की ज़रूरत है। इनमें से एक है ऐसा संस्थागत तंत्र जहां जलवायु परिवर्तन से निपटने से जुड़े नीतिगत मामलों में राज्यों की अधिक से अधिक हिस्सेदारी तय हो सके।”
जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए एक परिवर्तन बहुत जरूरी
नेट-जीरो के मोर्चे पर देश का आधिकारिक फैसला जो भी हो इसका क्रियान्वयन राज्य और विकेंद्रीकृत संस्थाओं के हिस्से ही जाना है। उदाहरण के लिए, जब भारत ने 450 गीगावॉट अक्षय ऊर्जा लगाने की महत्वाकांक्षी योजना की घोषणा की तो यह स्पष्ट था कि इसका क्रियान्वयन राज्य स्तर पर होना है। हालांकि, विशेषज्ञ इस बात से सहमत हैं कि वर्तमान स्थिति में भारत की नीति निर्माण में भारी विरोधाभास है। खासकर जलवायु परिवर्तन से निपटने के मामले में।
आईफॉरेस्ट के चंद्र भूषण इसको समझाते हैं कि एकतरफ तो यह कहा जाता है कि ऐडप्टैशन (अनुकूलन) राज्यों की जिम्मेदारी है और दूसरी तरफ मिटीगेशन की जिम्मेदारी केंद्र की हो जाती है। राज्यों से ऐडप्टैशन की योजना तैयार करने को कहा जाता है पर केंद्र खुद अक्षय ऊर्जा, ऊर्जा दक्षता, कार्बन की तीव्रता (कार्बन इन्टेन्सिटी) से संबंधित लक्ष्य तय किए जा रहा है। होना यह चाहिए कि हर राज्य को अपनी मिटीगेशन और ऐडप्टैशन की योजना बनानी चाहिए। इन सारी योजनाओं के आधार पर केंद्र को एक राष्ट्रीय लक्ष्य तय करना चाहिए।
सीपीआर के नवरोज डबास इस भ्रामक स्थिति पर रोशनी डालते हैं। यह पूछे जाने पर कि केंद्र द्वारा लक्ष्य तय करना क्या संघीय ढांचे का उल्लंघन है, वह कहते हैं कि यह स्पष्ट नहीं है। संविधान में कार्बन का कहीं विशेष रूप से उल्लेख नहीं किया गया है।
“समस्या यह है कि संपूर्ण जलवायु परिवर्तन की समस्या किसी भी क्षेत्र में बड़े करीने से फिट नहीं होती है। जैसे हम जानते हैं कि बिजली एक समवर्ती विषय है जबकि पर्यावरण राज्य के दायरे में आता है। हालांकि, कार्बन के बारे में ऐसा कोई विशेष उल्लेख नहीं है। अभी तक यह भी स्पष्ट नहीं है कि इसे ऊर्जा-क्षेत्र में माना जाए या पर्यावरण का हिस्सा माना जाए, “वह कहते हैं।
डीकार्बोनाइजेशन के दो अलग-अलग मॉडल
सवाल यह है कि क्या राज्यों की बेहतर भागीदारी और प्रक्रिया को अधिक से अधिक विकेंद्रीकृत करने से भारत को अपने महत्वकांक्षी लक्ष्य हासिल करने में आसानी होगी! किसी भी गहन अध्ययन के अभाव में, बिहार और केरल के दो छोटे उदाहरण इसके संभावित परिणाम को बता सकते हैं।
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने सितंबर 2020 में संयुक्त राष्ट्र महासचिव द्वारा आयोजित एक राउंड टेबल में भाग लिया। बिहार में कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिए की जा रही कोशिशों पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने कहा, “हमारी नीतिगत पहल, जिसमें कृषि, भूजल का संरक्षण, सौर ऊर्जा, स्वच्छ ईंधन और जैव विविधता संरक्षण को ध्यान में रखकर सतत विकास के लक्ष्य को हासिल करने की कोशिश की जा रही है।”
हालांकि, इन सारे दावों पड़ताल मुश्किल है, पर सिर्फ अक्षय ऊर्जा की पड़ताल की जाए तो इन सारी बड़ी-बड़ी शब्दावली से भरे इन दावों की पोल खुल जाती है।
वर्ष 2017 में, बिहार सरकार ने 2022 तक अक्षय ऊर्जा के 3,433 मेगावाट क्षमता विकसित कर लेने की घोषणा की थी। इसमें से नीतीश कुमार के नेतृत्व में पिछले चार वर्षों में राज्य ने महज 194 मेगावाट स्थापित किया है। यह निर्धारित लक्ष्य का 0.5 प्रतिशत है और राज्य को अगले एक वर्ष में शेष 99.5 प्रतिशत लक्ष्य हासिल करना बाकी है। बिहार सरकार की इस असफलता को ऐसे भी देखा जाना चाहिए। जब केंद्र सरकार ने 2015-16 में 175 गीगावाट अक्षय ऊर्जा की क्षमता स्थापित करने की घोषणा की तो बिहार में 2,518 मेगावाट की क्षमता बताई गयी। यह भी गौर करना होगा कि केंद्र के इस लक्ष्य को हासिल करने में बिहार का क्या योगदान रहा!
