- राजस्थान के सांभर झील के नजदीक के क्षेत्र में भूजल में खारापन इतना अधिक है कि हैंडपंप भी गल जाते हैं। एक स्थानीय संस्था के दावे के अनुसार इस क्षेत्र के पानी में टीडीएस की मात्रा 5562 है और इसे पीने वालों को तमाम रोग होते रहते हैं।
- इन क्षेत्रों में रेनवाटर हार्वेस्टिंग के बूते पानी की समस्या से निजात पाने की कोशिश हो रही है। जयपुर जिले की दूदू पंचायत समिति की चार ग्राम पंचायतों के आठ में से तीन गांवों में घर-घर लगा रेनवाटर हार्वेस्टिंग, बाकी में 90% काम पूरा, टांका की क्षमता 15 हजार लीटर से 22 हजार लीटर तक है।
- हरसौली ग्राम पंचायत और आसपास के क्षेत्र में 1991 से काम करने वाली स्वयं सेवी संस्था प्रयास ने अपनी कोशिशों से क्षेत्र की 23 ग्राम पंचायतों में 54 तालाब बनवाये हैं। तालाबों से कुओं का जलस्तर बढ़ा है और सिंचाई के लिए पानी उपलब्ध हुआ है।
मिलिये 60-साल की प्रेम दरोगा से जो जयपुर जिले की दूदू पंचायत समिति के भोजपुर गांव की रहने वाली हैं। चार साल पहले तक इनको प्रतिदिन आठ किलोमीटर पैदल चलना मजबूरी थी ताकि घर के लोगों के लिए पीने का पानी उपलब्ध हो सके। एक किलोमीटर दूर स्थित कुएं पर यह एक दिन में चार बार जातीं थी ताकि इनके परिवार के सात सदस्य जरूरत भर पानी पी लें, भोजन पक जाए और अन्य दैनंदिनी काम हो जाए।
कमोबेश यही कहानी इनके गांव के 175 परिवारों की थी जो पानी जैसी मूलभूत जरूरत के लिए संघर्ष करने को मजबूर थे और हर घर की महिलायें दिन के दो-तीन घंटे इस काम में लगाती थीं।
बावजूद इसके इनकी समस्याएं कम नहीं होतीं थी। क्योंकि जो पानी मिलता वह भी स्वास्थ्य के लिए मुफीद नहीं होता। इसे पीने से लोगों को कई बीमारियां होती थीं। इलाज में गाढ़े कमाई का पैसा खर्च हो जाया करता था।
इस बारें में प्रेम की देवरानी शायर दरोगा (40) मोंगाबे-हिन्दी को बताती हैं, “आठ साल पहले मुझे इस खारे-गंदे पानी से पेट में पथरी हुई। जब भी पेट में दर्द होता दवा लेनी होती थी। मेरे आठ साल के बेटे को भी पथरी हो गयी थी। जोड़ों में दर्द भी बना रहता था। इन सब के इलाज में सारी कमाई खर्च हो जाती थी।”
इन इलाकों में क्यों हैं ऐसी मुसीबत?
