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साल 2021 वनवासियों पर भारी, कोविड-19 लॉकडाउन के साथ पड़ी जंगल की आग की मार

ओडिशा के रायगड़ा के जंगलों में वर्ष 2014 में लगी आग का दृष्य। इस साल भी ओडिशा के सिमलीपाल बायोस्फीयर रिजर्व में लगी आग से मार्च महीने में भारी तबाही मची। तस्वीर- सौरभ चटर्जी/फ्लिकर

ओडिशा के रायगड़ा के जंगलों में वर्ष 2014 में लगी आग का दृष्य। इस साल भी ओडिशा के सिमलीपाल बायोस्फीयर रिजर्व में लगी आग से मार्च महीने में भारी तबाही मची। तस्वीर- सौरभ चटर्जी/फ्लिकर

  • कोविड-19 महामारी के साथ साल 2021 वनवासियों के लिए जंगल की आग के रूप में एक और बड़ी समस्या लेकर आया है।
  • देश में इस वर्ष जनवरी से लेकर मई तक पांच महीनों में 3,86,031 आग के मामले आ चुके हैं। जबकि, पिछले साल मात्र 1,54,032 आग लगने की घटना सामने आई थी।
  • इस वर्ष मध्यप्रदेश, मिजोरम, झारखंड, छत्तीसगढ़, उत्तराखंड, ओडिशा सहित देश के कई राज्य जंगल की आग से हलकान हो रहे हैं।
  • जंगल में आग और कोविड लॉकडाउन की वजह से जंगल पर निर्भर वनवासियों के आजीविका पर गहरा असर हुआ है।

“जंगल में ऐसी आग इससे पहले कभी नहीं देखी थी। हमारे गांव से 100 मीटर की दूरी पर पेड़-पौधे सब जलते दिख रहे थे। इतना नजदीक कि हम धुएं और लपटों को महसूस कर सकते थे। हम कई दिनों तक डर के साए में रहे,” कहते हैं ब्रिंद प्रजापति जो मध्यप्रदेश के बांधवगढ़ जंगल स्थित बमेरा गांव के निवासी हैं। 

ब्रिंद के लिए पिछले एक-दो साल दुःस्वप्न सरीखे रहे हैं। कोविड-19 महामारी और उससे जुड़े लॉकडाउन ने शहर का रास्ता बंद कर दिया जहां से रोजी-रोटी का बंदोबस्त होता था। दूसरी तरफ जंगल में लगी आग ने पारंपरिक जीविकोपार्जन के साधन पर भी मुश्किल बढ़ा दी। 

परंपरा से ब्रिंद का परिवार वनोपज जैसे महुआ इत्यादि के सहारे ही जीवन-यापन करता रहा है। पतौर रेंज में जंगल के बीच बसा उनका गांव मूल रूप से खेती और जंगल के संसाधनों पर निर्भर है।

जब कोविड-19 महामारी ने पांव पसारा और सरकारों ने लॉकडाउन की घोषणा शुरू कर दी तो ब्रिंद जैसे अनेकों आदिवासी युवा जो गांव छोड़कर शहर गए थे, इसी आसरे घर लौटे थे कि जंगल के बूते ही काम चलाएंगे पर जंगल में लगी आग ने इनसे यह भी विकल्प छीन लिया। 

गांव का लगभग हर परिवार महुआ बीनता है। लॉकडाउन की वजह से पलायन कर बाहर गए सभी लोग गांव लौट आए हैं। इधर आग लगने की वजह से काम प्रभावित हुआ है, जिससे काफी नुकसान हो गया, ब्रिंद कहते हैं।

ब्रिंद का परिवार इस मौसम में हर साल तीन क्विंटल तक महुआ चुन लेता था, लेकिन इसबार यह आंकड़ा आधे में ही सिमट गया। 

