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जलवायु परिवर्तन की चपेट में बिहार, लेकिन बचाव का कोई एक्शन प्लान नहीं

जलवायु परिवर्तन की चपेट में बिहार, लेकिन बचाव का कोई एक्शन प्लान नहीं

जलवायु परिवर्तन की चपेट में बिहार, लेकिन बचाव का कोई एक्शन प्लान नहीं

  • आईआईटी के एक अध्ययन में सामने आया है कि जलवायु परिवर्तन की चपेट से सबसे अधिक प्रभावित भारत के 50 जिले में बिहार के 14 जिले शामिल हैं।
  • बिहार में प्रति हजार ग्रामीण आबादी पर वन क्षेत्र की कमी, अनाज उत्पादन में अनिश्चितता, खेती के लिए वर्षाजल पर निर्भरता और फसल-बीमा की कमी, स्वास्थ्य सुविधाओं का आभाव जैसे कई कारणों की वजह से बिहार जलवायु परिवर्तन की चपेट में है।
  • इन खतरों के बावजूद बिहार के पास इससे निपटने के लिए कोई ठोस एक्शन प्लान नहीं है। सरकार ने 2019 में इसे बनाने की कोशिश की थी पर सफलता नहीं मिली।

तमाम समस्याओं से जूझते बिहार के लिए एक और बुरी खबर! क्लाइमेट चेंज यानी जलवायु परिवर्तन की मार भी राज्य पर सबसे अधिक पड़ने वाली है। यह खुलासा हुआ है इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (आईआईटी) के एक अध्ययन से, जिसका मानना है कि भारत के 50 सबसे अधिक जलवायु परिवर्तन की मार झेलने वाले जिलों में बिहार के 14 जिले शामिल हैं। ये जिले हैं अररिया, किशनगंज, पूर्णिया, जमुई, शिवहर, मधेपुरा, पूर्वी चंपारण, लखीसराय, सिवान, सीतामढ़ी, खगड़िया, गोपालगंज, मधुबनी और बक्सर।

इस अध्ययन को आईआईटी मंडी और गुवाहाटी ने मिलकर किया है। इसके अनुसार बेंगलुरु देश का सबसे अधिक प्रभावित शहर होगा। इसके अतिरिक्त बिहार, झारखंड और असम के 60 फीसदी से अधिक जिले इसकी चपेट में आने वाले हैं।

इससे निपटने का कोई एक्शन प्लान न होने की स्थिति में बिहार के लिए जलवायु परिवर्तन की मार भारी पड़ सकती है। इतना ही नहीं, डिपार्टमेंट फॉर इंटरनेशनल डेवलपमेंट (डीएफआईडी) के द्वारा बिहार को लेकर तैयार ड्राफ्ट क्लाइमेंट एक्शन प्लान को भी बिहार सरकार ने हाल ही में लागू करने से इनकार कर दिया। डीएफआईडी, यूनाइटेड किंगडम की एक सरकारी एजेंसी है जिसे 2020 के बाद ‘फॉरेन कॉमनवेल्थ एंड डेवलपमेंट ऑफिस’ के नाम से जाना जाता है।

 बाढ़ और सूखा: जलवायु परिवर्तन के लक्षण

बिहार पानी की समस्या से ग्रसित है। कहीं बाढ़ है तो कहीं भयंकर सूखा। दक्षिण बिहार हर साल बाढ़ की चपेट में आता है। वर्ष 2014 में नेशनल साइंसेज रिसर्च में प्रकाशित एक अध्ययन के मुताबिक, राज्य का 21.1 प्रतिशत हिस्सा सिस्मिक जोन V में आता है, जिसका मतलब यहां भूकंप का खतरा अधिक है। वहीं, यहां के 38 जिलों में से 27 जिले तेज हवा की वजह से परेशानी झेलते हैं। जलवायु परिवर्तन की वजह से राज्य में बिगड़े मौसम का चरम देखने को मिलता है, चाहे वह बाढ़ हो, भूस्खलन हो या फिर सूखा हो।