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केंद्र द्वारा बड़े लक्ष्यों की घोषणा और जमीन पर उसके निष्पादन में इस तरह के अंतर पर टिप्पणी करते हुए डबास कहते हैं, “हमें यह मानना चाहिए कि अंतरराष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं के मद्देनजर जो राष्ट्रीय लक्ष्य तय किये जाते हैं उसको राज्य के स्तर पर उतारने का हमारे यहां कोई तंत्र मौजूद नहीं है।”
“एक धारणा है कि पूरे देश में पर्याप्त आर्थिक बदलाव होंगे जिससे अंततः इन लक्ष्यों को हासिल किया जा सकेगा,” उन्होंने कहा।
एक अन्य उदाहरण केरल का है, जिसमें दिखाया गया है कि छोटे स्तर पर लोगों की भागीदारी तय करने से बड़ा बदलाव लाया जा सकता है। पर्यावरण के मुद्दे पर काम करने वाले केरल स्थित समूह थनल के एक ट्रस्टी, जयकुमार सी का दावा है कि राज्य के 14 जिलों में से, लगभग 6 से 8 जिले आने वाले 5-6 सालों में नेट-जीरो का लक्ष्य हासिल कर सकते हैं।
20 अक्टूबर, 2020 को केरल के वायनाड जिले के मीनांगडी पंचायत में शुरू की गई ट्री बैंकिंग योजना का एक उदाहरण देते हुए, उन्होंने बताया कि अवसर मिलने पर लोग बढ़-चढ़कर ऐसे लक्ष्य को हासिल करने का प्रयास करते हैं। मीनांगडी को भारत की पहली ‘कार्बन नेट-ज़ीरो पंचायत’ माना जाता है।
उन्होंने कहा, ‘हमने उत्सर्जन का अनुमान लगाया और इस पंचायत को 15,000 टन कार्बन सोखने (ऑफसेट करने का) सुझाव दिया। इसके लिए कई तरह के प्रयास हुए जिसमें कचरा प्रबंधन इत्यादि भी शामिल है। एक दिलचस्प पहल थी वृक्षारोपण की जिसमें सार्वजनिक भागीदारी को प्रोत्साहित किया गया। प्रत्येक पेड़ लगाने के लिए लोगों को स्थानीय पंचायत से 50 रुपये की पेशकश की गई। इस पहल के तहत लगभग 4,00,000 पेड़ लगाए गए थे, जिनमें से लगभग 1,60,000 निजी संपत्ति पर लगाए गए। पंचायत अधिकारियों ने घरों में आकर पौधों की जियो टैगिंग की। दिलचस्प बात यह है कि लगभग 1,000 परिवारों में से केवल 170 पंचायत के माध्यम से वित्तीय लाभ लेने के लिए आगे आए। बाकी 830 परिवारों ने जरूरत और बड़े कारण को समझते हुए पैसे नहीं लेने का फैसला लिया पर बढ़-चढ़कर वृक्षारोपण किया। इसे नागरिकों की भूमिका का महत्व पता चलता है। अगर उनको बड़ी समस्या से अवगत कराया जाए और योगदान का मौका दिया जाए तो भागीदारी के मॉडल से बड़े-बड़े लक्ष्य हासिल किये जा सकते हैं।
परंपरागत रूप से, भारत राज्य और जिला आधारित योजनाओं के आधार पर काम करता है। इन स्थानीय योजनाओं के आधार पर राष्ट्रीय योजनाएं बनाई जाती हैं। हालांकि, केरल में, यह पंचायत या निगम की योजनाओं के स्तर तक विकेंद्रीकृत किया जाता है। इससे लोगों को जोड़ने में सहूलियत होती है, इनका कहना है।
काउंसिल ऑन एनर्जी, एनवायरनमेंट एंड वाटर (सीईईडब्ल्यू) के फ़ेलो वैभव चतुर्वेदी ने जलवायु संबंधी चिंता को मुख्यधारा में लाने के लिए केरल मॉडल की सराहना की। अन्यथा, स्थिरता या जलवायु से संबंधित मुद्दे हमेशा हाशिये पर ही रह जाते हैं। केंद्र और राज्य दोनों स्तर पर।
अंतर्राष्ट्रीय बहस: क्या भारत को नेट-जीरो की घोषणा करनी चाहिए?
