- नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) ने 20 मई को कच्छ के रण में फैले बन्नी घास के मैदान से अगले 6 महीने में सभी तरह के अतिक्रमण हटाने का आदेश दिया।
- इस फैसले में इन मैदानों पर पारंपरिक रूप से निर्भर पशुपालक मालधारी समुदाय को वन अधिकार कानून के तहत समुदायिक हक देने की बात भी कही गयी।
- इस फैसले को पशुपालक समाज मालधारी के हक में मील का पत्थर माना जा रहा है। घास के मैदानों में खेती की वजह से अतिक्रमण हुआ है, जिससे घास का मैदान तो खराब हुआ ही, साथ ही साथ पशुपालक समाज का पुश्तैनी काम भी प्रभावित हुआ है।
गुजरात के कच्छ के रण स्थित बन्नी घास के मैदान (ग्रासलैंड) को एशिया का सबसे बड़ा ग्रासलैंड कहा जाता है। यह करीब 2500 वर्ग किलोमीटर से भी अधिक क्षेत्र में फैला है और अपनी जैव-विविधता के लिए विख्यात है। स्थानीय पशुपालक समुदाय मालधारी इस मैदान को चारागाह की तरह इस्तेमाल करता है और इस तरह उनकी आजीविका इसी मैदान के सहारे चलती है।
कहते हैं कि कई सदी पहले कच्छ के महाराव ने मालधारियों को बन्नी का मैदान बतौर इनाम, दान में दिया था। चूंकि ये लोग चरवाही का काम करते थे इसलिए दान में मिली इस भूमि का चारागाह के तौर पर ही इस्तेमाल करने का निर्णय लिया गया। खेती के लिए नहीं। यह विडंबना ही कही जाएगी कि इस मैदान का सबसे अधिक अतिक्रमण खेती की वजह से ही हुआ है।
बीते मई महीने में नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) ने आदेश दिया कि इस मैदान पर हुए सारे अतिक्रमण छः महीने में हटाए जाएं। इस निर्णय में विरासत और चरवाही को बचाने के मद्देनजर स्थानीय पशुपालक समाज की जीत देखी जा रही है।
अपने आदेश में एनजीटी ने कहा है कि वन अधिकार कानून, 2006 के सेक्शन 3 के तहत इस चारागाह पर मालधारी समुदाय का स्वामित्व बना रहेगा। यह सामुदायिक वन अधिकार आदिवासियों और वनवासियों को दिया जाता है। बन्नी घास के मैदान को 1955 में आरक्षित वन घोषित किया गया था। हालिया निर्णय से मालधारी समुदाय की, चारागाह के जमीन को लेकर, वर्षों से चले आ रहे संघर्ष पर विराम लगने की उम्मीद है।
हक के लिए दशकों का संघर्ष
“बन्नी घास मैदान को 1955 में आरक्षित वन घोषित किया गया था, लेकिन इस पर आश्रित मालधारी समुदाय को उनका हक नहीं मिला,” कहते हैं रमेश भाटी जो सहजीवन संस्था से जुड़े हैं। सहजीवन एक गैर-लाभकारी संस्था है जो मालधारी समुदाय को बन्नी पशु उच्चेरक मालधारी संगठन के जरिए मदद पहुंचाता है।
यहां 19 पंचायत में 54 गांव शामिल हैं जहां के लोग मूल रूप से चरवाही पर निर्भर हैं। भाटी के मुताबिक इन गांवों के 7,000 परिवार में करीब एक लाख पशु हैं जिनमें गाय, भैंस के अलावा भेड़ और ऊंट भी शामिल हैं।
यह समुदाय पारंपरिक रूप से इन घास के मैदानों में अपने पशु चराता था। लेकिन आरक्षित वन घोषित होने के बाद यह काम मुश्किल होता गया। अशोका ट्रस्ट फॉर रिसर्च इन इकोलॉजी एंड एनवायरनमेंट से जुड़ी विशेषज्ञ रम्या रवि ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया कि इस घोषणा के बाद मालधारियों का जीवन मुश्किल होता गया। उनका शोध बन्नी घास के मैदान और इससे संबंधित सामाजिक, आर्थिक और पारिस्थितिकी पर आधारित है।
