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नीतियों में अनिश्चितता से जा सकती है भारत के सौर ऊर्जा क्षेत्र की चमक

नीतियों में अनिश्चितता से जा सकती है भारत के सौर ऊर्जा क्षेत्र की चमक
  • इस उम्मीद में कि पुनः नीलामी करने पर और सस्ते दरों पर बिजली मिलेगी, उत्तर प्रदेश सरकार ने निजी डेवलपर्स के साथ सौर ऊर्जा के कुछ पुराने बिजली खरीद समझौते (पीपीए) को रद्द कर दिया है।
  • इस बात पर आम सहमति है कि अगर राज्य सरकारें निवेशकों और डेवलपर्स के साथ नीलामी के तहत किए गए शर्तों का पालन नहीं करती हैं तो इससे स्वच्छ ऊर्जा को लेकर दीर्घकालिक लक्ष्य हासिल करने में मुश्किल आएगी।
  • देश ने 2022 तक 175 गीगावाट अक्षय ऊर्जा की क्षमता स्थापित करने का लक्ष्य तय किया था। यह स्पष्ट हो चुका है कि समय रहते यह लक्ष्य हासिल नहीं किया जा सकेगा। इसी तरह 2030 तक 450 गीगावाट अक्षय ऊर्जा का लक्ष्य तय किया गया है।
  • इन लक्ष्यों को हासिल करने के लिए भारत को अरबों डॉलर के विदेशी निवेश की जरूरत है और यह तभी संभव होगा जब निवेशकों को भारत में नियम-कानून पालन होता दिखे।

एक तरफ तो देश में अक्षय ऊर्जा के बड़े-बड़े लक्ष्य तय किए जा रहे हैं तो दूसरी तरफ इस क्षेत्र में तय नियम-कानून को लेकर लापरवाही बरती जा रही है। सबसे हालिया उदाहरण बना है उत्तर प्रदेश जहां सरकार ने पिछले हफ्ते निजी डेवलपर्स के साथ किए गए समझौते को रद्द कर दिया है। वह भी बिना कोई वजह बताए। ऐसे ही चलता रहा तो ऊर्जा क्षेत्र में जो बड़े लक्ष्य निर्धारित किए गए हैं उसके लिए जरूरी आर्थिक निवेश पर संकट आ सकता है। विशेषज्ञ इस बात पर सहमत दिखते हैं।

पर पहले लक्ष्य की बात करें। 2015 में भारत सरकार ने घोषणा की कि 2022 तक अक्षय ऊर्जा की 175 गीगावाट की क्षमता विकसित की जाएगी। अब महज साल भर का समय बचा है और कुल 95 गीगावाट का लक्ष्य हासिल किया जा सका है। यह लक्ष्य तो हासिल होने से रहा! दूसरी तरफ 2030 तक अक्षय उर्जा का 450 गीगावाट क्षमता विकसित करने का लक्ष्य तय किया गया है।

इस बीच देश के सबसे अधिक आबादी वाला राज्य उत्तर प्रदेश भी उन राज्यों में शामिल हो गया है जिन्होंने अपने राज्य में सोलर प्लांट लगाने वाली कंपनियों से हुए समझौते रद्द किए। वजह थी, किसी नए प्रोजेक्ट में कुछ कंपनियों ने सौर ऊर्जा से बनने वाली बिजली के नए और कम दाम बताए।

विशेषज्ञों का मानना है कि सरकारें अगर इस तरह पुराने समझौतों को रद्द करती रहेंगी तो इससे न केवल अल्पकालिक लक्ष्यों को हासिल करना मुश्किल होगा बल्कि जो दूरगामी लक्ष्य तय किए गए हैं उनके लिए निवेश लाना भी मुश्किल हो सकता है। खासकर स्वच्छ ऊर्जा से संबंधित लक्ष्य की खातिर।

उत्तर प्रदेश का ही उदाहरण लें। यहां 10 जून, 2021 तक महज 3,878 मेगावाट अक्षय ऊर्जा की क्षमता स्थापित हो पायी  है। जबकि वर्ष 2017 में भारत सरकार ने राज्य में 2022 तक 14,221 मेगावाट अक्षय ऊर्जा की क्षमता स्थापित करने का अनुमान लगाया था। राज्य की वर्तमान क्षमता इसके मुकाबले काफी कम है। अगर राज्य सरकार के हालिया कदम को देखा जाए तो सौर ऊर्जा की क्षमता विकसित करने में थोड़ी और देरी होगी।