बीते दो दशक में देश के अन्य राज्यों के अलावा बिहार में भी जलवायु परिवर्तन की बहस तेज हुई है। हालांकि, नीति निर्माण में इसका प्रभाव न के बराबर है।

बिहार के समस्तीपुर जिले में मक्के के खेत में निराई-गुड़ाई करती एक महिला किसान। तस्वीर- एम. डीफ़्रीज़/सीआईएमएमवाई/फ्लिकर
बिहार के समस्तीपुर जिले में मक्के के खेत में निराई-गुड़ाई करती एक महिला किसान। तस्वीर– एम. डीफ़्रीज़/सीआईएमएमवाई/फ्लिकर

किन वजहों से जलवायु परिवर्तन की चपेट में बिहार  

आईआईटी का अध्ययन कहता है कि बिहार में जंगलों का कम होना एक वजह है, खासकर ग्रामीण आबादी में। यहां कृषि उत्पादन भी एक समान नहीं होता। यहां किसी सीजन में ठीक उपज होती है तो कभी किसानों को औसत से भी कम उपज से संतोष करना होता है। अगर फसल खराब हुई तो नुकसान की भरपाई के लिए बीमा की भी पुख्ता व्यवस्था नहीं है। खेती-किसानी पर इसका प्रभाव है ही, इंसानों पर भी स्वास्थ्य सुविधाओं के फिसड्डी होने से जलवायु परिवर्तन का प्रभाव दिखने लगा है। यहां स्वास्थ्य सुविधाएं और स्वास्थ्य कर्मचारियों की कमी बड़ी चिंता है।

बिहार में आबादी का एक बड़ा हिस्सा गरीबी रेखा के नीचे गुजर-बसर करती है और राज्य में अधिकतर किसान छोटे तथा सीमांत हैं। साथ ही, यहां की श्रम-शक्ति में महिलाओं की भागीदारी भी कम है। सड़क की कमी तो जगजाहिर है। इसके अलावा, मनरेगा के तहत मिलने वाले रोजगार में कमी भी बिहार के लिए जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को झेलने की क्षमता कम करते हैं।

राज्य के 80 फीसदी यानी 31 जिले देश के उन 25 फीसदी जिलों में शामिल हैं जो कि कमजोर कहे जाते हैं। ऐसे जिलों में फसल बीमा की स्थिति, बागवानी की तरफ किसानों का कम रुझान या माहौल, जमीन का स्वामित्व न होने की वजह से फसल पर किसानों का कम नियंत्रण और फसल उपजाने के लिए जरूरी संसाधनों का आभाव है।

इस अध्ययन में लोगों की मासिक आमदनी को भी जलवायु परिवर्तन का प्रभाव झेलने के कारकों में शामिल किया गया है। कम आमदनी वाले लोग मौसम के प्रभाव से हुए नुकसान को झेलने में अधिक तकलीफ उठानी पड़ेगी। साथ ही, इंसान और पशुधन के संख्या अनुपात को भी ध्यान में रखा गया। मौसम की मार से आई तंगी को पशु बेचकर ठीक किया जा सकता है। इन मामलों में भी बिहार काफी पीछे है।

साल 2020 में गया के लौंगी मांझी ने एक नहर खोदने का दावा किया। उन्होंने गांव के लोगों को पलायन से रोकने के लिए तीस साल तक लगातार नहर खोदी। गांव में बारिश के अलावा पानी का कोई दूसरा स्रोत नहीं था, इसलिए सिंचाई के लिए पास के पहाड़ों से पानी लाने के लिए उन्होंने यह नहर खोदी। तस्वीर- रोहिण कुमार
साल 2020 में गया के लौंगी मांझी ने एक नहर खोदने का दावा किया। उन्होंने गांव के लोगों को पलायन से रोकने के लिए तीस साल तक लगातार नहर खोदी। गांव में बारिश के अलावा पानी का कोई दूसरा स्रोत नहीं था, इसलिए सिंचाई के आभाव में लोग पलायन करते थे। तस्वीर- रोहिण कुमार

