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उत्तराखंड: कैमरा ट्रैप से मिला कस्तूरी मृग और भरल की गिनती का तरीका

गंगोत्री नेशनल पार्क में लगे कैमरा ट्रैप में कैद कस्तूरी मृग की तस्वीर (बाएं) और पहाड़ियों में स्वच्छंद विचरण करता भरल। तस्वीर- डब्लूआईआई और रंजना पाल

गंगोत्री नेशनल पार्क में लगे कैमरा ट्रैप में कैद कस्तूरी मृग की तस्वीर (बाएं) और पहाड़ियों में स्वच्छंद विचरण करता भरल। तस्वीर- डब्लूआईआई और रंजना पाल

  • उत्तराखंड में पहली बार कैमरा ट्रैप के जरिए कस्तूरी मृग और भरल की गिनती संभव हो पाई है। अभी तक इसका प्रयोग सिर्फ बाघ इत्यादि की गणना में ही किया जाता था।
  • इस पद्धति के जरिए वाइल्ड लाइफ़ इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया ने निलांग घाटी में भरल और गंगोत्री घाटी और कियारकोटी के बुरांश, भोज, कैल, कर्सू और देवदार के जंगलों में कस्तूरी मृग का घनत्व जानने की कोशिश की।
  • बावजूद इसके कि हिमालय क्षेत्र की पारिस्थितिकी तंत्र को बनाये रखने में इन दोनों जीवों का अहम योगदान है, इनका अस्तवित्व संकट में है। इसकी वजह है शिकार और चारागाह की कमी

देश में बाघों और हाथियों की गणना तो की जाती है। लेकिन बहुत से वन्यजीव ऐसे हैं जिनकी संख्या और मौजूदा स्थिति का हमें ठीक-ठीक अनुमान नहीं है। उच्च हिमालयी क्षेत्र में पाए जाने वाले कस्तूरी मृग और भरल भी ऐसे ही जीवों की श्रेणी में हैं जिनकी स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र में अहम भूमिका होने के बावजूद समुचित तरीके से इनकी गिनती नहीं हो पाती है। पर कैमरा ट्रैप के तरीके से उत्तराखंड में अब यह भी संभव होने लगा है।

वाइल्ड लाइफ़ इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (डब्ल्यूआईआई) ने पहली  बार कैमरा ट्रैप के ज़रिये उत्तराखंड के एक ख़ास अध्ययन क्षेत्र में भरल और कस्तूरी मृग की मौजूदगी के घनत्व का पता लगाया। केंद्र सरकार के नेशनल मिशन फॉर सस्टेनिंग हिमालयन इकोसिस्टम कार्यक्रम के तहत ये कार्य वैसे तो 2018-19 में किया गया लेकिन पहली बार इस गणना के आंकड़े सामने आए हैं।

मोंगाबे-हिन्दी के साथ साझा किए गए आंकड़े के अनुसार कैमरा ट्रैप तकनीक से की गई गणना में निलांग घाटी में भरल की औसत संख्या 380 आंकी गई है। यहां न्यूनतम 231 और अधिकतम 529 भरल होने का अनुमान लगाया गया है। वहीं गंगोत्री नेशनल पार्क के सीमित सब-अल्पाइन क्षेत्र में औसतन 23 कस्तूरी मृग की मौजूदगी का आंकलन किया गया है। इनकी न्यूनतम संख्या 12 और अधिकतम संख्या 34 होने का अनुमान है।

इस गणना का महत्व इसलिए बढ़ जाता है क्योंकि ये दोनों जीवों का अस्तित्व मुश्किल में है। कस्तूरी की मनमोहक ख़ुश्बू के चलते इसका इस्तेमाल इत्र बनाने के लिए किया जाता है। कस्तूरी मृग के शिकार की यही सबसे बड़ी वजह है। इसके साथ ही जलवायु परिवर्तन और पालतु पशुओं के अत्यधिक चरवाही की वजह से भी इनके प्राकृतिक आवास भी सिकुड़ रहे हैं। कई जगहों पर जहां पहले कस्तूरी मृग पाए जाते थे, अब वे वहां नहीं रह गए हैं।

