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पलायन रोकने में कामयाब हो रहा मुनस्यारी का इकोटूरिज्म

पलायन रोकने में कामयाब हो रहा मुनस्यारी का इकोटूरिज्म
  • उत्तराखंड की एक बड़ी समस्या है पलायन। एक अनुमान के मुताबिक राज्य के अस्तित्व में आने के बाद से अब तक तीस लाख लोगों ने पलायन किया है।
  • पलायन को रोकने के लिए राज्य में इकोटूरिज्म को बढ़ावा देकर रोजगार पैदा करने की कोशिश की जा रही है। सरकार को रास्ता दिखाया है मुनस्यारी के सरमोली गांव ने।
  • इस गांव के दिखाए रास्ते पर चलते हुए अन्य गावों में होम स्टे और पर्यटकों को सामुदायिक स्तर पर सुविधाएं देकर पर्यटन के लिए माहौल बनाने की कोशिश हो रही है। इससे स्थानीय लोगों को न केवल रोजगार मिलता है बल्कि पर्यटकों को भी प्रकृति को नजदीक से देखने-समझने का मौका मिलता है।
  • मॉडल गांव सरमोली में यह सब कुछ दशकों से हो रहा है और इस व्यवस्था की बागडोर स्थानीय महिलाओं के हाथ में है। उनका मानना है कि इस आमदनी की वजह से उनके बच्चों का भविष्य बेहतर हुआ है।

कहते हैं कि पहाड़ का पानी और पहाड़ की जवानी, पहाड़ में नहीं टिकती। पानी की कहानी तो सबको मालूम है पर यहां जवानी से वास्ता उन युवाओं से है जो रोजगार की तलाश में शहरों की तरफ पलायन करते हैं। वर्ष 2000 में उत्तराखंड के वजूद में आने के बाद राज्य में विकास की कई योजनाएं अस्तित्व में आयीं पर रोजगार पैदा करने में सफलता नहीं मिली। लोगों को पलायन करना बदस्तूर जारी रहा। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक राज्य बनने के बाद लगभग 32 लाख लोगों ने पलायन किया है।

हालात यह है कि अच्छी शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार की तलाश में लोग बाहर जाते रहे और उत्तराखंड में गांव के गांव खाली होते गए। राज्य में ऐसे अनेकों भूतिया गांव हैं जहां की पूरी आबादी पलायन कर चुकी है। वर्ष 2018 में हुए एक सर्वे में सामने आया कि राज्य में करीब हजार ऐसे गांव है जहां की आबादी 100 से कम बची है।

रोजगार की समस्याओं के बीच पंचाचुली पर्वत पर बसा मुनस्यारी का सिरमोली गांव एक प्रकाश पुंज की तरह रास्ता दिखा रहा है। गांव के लोग इस बदलाव का श्रेय सामाजिक कार्यकर्ता और पर्वतारोही मल्लिका विर्दी को देते हैं।

पंचाचुली पर्वत पर बसा मुनस्यारी का सिरमोली गांव। मुनस्यारी एक जैव-विविधता वाला इलाका है और प्रकृति के संरक्षण लिहाज से महत्वपूर्ण है। तस्वीर-
पंचाचुली पर्वत पर बसा मुनस्यारी का सिरमोली गांव। मुनस्यारी एक जैव-विविधता वाला इलाका है और प्रकृति के संरक्षण लिहाज से महत्वपूर्ण है। तस्वीर- अर्चना सिंह

ऐसे हुआ गांव का कायापलट

गांव का कायापलट वर्ष 2004 में शुरू हुआ जब विर्दी ने हिमालय आर्क होमस्टे अभियान शुरू किया। यह कार्यक्रम महिलाओं द्वारा ही संचालित है। पर्यटकों को इस कार्यक्रम के तहत गांव के नजरिए से प्रकृति की खूबसूरती दिखाई जाती है। उनका रहना और खाना भी गांव में समुदाय के बीच होता है। पर्यटकों के लिए भांग की चटनी, मड़ुआ रोटी (रागी) और पहाड़ी राजमा जैसे स्थानीय उपज से पकाया जायकेदार भोजन भी उपलब्ध कराया जाता है।