जलवायु परिवर्तन रोकने में कितना सक्षम जल-जीवन-हरियाली मिशन

बिहार सरकार ने दो अक्टूबर 2019 को जल-जीवन-हरियाली अभियान की शुरुआत की। इसका मकसद है जलवायु परिवर्तन की विभीषिका से निपटना। इसके लिए सरकार ने 25,524 करोड़ रुपए का बजट भी रखा है।

“राज्य सरकार का यह अभियान जलवायु परिवर्तन के नुकसान कम करने, पारिस्थितिकी तंत्र का संतुलन बनाने और पानी बचाने के उद्देश्य से शुरू हो रहा है,” बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने योजना शुरू करते समय कहा था। उन्होंने यूएन क्लाइमेंट चेंज राउंड टेबल 2020 में इस योजना की तारीफ करते हुए कहा कि इससे पानी, जीवन और हरियाली में फर्क देखने को मिला है। 

इस मामले में जानकारों का कहना है कि बिहार की यह योजना जमीन पर ठीक से नहीं उतर पाई है।

“इस योजना का मुख्य भाग पानी के संरक्षण पर ध्यान देता है, ताकि बिहार में पानी की किल्लत दूर की जा सके। इस अभियान में दूसके भी कई भाग हैं, लेकिन खुलकर कहें तो इसका क्रियान्वयन ठीक से नहीं हुआ है,” विज्ञान और तकनीक विभाग के संयुक्त निदेशक डॉ. चंद्रशेखर सिंह ने कहा

उन्होंने स्वीकार किया कि राज्य के पास टिकाऊ एक्शन प्लान नहीं है। “राज्य सरकार का इरादा नेक है। अधिकारी मानते हैं कि जलवायु परिवर्तन काफी गंभीर मुद्दा है। इसे जमीन पर लागू करना चुनौतीपूर्ण है। उदाहरण के लिए, जानकार कहते आए हैं कि पूर्वी बिहार में बने बांध फायदे से अधिक नुकसान करते आ रहे हैं। लेकिन, यहां नौकरशाही ने अपने कान बंद कर लिए हैं। बाढ़ यहां के लिए व्यापार हो गया है। सब जानते हैं कि बाढ़ से नुकसान होगा, और फिर उसकी सरकार की ओर से भारपाई की जाएगी। समस्या को अभी भी पलटा जा सकता है। जैसे बाढ़ से हर साल उपजाऊ मिट्टी आती है। इलाके के किसानों को सशक्त कर उपजाऊ मिट्टी का लाभ उठाया जा सकता है। इसी तरह दक्षिणी बिहार में कुओं और नहरों की व्यवस्था सुदृढ़ कर सूखे से निपटा जा सकता है। इन सब कामों के लिए बेहतर प्रबंधन और सामंजस्य की जरूरत है,” वह कहते हैं।


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इसी तरह की चिंता राज्य के वन, पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन विभाग के एक अधिकारी ने व्यक्त की।

“जलवायु परिवर्तन का नुकसान हम झेल रहे हैं। उदाहरण के लिए तड़ित बिजली का गिरना, बाढ़, मिट्टी कटाव के अलावा लू चलने की वजह से मृत्यु जैसी आपदाएं आम बात हो गई हैं। इससे हमारे लोग आर्थिक रूप से भी तबाह हो रहे हैं,” अधिकारी ने नाम न जाहिर करते हुए कहा। उन्होंने जलवायु परिवर्तन को लेकर कोई योजना न होने पर लाचारी जताई।

“अधिकारियों को भी वर्कशॉप के जरिए जलवायु परिवर्तन के नुकसान बताए जाने चाहिए, ताकि अभी जो योजना है उसे ठीक से लागू किया जा सके,” वह कहते हैं।

