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[कॉमेंट्री] कोविड-19 और चारे की कमी से परेशान राजस्थान के घुमक्कड़ चरवाहे, बीच में छोड़ी यात्रा

सैकड़ों किलोमीटर घूमकर पशु चराने वाले राजस्थान के घुमक्कड़ चरवाहे कोविड-19 से हुए हलकान, बीच में छोड़ी यात्रा

सैकड़ों किलोमीटर घूमकर पशु चराने वाले राजस्थान के घुमक्कड़ चरवाहे कोविड-19 से हुए हलकान, बीच में छोड़ी यात्रा

  • राजस्थान के घुमंतू चरवाहे कोविड-19 महामारी की वजह से अनिश्चितताओं के शिकार हो रहे हैं। बार-बार लॉकडाउन लगने की वजह से वे अपनी यात्रा बीच में ही छोड़ने को मजबूर हैं।
  • घुमंतू चरवाहे अपनी यात्रा के दौरान रास्ते में चारे और पानी के लिए किसान परिवारों के ऊपर निर्भर रहते हैं। फिलहाल इंदिरा गांधी नहर की मरम्मत चल रही है और यह बंद है। इसलिए रास्ते में इन्हें पानी और चारा खोजना मुश्किल और महंगा पड़ रहा है।
  • संसाधनों में कमी की वजह से इन्हें खुद के लिए और अपने पशुओं के लिए भोजन-पानी को लेकर दिक्कत हो रही थी। तंग आकर इन चरवाहों ने अपनी यात्रा दो महीने में ही खत्म कर दी है और वापस अपने घर लौट आए हैं।

राजस्थान में करीब चार लाख लोग अपनी रोजी-रोटी के लिए चरवाही पर निर्भर हैं। संसाधनों की कमी समेत तमाम चुनौतियों से निपटने में माहिर होने के लिए मशहूर गडरिया समुदाय महामारी के सामने विवश होता दिख रहा है। बदलते परिवेश में आम ग्रामीण समाज धीरे-धीरे अपने को इस नई चुनौती के हिसाब से ढाल रहा है पर गडरिया समुदाय इसमें पिछड़ता दिख रहा है। इस साल राजस्थान में राज्य-स्तर पर लगे लॉकडाउन में यह समस्या खुल कर सामने आई है। 

राजस्थान के रेगिस्तान में रहने वाले ये ऋतु-प्रवासी चरवाहे गर्मी के दिनों में अपने राज्य से पलायन कर पंजाब और हरियाणा का रुख करते हैं। हरियाली की तलाश में। अमूमन मार्च के आखिर में गर्मी बढ़ने के साथ पलायन का यह दौर शुरू होता है और जुलाई में मॉनसून के आगमन के साथ इनकी घर-वापसी होती है। पर इन रास्तों के संसाधन तेजी से खत्म हो रहे हैं, इसलिए चरवाहों के दूर तक पलायन की प्रकृति भी पिछले कुछ दशकों में बदली है। वैसे चरवाहे जिनके पास 250 से 300 के करीब या उससे अधिक पशु होते हैं, उन्होंने पैदल चलने के बजाए ट्रकों में भरकर पशुओं को ले जाना शुरू कर दिया है। इन पशुओं को राज्य के सीमा पर ले जाया जाता है जहां हरियाली मौजूद होती है। इंदिरा गांधी नहर के बगल से गुजरने वाले रास्ता इनको पसंद है क्योंकि वहां जरूरत भर चारा और पानी उपलब्ध होता है। फसलों की कटाई के बाद खेत में बचे अवशेष से अच्छी चरवाही हो जाती है और नहर में पीने के लिए पानी उपलब्ध होता है। 