जंगल के आस-पास रहने वाले ऐसे हजारों वनवासियों परिवारों की यही कहानी है। 

मध्यप्रदेश के कान्हा स्थित जंगल में महुआ बीनती आदिवासी महिला। जंगल में आग और कोविड-19 लॉकडाउन की वजह से महुआ बीनने का काम प्रभावित हुआ है। तस्वीर- कंदुकुरू नागार्जुण/फ्लिकर
मध्यप्रदेश के कान्हा स्थित जंगल में महुआ बीनती आदिवासी महिला। जंगल में आग और कोविड-19 लॉकडाउन की वजह से महुआ बीनने का काम प्रभावित हुआ है। तस्वीर– कंदुकुरू नागार्जुण/फ्लिकर

वनवासियों पर कोविड-19 के साथ आग की दोहरी मार

वनवासियों पर आग की मार ऐसे वक्त में पड़ी है जब वह कोविड-19 की वजह से चल रहे लॉकडाउन से पहले से ही परेशान है। हाल ही में वनवासियों के अधिकार की बात करने वाले एक समूह ने एक रिपोर्ट जारी कर कहा है कि कोविड-19 की वजह से वनवासियों की आजीविका प्रभावित हुई है। आदिवासी और वनवासी गर्मी के मौसम में साल भर का 60 फीसदी वनोपज इकट्ठा करते हैं। लॉकडाउन और सरकारों के द्वारा उचित दाम न मिलने की वजह से उनकी आजीविका प्रभावित हुई है, रिपोर्ट में दावा किया गया है। 

इस रिपोर्ट में वन, पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के पिछले साल आए एडवायजरी का भी जिक्र किया गया जिसमें नेशनल पार्क, सेंचुरी और टाइगर रिजर्व में लोगों की आवाजाही को नियंत्रित करने की बात कही गई है। 

लोगों को जंगल जाने से रोकने की वजह से आदिम जनजाति, मछलीपालक सहित ऐसे कई लोग प्रभावित हुए हैं जिनकी आजीविका जंगल पर निर्भर है, रिपोर्ट में कहा गया है। इस रिपोर्ट को जनजातीय कार्य मंत्रालय को भी भेजा गया है। 

बोइस स्टेट यूनिवर्सिटी, इडाहो के इकोनॉमी के प्रोफेसर और एनवायरमेंटल इकोनॉमिस्ट जयश पौडेल ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया कि जंगल की आग का अर्थव्यवस्था पर गहरा असर होता है। 

भारत में लाखों लोगों की जंगल पर निर्भरता है। आर्थिक नुकसान के साथ हवा, स्वास्थ्य पर होने वाला नुकसान काफी अधिक है। जिन पेडों से आदिवासियों को वनोपज मिलता है उसे आग की तपिश और धुएं से नुकसान होता है और वनोपज की गुणवत्ता खराब होती है, वह कहते हैं। 

भारतीय वन अधिकारी डॉ. अब्दुल कय्यूम कहते हैं कि अगर आग को नियंत्रित तरीके से लगाया जाए तो इसका स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र को फायदा भी होता है और जंगल की गुणवत्ता बढ़ती है। हालांकि, बीते कुछ समय से जिस तरह की आग की घटनाएं सामने आ रही हैं, इससे नुकसान अधिक हुआ है। इससे न केवल कार्बन उत्सर्जन बढ़ रहा है बल्कि वन्यजीवों पर इसका गहरा प्रभाव पड़ रहा है। 

केरल का वायनाड वाइल्डलाइफ सेंचुरी। जंगल में बिखरे सूखे पत्ते आग में घी का काम करते हैं। तस्वीर- जसीम हमजा/फ्लिकर
केरल का वायनाड वाइल्डलाइफ सेंचुरी। जंगल में बिखरे सूखे पत्ते आग में घी का काम करते हैं। तस्वीर– जसीम हमजा/विकिमीडिया कॉमन्स