पूरी बहस जलवायु परिवर्तन की चुनौती से शुरू होती है जिससे व्यापक असर होने का अनुमान लगाया जाता है। संयुक्त राष्ट्र का अनुमान है कि पूरी दुनिया को 2050 तक शून्य उत्सर्जन का लक्ष्य हासिल करना होगा, अगर पूर्व-औद्योगिक स्तर की तुलना में तामपान को 2-डिग्री सेल्सियस से कम रखना है तो। इसलिए भी भारत पर अन्य कार्बन उत्सर्जन को शून्य पर लाने के लिए समय-सीमा निर्धारित करने का दबाव है।
वर्ष 2021 को वैश्विक जलवायु बहस के लिए एक महत्वपूर्ण वर्ष माना जा रहा है। वर्ष के अंत में, विभिन्न देशों के नीति निर्धारक मिलेंगे और उम्मीद की जाएगी कि वे पेरिस समझौते के तहत नई या विस्तृत (पहले से बढ़ी हुई) प्रतिबद्धता का ऐलान करें। इस पर लगभग सहमति है कि जलवायु परिवर्तन के मोर्चे पर की गई गलतियों को ठीक करने के लिए अब बहुत कम समय बचा है।
इसी को ध्यान में रखते हुए सभी देशों पर दबाव है कि वे अपने कार्बन उत्सर्जन को शून्य करने के लिए समयसीमा की घोषणा करें।
“नेट शून्य का मतलब है कि ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन एक निश्चित तारीख तक शून्य हो जाना। इसके लिए कई देशों ने 2050 का वर्ष मुकर्रर किया है। इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) की रिपोर्ट ने भी यही अनुमोदित किया है,” सीपीआर से डबाश बताते हैं।
भारत में मानव विकास और अन्य सामाजिक संकेतकों के मद्देनजर यह बहस छिड़ी है कि क्या भारत को अपने नेट-ज़ीरो साल की घोषणा करनी चाहिए या नहीं!
“भारत को इसे ऐसे देखना होगा कि इसे स्थानीय लक्ष्य को हासिल करने में क्या मदद मिलेगी! क्योंकि, यदि देश 2050 या 2060 को को नेट-जीरो साल तय करता है तो उसे यह तय करने के लिए एक तंत्र की आवश्यकता है कि आज उस लक्ष्य के लिए क्या प्रयास किये जाने चाहिए। भारत की वर्तमान प्रतिबद्धताएं जलवायु परिवर्तन से लड़ने के लिए नहीं तय किये गए हैं। बल्कि रोजगार सृजन, पर्याप्त बिजली और घरों में बिजली उपलब्ध कराने के उद्देश्य से यह लक्ष्य निर्धारित किये जाते हैं,” डबाश कहते हैं।
उनका कहना है कि भारत को अन्य देशों के साथ सक्रिय रूप से बहस में शामिल होना चाहिए और पूछना चाहिए कि नेट-ज़ीरो हासिल करने के लिए इनके अल्पकालिक लक्ष्य क्या हैं।
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सीईईडब्ल्यू के वैभव चतुर्वेदी ने हाल ही में भारत के संभावित नेट-जीरो परिदृश्य पर एक पेपर प्रकाशित किया है। इनका कहना है कि भारत का नेट-जीरो की तरफ पहुंचने की यात्रा निश्चित तौर एकदम अनोखी और अलग होगी। जैसा पहले कभी नहीं देखा गया। अपने अध्ययन में उन्होंने नेट जीरो के साथ-साथ पीक ईयर को जोड़कर भविष्य को समझने की कोशिश की है।
इनका कहना है कि पीक ईयर का सवाल सवाल नेट-जीरो के प्रश्न में निहित है। “दो सिद्धांत हैं जिनके बारे में हमें सोचने की ज़रूरत है- एक है नीति की विश्वसनीयता और दूसरा है निश्चितता। नेट-ज़ीरो से भविष्य की निश्चितता का बोध होता है। लेकिन जब तक पीक ईयर की घोषणा नहीं की जाती तब तक विश्वसनीयता की कमी झलकती रहेगी। इसके बिना लोगों को मुद्दे की गंभीरता नहीं समझ आएगी। इसलिए पीक ईयर की घोषणा अनिवार्य है।