जब कोविड-19 महामारी जैसी समस्या नहीं थी तब खेत के मालिक इनके पशुओं को खेत में फसल-कटाई के तुरंत बाद बचे अवशेष चरने की इजाजत दे देते थे। बदले में किसानों को अपने खेत में इन पशुओं के छोड़े गोबर इत्यादि से प्राकृतिक खाद मिल जाया करती थी। लेकिन कोविड-19 महामारी की वजह से लोगों में डर बढ़ा है और इन इलाकों में रहने वाले लोगों का चरवाहों और उनके पशुओं के प्रति रुख बदला है। इसके अतिरिक्त इस वर्ष नहर के बंद होने से भी इनकी मुश्किलें बढ़ीं हैं। इस इलाके में पानी की कमी हो गई है। इंदिरा गांधी नहर बीते 70 दिनों से (मार्च 21 से) मरम्मत की वजह से बंद है। 

इनता ही नहीं, फसल के बचे अवशेष जैसे पराली को पंजाब, हरियाणा और राजस्थान के किसानों ने जलाना भी शुरू कर दिया है। इसे रोकने के तमाम प्रयासों के बावजूद पराली जलाने के मामला रुक नहीं रहा है। फिर खेत की आग बुझाने के लिए बड़ी मात्रा में पानी की आवश्यकता होती है। नहर बंद होने की सूचना मिलने की वजह से किसानों ने कोशिश की कि पानी रहते उनका काम निपट जाए और इसलिए उन्होंने इस वर्ष समय से पहले ही फसल की कटाई कर दी और इस तरह पराली में आग भी पहले ही लगा दी।  इस बात का असर चरवाहों पर भी हुआ। जब चरवाहे मार्च के अंत में अपने पशुओं के साथ इन इलाकों में गए तो वहां चारे की कमी हो गयी। नहर के बंद होने से पानी की समस्या तो थी ही, चारे की समस्या भी पैदा हो गई। 

राजस्थान के चरवाहेः मरुभूमि में गर्मी के दिनों में वनस्पति सूखने की वजह से पशुओं के लिए चारे की कमी हो जाती है। कोविड-19 महामारी ने समस्या को और गंभीर बना दिया और इस बात का फायदा उठाकर बाजार में चारे और पानी की कीमत बढ़ा दी गई। अब चरवाहों के सामने कोई रास्ता नहीं दिखता। तस्वीर- पार्था हजारिका, डेजर्ट रिसोर्ट सेंटर
मरुभूमि में गर्मी के दिनों में वनस्पति सूखने की वजह से पशुओं के लिए चारे की कमी हो जाती है। कोविड-19 महामारी ने समस्या को और गंभीर बना दिया और इस बात का फायदा उठाकर बाजार में चारे और पानी की कीमत बढ़ा दी गई। अब चरवाहों के सामने कोई रास्ता नहीं दिखता। तस्वीर- पार्था हजारिका, डेजर्ट रिसोर्ट सेंटर
राजस्थान के चरवाहेः यह सूखा हुआ डिग्गी यानी तालाब कभी पलायन करते पशुओं के झुंड के लिए पानी का स्रोत होता था। इंदिरा गांधी नहर के बंद होने के वजह से यह सूख चुका है। तस्वीर- डेजर्ट रिसोर्स सेंटर
यह सूखा हुआ डिग्गी यानी तालाब कभी पलायन करते पशुओं के झुंड के लिए पानी का स्रोत होता था। इंदिरा गांधी नहर के बंद होने के वजह से यह सूख चुका है। तस्वीर- डेजर्ट रिसोर्स सेंटर

चरवाहे दावा करते हैं कि कोविड-19 महामारी के दौरान पराली जलाने से रोकने के लिए कोई निगरानी नहीं थी। पुलिस और अर्थ-दंड से बचने के वास्ते किसानों ने इस साल जल्द ही पराली को आग के हवाले कर दिया, जो कि पलायन कर रहे पशुओं के लिए चारा हो सकता था। इस तरह चरवाहों को चौतरफा मार झेलनी पड़ रही है। 