पर्यटक न सिर्फ प्रकृति के बीच रहने का अनुभव लेते हैं बल्कि इच्छानुसार गांव वालों के साथ काम में हाथ भी बंटा सकते हैं। उनके साथ भोजन पका सकते हैं, कपड़ा बुनने का काम कर सकते हैं या फिर स्थानीय त्योहारों में भी शामिल हो सकते हैं। गांव के 20 परिवार पर्यटकों की मेहमान-नवाजी करते हैं और गाइड की भूमिका भी निभाते हैं। गांव की कुछ महिलाओं ने इस दौरान इलाके में मौजूद पशु-पक्षी और पेड़-पौधों की अच्छी जानकारी हासिल कर ली है ताकि  पर्यटकों को वहां की सटीक जानकारी उपलब्ध करा सकें।

ऐसी ही एक महिला हैं 37 वर्षीय बीना नाटिवाल। वे इलाके की सांस्कृतिक और पर्यावरण से संबंधित जानकारियां रखती हैं। उन्हें इन सब बातों से जुड़ा ज्ञान एक ट्रेनिंग के मार्फत मिला। बीते कई वर्षों से वह पर्यटकों को गांव की सैर पर ले जाती हैं और रास्ते में इलाके की हर तरह की जानकारियां बताती जाती हैं।

होमस्टे में रुकने वाले पर्यटकों को मुनस्यारी का स्थानीय खाना खिलाया जाता है। इसमें मडुआ की रोटी, भट का सूप और दूसरे स्थानीय व्यंजन शामिल हैं। तस्वीर-
होमस्टे में रुकने वाले पर्यटकों को मुनस्यारी का स्थानीय खाना खिलाया जाता है। इसमें मडुआ की रोटी, भट का सूप और दूसरे स्थानीय व्यंजन शामिल हैं। तस्वीर- अर्चना सिंह

मुनस्यारी एक जैव-विविधता वाला इलाका है और प्रकृति के संरक्षण लिहाज से महत्वपूर्ण है। अंतरराष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ (आईयूसीएन) के मुताबिक यहां 325 तरह की पक्षियों का बसेरा है। इस वजह से यह स्थान पक्षी प्रेमियों के आकर्षण का केंद्र है।

“आर्क हिमालय कार्यक्रम महिलाओं द्वारा ही संचालित होता है। इससे होने वाली 95 फीसदी आमदनी उन्हीं के पास जाती है। दो फीसदी खर्च पर्यावरण संरक्षण पर होता है जिसमें जंगल, झील और नदी संरक्षण शामिल है। बचे हुए पैसों का इस्तेमाल महिलाओं की ट्रेनिंग और दैनिक कामों पर किया जाता है,” कहती हैं मल्लिका विर्दी।

आर्क हिमालय कार्यक्रम के तहत गांव वालों ने पर्यटकों के लिए 2,438 मीटर से लेकर 3,780 मीटर के ट्रेक के अलावा अखरोट के जंगल में सैर करने जैसी गतिविधियों को शामिल किया है। गांव की इर्मा सुतयाल ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया कि उनके यहां दुनियाभर से अतिथि आते हैं और 10 से 15 दिन तक ठहरते हैं।

“हम घर आए अतिथियों को आराम से इलाके की संस्कृति और प्रकृति को समझने का मौका देते हैं। अमेरिका और यूरोप के देशों के अतिथि 10 से 15 दिन ठहरते हैं और इलाके को समझने की कोशिश करते हैं। वे इस दौरान हमारे परिवार का हिस्सा बन जाते हैं,” इर्मा ने बताया।