चिंता का विषय: साल दर साल बढ़ रहीं हैं जंगल में आग की घटनाएं

इस वर्ष मार्च महीने से ही देशभर से आग लगने की खबरें आने लगीं। जंगल की आग से मध्यप्रदेश ही नहीं, बल्कि देश के अन्य राज्य जैसे उत्तराखंड, ओडिशा, झारखंड, मिजोरम जैसे राज्य भी परेशान रहे हैं। ओडिशा के सिमलीपाल बायोस्फीयर रिजर्व में लगी आग से मार्च महीने में भारी तबाही मची। मार्च और अप्रैल के बीच उत्तराखंड का जंगल धू-धू कर जलता रहा। अप्रैल के अंत में मिजोरम के जंगलों में आग लगी रही।

वर्ष 2021 के आंकड़े भी जंगल में बढ़ते आग की भयावह स्थिति को बता रहे हैं। फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया, नेशनल रिमोट सेंसिंग सेंटर हैदराबाद की मदद से रियल टाइम में आग लगने की घटनाओं की जानकारी देता है। इस वर्ष जनवरी से 28 मई तक देश भर के जंगलों में 3,86,031 स्थान पर आग लगने की सूचना आई। जबकि, पिछले वर्ष जनवरी से दिसंबर के दौरान मात्र 1,54,032 स्थानों पर आग लगने का अलर्ट प्राप्त हुआ। यानी इस साल महज पांच महीने में पिछले साल के मुकाबले दोगुना आग की घटनाएं दर्ज हुईं। 

फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया यह जानकारी वन विभाग को आग लगने की लोकेशन के साथ भेजता है ताकि समय रहते आग पर काबू पाया जा सके। (ग्राफ देखें)

स्रोत- फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया
स्रोत- फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया

इस संस्था के द्वारा साल 2019 में जारी जंगल की स्थिति पर रिपोर्ट के मुताबिक देश का 21.40 प्रतिशत वन क्षेत्र आग को लेकर काफी संवेदनशील है। 

आग के बढ़ते मामलों पर डॉ. कय्यूम कहते हैं, यह दुर्भाग्यपूर्ण है, लेकिन सच है। आग की घटनाएं न सिर्फ बढ़ रही हैं, बल्कि इसका प्रसार और असर भी बढ़ रहा है।

प्रशासन खुद को दे रहा क्लीनचिट

आग लगने की घटनाओं के लिए प्रशासन ने केवल स्थानीय समुदाय को जिम्मेदार ठहराता है बल्कि आग से होने वाले नुकसान के अनुमान को लेकर भी अस्पष्ट स्थिति बताता है।   

जैसे बांधवगढ़ टाइगर रिजर्व में आग लगने की घटना का वजहों की जांच के लिए एक कमेटी गठित की गई। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक कमेटी ने एक महीने बाद जांच रिपोर्ट विभाग को सौंपी है। इसमें एक प्रतिशत जंगल को ही आग से प्रभावित माना गया और इसमें किसी जानवर के हताहत होने का भी जिक्र नहीं है।

इस रिपोर्ट पर मध्य भारत में सक्रिय वन्यजीव कार्यकर्ता अजय दुबे ने मोंगाबे-हिन्दी से बातचीत में बांधवगढ़ आग पर आई रिपोर्ट को लीपापोती और जिम्मेदारों को बचाने वाला बताया। 

फील्ड डायरेक्टर विंसेंट रहीम जिनपर आग रोकने की जिम्मेदारी थी, वही इस जांच कमेटी का नेतृत्व कर रहे हैं। कोई खुद को ही दोषी क्यों ठहराएगा? अगर ठीक से जांच होती तो आग के पीछे अधिकारियों की जिम्मेदारी तय होती और आग लगने की सही वजह का पता चलता। इससे भविष्य में होने वाले हादसों को रोका जा सकता था, दुबे कहते हैं। 

दुबे ने जांच रिपोर्ट पर सवाल उठाते हुए कहा कि ऐसा कैसे हो सकता है कि 1536.93 वर्ग किमी में फैले जंगल का एक फीसदी हिस्सा आग से प्रभावित हो और एक भी जानवर न मरा हो