कोविड-19 महामारी ने चरवाहों के आवाजाही पर कई तरह की पाबंदियां लगा दीं जो वह पहले आसानी से कर लेते थे। पशुओं का झुंड लेकर चलने वाले चरवाहे सुबह 7 बजे से 11 बजे तक ही बाहर निकलने के नियम का पालन नहीं कर पाते। राज्य सरकार ने यही पांच घंटे बाजार इत्यादि के लिए मुकर्रर किया है और फिर बाहर निकलने पर पाबंदी लग जाती है। दुकाने जल्दी बंद होने लगीं जिससे उन्हें रोजमर्रा के लिए राशन इत्यादि खरीदने में भी दिक्कत पेश आयी। रास्ते में उन्हें किसान परिवारों से शरण मिलना भी कम हो जाए, जो कि महामारी से पहले आसानी से मिल जाता था। इन सब दिक्कतों से दो चार होते हुए इस बार चरवाहे दो महीने के भीतर ही अपने स्थान पर लौट आए हैं।


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बीकानेर जिले के कालू क्षेत्र के रहने वाले भोम सिंह भी उन्हीं चरवाहों में शामिल हैं जिन्हें दो महीने के भीतर ही लौटना पड़ा है। कहते हैं,  “मैं 11,000 रुपए खर्च कर अपनी बकरियों और भेड़ों को कालू (पश्चिमी राजस्थान) से पल्लू लेकर आया। वहां झुंड के लिए पर्याप्त चारा होता है और हर साल हम वहीं जाते हैं। लेकिन इस साल किसानों ने अपने खेतों में आग लगा दी। तीन सौ जानवरों के लिए बिल्कुल चारा नहीं बचा। मैं उन्हें लेकर भटकता रहा। जमीन का कोना-कोना सूखा पड़ा है। कहीं हरियाली नहीं है। वहां पानी की कमी भी आई। जिन लोगों के पास टैंकर है पशुओं को पानी उपलब्ध कराने के लिए खूब पैसे मांग रहे थे। यहां जानवरों के लिए कुछ नहीं बचा। मैं क्या करता? मैंने तय किया था कि जुलाई में घर वापस लौटना होगा पर अभी ही लौट रहा हूं।” 

कोविड-19 महामारी में लगे लॉकडाउन में सड़कें खाली हो गईं। एक खाली सड़क पर पशुओं का झुंड पलायन करता हुआ। महामारी में पशुपालकों को रहने, खाने की समस्याएं भी आ रही हैं। तस्वीर साभार- डेजर्ट रिसोर्ट सेंटर
कोविड-19 महामारी में लगे लॉकडाउन में सड़कें खाली हो गईं। एक खाली सड़क पर पशुओं का झुंड पलायन करता हुआ। महामारी में पशुपालकों को रहने, खाने की समस्याएं भी आ रही हैं। तस्वीर साभार- डेजर्ट रिसोर्ट सेंटर

पलायन के दरम्यान एक जगह से दूसरी जगह जाने की प्रक्रिया में गांव के सामुदायिक जमीन पर बड़ी संख्या में पशुओं के इकट्ठा होने का अपना पारिस्थिकी और सामाजिक-आर्थिक प्रभाव होता है। जैसा कि पिछले वर्ष देखा गया, चरवाहों की बस्तियों के आस-पास गांव की सामुदायिक भूमि पर चरवाही का दबाव था और पशुओं के हिस्से कम पोषण आया। पोषण की कमी की वजह से रोग-प्रतिरोधक क्षमता प्रभावित होती है और बीमारियों का प्रकोप बढ़ता है। इससे पशुओं की मृत्यु हो जाती है और चरवाहों का काफी नुकसान उठाना पड़ता है। नतीजन, चरवाहों की आर्थिक स्थिति खराब होती है और आजीविका का संकट बढ़ता है। सामुदायिक भूमि पर चारा कम होने से बाजार में मिलने वाला सूखा चारा भी महंगा होने लगता है। ऐसी स्थिति में भी इन पशुपालकों काफी नुकसान होता है।

“मेरे पास 235 भेड़ और बकरियों का झुंड है। इस साल इनके खाने के लिए बहुत कम चारा मिला। बाजार में बिकने वाला चारा भी महंगा है। मेरे जानवर कमजोर हो रहे हैं। इस दौरान मरे 30 से 40 भेड़ किसी बीमारी की वजह से मर गए। मेरे साथी चरवाहे सोता राम के 300 में से 100 100 भेड़ मर गए। डॉक्टर भी बीमारी का पता नहीं लगा पाए,” पश्चिमी राजस्थान के निवासी चेतन सिंह कहते हैं। 