कैमरा ट्रैप की मदद से उत्तराखंड के गंगोत्री नेशनल पार्क के सीमित सब-अल्पाइन क्षेत्र में औसतन 23 कस्तूरी मृग की मौजूदगी का आंकलन किया गया है। गंगोत्री नेशनल पार्क के सीमित सब-अल्पाइन क्षेत्र में औसतन 23 कस्तूरी मृग की मौजूदगी का आंकलन किया गया है। तस्वीर- डब्लूआईआई
कैमरा ट्रैप की मदद से उत्तराखंड के गंगोत्री नेशनल पार्क के सीमित सब-अल्पाइन क्षेत्र में औसतन 23 कस्तूरी मृग की मौजूदगी का आंकलन किया गया है। गंगोत्री नेशनल पार्क के सीमित सब-अल्पाइन क्षेत्र में औसतन 23 कस्तूरी मृग की मौजूदगी का आंकलन किया गया है। तस्वीर- डब्लूआईआई

इसी तरह भरल की संख्या में कमी की वजह भी शिकार के साथ पालतु पशुओं का अत्यधिक चराई माना जाता है। हाल के वर्षों में पालतु पशुओं की संख्या बढ़ी है। भरल और पालतु पशुओं के चारागाह एक ही हैं। जिससे इन वन्यजीवों को घास की कमी का सामना करना पड़ता है। डबल्यूआईआई की शोधार्थी रंजना पाल बताती हैं कि पालतु पशुओं की बीमारियां भी कई बार इन वन्यजीवों तक फैल जाती हैं। इनकी संख्या में गिरावट की यह भी एक वजह मानी जाती है।

कब और कहां हुई भरल और कस्तूरी मृग की गणना?

भरल को नीली भेड़ें (Blue Sheep) भी कहा जाता है। इसका वैज्ञानिक नाम Pseudois nayaur है। उत्तरकाशी में समुद्र तल से 3,000 से 5,200 मीटर की ऊंचाई पर निलांग घाटी में भरल के घनत्व की गणना की गई। इस दौरान, गर्मियों (मई-सितंबर 2017) के दौरान 21 स्थानों पर और सर्दियों में (अक्टूबर 2017-जनवरी 2018) 25 स्थानों पर भरल की गिनती के लिए कैमरा ट्रैप लगाए किए।

डब्ल्यूआईआई के वैज्ञानिकों ने कैमरा ट्रैप के साथ डिस्टेन्स सैंपलिंग (दूरी मापते हुए लिए गए नमूने) के ज़रिये गर्मियों के समय निलांग घाटी में 20 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में तकरीबन 5 भरल की मौजूदगी का अनुमान लगाया। इसमें एक संख्या कम या अधिक हो सकती है। वहीं सर्दियों में इसी दायरे में भरल की मौजूदगी 6.4 आंकी गई।  

इसी तरह कस्तूरी मृग (वैज्ञानिक नाम Moschus leucogaster) के लिए समुद्र तल से 2,500-3,000 मीटर ऊंचाई पर गंगोत्री घाटी और कियारकोटी के बुरांश, भोज, कैल, कर्सू और देवदार के जंगलों में गिनती की गई। गर्मियों (मई-सितंबर 2018) के दौरान 30 स्थानों पर कैमरा ट्रैप लगाए गए। जबकि सर्दियों में (अक्टूबर 2018-जनवरी 2019) 28 स्थानों पर सब-अल्पाइन क्षेत्र में कैमरा ट्रैप लगाए।