गुजरात में नहर के ऊपर बना सौर ऊर्जा संयंत्र। भारत ने 2022 तक 175 गीगावाट अक्षय ऊर्जा की क्षमता स्थापित करने का लक्ष्य तय किया था। तस्वीर- मार्क गार्टन/ संयुक्त राष्ट्र फोटो/ फ्लिकर
गुजरात में नहर के ऊपर बना सौर ऊर्जा संयंत्र। भारत ने 2022 तक 175 गीगावाट अक्षय ऊर्जा की क्षमता स्थापित करने का लक्ष्य तय किया था। तस्वीर– मार्क गार्टन/ संयुक्त राष्ट्र फोटो/ फ्लिकर

बिना कोई कारण बताए, राज्य सरकार ने 500 मेगावाट का पीपीए रद्द कर दिया। नीलामी 2020 में हुई थी और सऊदी अरब के अल जोमिया सहित चार कंपनियों ने 3.17 रुपये प्रति किलोवाट से 3.18 रुपये प्रति किलोवाट की बोली लगाई थी। राज्य सरकार का इससे भी सस्ते दर पर बिजली पाने की इच्छा स्वाभाविक है। क्योंकि देश में केवल छह महीने पहले 1.99 रुपये प्रति यूनिट की कीमत की बोली लगी है। लेकिन सवाल यह है कि हर बार नई कीमत का पता चलने पर पुराने समझौते रद्द करना क्या उचित है!

इस बढ़ती प्रवृत्ति से भारत के नियम-कानून और उसे पालन कराने वाली संस्थाओं पर बड़ा सवालिया निशान लगता है!

उत्तर प्रदेश के पहले ऐसा ही काम आंध्र प्रदेश, राजस्थान, गुजरात जैसे कई अन्य राज्यों में भी हो चुका है।

इस बढ़ती प्रवृत्ति पर टिप्पणी करते हुए, नेशनल सोलर एनर्जी फेडरेशन ऑफ इंडिया (एनएसईएफआई) के मुख्य कार्यकारी अधिकारी सुब्रमण्यम पुलीपाका कहते हैं कि इसकी शुरुआत गुजरात सरकार ने की और इस तरह बिजली की तय कीमत कम करने की कोशिश की गयी। पर कोर्ट ने उस फैसले को पलट दिया। एनएसईएफआई भारत में सक्रिय सभी सौर ऊर्जा हितधारकों का एक बड़ा संगठन है।

“फिर इसकी शुरुआत आंध्र प्रदेश सरकार ने की। इसके बाद पंजाब ने टैरिफ पर छूट का अनुरोध किया। गुजरात ने लेटर ऑफ इंटेंट (एलओआई) को रद्द कर दिया और अब उत्तर प्रदेश ने एलओआई जारी किए बिना रिवर्स नीलामी के बाद भी समझौता रद्द करने का फैसला लिया है। समझौता हो जाने के बाद भी सौर ऊर्जा की कीमत को लेकर तोल-मोल का चलन बढ़ता ही जा रहा है। इसमें उद्योग जगत की लागातार अनदेखी की जा रही है,” वह आगे कहते हैं। 

उत्तर प्रदेश के हालिया फैसले पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए, इंस्टिट्यूट ऑफ एनर्जी इकनामिक्स एण्ड फाइनैन्शल एनैलिसिस (आईईईएफए) में एनर्जी फाइनैन्स के निदेशक टिम बकले ने मोंगाबे-हिन्दी से बात करते हुए कहा कि अगर राज्य सरकारें पुराने समझौते सिर्फ इसलिए रद्द कर रहीं है क्योंकि अन्य जगहों पर सौर ऊर्जा की कीमत में गिरावट आई है तो यह पावर का सरासर दुरुपयोग है। जब राज्यों ने निविदाएं मंगाईं हैं, एक कीमत पर सहमति बन चुकी है तो यह सरकार की जिम्मेदारी है कि निवेशकों को नियमानुसार काम करने का मौका दिया जाए। अन्यथा तो यह ऐसा है कि ‘चित भी मेरी पट भी मेरी।’ फिर निवेशक ऐसा खेल खेलने से परहेज करेंगे।