इसकी वजह है आस-पास के मौजूद पानी की गुणवत्ता। सांभर झील के नजदीक होने से आसपास के 80-100 किलोमीटर के क्षेत्र में भूमिगत जल बहुत ही खारा है। पानी में लवणता इतनी है कि यहां लगाए गए हैंडपंप तीन साल से ज्यादा नहीं चल पाते। उनका लोहा नमक की वजह से गल जाता है। यहां लगे हैंडपंप सरकारी हैं। गलने के कारण स्थानीय लोग अपने घरों में टयूबवेल लगाने से बचते हैं।
एक स्वयंसेवी संस्था प्रयास केन्द्र ने इन गांवों में पानी की जांच कराई तो उसके नतीजे काफी चौंकाने वाले आए। पानी में अधिकतम टीडीएस 500 मिलीग्राम/ लीटर ही तय है। जबकि यहां के भूमिगत जल में टीडीएस चार से 11 गुना तक अधिक पाया गया। आसपास के गांवों में भूमिगत जल में टीडीएस की मात्रा 2 हजार से 5562 मिलीग्राम प्रति लीटर तक पाई गई। इसी तरह टोटल हार्डनेस 200 की जगह 400 से 900 मिलीग्राम प्रति लीटर तक मिला। कैल्शियम भी तय मात्रा (75 मिलीग्राम/लीटर) के स्थान पर 400 मिलीग्राम/लीटर, मैग्निशियम (30 मिलीग्राम/लीटर) की जगह 141 मिलीग्राम/लीटर, क्लोराइड (250 मिलीग्राम/लीटर) 2558 मिलीग्राम/लीटर, सल्फेट (200 मिलीग्राम/लीटर) नहीं होकर 1022 मिलीग्राम/लीटर तक पाया गया है। इसके अलावा पानी में फ्लोराइड, सोडियम और सिलिका भी तय मात्रा से ज्यादा मिले हैं।
इस संस्था के निदेशक बंशी बैरवा ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया कि टांके बनने से पहले लगातार दूषित पानी पीने के कारण यहां के लोगों में हड्डी, दांत, जोड़ों का दर्द जैसी बीमारियां काफी आम थीं। बच्चों में निमोनिया, डायरिया आम बीमारी थीं, लेकिन अब धीरे-धीरे इन समस्याओं में कमी आई है।
बारिश से समाधान?
पानी की समस्या खत्म करने के लिए शुरूआत में इस संस्था ने दूदू पंचायत समिति की 56 ग्राम पंचायतों में से 23 में तालाब बनाने शुरू किए। 2011 तक 54 तालाब पूरे क्षेत्र में बनाए गए, बंशी बताते हैं।
इनका दावा है कि इन तालाबों से 23 ग्राम पंचायतों के करीब 1500 परिवारों की 92 हजार की आबादी की कृषि उपज बढ़ी है। इनके एक लाख से ज्यादा पशुओं को पीने का पानी उपलब्ध हुआ है। इससे पहले इस क्षेत्र में कुल खेती में से सिर्फ 16% पर ही सिंचाई होती थी। जो कुओं पर निर्भर थी।
हालांकि इससे लोगों के पीने के पानी का समाधान नहीं हुआ। इसीलिए 2011 में घर-घर में रूफ रेन वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम लगाने का विचार किया गया, बंशी याद करते हुए बताते हैं।
इसी रुफ़ रेन वाटर हार्वेस्टिंग ने इस इलाके के लोगों की सालों से चली आ रही समस्या से निजात दिला दी। लोगों को काफी राहत मिली।
अपना उदाहरण देते हुए शायर दरोगा कहती हैं, “2017 में घर में बारिश के पानी को इकठ्ठा करने के लिए टांका बनाया गया। बारिश के मीठे पानी से धीरे-धीरे मेरी पथरी खुद ही खत्म हो गई। बीते दो साल से मुझे कभी पेट में दर्द नहीं हुआ। मेरे बेटे की तबीयत भी अब ठीक रहती है।”
क्या है यह रूफ रेन वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम?