गर्मियों में कस्तूरी मृग का घनत्व 20 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में तकरीबन 4 (त्रुटि के लिहाज से एक कम या एक अधिक हो सकता है) पाया गया। जबकि सर्दियों में ये संख्या मात्र एक ही रही। कस्तूरी मृग का घनत्व गर्मियों और सर्दियों में अलग-अलग पाया गया। क्योंकि सर्दियों में ये वन्यजीव भारी बर्फबारी के चलते कम ऊंचाई वाले क्षेत्र की ओर चले आते हैं।

कस्तूरी मृग बेहद शर्मीला, निशाचर और अकेला रहने वाला जानवर माना जाता है। अन्य हिरन प्रजातियों की तरह इसकी सींग नहीं होती। मात्र 15 किलो तक वज़न वाला ये जीव अक्सर झाड़ियों में छिपकर रहता है। आबादी में गिरावट के चलते इन्हें आईयूसीएन ने इसे खतरे की जद में शामिल वन्यजीवों की सूची में रखा है।

कैमरा ट्रैप तकनीक से की गई गणना में निलांग घाटी में भरल की औसत संख्या 380 आंकी गई है। उत्तराखंड में भरल को घास की कमी का सामना करना पड़ रहा है। तस्वीर- रंजना पाल
कैमरा ट्रैप तकनीक से की गई गणना में निलांग घाटी में भरल की औसत संख्या 380 आंकी गई है। उत्तराखंड में भरल को घास की कमी का सामना करना पड़ रहा है। तस्वीर- रंजना पाल

क्या है इसकी अहमियत?

ये दोनों जीव हिम तेंदुए के शिकार हैं और इस तरह हिम तेंदुए के संरक्षण के लिए भी इन वन्यजीवों का संरक्षण जरूरी है। इन दोनों को ही वन्यजीव संरक्षण अधिनियम-1972 में शेड्यूल-1 श्रेणी में रखा गया है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि इन जीवों के संरक्षण की जरूरत है। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि खासतौर पर कस्तूरी मृग की संख्या तेज़ी से घटी है। लेकिन कठिन भौगोलिक परिस्थितियों में रहने वाले इन वन्यजीवों की पारंपरिक तरीकों से गणना भी उतनी ही कठिन है। हालांकि अब तक इनके वास्तविक संख्या का अनुमान लगा पाना मुश्किल था। पर अब कैमरा ट्रैप के माध्यम से यह संभव होता दिख रहा है।  

 देहरादून में डब्ल्यूआईआई के वैज्ञानिक डॉ सत्या कुमार कहते हैं “देश में पहली बार कैमरा ट्रैप के ज़रिये उच्च हिमालयी क्षेत्र में कस्तूरी मृग और भरल का घनत्व निकालने का तरीका विकसित किया है। इससे पहले हम जंगल में चलते थे और जानवरों की गिनती करते थे। उन्हें कितनी दूरी पर देखा, किस एंगल पर देखा, उसे नापकर इन जानवरों की संख्या का अनुमान लगाते थे। जिसमें चूक की बहुत ज्यादा गुंजाइश थी।”

“इस तरीके में हमने कैमरा लगाने के बाद एक मीटर, दो मीटर, तीन मीटर, इस तरह से दूरी को पोल लगाकर नाप लिया। ताकि हमें पता चले कि कैमरे में कैद हुआ जानवर इससे कितनी दूरी और कितने एंगल पर खड़ा था। कैमरे में कैद हुई जानवरों की तस्वीरों में आई दूरी के आंकलन से हमने घनत्व निकाला। पहले हम सिर्फ यही देखते थे कि कैमरे में कितने जानवर आए,” वह आगे बताते हैं।

