- 30 साल पहले 1991 में शुरू किए गए आर्थिक सुधारों ने भारतीय मध्य वर्ग को मजबूत किया जिससे इस वर्ग को आर्थिक और राजनीतिक आवाज मिली।
- इस मध्य वर्ग के उभार ने भारत के पर्यावरण, स्वास्थ्य और शासकीय मुद्दों से निपटने के पारंपरिक तरीके को बदल दिया।
- कोविड -19 की दूसरी लहर ने मध्य वर्ग को काफी प्रभावित किया है और पूरी संभावना है कि 1991 से चले आ रहे शासकीय और गैरशासकीय तरीकों में बदलाव देखने को मिले।
- इस कॉमेंट्री में व्यक्त विचार लेखक के हैं।
इक्कसवीं सदी के पहले दशक के मध्य में, मैं हैदराबाद से दूर, पाटनचेरू में मौजूद अंतर्राष्ट्रीय अर्ध-शुष्क उष्णकटिबंधीय फसल अनुसंधान संस्थान के वैश्विक मुख्यालय में कार्यरत था। इस संस्था का कैंपस करीब 3,500 एकड़ के दायरे में फैला हुआ है और इसकी इमारतों को डिजाइन और निर्माण 1970 के दशक में किया गया था। तब अंतर्राष्ट्रीय कृषि अनुसंधान केंद्रों के लिए पैसों की कोई कमी नहीं हुआ करती थी। सदी के अंत तक, आर्थिक स्थिति बदली और इस संस्था ने कम इस्तेमाल होने वाली जगहों को अन्य कंपनियों को किराये पर देना शुरू कर दिया जो अपने कर्मचारियों के साथ टीम-बिल्डिंग जैसे इवेंट करना चाहती थीं।
बेंगलुरु के नक्शेकदम पर चलते हुए, सूचना प्रौद्योगिकी (आईटी) और सूचना प्रौद्योगिकी-सक्षम सेवाओं (आईटीईएस) के केंद्र के रूप में हैदराबाद का भी विकास हो रहा था। हर हफ्ते आईटी क्षेत्र के नए रंगरूटों समूह में कैंपस में दिखते थे। कभी लॉन में घूमते-फिरते तो कभी बंद कमरे में पावरपॉइंट की मदद से दिए जा रहे प्रशिक्षण सत्रों में भाग ले रहे होते।
आईटी और आईटीईएस क्षेत्र में नौकरी करते इन युवाओं को, इस सदी के पहले दशक में, भारत की आर्थिक विकास की कहानी और मध्य वर्ग की आकांक्षाओं के प्रमुख उदाहरण के रूप में देखा जाता था। आत्मविश्वास से लबरेज ये युवा भारत के विकास की कहानी का चेहरा बने। वह कहानी जिसकी शुरुआत 1991 के आर्थिक सुधारों से शुरू हुई। केंद्र सरकार के किये इस नीतिगत बदलाव से सर्विस सेक्टर की अगुवाई में आर्थिक विकास को गति मिली।
इन फैसलों से भारत सरकार विकसित देशों के विकास पथ का अनुसरण कर रही थी। वो देश जो दशकों पहले प्राथमिक (कृषि-प्रधान) क्षेत्र से निर्माण और सेवा क्षेत्र की मदद से आर्थिक व्यवस्था का विकास करने में सफल हो पाए। नब्बे के दशक के बाद वाले दशकों में सरकार निर्माण क्षेत्र में जान फूंकने के लिए नई-नई नीतियां लाती रही जिसकी शुरुआत आर्थिक सुधार के फैसले से हुई थी।
1991 और उसके बाद…
इन आर्थिक सुधारों की शुरुआत इस महत्वकांक्षी मध्य वर्ग को ध्यान में रखकर नहीं हुई थी। बल्कि एक राष्ट्रीय आर्थिक संकट की प्रतिक्रिया के फलस्वरूप परिदृश्य में आए। 30 साल पहले की घटनाओं को याद करते हुए, वरिष्ठ पत्रकार संजय बारू ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि कर्ज के बोझ और विदेशी मुद्रा भंडार के सिमटने से उपजी समस्या की वजह से आर्थिक सुधारों की शुरुआत हुई थी। राजकोषीय घाटा (सरकार के राजस्व और व्यय के बीच का अंतर) बढ़ रहा था क्योंकि सरकार के राजस्व में लगातार कमी आ रही थी। खाड़ी संकट से भारत की क्षीण होती आयात क्षमता को लेकर चिंता बढ़ रही थी। आयात पर रोक लगा दिया गया और भारत ने अपने रिजर्व से 20 टन सोना बेचा। भारत अपने बाहरी ऋण को चुकाने में असफल होने की कगार पर पहुंच गया था। सरल शब्दों में कहें तो देश दिवालीया होने के कगार पर आ गया था।