भारत जैसे देशों के लिए पीक ईयर की घोषणा करना इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि तमाम देश जो नेट-जीरो की घोषणा कर रहे हैं उन्होंने अपने पीक ईयर हासिल कर लिए हैं। अब इनकी अर्थव्यवस्था ढलान पर है, वैभव चतुर्वेदी ने सीईईडब्ल्यू के सीईओ अरुणाभ घोष के साथ हुई एक ऑनलाइन बातचीत में यह बात कही।
अपने अध्ययन में, उन्होंने पीक ईयर और नेट-ज़ीरो के कई संभावित प्रारूप का जिक्र किया है। 2050 को नेट-ज़ीरो का साल मानने की दशा में 2030 ही पीक ईयर होगा। और कोई विकल्प नहीं है। अगर ऐसा है तो परिवर्तन की जो गति होगी वह अभूतपूर्व होगी। 2050 तक भारत को उस मुकाम पर पहुंचना होगा जहां गैर-हाइड्रो नवीकरणीय ऊर्जा का हिस्सा 80 प्रतिशत होना चाहिए, चतुर्वेदी बताते हैं।
राजनीतिक अर्थव्यवस्था में ऐसे परिवर्तन का वृहत असर होगा। घरेलू बिजली का शुल्क बढ़ाना होगा क्योंकि बिजली के मूल्य निर्धारण में सुधार होना अभी बाकी है। कोयले पर निर्भरता और ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोतों की ओर बढ़ने के लिए, नीति निर्माताओं को एक नई और अलग आर्थिक व्यवस्था का निर्माण करना होगा।
अरुणाभ घोष कहते हैं कि इस परिवर्तन की गति बहुत तेज होगी। इसे देश में और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सबको समझने की जरूरत है।
इसको समझने के लिए एक नए कारक का सहारा लिया जा सकता है। अपने पीक ईयर और नेट-जीरो वर्ष के बीच ईयू के पास 71 वर्ष थे, ब्रिटेन को 77 वर्ष, जापान को 46 वर्ष मिले। यहां तक कि चीन जिसने 2060 को नेट-जीरो हासिल करने का लक्ष्य रखा है उसे भी लगभग 30 साल मिल जाएंगे। इनकी तुलना में भारत के पास महज 20 साल होगा।
इसको समझने का एक तरीका और भी है। अगर भारत 2030 में अपने पीक ईयर में पहुंचता है तो प्रति व्यक्ति उत्सर्जन क्षमता 2 टन के करीब होगी। जबकि जब यूरोपीय संघ या चीन या जापान शिखर पर थे तो उनका प्रति व्यक्ति उत्सर्जन 9 टन के आस-पास था। अमेरिका का 19 टन के आस-पास रहा।
“सवाल हां या ना का नहीं है कि भारत नेट-जीरो को लेकर क्या रुख अपनाएगा। लेकिन यह समझना होगा कि इस गति से अबतक कहीं भी यह परिवर्तन हासिल नहीं किया गया है। अगर जलवायु परिवर्तन के मामले में भारत दुनिया का नेतृत्व करना चाहता है तो इसके लिए बहुत अधिक निवेश की जरूरत होगी, अत्यधिक तकनीक की जरूरत होगी और पूरी अर्थव्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन लाना होगा,” अमिताभ घोष कहते हैं।
बैनर तस्वीर: बिहार में लगा एक सोलर पंप। वर्ष 2017 में, बिहार सरकार ने 2022 तक अक्षय ऊर्जा के 3,433 मेगावाट क्षमता विकसित कर लेने की घोषणा की थी। इसमें से पिछले चार वर्षों में राज्य ने महज 194 मेगावाट स्थापित किया है। तस्वीर– आयुष माणिक/फ्लिकर