आरक्षित वन बनने के बाद घास के मैदान को लेकर वन विभाग और रेवेन्यू विभाग के बीच असमंजस की स्थिति बन गई। बन्नी को आरक्षित वन जरूर घोषित किया गया लेकिन इसका प्रबंधन रेवेन्यू विभाग के पास ही रहा।
“जब भी कोई इस जमीन के उपयोग को लेकर प्रशासन के पास जाता, प्रशासन के अधिकारी वन विभाग के पास भेज देते थे। वन विभाग के अधिकारी कहते कि इस जमीन पर नियंत्रण अभी उनके पास नहीं है,” भाटी बताते हैं।
करीब तीन दशक बाद वर्ष 1988 में गुजरात सरकार ने बन्नी घास मैदान को वन विभाग को सौंपा। फिर भी यह प्रक्रिया पूरी नहीं हुई। वन विभाग ने जमीन पर नियंत्रण नहीं लिया। वर्ष 2003 में सैटेलाइट सर्वे के बाद वन विभाग ने इसके लिए एक कार्य योजना बनाई, जिसे 2010 में लागू किया गया। वन विभाग ने घास के मैदानों को चिन्हिंत करना शुरू किया ताकि उन्हें पुनर्जीवित किया जा सके। इस कार्रवाई से स्थानीय लोग डर गए और उन्हें लगा कि जमीन अब उनके हाथ से जा रही है।
सहजीवन संस्था के मुताबिक कच्छ के रण का 60 फीसदी जंगल मालधारी, नमक के मजदूर और मछलीपालक समुदाय के द्वारा उपयोग किया जाता है। इस कार्रवाई से उन्हें खतरा महसूस होने लगा और अतिक्रमण बढ़ने लगा।
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भरोसे की कमी से बढ़ा अतिक्रमण
बन्नी पशु उच्चेरक मालधारी संगठन से जुड़े गनीभाई कहते हैं, “स्थानीय लोगों ने जमीन पर अतिक्रमण कर इसका उपयोग खेती के लिए करना शुरू कर दिया।”
उन्होंने मोंगाबे-हिन्दी से बातचीत में बताया कि लोग अपनी औकात के हिसाब से जमीन हथियाने लगे। जिसके पास जितना पैसा उतनी बड़ी जमीन। “जो जमीन चारागाह की थी वहां भी खेती शुरू होने लगी। इससे आमदनी तो बढ़ी लेकिन चारागाह खत्म हो गए,” उन्होंने कहा।
चूंकि नियमों का अभाव था इसलिए ग्राम सभा भी इसे रोक नहीं पाई।
“कभी-कभार तो ग्राम सभा अतिक्रमण रोकती, लेकिन कई बार इसमें उनकी खुद की संलिप्तता रहती थी,” वह कहते हैं। कुल 19 में से 10 पंचायतों में अतिक्रमण का असर दिखने लगा।
इनमें से एक पंचायत दाधर ने अतिक्रमण हटाने का निर्णय लिया। पंचायत के हाजी हसन कहते हैं कि चारागाह के लिए उन्होंने सामूहिक तौर पर यह निर्णय लिया है।
“खेती की वजह से चारागाह के आसपास गड्ढा बन रहा है, जिसमें गिरकर हमारे पशु घायल हो रहे हैं। इससे उनकी मृत्यु भी हो रही है। इसको ध्यान में रखकर यह निर्णय लिया गया है,” हसन ने बताया।
“अतिक्रमण हटाने को लेकर हम प्रतिबद्ध हैं। हमने अपने बुजुर्गों के नेतृत्व में इस बात की सूचना ब्लॉक स्तर अधिकारी, पुलिस और वन विभाग को दी है। कई अतिक्रमणकारियों ने फसल काटने के बाद इसे छोड़ने की मंशा भी जताई है,” उन्होंने बताया।
अभ्यंगा गांव के निवासी मालधारी समुदाय के काकन मुतवा का कहना है कि उन्होंने कृषि के लिए घास के मैदान की जमीन का इस्तेमाल किया था, जिसे वह लौटाने को तैयार हैं।
पर्यटन भी घास मैदान का दुश्मन