उत्तराखंड वन विभाग द्वारा जारी आग से नुकसान के आंकड़ों को देखें तो दुबे के आरोप में दम दिखता है। वर्ष 2021 में उत्तराखंड में 2,920 आग की घटनाएं सामने आई हैं, जिसमें 3,963 हेक्टेयर वन और वनग्राम प्रभावित हुए हैं। इन घटनाओं में 2,22 हेक्टेयर में हुआ पौधरोपण, 51,224 पेड़, आठ इंसान और 29 जानवरों की मौत हुई। तीन इंसान और 24 जानवर घायल भी हुए। कुल एक करोड़ से अधिक राशि के नुकसान का भी आंकलन किया गया है।

इन आंकड़ों से मध्य प्रदेश के आंकड़ों की तुलना की जाए तो स्थिति और अस्पष्ट होती है।  

दूसरी तरफ आग लगने की घटना के बाद आमतौर पर ठीकरा स्थानीय लोगों पर फोड़ा जाता है। इस रिपोर्ट में भी आग की वजहों में महुआ बीनने वाले लोग, हाथी से परेशान वनवासी और बांस की रगड़ से सूखे पत्तों में आग को वजह माना गया है। मध्यप्रदेश के मामले में प्रदेश के वन मंत्री विजय शाह ने आग लगने के बाद प्रेस कॉन्फ्रेंस में आग की यही वजह बताई थी। ऐसे ही आरोप ओडिशा के सिमलीपाल जंगल आग लगने के बाद लगे थे। 

असम के काजीरंगा नेशनल पार्क में वर्ष 2009 में भीषण आग लगी थी। जंगल की आग का असर जैव-विविधता के साथ-साथ अर्थव्यवस्था पर भी पड़ता है। तस्वीर- जीनोजेफ/विकिमीडिया कॉमन्स
असम के काजीरंगा नेशनल पार्क में वर्ष 2009 में भीषण आग लगी थी। जंगल की आग का असर जैव-विविधता के साथ-साथ अर्थव्यवस्था पर भी पड़ता है। तस्वीर– जीनोजेफ/विकिमीडिया कॉमन्स

मध्यप्रदेश में मंत्री और वन विभाग द्वारा महुआ बीनने वाले लोगो द्वारा आग लगाने के आरोप से स्थानीय वाइल्डलाइफ फोटोग्राफर सतेंद्र कुमार तिवारी सहमत नहीं है। अगर महुआ बीनने वालों ने आग लगाई होती तो यह आग हर साल लगती, वह कहते हैं। हालांकि, हाथी की वजह से आग लगाने की बात से तिवारी सहमत दिखते हैं। 

इस इलाके में हाथी के प्रति लोगों का गुस्सा है। हाथियों की एक टोली तीन वर्ष पहले बांधवगढ़ के जंगल में आ गई जिसकी वजह से स्थानीय लोगों के अनाज भंडार, खेत और घर बर्बाद हुए हैं। संभव है कि यह आग उन गुस्साए लोगों ने लगाई हो, वह कहते हैं।

वाइल्डलाइफ ट्र्स्ट ऑफ इंडिया के संस्थापक और पर्यावरणविद् विवेक मेनन मानते हैं कि आग लगने की तमाम वजहों में एक वजह, बदलता हुआ मौसम भी हो सकता है। आग कुदरती तरीके से भी लग सकती है। गर्म मौसम में सूखे क्षेत्र में आग लगने की घटनाएं सामने आती है, उन्होंने मोंगाबे-हिन्दी को कहा। 

उन्होंने इंसानी गतिविधियों की वजह से आग लगने की घटना से इनकार नहीं किया। इंसान जंगल में अच्छी घास उगने की उम्मीद में, महुआ बीनने के दौरान या किसी छोटे जानवर के शिकार के लिए आग लगा सकते हैं,उन्होंने आगे कहा।