1991 में हुए लोकसभा के चुनावों के बाद केंद्र में सरकार बदली। कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार में पी.वी. नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री बने और मनमोहन सिंह वित्त मंत्री। इन दोनों के कंधों पर देश की बिगड़ती अर्थव्यवस्था को बचाने की जिम्मेदारी आई। इस संकट को एक अवसर के रूप में देखते हुए, इन लोगों ने आर्थिक सुधारों की शुरुआत की और इसका आधार था उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण।
अर्थशास्त्री और तत्कालीन वाणिज्य सचिव मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने अपनी हालिया किताब में लिखा है, “रुपये का अवमूल्यन किया गया, व्यापार नीति को उदार बनाया गया, घरेलू निवेश नियंत्रण को खत्म कर दिया गया तथा विदेशी प्रत्यक्ष निवेश (एफडीआई) की दिशा में एक नई नीति बनाई गई।” नई औद्योगिक नीति ने उद्योग के लिए लाइसेंस की जरूरतों को समाप्त कर दिया और विदेशी निवेश को आकर्षित करने के लिए एफडीआई नियमों को उदार बनाया गया।
इन आर्थिक नीतियों में बदलाव के नतीजे बाद के महीनों और वर्षों में दिखने लगे। भारत के आर्थिक विकास में गति आई और ‘हिन्दू रेट ऑफ ग्रोथ’ से छुटकारा मिला। अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा संकलित आंकड़ों के अनुसार, भारत के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की वृद्धि दर 1991 में 1.1% थी जो 2010 में बढ़कर 10.3% हो गयी। हाल के वर्षों में जीडीपी विकास दर 7% और 8% के बीच रह रहा था पर कोविड महामारी में घटकर शून्य से भी नीचे चला गया। सकल घरेलू उत्पाद भी 1991 में 274.84 बिलियन अमरीकी डॉलर से बढ़कर 2020 में 2.71 ट्रिलियन अमरीकी डालर हो गया। प्रति व्यक्ति जीडीपी भी 1991 में 308 अमेरिकी डॉलर थी जो 2020 में बढ़कर 1,960 अमेरिकी डॉलर हो गयी।
मानव विकास के संकेतकों में भी उल्लेखनीय प्रगति हुई। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम द्वारा जारी मानव विकास रिपोर्ट के अनुसार, जन्म के समय जीवन प्रत्याशा दर 1991 में 58.4 वर्ष थी जो बढ़कर 2019 में 69.7 वर्ष हो गई। शिशु मृत्यु दर 1990 में 88.6 प्रति हजार से घटकर 2018 में 29.9 हो गई। 1995 में 37.5 प्रतिशत ग्रामीण जनता को बिजली नसीब थी वही 2018 में यह बढ़कर 92.9 प्रतिशत हो गया। यद्यपि अभी भी अधिकतर ग्रामीण इलाकों के लोगों को बिजली नहीं मिलती और यह अब तक हुए पूरे प्रयास पर सवालिया निशान लगाता है।
शहरीकरण, उपभोक्तावाद और पर्यावरण को होने वाले नुकसान को नजरअंदाज करना