बिहार के समस्तीपुर जिले में गैर सरकारी संस्था के सहयोग से लगा सोलर पंप। राज्य में अक्षय ऊर्जा के क्षेत्र में अपार संभावनाएं हैं। सरकार खुद मानती है कि राज्य में 16 हजार मेगावाट सौर उर्जा और 2,150 मेगावाट बायोमास उत्पादन की क्षमता है। तस्वीर- मेट्रो मीडिया/आईडब्लूएमआई/फ्लिकर
बिहार के समस्तीपुर जिले में गैर सरकारी संस्था के सहयोग से लगा सोलर पंप। राज्य में अक्षय ऊर्जा के क्षेत्र में अपार संभावनाएं हैं। सरकार मानती है कि राज्य में 16 हजार मेगावाट सौर उर्जा उत्पादन की क्षमता है। तस्वीर– मेट्रो मीडिया/आईडब्लूएमआई/फ्लिकर

सौर ऊर्जा के दाम में गिरावट के साथ इस क्षेत्र में बढ़ रही अनिश्चितता

बीते दिसंबर में, गुजरात ऊर्जा विकास निगम लिमिटेड (जीयूवीएनएल) ने 500 मेगावाट सौर परियोजनाओं की नीलामी की तो इसमें 1.99 रुपये प्रति यूनिट बिजली उपलब्ध कराने की बोली लगी। यह अबतक न्यूनतम टैरिफ है।

सौर ऊर्जा से मिलने वाली बिजली के दरों में निरंतर गिरावट, अच्छी खबर है। विशेषज्ञ इसका श्रेय भारत के रिवर्स ऑक्शन की पद्धति को देते हैं। इसमें कंपनियों को पहले ही बुलाकर उनसे भविष्य में बिजली उपलब्ध कराने को लेकर बोली लगावायी जाती है। जो कंपनी सबसे सस्ता दर बताती है उसके साथ समझौता कर लिया जाता है। इसके साथ ही बाजार में रोज नई तकनीकी भी आ ही रही है।

इसी का परिणाम है कि भारत में सौर ऊर्जा से पैदा होने वाली बिजली की कीमत में साल-दर-साल 18 प्रतिशत की गिरावट दर्ज हो रही है। पूरी संभावना है कि इसकी कीमत अभी और कम होगी। हीरो फ्यूचर एनर्जीज के पूर्व सीईओ सुनील जैन ने तो भविष्यवाणी भी की है कि सौर ऊर्जा से मिलने वाली बिजली की कीमत 2030 के पहले ही 1 रुपये प्रति यूनिट हो जाएगी।


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पर ऐसा लगता है कि कीमतों का कम होना डेवलपर्स के लिए अनिश्चितता बढ़ा रहा है।

आईईईएफए के एक ऊर्जा अर्थशास्त्री विभूति गर्ग ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया कि यह “यह वास्तव में चिंताजनक है। ऊर्जा क्षेत्र में जिस तरह से चीजें बदल रही हैं उसी अनुपात में जोखिम और अनिश्चितता भी बढ़ रही है। यह भविष्य के लिए खतरे की घंटी है। इससे दूरगामी लक्ष्य प्रभावित होंगे।”

“सौर ऊर्जा के लिए प्रति यूनिट कीमत कम हो गई है और भविष्य में बेहतर तकनीक और बेहतर निवेश की वजह से इसमें अभी और गिरावट दर्ज की जाएगी। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि राज्य पुराने पीपीए को रद्द करते जाएं,” गर्ग जोर देकर कहती हैं।

ऐसा करने से बिजली डेवलपर्स के बीच भ्रम और अनिश्चितता की स्थिति बनती है। उनका विश्वास चरमराता है और डरते हैं कि निवेश करने और बिजली बनाने के बाद भी उनकी पूंजी लौट पाएगी या नहीं। 