रूफ रेन वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम बारिश के मीठे पानी को पाइप के जरिए एक टांके में जमा करने का तरीका है। इसके तहत परिवार की जरूरत के मुताबिक घर में एक पक्का टैंक बनाया जाता है। प्रति व्यक्ति 10 लीटर पीने के पानी की आवश्यकता के अनुसार घरों में सदस्यों की संख्या के हिसाब से ये टांके बनाए गए। इनमें 15-22 हजार लीटर तक बारिश का पानी जमा कर सकते हैं। अगर घर की छत पक्की है तो पूरी छत के पानी को एक पाइप लगाकर टांके में उतार लिया जाता है।
पाइप में दो वॉल लगाए जाते हैं ताकि पहली बारिश में छत की गंदगी सीधे टांके में ना जाकर बाहर निकल जाए। इसके बाद दूसरे वॉल को चालू कर बरसात के पानी को इन टैंकों में उतारा जाता है। लोहे के ढक्कन से टांके को पूरा ढंका जाता है ताकि उसमें गंदगी ना जा सके।
वहीं, अगर किसी का घर कच्चा है तो उसकी छत पर पहले टीन शेड लगाया गया। इस शेड पर आने वाले बरसात के पूरे पानी को भी पक्के घर की तरह बनाए गए टांके में उतार लिया जाता है।
प्रयास केन्द्र ने दूदू पंचायत समिति की चार ग्राम पंचायतों के आठ गांवों में लोगों तक मीठा पानी पहुंचाने की जिम्मेदारी उठाई है। संस्था के डायरेक्टर बंशी बैरवा मोंगाबे को बताते हैं, ‘सबसे पहले संस्था ने हरसौली ग्राम पंचायत के चरासड़ा गांव का इसके लिए चयन किया। इस गांव में 150 परिवार हैं और आज हर घर में बारिश के पानी को टांकों में जमा करने के लिए रेन वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम लगे हुए हैं। 15-22 हजार लीटर की क्षमता वाले टांके, पाइप और मजदूरी मिलाकर पूरे सिस्टम की लागत 45 से 50 हजार रुपए तक है।
बंशी बताते हैं चरासड़ा के चयन से पहले बेसलाइन सर्वे किया। घरों में पानी की उपलब्धता, जरूरत, सहित आर्थिक और सामाजिक पहलुओं को ध्यान में रखा गया। सबसे गरीब परिवारों का चयन किया गया और बाद में जिसने भी अभियान से जुड़ने की इच्छा रखी, उसे जोड़ा गया। चरासड़ा के बाद बेजी पंचायत के भोजपुर, सुनाड़िया पंचायत का छप्पा और रसीली ग्राम पंचायत के रोटा, रेटी, डोगरा, डोगरी और रोशनपुरा गांव को चुना गया। अब तक चरासड़ा के सौ फीसदी और बाकी 7 गांवों में 90 फीसदी घरों में रेन वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम लगाए जा चुके हैं। इस परियोजना से इन गांवों के एक हजार से अधिक परिवारों के करीब पांच हजार लोगों को पीने का मीठा पानी उपलब्ध हुआ है, इस संस्था का दावा है।
चुनौतियां भी कम नहीं आईं
ओमप्रकाश शर्मा राजस्थान में पानी की कमी से जूझ रहे इलाकों में काफी समय से काम कर रहे हैं। इन गांवों में ये सिस्टम लगवाने का विचार इन्हीं का था। वैल्स फॉर इंडिया नाम की संस्था चलाने वाले ओमप्रकाश 1988 से दूदू पंचायत समिति में काम कर रहे हैं। इस संस्था का नाम हाल ही में बदल कर वाटर हार्वेस्ट किया गया है। शर्मा कहते हैं, ‘शुरू में लोग हमारे ऊपर भरोसा नहीं करते थे। उन्हें लगता था कि शहर से आए लोग उन्हें सिर्फ सपने दिखा रहे हैं। लेकिन जब एक-दो घरों में टांके बनाए गए और उन्हें फायदा हुआ तो लोग खुद से आगे आने लगे। इसके अलावा हार्वेस्टिंग के लिए संस्था 25% अंशदान लाभार्थी परिवार से लेती है। गरीबी, हर तीसरे-चौथे साल अकाल और खेतीहीन होने के कारण बहुत से परिवार अपना हिस्सा देने में असमर्थ थे। इसका एक रास्ता निकाला गया। पानी जमा करने के लिए टैंकों की खुदाई और चुनाई में मजदूरी का काम लाभार्थी परिवार के सदस्यों से ही कराया गया और 25% अंशदान को इनकी मजदूरी से समायोजित किया गया। इस क्षेत्र में अधिकतर परिवार राजमिस्त्री के काम से जुड़े हुए हैं।