1990 में शहरी आबादी 25.5% से बढ़कर 2018 में 34% हो गई। 1990 में चार में से एक भारतीय शहर में रहता था, तीन दशक बाद, अब तीन में से एक शहर में रहने लगे। इसके साथ प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद और आय में वृद्धि के साथ एक आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक रूप से मुखर मध्य वर्ग का उभार हुआ। इसमें भी एक मजबूत शहरी मध्यवर्ग उभरा।
नई अर्थव्यवस्था में वस्तुओं और सेवाओं के अंधाधुंध उत्पादन के केंद्र में यही वर्ग था जो उपभोक्ता का काम कर रहा था। उदाहरण के लिए, एचडीआर ने इंटरनेट के उपभोक्ताओं से संबंधित आंकड़ों का संकलन किया है। इसके अनुसार 2000 में जहां 0.5% लोगों के पास इंटरनेट की सुविधा उपलब्ध थी वहीं 2018 में यह आंकड़ा बढ़कर 34.5% पहुंच गया। इसी तरह मोबाइल फोन की सुविधा 2000 में 0.3% के पास थी और 2018 में बढ़कर 86.9% हो गई। सिर्फ देश के उद्योग संस्थान ही इस समूह के लिए उत्पादन कर रहे हों, ऐसा नहीं है। अंतर्राष्ट्रीय कंपनियां भी इस वर्ग को लुभाने के प्रयास में थीं। अर्थव्यवस्था में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश 1990 में जीडीपी के 0.1% से बढ़कर 2019 में 1.8% हो गया।
इस उभरते मध्य वर्ग और उपभोक्ताओं के मद्देनजर कार से लेकर मोटरसाइकिल, मीडिया चैनलों और मनोरंजन के विकल्पों में 1991 के बाद बेतहाशा वृद्धि हुई। सस्ती एयरलाइंस, व्यापार यात्रा, वीकेंड घुमक्कड़ी और विदेशी टूर पैकेज ने इस समुदाय को विश्व स्तर पर जोड़ा। शेयर बाजार में उछाल ने मध्य वर्ग को वास्तव में निजी कंपनियों के शेयरों को खरीदकर आर्थिक विकास की कहानी में भाग लेने में सक्षम बनाया। इसका नतीजा यह भी रहा कि यह उपभोक्ता वर्ग जाने-अनजाने उन कॉर्पोरेट के निर्णय में हिस्सा लेने लगा जिनकी प्राथमिकता में मुनाफा था न कि पर्यावरण।
इन सारे परिवर्तन से आखिर में यह हुआ कि उपभोग करने वाला मध्य वर्ग अपने पर्यावरण की चिंताओं से दूर होता गया। इन्हें पानी पीने के लिए प्लास्टिक की बोतल चाहिए होती थी, बिना यह सोचे कि यह पानी कहां से आ रहा है और इस प्लास्टिक के कचरे का वातावरण पर क्या प्रभाव पड़ने वाला है। शहरी और ग्रामीण तालाब इत्यादि जो 1980 के दशक में जलकुंभी और पानी से भरे होते थे अब प्लास्टिक से बने बोतल और थैलियों से अटे पड़े होते हैं।
1990 के दशक के बाद से पर्यावरण से जुड़े बहस-मुबाहिसें ने भी मध्य वर्ग का रास्ता अपना लिया। पहले चिपको आंदोलन, नर्मदा बांध और टिहरी बांध के विरोध में आंदोलन ही मुख्यधारा का हिस्सा होते थे पर धीरे-धीरे इनकी जगह तकनीकी आधारित तर्क-वितर्क, मीडिया कैम्पैन, इंटरनेट-आधारित कैम्पैन, लॉबींग इत्यादि ने ले लिया।
अंत में 1996 में, न्यायमूर्ति कुलदीप सिंह ने सेवानिवृत्त होने से पहले, पर्यावरण के पक्ष में कई फैसले दिए। इसमें तमिलनाडु से चमड़े फैक्ट्री से जुड़ा प्रदूषण का मामला हो या अन्य। एम सी मेहता इन मामलों में पर्यावरण का पक्ष रखने वाले वकील थे। यह उस आंदोलन की शुरुआत थी जिनकी वजह से बाद में राष्ट्रीय हरित अधिकरण और इसके क्षेत्रीय बेंचों का गठन हुआ। “यदि कार्यपालिका कार्य नहीं करती है तो न्यायपालिका को कार्रवाई करनी होगी,” जैसे वाक्य उन दिनों मध्यवर्ग के बीच गूंजते थे।