कस्तूरी मृग की गिनती कैमरा ट्रैप ने आसान कर दी है। जंगल में अलग-अलग स्थानों पर लगे कैमरों से पता चला है कि ये उत्तराखंड में उत्तरकाशी, रुद्रप्रयाग, चमोली, अल्मोड़ा, पिथौरागढ़ और बागेश्वर में पाए जाते हैं। तस्वीर- डब्लूआईआई
कस्तूरी मृग की गिनती कैमरा ट्रैप ने आसान कर दी है। जंगल में अलग-अलग स्थानों पर लगे कैमरों से पता चला है कि ये उत्तराखंड में उत्तरकाशी, रुद्रप्रयाग, चमोली, अल्मोड़ा, पिथौरागढ़ और बागेश्वर में पाए जाते हैं। तस्वीर- डब्लूआईआई

 उदाहरण के लिए हमें कैमरे से 10 मीटर के दायरे में जितने जानवर दिखे, उससे उस क्षेत्र में प्रति वर्ग किलोमीटर में जानवर की मौजूदगी का आंकलन किया जाता है। इसी तरह जंगल में अलग-अलग क्षेत्र का घनत्व भी अलग-अलग होगा। तो यदि 20 अलग-अलग जगह कैमरा ट्रैप लगाए गए। तो सभी कैमरे से मिले नतीजों का औसत निकालकर एक बड़े क्षेत्र में इस जीव की मौजूदगी का आंकलन किया जाएगा।

डॉ सत्य कुमार कहते हैं कि अब कस्तूरी मृग और भरल की गिनती का एक तरीका तैयार हो गया है। उत्तराखंड में उत्तरकाशी, रुद्रप्रयाग, चमोली, अल्मोड़ा, पिथौरागढ़ और बागेश्वर में ये दोनों वन्यजीव पाए जाते हैं। अब हम इन सभी क्षेत्रों में इनकी गिनती का कार्य करेंगे। अगले दो वर्षों में हमें पता होगा कि राज्य में कस्तूरी मृग की संख्या कितनी हो सकती है।

ऊंचे पहाड़ पर कैमरा ट्रैप, एक संतोषप्रद चुनौती

उच्च हिमालयी क्षेत्र की दुर्गम परिस्थितियों में इन भरल और कस्तूरी मृग की गणना का कार्य करने वाली डबल्यूआईआई की शोधार्थी रंजना पाल इससे जुड़ी चुनौतियों के बारे में बताती हैं। “तिब्बत की सीमा से लगी बर्फ़ीली निलांग घाटी में सिर्फ आईटीबीपी के कैंप बने हुए हैं। वहां मानव बस्तियां नहीं हैं। चारों तरफ़ बिखरी हुई चट्टानें, खड़ी ढलानें और गहरी-संकरी घाटी है। वन्यजीवों की गणऩा के पारंपरिक तरीके यहां कारगर नहीं हो रहे थे।”

गणना में लगे कर्मचारी मैदान में हर दिन कई किलोमीटर चलते थे और अपने शिविर को एक जगह से दूसरी जगह शिफ्ट किया करते थे। आगे बढ़ते-बढ़ते कैमरे लगाते जाते थे। गर्मियों के आंकड़ों को इकट्ठा करने के लिए मार्च तक कैमरा ट्रैप तैनात किया गया। इस ऊंचाई पर उन इलाकों में उस समय रोज़ाना बर्फ़बारी होती है। सर्दियों की शुरुआत से पहले कैमरे लगाना भी बेहद मुश्किल भरा था, रंजना पाल बताती हैं।

हालांकि परिणाम आने के बाद सारी मेहनत और तकलीफ अब सार्थक लग रही है, कहती हैं रंजना पाल।

रंजना और उनकी टीम को कैमरा ट्रैप और डिस्टेन्स मैपिंग के साथ आंकड़े जुटाने में दो साल लगे। इन आंकड़ों के विश्लेषण में एक साल का समय लगा। वह इसके लिए एक महीने लंदन में भी रहीं। वहां इस कार्य के विशेषज्ञ स्टीफ़न बकलेन के साथ एक उन्होंने एक महीना काम किया।