इसके अलावा लोगों को पानी के सही इस्तेमाल, पहली बारिश पर छतों और टैंकों की सफाई, सफाई के प्रति स्थानीय लोगों को जागरुक करने जैसी कई चुनौतियां थीं। इन चुनौतियों से लड़ने के लिए समय-समय पर जागरुकता अभियान, ट्रेनिंग और कई कार्यशाला रखी गईं।
चरासड़ा गांव की एक लाभार्थी भूरी देवी से मोंगाबे ने बात की। भूरी देवी प्रजापति (70) के घर में भी 2012 में रूफ वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम लगाया गया है। वे बताती हैं, ‘पहले मैं और घर की अन्य महिलाएं 3 किमी दूर पीने का पानी भरने जाती थीं। एक दिन में कम से कम तीन चक्कर लगते थे। इस तरह एक दिन में 18 किलोमीटर सिर्फ पीने के पानी के लिए चलते थे। बारिश के दिनों में तो और भी परेशानी थी। यहां की मिट्टी काली और चिकनी है। बारिश में घुटनों तक कीचड़ में चलकर हमने पानी भरा है। जब से ये सिस्टम घर में लगा है तब से पीने के पानी की समस्या खत्म हो गई है।’ पूरे गांव की महिलाएं इसी तरह 18-20 किमी चलकर पीने का मीठा पानी भरकर लाती थीं।
ओमप्रकाश कहते हैं, ‘हार्वेस्टिंग सिस्टम बनाने में हमने पूरे वैज्ञानिक तरीकों का प्रयोग किया। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार एक व्यक्ति को दिन में 60 लीटर पानी की जरूरत होती है, जिसमें 10 लीटर पीने के लिए जरूरी है। हमने प्रति परिवार सदस्यों की गिनती से पूरे साल का हिसाब लगाया और उसी क्षमता के टांका बनाए। यही वजह है कि सभी परिवारों में मीठा पानी पूरे साल चल जाता है। इसके अलावा महिलाओं, बच्चों के स्वास्थ्य पर भी मीठे पानी से सकारात्मक असर हुआ है। अब बच्चों को डायरिया, पीलिया, त्वचा संबंधी रोग नहीं होते हैं।’
हार्वेस्टिंग सिस्टम लगने से गांव में कई तरह के सामाजिक बदलाव भी हो रहे हैं। प्रयास केन्द्र संस्था ने जिन घरों में सिस्टम लगवाए उनसे 8 बिंदुओं का शपथ पत्र भरवाया। इनमें समाज में जल संरक्षण के प्रति जागरुक रहने, घर में छायादार, फलदार पौधे लगाने और पानी पीने के लिए डंडीदार लोटे के उपयोग की शपथ लाभार्थियों से भरवाई गई। इससे ग्रामीणों में जल संरक्षण के प्रति जागरूकता बढ़ी है। यहां तक कि बच्चे भी पीने के पानी को खराब नहीं करते।
बंशी बैरवा के अनुसार जैसे ही इन आठ गांवों में वाटर हार्वेस्टिंग का काम पूरा होगा। संस्था अगले कुछ गांवों का चयन करेगी और उनमें इन्हीं तरीकों से मीठा पानी पहुंचाएगी। इसके लिए एक योजना बनाई जा रही है। आने वाले वक्त में चयनित गांवों का बेसलाइन सर्वे किया जाएगा।
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(यह स्टोरी सोल्यूशन जर्नलिज्म नेटवर्क ‘लीड’ फेलोशिप के सहयोग से की गयी है। इस फेलोशिप का उद्देश्य वैश्विक स्तर पर सोल्यूशन जर्नलिज़म का विस्तार करना है।)
बैनर तस्वीर: पीने के पानी के लिए इस तरह बेरी पर होती थी भीड़। रुफ़ रेन वाटर हार्वेस्टिंग ने इस इलाके के लोगों की सालों से चली आ रही समस्या से निजात दिला दी। तस्वीर- प्रयास केन्द्र