मध्य वर्ग की पर्यावरण से यह दूरी हर जगह झलकने लगी। क्योंकि इन्ही से जुड़े मुद्दों को नौकरशाही, न्यायपालिका या मीडिया में प्राथमिकता मिलने लगी। यहां तक कि निजी क्षेत्र में भी। इसलिए जब तक इस मध्य वर्ग के हितों पर सीधा प्रहार नहीं होता, उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता था। यह केवल पर्यावरण से जुड़े मुद्दों पर ही लागू नहीं होता बल्कि शासन और स्वास्थ्य से जुड़े मुद्दों के साथ भी था। कोविड-19 महामारी के साथ ये तीनों क्षेत्र पुनः प्राथमिकता में आ गए हैं।
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इन महत्वपूर्ण मुद्दों से दूरी ने केंद्र की तमाम सरकारों के निर्णय को प्रभावित किया। 1991 के बाद से चार बार भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नेतृत्व में सरकार बनी। पहले तीन- 13 दिन, 13 महीने और एक पांच साल की सरकार रही- जिसने पिछली कांग्रेस सरकार की नीतियों को ही आगे बढ़ाया। 2014 में आई भाजपा सरकार ने वर्तमान स्थिति में राष्ट्रवाद का तड़का लगाया। इसका दो स्तर पर प्रभाव पड़ा। एक तरफ तो सरकार ने राष्ट्रीय हितों की आड़ में पर्यावरण की देख-रेख करने वाली संस्थाओं को कमजोर किया और दूसरी तरफ जो लोग इसका विरोध कर रहे थे उनको राष्ट्र-विरोधी के साथ-साथ विकास विरोधी भी करार दिया गया।
कोविड-19 और मध्य वर्ग
भारत ने बड़ी सहजता के साथ कोविड-19 महामारी की पहली लहर पर काबू पा लिया। सख्त लॉकडाउन की वजह से संक्रमण को रोकने में मदद मिली। नतीजा यह हुआ कि कम लोग इस बीमारी के चपेट में आए और कई जानें बच गईं।
लेकिन लॉकडाउन से अर्थव्यवस्था को अच्छा-खासा नुकसान हुआ। इसने 2016 में बिना किसी तैयारी के किये गए नोटबंदी और जीएसटी से होने वाले चुनौतियों में योगदान ही दिया। बीच-बीच में मौसमी मार ने कई राज्यों को आर्थिक संकट में डाला। उदाहरण के लिए, केरल को 2018 और 2019 में भीषण बाढ़ का सामना करना पड़ा। ये सारी घटनाएं भारत के मध्य वर्ग के लिए झटके पर झटका साबित हुईं।
प्यू रिसर्च सेंटर द्वारा संकलित आंकड़ों के अनुसार, महामारी की वजह से 2020 में भारत में मध्य वर्ग सिमटकर महज 3.2 करोड़ हो गया। इसके अतिरिक्त, दूसरी लहर के कारण लगभग 70 लाख नौकरियां जा चुकी हैं। बेरोजगारी दर मार्च में 6.5% से बढ़कर अप्रैल 2021 में 7.97% हो गई।
इन आर्थिक नुकसान के अतिरिक्त कोरोना की दूसरी लहर में लाखों की संख्या में लोग बीमार हुए हैं और जान गंवाई है। जॉन हॉपकिंस विश्वविद्यालय द्वारा संकलित आंकड़ों के अनुसार, दूसरी लहर में बीमारी और मृत्यु दर में बेतहाशा इजाफा हुआ है। 11 मार्च, 2020 से 1 मार्च, 2021 तक कोविड-19 से कुल 157,248 मौत हुई थी; जबकि 30 अप्रैल, 2021 आते-आते मरने वाली की संख्या 211,853 पहुंच गयी। इसका मतलब है कि कोविड -19 के कारण होने वाली कुल मौतों का 25.77% दूसरी लहर के पहले दो महीनों के दौरान ही हुई है। कोविड की वजह से मरने वाले हर चार में से एक की मौत दूसरी लहर में हुई है और अभी यह ग्राफ तेजी से ऊपर जा रहा है।
क्या 2021 पिछले 30 सालों के ट्रेंड को बदलेगा?
