- खेती के काम में महिलाओं का योगदान पुरुषों के बराबर ही है। पर घरेलू काम का बोझ सिर्फ महिलाओं के जिम्मे होता है। काम के इस दोहरे बोझ की वजह से उनका पोषण प्रभावित हो रहा है।
- इस विषय पर महाराष्ट्र के ग्रामीण इलाके में एक शोध किया गया जिसमें सामने आया कि खेती का काम जब सबसे अधिक होता है तब महिलाएं कुपोषण का शिकार भी अधिक होती हैं।
- खेती के काम में शामिल महिलाओं की स्थिति बेहतर करने के लिए सरकार को नीतियों में बदलाव लाने की जरूरत है।
- घरेलू काम के साथ खेती का काम संभालने वाली महिलाओं पर काम का बोझ कम हो इसके लिए ऐसी तकनीकी के ईजाद की जरूरत है जो महिलाओं का बोझ कुछ कम हो सके।
भारत के खेतों में महिलाएं पुरुषों के कंधे से कंधा मिलाकर काम करती हैं। लेकिन घरेलू काम निपटाने जैसी पारंपरिक चुनौती हो या बदलते मौसम जैसी नई चुनौती- महिलाओं की मुश्किल पुरुषों से अधिक ही रहती हैं। यह जग-जाहिर है कि महिलाओं की जिम्मेदारी सिर्फ खेत में काम करने भर से समाप्त नहीं होती, बल्कि ये महिलाएं खेतों के अलावा घर के काम भी संभालती हैं। दोहरी जिम्मेदारी निभाने के चक्कर में इन्हें अपनी सेहत का ख्याल नहीं रहता। एक अध्ययन में सामने आया है कि खेती के मौसम में-बुआई से लेकर फसल कटाई तक- महिलाओं पर काम का बोझ बढ़ जाता है। इस दौरान उनके शरीर को जरूरी पोषण नहीं मिल पाता।
इस अध्ययन में खेती में योगदान देने वाली महिलाओं पर काम की अधिकता की वजह से होने वाले कुप्रभावों को सामने लाने की कोशिश की गयी है।
भारत में खेती के काम में लगी श्रमशक्ति का एक तिहाई से अधिक हिस्सा महिलाओं का है। अध्ययन के नतीजों ने इस बात की वकालत की है कि नीति-निर्माण के जरिए महिलाओं के ऊपर से अतिरिक्त भार कम किया जाए, ताकि महिलाओं की बढ़ती भागीदारी के बीच उनके सेहत का ख्याल रखा जा सके।
ग्रामीण भारत में महिलाएं अपना 32 फीसदी समय खेती से संबंधित गतिविधियों पर खर्च करती हैं। इसके अलावा उनका दिन का औसतन 300 मिनट ऐसे काम में खर्च होता जिसकी अक्सर गणना नहीं होती। यह काम है घर का काम। खाना बनाने से लेकर साफ-सफाई, घर-परिवार और बच्चे-बुजुर्गों की देखभाल।
हालांकि, यह आंकड़ा किसी सामान्य दिन का है। खेतों में जब काम बढ़ता है तो महिलाओं पर इसका बोझ बढ़ता ही जाता है। खेती के काम में महिलाएं लगभग पुरुषों के बराबर ही समय देती हैं, लेकिन जब घर का काम जोड़ दें तो महिलाएं पुरुषों के मुकाबले कहीं अधिक समय काम करते हुए बिताती हैं।
“जब महिलाएं खेतों में काम करती हैं तो इस काम से उन्हें मजदूरी मिलती है। हालांकि, ऐसा घरेलू काम में नहीं होता। खेती का काम जब बढ़ता है तो मजदूरी न खोने की चाह में महिलाएं खेती के काम में अधिक समय व्यतीत करती हैं। बावजूद इसके घर का काम कम नहीं होता,” इस अध्ययन की सह-लेखिका विद्या वेमिरेड्डी का कहना है।