महिलाओं की भागीदारी से गांव का कायापलट हो रहा है। महिलाएं होमस्टे का काम संभालने के अलावा बुनाई का काम भी महिलाओं के जिम्मे है। तस्वीर-
महिलाओं की भागीदारी से गांव का कायापलट हो रहा है। होमस्टे का काम संभालने के अलावा बुनाई का काम भी महिलाओं के जिम्मे है। तस्वीर- अर्चना सिंह

बदलाव में लगा वर्षों का वक्त

एक पलायन करने वाले गांव से रोजगार देने वाले गांव में बदलाव में सरमोली को काफी वक्त लगा। विर्दी और अन्य महिलाओं के लगातार प्रयास से यह संभव हो पाया।

विर्दी पहली बार 1992 में आयीं थी। उस वक्त यह गांव शराब और गरीबी की चपेट में था। आए दिन घरेलू हिंसा के मामले सामने आते थे। जल्द ही उन्हें समझ में आ गया कि यह समस्या सिर्फ बात करने से नहीं सुलझने वाली। उन्होंने माटी संगठन के माध्यम से 1994 में शराबखोरी के खिलाफ आंदोलन चलाया।

“1992 में सरमोली में घरेलू हिंसा को लेकर कोई बात नहीं होती थी। माटी संगठन ने महिलाओं को आवाज दी। आज हालात एकदम बदले हुए हैं। इस मुहिम से न केवल घरेलू हिंसा खत्म हुई बल्कि महिलाओं ने अपने परिवार में खुद को मजबूत भी पाया। घर के जरूरी मामलों से जुड़े निर्णय में उनकी भागीदारी बढ़ी,” विर्दी ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया।

विर्दी ने उन महिलाओं को अपने मुहीम से जोड़ा जिन्हें एक समय घर से बाहर निकलने की अनुमति नहीं थी।

“पारंपरिक तौर पर सरमोली और मुनस्यारी के दूसरे गांव में पुरुष व्यापार करने तिब्बत जाते थे। उनकी गैरमौजूदगी में महिलाएं बुनाई का काम करती। ऊनी कपड़ा, गलियारा, कंबल जैसे सामान की तिब्बत में मांग थी। हालांकि 1960 में भारत-चीन युद्ध के बाद यह काम बंद हो गया। पर महिलाओं ने बुनाई का काम जारी रखा,” विर्दी बताती हैं।

उन्होंने गांव की महिलाओं के साथ बुनाई के काम को एक दिशा दी। नए डिजाइन बनाने में महिलाओं की मदद की और स्थानीय फूलों को डिजाइन में शामिल करवाया। महिलाओं को अपना काम बेहतर करने के लिए प्रशिक्षण दिया गया। अब उनके काम को देश के साथ विदेशों में भी बाजार मिलने लगा है।

48-वर्षीय महिला कमला पांडेय महिलाओं के इस मुहीम से शुरुआत से जुड़ी हैं। उन्होंने बताया कि इस काम की वजह से 60 से 70 परिवारों को रोजगार मिला है।

गांव में खाद्य सुरक्षा मुहीम भी चलाई गई जिसमें किसानों के उपज के लिए बाजार मुहैया कराया जाता है और 95 फीसदी लाभ किसानों को मिलता है। पांच फीसदी हिस्सा पैकिंग और भंडारण में खर्च होता है।

“हम महिला हाट का आयोजन करते हैं जहां महिलाएं आकर अपना सामान बेचती हैं। इसमें कपड़ों के अलावा खाने-पीने की चीजें भी होती हैं,” कमला पांडेय कहती हैं। इनके अनुसार शराबखोरी में कमी आने की वजह से कई घर टूटने से बच गए।

मुनस्यारी में बने ऊनी कपड़ा, गलियारा, कंबल जैसे सामान की तिब्बत में मांग थी। व्यापार बंद होने के बाद यह काम मंदा हो गया था। महिलाओं ने इसे एकबार फिर शुरू किया है। तस्वीर-
मुनस्यारी में बने ऊनी कपड़ा, गलियारा, कंबल जैसे सामान की तिब्बत में मांग थी। व्यापार बंद होने के बाद यह काम मंदा हो गया था। महिलाओं ने इसे एकबार फिर शुरू किया है। तस्वीर- अर्चना सिंह