उत्तराखंड की दुर्गम पहाड़ी परिस्थितियों में कैमरा ट्रैप लगाती शोधार्थी रंजना पाल। तस्वीर- रंजना पाल
दुर्गम पहाड़ी परिस्थितियों में कैमरा ट्रैप लगाती शोधार्थी रंजना पाल। तस्वीर- रंजना पाल

पारंपरिक तरीकों से गणना की मुश्किलें

वन्यजीवों की गणना के कई पारंपरिक तरीके हैं। शोधार्थी रंजना पाल हमें उन तरीकों के बारे में बताती हैं जो पहाड़ की परिस्थितियों में कारगर नहीं हो सके।

इसके लिए एक दूरी नापने का स्थापित तरीका है। मैदानी-तराई क्षेत्रों में बाघों और अन्य वन्यजीवों की गिनती में इसका इस्तेमाल होता है। इसमें एक निश्चित दूरी तक पैदल एक सीधी कतार में आगे बढ़ते हैं। रास्ते में जितने जानवर दिखाई देते हैं, उनकी गिनती की जाती है। उसी आधार पर समूचे क्षेत्र में जानवर की मौजूदगी का आंकलन किया जाता है।

एक दूसरा तरीका है साइलेंट ड्राइव काउंटिंग। डब्ल्यूआईआई के वैज्ञानिकों ने पहले केदारनाथ वन्य जीव सेंचुरी में इसी तरीके से कस्तूरी मृग की गिनती का कार्य किया था। इसमें चारों तरफ से एक क्षेत्र को घेरते हैं और जानवर को तेज़ आवाज़ या डराकर बाहर निकालने की कोशिश करते हैं। क्योंकि कस्तूरी हिरन आमतौर पर झाड़ियों के बीच छिपकर रहने वाला शर्मीला जीव है। इसमें एक क्षेत्र विशेष में जितने भी जीवों की गिनती होती है, उसी आधार पर पूरे क्षेत्र में संख्या का आंकलन करते हैं।

प्वाइंट काउंट तरीके में किसी ऊंची जगह या पहाड़ की चोटी पर बैठकर वहां से दिखने वाले जानवरों की गिनती की जाती है। लेकिन उत्तराखंड के पहाड़ों में जिस तरह से सीधी ढलानें और संकरी खाइयां होती हैं, ये तरीका भी कारगर नहीं था। हालांकि लद्दाख-स्पीति के खुले क्षेत्र में इस तरीके से वन्य जीवों की गिनती की गई है।


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एक अन्य तरीका है- डबल ऑब्जर्वरी। इसमें दो टीमें एक घंटे के अंतराल में एक सीध में आगे बढ़ती हैं। पहली टीम आगे बढ़ते हुए रास्ते में दिखने वाले जानवरों की गिनती करती है। फिर दूसरी टीम उसी क्षेत्र में एक घंटा बाद ये कार्य करती है। दोनों की गिनती में समानता और अंतर के आधार पर वन्यजीव की मौजूदगी की पड़ताल की जाती है। एक बड़े क्षेत्र में तीन-चार टीमें भी एक निश्चित समय में इस कार्य को करती हैं।

इसके अलावा ट्रांजेक्ट सैंपलिंग, पैरों के निशान या मल की गणना जैसे अप्रत्यक्ष तरीके भी हैं। लेकिन इसे एक ही दिन में या सीमित समय के भीतर करना होता है। रंजना बताती हैं कि इन तरीकों में हमें इतनी कम संख्या मिल रही थी कि निष्कर्ष तक पहुंचना मुश्किल था।

 

बैनर तस्वीरः गंगोत्री नेशनल पार्क में लगे कैमरा ट्रैप में कैद कस्तूरी मृग की तस्वीर (बाएं) और पहाड़ियों में स्वच्छंद विचरण करता भरल। तस्वीर- डब्लूआईआई और रंजना पाल

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