ऋतु आधारित दूर-दराज के इलाकों तक बड़े स्तर में होने वाली इस चरवाही के रास्ते में पड़ने वाले क्षेत्र के आर्थिक-सामाजिक और हरियाली पर बहुत कुछ निर्भर करता है। इस कड़ी में पड़ने वाले किसी भी चीज में बदलाव वो चाहें कृषि के प्रकृति में बदलाव हो या चरवाहों के प्रति स्थानीय लोगों का व्यवहार- घुमक्कड़ चरवाही के पूरी प्रक्रिया को प्रभावित करती है। पहले से मौसम बदलने और कृषि के बदलते तरीकों की वजह से परेशान रेगिस्तान के चरवाहों की परेशानी  कोविड-19 महामारी ने और बढ़ा दी है। आधुनिक अर्थव्यवस्था में घुमंतू चरवाही के योगदान को शामिल कर इन्हें इसका हिस्सा बनाया जाए, इसकी जरूरत अब और अधिक महसूस हो रही है।

राजस्थान के चरवाहेः मरुस्थल में वनस्पति की कमी है, लेकिन बीच में ही पलायन के लौटे जानवरों की वजह से इन्हें खाने वालों की संख्या अचानक बढ़ गई है। नतीजतन, किसी का पेट नहीं भर रहा और जानवर कुपोषण की वजह से बीमारियों के शिकार हो रहे हैं। तस्वीर- पार्था हजारिका, डेजर्ट रिसोर्ट सेंटर
मरुस्थल में वनस्पति की कमी है, लेकिन बीच में ही पलायन के लौटे जानवरों की वजह से इन्हें खाने वालों की संख्या अचानक बढ़ गई है। नतीजतन, किसी का पेट नहीं भर रहा और जानवर कुपोषण की वजह से बीमारियों के शिकार हो रहे हैं। तस्वीर- पार्था हजारिका, डेजर्ट रिसोर्ट सेंटर
केलन के चारागाह पर वनस्पतियां चरती भेड़ और बकरियां। चरवाहे का समूह अपने झुंड लेकर एक तय रास्ते के जरिए ही पलायन करते हैं। यह सामान्यतः सार्वजनिक जमीन होती है। बीते दिनों में इन स्थानों पर सौर ऊर्जा की परियोजनाएं या अन्य निर्माण होने लगे हैं, जिससे इनका रास्ता भी प्रभावित हुआ है। इन रास्तों के चुनाव के पीछे का मकसद यहां मिलने वाला चारा और पानी की व्यवस्था होती है। तस्वीर- मूलाराम मेघवाल, डेजर्ट रिसोर्ट सेंटर
केलन के चारागाह पर वनस्पतियां चरती भेड़ और बकरियां। चरवाहे अपने झुंड लेकर एक तय रास्ते के जरिए ही पलायन करते हैं। यह सामान्यतः सार्वजनिक जमीन होती है। बीते दिनों में इन स्थानों पर सौर ऊर्जा की परियोजनाएं या अन्य निर्माण होने लगे हैं, जिससे इनका रास्ता भी प्रभावित हुआ है। इन रास्तों के चुनाव के पीछे का मकसद यहां मिलने वाला चारा और पानी की व्यवस्था होती है। तस्वीर- मूलाराम मेघवाल, डेजर्ट रिसोर्ट सेंटर

 

बैनर तस्वीरः बीकानेर जिले के केलन में भेड़-बकरियों के झुंड को हांकता चरवाहा। सूखाग्रस्त पश्चिमी राजस्थान से यह झुंड मार्च महीने में पंजाब, हरियाणा के हरियाली वाले इलाके की ओर जाता है। मानसून आने के बाद जुलाई में इनकी घर वापसी होती है। तस्वीर- मूलाराम मेघवाल, डेजर्ट रिसोर्स सेंटर

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