काम बढ़ता जाता है, लेकिन इस दौरान महिलाएं खुद का ध्यान नहीं रख पाती। उनके शरीर में पोषण के जरूरी तत्व जैसे कैलोरी, प्रोटीन, वसा, आइरन और जिंक की कमी होती जाती है। अध्ययन कहता है कि हर अतिरिक्त 10 मिनट काम करने का मतलब हुआ शाम में खाना बनाने के समय में चार मिनट की कमी। अध्ययन ने एक गणना की है जिसमें दिखता है कि अगर महिला खेती के काम में 100 रुपए कमाती हैं तो उनके पोषण में 112.3 कैलोरी,0.7 एमजी जिंग, 0.4 एमजी जिंक, और 1.5 ग्राम प्रोटीन की कमी होती है।
ऐसा इसलिए होता है क्योंकि खेत में महिलाएं जब अधिक समय देती हैं तो खाना बनाने का समय कम होता जाता है। आपाधापी में वे कम समय में बन सकने वाला खाना बनाती हैं, जिसमें अक्सर पूरा पोषण नहीं रहता।
“खाने में विविधता की कमी होने की वजह से उससे पोषण की मात्रा भी कम मिलती है,” वेमिरेड्डी ने बताया। वे इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट अहमदाबाद में प्रोफेसर हैं।
इस अध्ययन के लिए वेमिरेड्डी ने अमेरिका स्थित टाटा-कॉर्नेल इंस्टीट्यूट ऑफ एग्रीकल्चर एंड न्यूट्रीशन (टीसीआई) से जुड़े सह-लेखक प्रभु पिंगली के साथ मिलकर महाराष्ट्र के चंद्रपुर जिले की 960 महिलाओं से बातचीत की। उन्होंने इस दौरान खेतों में काम करने वाली महिलाओं से उनके काम, फसल-चक्र और व्यस्तता के बारे में जानकारी हासिल की। अध्ययन के दौरान महिलाओं से खेतों पर उनके मालिकाना हक से जुड़े सवाल भी पूछे गए।
अध्ययनकर्ताओं ने भोजन तैयार करने की विधि, सामग्री आदि से संबंधित सवाल पूछकर खाने से मिलने वाले पोषक तत्वों की गणना भी की।
चंद्रपुर में रूई और धान की खेती होती है। वर्ष 2011 की जनगणना के मुताबिक यहां की आधी से अधिक जनसंख्या का आजीविका का मूल आधार खेती है। इस जिले के ग्रामीण इलाके को पोषण के मामले में कमजोर आंका गया है।
“हमने देखा कि महिलाएं खेती के काम में खेतीहर मजदूर के तौर पर काफी योगदान देती हैं। हमें महिलाओं के इस योगदान को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए और इतनी मेहनत की वजह से उनके स्वास्थ्य पर हो रहे असर को भी दर्ज करना चाहिए,” वेमिरेड्डी ने कहा। इसका मतलब यह हुआ कि खेती-किसानी में जब तकनीक की मदद से मेहनत कम करने की बात हो तो महिलाओं के ऊपर से काम का बोझ कम करने की तरफ भी ध्यान दिया जाए।
महिलाओं को ध्यान में रखकर बने खेती की नीतियां
कृषि क्षेत्र में योगदान देने वाली महिलाओं को इसके बदले प्रोत्साहन के बजाए और अधिक काम का बोझ मिलता है। उन्हें अपने घरेलू काम के लिए कम वक्त मिलता है और मनोरंजन के समय का तो कोई सवाल ही नहीं। कृषि नीतियों में इस सूरत को बदलने की कोशिश शामिल होनी चाहिए।
काम को आसान बनाने के लिए भी नीतियां बननी चाहिए, चाहे वह घरेलू काम हो या खेती का। उदाहरण के लिए मेहनत बचाने के लिए एक नीति नेशनल मिशन ऑन एग्रीकल्चर एक्टेंशन एंड टेक्नोलॉजी को लेते हैं। इसके जरिए किसानों की मेहनत कम करने के लिए तकनीक का विकास किया जा रहा है।
इस विचार से एमएस स्वामीनाथन रिसर्च फाउंडेश के इकोटेक्नोलॉजी विभाग के डायरेक्टर आर रेंगलक्ष्मी भी सहमत है। वे इस अध्ययन का हिस्सा नहीं है। उनका कहना है कि किसानी में मेहनत बचाने वाली तकनीक, खासकर महिलाओं को ध्यान में रखकर बनाई गई तकनीक का विकास जरूरी है। यह देखा गया है कि जब खेती का काम बढ़ता है तो खेती से जुड़े मजदूरों के शरीर का वजन कम होता है और इससे घरेलू और खेती दोनो काम प्रभावित होते हैं।