आग लगने की वजहों के बारे में इंडियन फॉरेस्ट ऑफिसर डॉ. अब्दुल कय्यूम मानते हैं कि अधिकतर मामलों में सामने आया है कि ये आग इंसानी गतिविधियों की वजह से सुलगते हैं। जंगल में बिखरे सूखे पत्ते आग में घी का काम करते हैं। कई शोध में दिखा है कि आग लगने की एक वजह जलवायु परिवर्तन है। साथ ही, लोगों की जंगल पर बढ़ती निर्भरता भी एक वजह है, वह कहते हैं। 

डॉ. कय्यूम 2013 बैच के अरुणाचल प्रदेश, गोवा, मिजोरम और सभी केंद्र शासिक प्रदेश कैडर (एजीएमयूटी कैडर) के अधिकारी है। आईआईटी कानपुर से पढ़े कय्यूम ने झारखंड में आग की घटनाओं और उसके पर्यावरण पर प्रभाव पर शोध किया है। 

नासा के सैटेलाइट ने कर्नाटक के बांदीपुर टाइगर रिजर्व की फरवरी 2019 में लगी आग की रंगीन तस्वीरें जारी की। इसमें आग की वजह से निकलता धुआं साफ देखा जा सकता है। तस्वीर- नासा/विकिमीडिया कॉमन्स
नासा के सैटेलाइट ने कर्नाटक के बांदीपुर टाइगर रिजर्व की फरवरी 2019 में लगी आग की रंगीन तस्वीरें जारी की। इसमें आग की वजह से निकलता धुआं साफ देखा जा सकता है। तस्वीर- नासा/विकिमीडिया कॉमन्स

आखिर जंगल की आग का क्या है समाधान

विवेक मेनन इसका एक तरीका सुझाते हैं। उन्होंने कहा, डब्लूटीआई ने कई राज्य के वन विभाग को ब्लोअर्स दिए हैं जिससे पत्तों को हटाया जा सकता है। इसके अलावा ट्रैक्टर पर स्थापित एक उपकरण भी बनाया है जो पानी की बौछार करता है। कर्नाटक और केरल में हमारे प्रयोग सफल रहे हैं। हमने बांधवगढ़ प्रबंधन को भी ये उपकरण देने की पेशकश की है, मेनन कहते हैं। 

उन्होंने कहा कि आग बुझाने के अलावा लोगों तक पहुंचकर उन्हें जागरूक करना भी एक जरूरी कदम है। इससे आग लगने की घटनाएं कम की जा सकती हैं। 

मेनन चेताते हैं कि अगर आग को नियंत्रित नहीं किया गया तो बांधवगढ़ जैसे पुराने जंगल तबाह हो सकते हैं। ऐसे जंगल तैयार होने में वर्षों का वक्त लगता है। 

डॉ. कय्यूम ने भी आग पर नियंत्रण के लिए एक समाधान सुझाया। वह कहते हैं, कुदरती आग को बुझाने का एक तरीका है कि इसकी सटीक सूचना मिले। साथ ही, आग लगने के संभावित स्थानों की मैपिंग और उससे बचने के इंतजाम भी समाधान हो सकते हैं।

उन्होंने इसका एक सफल उदाहरण भी दिया। हमने अरुणाचल प्रदेश में रिमोट सेंसिंग और जीआईएस का इस्तेमाल कर आग लगने की घटनाओं को काफी कम कर दिया है। इस मॉडल को भारत सरकार द्वारा ई-गवर्नेंस अवार्ड भी मिला है। मुझे विश्वास है कि ऐसे मॉडल दूसरे राज्यों में भी लागू किए जा सकते हैं,” वह कहते हैं।

 

बैनर तस्वीरः ओडिशा के रायगड़ा के जंगलों में वर्ष 2014 में लगी आग का दृश्य। इस साल भी ओडिशा के सिमलीपाल बायोस्फीयर रिजर्व में लगी आग से मार्च महीने में भारी तबाही हुई। तस्वीर– सौरभ चटर्जी/फ्लिकर

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