माटी संगठन के माध्यम से इलाके में पिथौरागढ़ के अलावा दूसरे स्थानों पर भी लोगों को लाभ मिला है। कोविड-19 महामारी से पहले गांव के लोग अतिथियों का सत्कार कर साल में 3 लाख 75 हजार से अधिक की कमाई कर रहे थे।

बीना नाटीवाल कहती हैं कि एक समय अनजान लोगों के सामने अपना नाम भी बताने में हिचक होती थी, लेकिन अब उन्होंने कई देशों के लोगों को घर में ठहराया है।

“उन दिनों हमारे घर में पुरुष ही सारे निर्णय लेते थे। अब हमारी राय भी मायने रखती है। अब बच्चियों की पढ़ाई भी हो रही है,” उन्होंने बताया।

पर्यावरण संरक्षण में हिस्सेदारी ले रहे ग्रामीण महिलाओं ने एक साथ आकर अपने हालात तो बदले ही, गांव की स्थिति भी पहले से बेहतर की। आर्थिक स्थिति सुधरने के साथ यहां के लोगों ने पर्यावरण बचाने की तरफ भी ध्यान दिया। गांव में वन पंचायत की स्थापना हुई। प्रकृति के केंद्र में रखकर पर्यटन के तरीकों को निकाला गया, ताकि रोजगार के साथ पर्यावरण का भी संरक्षण हो सके। विर्दी ने ऊंचाई पर स्थित झील और जंगल के संरक्षण की योजनाएं बनाई।

उत्तराखंड सरकार भी इस गांव को एक सफल मॉडल की तरह देख रही है और इससे सीख लेकर दूसरे गांवों की सूरत बदलने की कोशिश कर रही है।

सिरमोली गांव में होमस्टे। दीन दयाल उपाध्याय होमस्टे योजना के तहत लोगों को अपने घर विकसित करने के लिए सरकार की तरफ से लोन दिया जाता है। तस्वीर-
सिरमोली गांव में होमस्टे। दीन दयाल उपाध्याय होमस्टे योजना के तहत लोगों को अपने घर विकसित करने के लिए सरकार की तरफ से लोन दिया जाता है। तस्वीर- अर्चना सिंह

पिथौरागढ़ के जिला पर्यटन विकास अधिकारी अमित लोहगानी ने मोंगाबे-हिन्दी से बातचीत में कहा कि सरमोली के होमस्टे कार्यक्रम से सरकार ने प्रेरणा ली है। इससे इकोटूरिज्म को बढ़ावा मिलेगा।

“हम मुनस्यारी, धर्मा और चौकोरी में होमस्टे को बढ़ावा दे रहे हैं। दीन दयाल उपाध्याय होमस्टे योजना के तहत लोगों को अपने घर विकसित करने के लिए सरकार की तरफ से लोन दिया जा रहा है। योजना के तहत 33 प्रतिशत सब्सिडी और 50 फीसदी रकम ब्याज रहित कर्ज के रूप में उपलब्ध कराया जा रहा है। स्थानीय लोगों के लिए प्रशिक्षण के कार्यक्रम भी आयोजित किए जा रहे हैं ताकि वे आसानी से अपना होमस्टे चला सके,” लोहगानी बताते हैं।

लोहानी ने बताया कि सरकार की वेबसाइट पर होमस्टे को प्रमोट करने का सेक्शन भी है। उन्हें जैविक खाना उपजाना, प्लास्टिक वेस्ट कम करना और पर्यावरण बचाने के तरीके भी सिखाए जा रहे हैं।

 

बैनर तस्वीरः गांव में वन पंचायत की बैठक के दौरान ग्रामीण महिलाओं के बीच मल्लिका विर्दी। तस्वीर- अर्चना सिंह

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