“घरेलू कामों में कम मेहनत से तकनीक से जरिए काम आसान किया जाए तो इससे महिलाओं का समय बचेगा। उनका स्वास्थ्य भी सुधरेगा और मनोरंजन के लिए भी कुछ समय निकल सकेगा। इन सबका फायदा उन्हें खेती के काम में मिलेगा, जहां काम के बदले उन्हें मजदूरी मिलती है। इतना ही नहीं, शरीर और दिमाग को अगर आराम मिले तो इससे दैनिक जीवन के निर्णय लेने की क्षमता भी बेहतर होगी,” रेंगलक्ष्मी ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया।
हालांकि, इस युक्ति पर सरकार की तरफ से कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया है।
भारत का आर्थिक सर्वेक्षण 2017-18 कहता है कि पुरुषों के पलायन करने की वजह से खेती का दारोमदार महिलाओं पर आ रहा है, इससे अधिक महिलाएं खेती के काम में आ रही हैं।
“खेती के उपकरणों को महिलाओं के लिए सहज बनाने की जरूरत है। कृषि क्षेत्र मजदूरों की कमी से जूझ रहा है जिस वजह से महिलाएं आगे आकर यह काम संभाल रही हैं,” रेंगालक्ष्मी कहते हैं।
इस तरफ कुछ काम हो भी रहे हैं। उदाहरण के लिए सरकार ने 12हवीं पंचवर्षीय योजना में कृषि में यांत्रिकीकरण के लिए एक योजना का आरंभ किया है, जिसमें सब्सिडी के जरिए छोटे और मझौले किसानों को यंत्र मुहैया कराने की योजना है। महिलाओं को लेकर योजना में विशेष प्रावधान हैं।
रेंगालक्ष्मी इस बात पर जोर देते हैं कि तकनीक से साथ-साथ महिलाओं को मजदूरी में भी बराबरी का हक मिलना चाहिए।
मजदूरी के फर्क के अलावा एक और बड़ा भेदभाव कृषि में महिलाओं के नेतृत्व में भी दिखता है। श्रम शक्ति सर्वेक्षण 2017-18 के मुताबित भारत के ग्रामीण इलाकों में 73.2 प्रतिशत महिला मजदूरों की भागीदारी है, लेकिन 12.8 प्रतिशत महिला ही जमीन पर मालिकाना हक रखती हैं। बाकी महिलाएं परिवार की जमीन पर काम करती हैं, जिनका मालिकाना हक पुरुष सदस्य के पास होता है।
इस अध्ययन में भी कुछ ऐसा ही आंकड़ा सामने आया। सर्वे में शामिल महिलाओं में से 31 प्रतिशत भूमिहीन पाई गई। जिन महिलाओं के पास जमीन का मालिकाना हक था उनमें से अधिक का रकबा 5 एकड़ से कम ही था।
सरकारी नीतियों में महिला किसान
रेंगालक्ष्मी के मुताबिक कुछ राज्य सरकारों ने अपनी नीतियों में महिलाओं के योगदान को रेखांकित किया है लेकिन यह नाकाफी है। सिर्फ समय की बचत करना ही काफी नहीं, बल्कि उनके पोषण का पूरा ख्याल रखना भी जरूरी है, अध्यनकर्ताओं ने माना। इस कमी को दूर करने के लिए सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) में अनाज के अलावा दूसरे पोषक आहार भी शामिल किया जा सकता है।
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बैनर तस्वीर: हिमाचल के कुल्लू जिला स्थित चोंग गांव में अपने खेत में काम करती एक महिला। महिलाओं की जिम्मेदारी सिर्फ खेत में काम करने भर से समाप्त नहीं होती, बल्कि अधिकांश महिलाएं खेतों के अलावा घर के काम भी संभालती हैं। तस्वीर– फ्रांसेस्को फियोडेला/(आईआरआई/सीसीएएफएस)/फ्लिकर