बन्नी के मैदान को सिर्फ खेती से नहीं बल्कि पर्यटन से भी खतरा है। गांवों में रण उत्सव की बढ़ती लोकप्रियता की वजह से कच्छ के धोर्दो जैसे गांवों को फायदा हुआ है। यहां होम स्टे जैसे उपक्रम से कई लोगों को फायदा हुआ है लेकिन इसकी वजह से अतिक्रमण भी बढ़ा है। इसी वजह से जब पंचायतों ने वन अधिकार कानून के तहत सामुदायिक अधिकार का दावा किया था तब तीन गांव इसमें शामिल नहीं हुए थे। वर्ष 2015 में कुल 16 ग्राम पंचायतों के 47 गांव में 47 समुदायिक अधिकार दिए गए।
“वास्तविकता में चरवाहा समाज को इन मैदानों पर पारंपरिक हक नहीं मिला,” बन्नी ब्रीडर्स एसोसिएशन से जुड़ीं इशा मेरन मुत्वा कहती हैं।
वर्ष 2018 में बन्नी ब्रीडर्स एसोसिएशन ने एनजीटी में अतिक्रमण को लेकर एक केस दर्ज किया। इस केस के हिस्से के तौर पर 16 ग्राम पंचायतों ने समुदाय के अधिकार की अनदेखी को लेकर अपनी रिपोर्ट पेश की। वर्ष 2019 में एनजीटी ने सीमांकन के आदेश दिए। यहां वन के अलावा अन्य गतिविधियों की मनाही हुई। मई 2021 में एनजीटी ने 6 महीने के भीतर सभी अतिक्रमण हटाने के लेकर कच्छ के चीफ कंजर्वेटर ऑफ फॉरेस्ट, डिविजनल कमिश्नर को तैयारी कर एक महीने में कार्य योजना सौंपने को कहा है।
हालांकि, पर्यटन को मालधारी समुदाय के लोग अतिक्रमण नहीं मानते। “अधिकतर पर्यटक सड़क के आसपास ही रहते हैं और भीतर तक नहीं आते। इसलिए यह अतिक्रमण नहीं माना जाएगा,” गनीभाई ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया।
“होटल और होम स्टे की वजह से जितनी जमीन काम में आई है वह अधिक नहीं है। उदाहरण के लिए एक होटल दो एकड़ में बनता है तो 100 होटल को मात्र 200 एकड़ जमीन चाहिए। यह अधिक नहीं है, क्योंकि इतना अतिक्रमण तो सिर्फ एक खेत ही कर लेता है,” वह कहते हैं।
खेती की वजह से घास के मैदान पर जो अतिक्रमण होता है इससे समुदाय की असली लड़ाई है।
रवि ने आगे कहा कि मालधारियों को खेती से कोई दिक्कत नहीं है, बल्कि वह पशुपालन को सहारा देने के लिए खेती करते हैं। उन्हें दिक्कत है पशुपालन को दरकिनार कर सिर्फ खेती करने से। ऐसी अर्थव्यवस्था में फायदा सिर्फ कुछ लोगों का ही होता है। अच्छी बारिश होने पर बन्नी का घास का मैदान पशुओं के लिए पर्याप्त चारा पैदा करता है। कम बारिश होने पर चरवाहे दूर-दराज के इलाकों में पलायन करते हैं।
जैव विविधता का केंद्र बन्नी घास मैदान
बन्नी में भैंस की 11वीं नस्ल पाई जाती है जिसे राष्ट्रीय पशु आनुवंशिक संसाधन ब्यूरो ने वर्ष 2010 में विलुप्तप्राय बताते हुए चिन्हित किया। कच्छ की आबो-हवा में खुद को ढाल लेने वाले यह भैंसे बन्नी के घास के मैदानों पर निर्भर हैं, कहते हैं मालधारी पकीरमामद जाट।
“हम एनजीटी के निर्णय से काफी खुश हैं। घास के मैदान बचेंगे तो हमारे पशु बचे रहेंगे,” वह कहते हैं।
बन्नी में 192 तरह के पौधे मौजूद हैं। इनमें घास की 60 प्रजातियां भी शामिल हैं। इसके अलावा यहां 262 किस्म के पक्षी, कई स्तनधारी, उभयचर, और सरीसृप प्रजाति भी पाए जाते हैं।
बैनर तस्वीरः कच्छ के रण स्थित बन्नी घास मैदान में भैसों के समूह के साथ मालधारी चरवाहा। तस्वीर– एजेटी जॉनसिंह, डब्लूडब्लूएफ-इंडिया और एनसीएफ