भारत की विकास प्रक्रिया एक सतत कहानी है और अभी अधूरी है। कोविड-19 की दूसरी लहर में वह संभावना है जिससे लोगों को वृहत तस्वीर देखने में मदद कर सकती है। खासकर सार्वजनिक स्वास्थ्य, शासन और पर्यावरण पर पड़ने वाले दूरगामी प्रभाव और उसके कारण। राष्ट्रीय चेतना में ये मुद्दे वापस आ सकते हैं। कोविड-19 की पहली लहर के दौरान मध्य वर्ग मौन ही रहा। अलबत्ता कुछ नौकरियों में नुकसान के साथ-साथ आय में कमी आई थी पर असली खामियाजा गरीब तबके को उठाना पड़ा था। ये वो लोग थे जो रोजगार के लिए देश के एक हिस्से से दूसरे हिस्से में पलायन करते हैं। इन्हें सैकड़ों और हजारों किलोमीटर पैदल चलकर अपने गांव लौटना पड़ा था।
कोविड की दूसरी लहर में चारों ओर से मृत्यु की लगातार खबरें आ रही हैं। इस वायरस ने समाज के हर तबके को बराबर प्रभावित किया हो। मध्यवर्ग हो या गरीब तबका। पहली लहर से सबक सीखने और महामारी के खिलाफ जीत की घोषणा करने के कारण सरकार की सोशल और पारंपरिक मीडिया में तीखी आलोचना हो रही है।
हाल के दिनों में उच्च न्यायालयों ने चुनावी रैलियों के आयोजन और ऑक्सीजन की आपूर्ति को लेकर तीखे बयान दिए हैं। सर्वोच्च न्यायालय भी पहले की भांति मूकदर्शक नहीं बैठा है बल्कि कोविड के प्रबंधन पर केंद्र सरकार से सवाल कर रहा है। शीर्ष अदालत केंद्र सरकार को तीसरी लहर की तैयारी के लिए सचेत कर रही है।
कोविड-19 एक पर्यावरण के मुद्दे के रूप में शुरू हुआ। यदि जंगलों को काटकर कम नहीं किया जाता और मानव-वन्यजीवों की निकटता नहीं बढ़ी होती तो यह वायरस पशुओं से इंसानों में नहीं आया रहता। एक बार जब वायरस फैलने लगा तो यह सार्वजनिक स्वास्थ्य और शासन का मुद्दा बन गया। इन सबके मूल में वह जीवनशैली और उपभोक्तावाद था जिसकी शुरुआत आज से 30 साल पहले हुई थी।
यदि आर्थिक सुधारों को भारतीय मध्य वर्ग के उभार का कारण माना जाए तो इसकी 30वीं वर्षगांठ में कोविड-19 एक बड़ा झटका साबित हो रहा है। इसी मध्य वर्ग की वजह से यदि पिछले 30 वर्षों के सभी परिवर्तनों संभव हुए हैं तो यही समूह आगे के सुधार की भी दिशा का नेतृत्व कर सकता है।
संदर्भ:
बारू, संजय. 2016. 1991: हाउ पी वी नरसिम्हा राव मेड हिस्ट्री. आलेफ़ बुक कंपनी
आहुलवालिया, मोंटेक सिंह. 2020. बैकस्टेज. द स्टोरी बिहाइन्ड इंडियाज हाई ग्रोथ इयर्स. रूपा पब्लिकेशन
बैनर तस्वीर: मुंबई लोकल के लिए रेलवे स्टेशन पर लगी भीड़ की एक आम तस्वीर। 1990 में शहरी आबादी 25.5% से बढ़कर 2018 में 34% हो गई। 1990 में चार में से एक भारतीय शहर में रहता था, तीन दशक बाद अब तीन में से एक लोग शहर में रहने लगे। तस्वीर– स्मिथ मेहता/अन्सप्लैश