इस अध्ययन को करने वाली टीम की सदस्य और आईआईटी गुवाहाटी की प्रोफेसर अनामिका बरुआ मानती हैं कि बिहार को स्थिति ठीक करने के लिए कोई नीतिगत स्तर पर बड़े बदलाव करने की आवश्यक्ता नहीं है। “अगर सरकार गरीबी हटाने की तरफ ध्यान देकर रोजगार के नए अवसर पैदा करे, स्वास्थ्य सुविधाओं को बेहतर करे तो स्थिति बदल सकती है,” वह कहती हैं।

“बिहार की एक बड़ी आबादी खेती के काम में लगी है। खेती, मछलीपालन, पशुपालन जैसे सेक्टर जलवायु परिवर्तन से काफी प्रभावित होंगे। सरकार को खेती के इतर किसी दूसरे क्षेत्र में भी ध्यान देना होगा,” वह कहती हैं।

बिहार के समस्तीपुर जिले में खेत में लगे हैंडपंप से पानी निकालता एक किसान। बिहार में पानी की कमी और बाढ़, दोनों ही समस्याएं हैं। तस्वीर- एम. डीफ़्रीज़/सीआईएमएमवाई/फ्लिकर
बिहार के समस्तीपुर जिले में खेत में लगे हैंडपंप से पानी निकालता एक किसान। बिहार में पानी की कमी और बाढ़, दोनों ही समस्याएं हैं। तस्वीर– एम. डीफ़्रीज़/सीआईएमएमवाई/फ्लिकर

राजनीतिक उदासीनता

वर्ष 2015 में राज्य सरकार बिहार स्टेट एक्शन प्लान फॉर क्लाइमेट चेंज लेकर आई। इससे अलग-अलग सरकारी विभागों के लिए नई जिम्मेदारियां तय हुईं। हालांकि, इस योजना का कोई लाभ होता हुआ नहीं दिखा। इसी वर्ष, राज्य सरकार ने पेरिस जलवायु समझौता के तहते डिपार्टमेंट फॉर इंटरनेशनल डेवलपमेंट को जलवायु परिवर्तन को लेकर योजना बनाने को कहा।

डीएफआईडी एक ड्राफ्ट प्लान लेकर आई जिसमें किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य, कोसी में गाद की सफाई, कृषि संबंधित उद्योगों का विकास जैसे कई सुझाव शामिल किए। इस ड्राफ्ट को राज्य सरकार ने नकार दिया।

वन, पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन विभाग के प्रमुख सचिव दीपक कुमार सिंह से इस मामले में बात करने की कोशिश की गई, लेकिन उनसे संपर्क नहीं हो सका। इस विभाग के एक अधिकारी ने कहा कि राज्य सरकार जल्दी क्लाइमेट एक्शन प्लान लेकर आएगी।

वर्ष 2019 में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने पर्यावरण के लिए एक विशेष यूनिट की घोषणा की थी। हालांकि, कोविड-19 आपदा की वजह से यह काम भी अटक गया।

एक्शन प्लान की जरूरत को लेकर प्रोफेसर बरुआ कहती हैं, “बिहार को निश्चित ही एक एक्शन प्लान की जरूरत है। हमारे अध्ययन के परिणाम से सरकार को एक्शन प्लान बनाने में मदद मिल सकती है।”

बरुआ ने कहा कि अध्ययन प्रकाशित होने के बाद कई राज्य सरकारों ने अध्ययनकर्ताओं से संपर्क किया है। लेकिन अब तक बिहार सरकार की तरफ से ऐसा कुछ नहीं किया गया।

 

बैनर तस्वीर: बिहार के मखदुमपुर में किसान धान से भूसा और अनाज अलग करते हुए। आईआईटी में हुए एक शोध का कहना है कि बिहार के किसानों के पास फसल खराब होने की स्थिति में बीमा की पुख्ता व्यवस्था नहीं है। तस्वीर- रोहिण कुमार

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