कौंसिल ऑन एनर्जी, एनवायरनमेंट एण्ड वाटर (सीईईडब्ल्यू) से जुड़े ऋषभ जैन इस तथ्य को रेखांकित करते हैं। उनका कहना है, “पिछले वित्तीय वर्ष (2020-21) के अंत में लगभग 26 गीगावॉट की परियोजनाएं नीलामी के विभिन्न चरणों में थीं।” पर ये डेवलपर्स अभी भी ऊहापोह की स्थिति में हैं कि उनका प्रोजेक्ट मूर्त रूप ले पाएगा भी या नहीं।”

राजस्थान में लगा सौर ऊर्जा का संयंत्र। विदेशी निवेश को आकर्षित करने के मामले में अक्षय ऊर्जा क्षेत्र अग्रणी रहा है। तस्वीर- जितेंद्र परिहार/थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन/फ्लिकर
राजस्थान में लगा सौर ऊर्जा का संयंत्र। विदेशी निवेश को आकर्षित करने के मामले में अक्षय ऊर्जा क्षेत्र अग्रणी रहा है। तस्वीर– जितेंद्र परिहार/थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन/फ्लिकर

भारत के नवीन ऊर्जा में भारी विदेशी निवेश की जरूरत

विदेशी निवेश को आकर्षित करने के मामले में अक्षय ऊर्जा क्षेत्र अग्रणी रहा है। आईईईएफए द्वारा संकलित एक रिपोर्ट में कहा गया है कि 2014 से अब तक इस क्षेत्र में कुल 42 अरब अमेरिकी डॉलर से अधिक का निवेश आया है। इस अध्ययन के लेखक टिम बकले ने मोंगाबे-हिन्दी से बात करते हुए कहा कि देश को 2030 तक 450 गीगावाट की क्षमता विकसित करने के लिए करीब 500 अरब अमेरिकी डॉलर की और आवश्यकता होगी।

हालांकि पिछले दो सालों में भारत की ऊर्जा मांग धीमी हुई है। शुरुआती संकेत अच्छे नहीं है और अगर इन्हें गंभीरता से नहीं लिया गया तो आने वाले भविष्य में इस क्षेत्र की चमक फीकी पड़ सकती है। ऊर्जा क्षेत्र में सुधार को लेकर पांच साल पहले जैसा जोश था वह अब नहीं दिख रहा है। पिछले कुछ वर्षों में बहुत सारे बदलाव किए गए हैं। नए और सही फैसलों को बदल दिया गया। वह चाहे सौर ऊर्जा से जुड़ा हो या थर्मल (ताप) ऊर्जा से। उदाहरण के लिए, सरकार ने 2015 में ताप विद्युत संयंत्रों के लिए उत्सर्जन मानदंड तय किए थे। उन्हें अभी तक कानूनी जामा नहीं पहनाया जा सका है।

विशेषज्ञ इस बात से सहमत हैं कि आखिर में भारत सरकार को तय करना है कि वह कोई नीति बनाती है तो उसपर अमल भी होगा या नहीं। अगर इसपर अमल नहीं किया जाता तो भारत सरकार की विश्वसनीयता खतरे में आएगी। जैसे अगर तय किए गए पीपीए के नियमों और शर्तों का पालन नहीं किया जाएगा तो सरकारों की विश्वसनीयता कम होगी।

एनएसईएफआई के सुब्रह्मण्यम पुलीपाका कहते हैं, “देश में अब तक अक्षय ऊर्जा को लेकर एक अच्छी नीति रही है। इसी वजह से राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय निवेशकों ने भारत में दिलचस्पी भी दिखाई। पर इधर हाल में अनुबंधों को न पालन करने का सिलसिला शुरू हुआ है।”

निवेशकों के दिलचस्पी कम होने के अभी ठोस प्रमाण नहीं है पर कुछ ऐसे संकेत जरूर दिख रहे हैं जो भविष्य के लिए अच्छे तो नहीं ही कहे जाएंगे।

मई 2021 में, एक जापानी बहुराष्ट्रीय समूह सॉफ्टबैंक ने भारत के ऊर्जा क्षेत्र के अपने निवेश से हाथ खींच लिए। इसने अपने एसबी एनर्जी इंडिया को गौतम अदानी को बेच दिया। गौतम अदानी भारत के एक बड़े उद्योगपति हैं और आजकल नवीन ऊर्जा में अपनी कंपनी का विस्तार कर रहे हैं। बीते मई में ही 3.5 अरब डॉलर के सौदे पर हस्ताक्षर किया गया।


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अदानी ग्रीन एनर्जी के सामने आने से पहले, कनाडा पेंशन प्लान इन्वेस्टमेंट बोर्ड (सीपीपीआईबी) इस एसबी एनर्जी में 80 फीसदी हिस्सेदारी खरीदना चाहता था। इसके लिए सॉफ्टबैंक ग्रुप कॉर्प के साथ बातचीत भी हो रही थी। पर महीनों बातचीत करने के बाद सीपीपीआईबी ने समझौता करने से मना कर दिया।

यह पूछे जाने पर कि इस घटनाक्रम को कैसे देखा जाए, आईईईएफए के बकले के कहते हैं कि एक उदाहरण से पूरी समझ नहीं बनाई जा सकती। हाल के दिनों में सॉफ्टबैंक अपने घरेलू बाजार में भी मुश्किल में रहा है।

“पर सॉफ्ट बैंक की वजह से भारत में निवेशकों ने दिलचस्पी दिखानी शुरू की। सॉफ्ट बैंक भारत में बड़े उम्मीद से आया था। बहुत सारे निवेशकों ने सॉफ्टबैंक का अनुसरण किया था और बेहतर रिटर्न के लिए भारत में निवेश करना शुरू किया। बाद में भारत में सॉफ्टबैंक को कुछ समस्याओं का सामना करना पड़ा। इनमें भूमि अधिग्रहण और ग्रिड की उपलब्धता जैसी समस्याएं मुख्य थीं,” बकले कहते हैं।

भारत के राज्य तेलंगाना में बना सौर ऊर्जा का प्लांट। फोटो- थॉमस लॉयड ग्रुप/विकिमीडिया कॉमन्स
भारत के राज्य तेलंगाना में बना सौर ऊर्जा का प्लांट। फोटो– थॉमस लॉयड ग्रुप/विकिमीडिया कॉमन्स

पर सीपीपीआईबी का सॉफ्ट बैंक के साथ समझौते से पीछे हटना बहुत कुछ कहता है। “अदानी के आने के पहले कनाडा पेंशन प्लान इन्वेस्टमेंट बोर्ड इस कंपनी को खरीदना चाह रहा था। कई महीनों के बातचीत के बाद इसने अपने हाथ खींच लिए। कहीं ना कहीं सीपीपीआईबी को लगा कि सॉफ्ट बैंक के अनुबंध में कई समस्याएं हैं। जैसे भूमि अधिग्रहण, ग्रिड की उपलब्धता इत्यादि,” उन्होंने कहा।

टिम बकले आगे कहते हैं कि  यह अच्छा है कि अदानी ग्रीन एनर्जी ने कदम बढ़ाया और इसे खरीद लिया। पर यह वैश्विक निवेशकों को उत्साहजनक संकेत नहीं देता है। उन्होंने कहा कि कनाडा का सीपीपीआईबी अगर भारत के सौर ऊर्जा क्षेत्र में निवेश करता तो कई और विदेशी निवेशक उसका अनुसरण करते। जैसा सॉफ्ट बैंक के मामले में हुआ था।

भारत में वैश्विक पूंजी को आकर्षित करने के लिए जो कुछ जरूरी आकर्षण हैं उनमें एक है दीर्घकालिक पीपीए । इसका पालन किया जाना जरूरी है। यदि इस पर ध्यान नहीं दिया गया, तो यह भारत के लिए और अधिक चुनौती लेकर आएगा।

बैनर तस्वीरः राजस्थान में लगा सौर ऊर्जा संयंत्र। ऐसे संयंत्रों की मदद से भारत में सौर ऊर्जा से पैदा होने वाली बिजली की कीमत में साल-दर-साल 18 प्रतिशत की गिरावट दर्ज हो रही है। तस्वीर– जितेंद्र परिहार/थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन/फ्लिकर

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