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जलवायु संकट के सवाल पर बिहार को क्यों सौ में सिर्फ 16 नंबर मिले?

बिहार में वर्ष 2008 में आई भीषण बाढ़ की तस्वीर। मौसम के बिगड़ जाने की स्थिति में प्रति एक करोड़ में होने वाली मौत के मामले में तो बिहार के आंकड़े ही उपलब्ध नहीं हैं, लेकिन हर साल सैकड़ों लोगों की जान जाती है। तस्वीर- पब्लिक रिसोर्स डॉट ऑर्ग/फ्लिकर

बिहार में वर्ष 2008 में आई भीषण बाढ़ की तस्वीर। मौसम के बिगड़ जाने की स्थिति में प्रति एक करोड़ में होने वाली मौत के मामले में तो बिहार के आंकड़े ही उपलब्ध नहीं हैं, लेकिन हर साल सैकड़ों लोगों की जान जाती है। तस्वीर- पब्लिक रिसोर्स डॉट ऑर्ग/फ्लिकर

  • नीति आयोग की हालिया रिपोर्ट में बिहार सरकार के प्रयासों को क्लाइमेट एक्शन के संदर्भ में विफल बताया गया। बिगड़े मौसम की वजह से आने वाली आपदाओं का मुकाबला करने और हरित ऊर्जा को बढ़ावा देने में राज्य के प्रयास कारगर नहीं।
  • जबकि कभी बिहार से ही अलग होकर स्वतंत्र राज्य बने और जलवायु परिवर्तन और आपदाओं के मामले में बिहार से भी अधिक संवेदनशील राज्य ओडिशा को सौ में 70 अंक देकर पहले स्थान पर रखा गया है।
  • विशेषज्ञ मानते हैं कि सरकार को डिनायल मोड से बाहर निकलने, मिशन मोड में काम करने और वैकल्पिक ऊर्जा के साधनों को अपनाने के साथ, इस मसले पर समाज के वंचित समुदाय को भागीदार बनाने की भी जरूरत है।

नीति आयोग की सतत विकास लक्ष्य से जुड़ी रिपोर्ट में बिहार के इस बार भी सबसे आखिरी पायदान पर होने की खबर तो चर्चा में है ही, इस रिपोर्ट की सबसे चौंकाने वाली सूचना यह है कि राज्य क्लाइमेट एक्शन नामक एसडीजी 13 के इंडेक्स में भी न सिर्फ आखिरी स्थान पर है, बल्कि उसे सौ में सिर्फ 16 अंक मिले हैं।

लोगों को यह खबर हैरतअंगेज इसलिए भी लग रही है, क्योंकि पिछले कुछ वर्षों से सरकार लगातार यह दावा कर रही है कि वह पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन के खतरों को समझ रही है और गंभीरता से उस पर काम कर रही है। मगर बिहार सरकार के उन प्रयासों को नीति आयोग ने लगभग पूरी तरह खारिज कर दिया है, तभी उसे सौ में सिर्फ 16 अंक मिले हैं, जबकि कभी बिहार से ही अलग होकर स्वतंत्र राज्य बने और जलवायु परिवर्तन और आपदाओं के मामले में बिहार से भी अधिक संवेदनशील राज्य ओडिशा को सौ में 70 अंक देकर पहले स्थान पर रखा है।

कभी बीमारू राज्यों में गिनती पाने वाला ओडिशा प्रांत जो अक्सर समुद्री तूफानों की चपेट में आ जाता है, ने आपदाओं का सामना करने की अपनी क्षमता बढ़ाकर, स्वास्थ्य सुविधाओं को बेहतर बनाकर और हरित ऊर्जा के उपयोग को बढ़ावा देकर इस लक्ष्य में एक झटके में बढ़त हासिल कर ली। पिछले साल वह 15वें स्थान पर था। मगर इसके उलट बिहार में घोषणाएं और दावे तो बहुत हुए मगर संभवतः उन पर ठीक से अमल नहीं हुआ।

सहरसा के सिमरी बख्तियारपुर के पास एक अतिरिक्त प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में भरा भूसा। स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति भी काफी दयनीय है। तस्वीर- पुष्यमित्र
सहरसा के सिमरी बख्तियारपुर के पास एक अतिरिक्त प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में भरा भूसा। स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति भी काफी दयनीय है। तस्वीर- पुष्यमित्र

जलवायु परिवर्तन के मसले पर काम करने के बिहार सरकार के दावे

दिलचस्प है कि बिहार देश का पहला राज्य है जिसने अपने एक विभाग के नाम में जलवायु परिवर्तन को जोड़ा है। राज्य का वन एवं पर्यावरण विभाग काफी अरसे से वन, पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन विभाग के नाम से जाना जाता है। 2019 में बिहार सरकार ने इस विभाग के अंतर्गत जलवायु परिवर्तन डिवीजन का भी गठन किया, जिसका काम था जलवायु परिवर्तन से निबटने के लिए एक्शन प्लान तैयार करना और उसे प्रभावी तरीके से लागू करना। हालांकि दो साल बीत जाने पर भी राज्य सरकार जलवायु परिवर्तन को लेकर अपना एक्शन प्लान तैयार नहीं कर पायी है। पहले यह काम ब्रिटिश सरकार की डिपार्ट्मन्ट फॉर इंटरनेशनल डेवलपमेंट (डीएफआईडी) द्वारा तैयार कराया जा रहा था, अब इसकी जिम्मेदारी यूएन (संयुक्त राष्ट्र) एनवायरमेंट प्रोग्राम को दी गयी है।

नवंबर, 2019 में सरकार ने जलवायु संकट का सामना करने में सक्षम नये फसल चक्र की शुरुआत की। सरकार का दावा है कि इस नये फसल चक्र को अपनाकर राज्य के किसान जलवायु संकट का सामना कर पाने में सक्षम होंगे और मौसम के अप्रत्याशित बदलाव से सुरक्षित रहेंगे। हालांकि इस कार्यक्रम में अब तक मुख्यतः कृषि उपकरणों को बढ़ावा देने की प्रक्रिया ही अपनायी गयी है।

साल 2019 में ही राज्य सरकार ने जल, जीवन हरियाली मिशन की शुरुआत की थी। इसके लिए 24,524 करोड़ का फंड निर्धारित किया गया है। इसके तहत बड़े पैमाने पर पौधरोपण, तालाबों और कुओं का जीर्णोद्धार किया जाना है। हालांकि इस मिशन को अब तक किसी कार्य में अपेक्षित सफलता नहीं मिली है।

बिहार के जामनापुर गांव की तस्वीर। नवंबर, 2019 में सरकार ने जलवायु संकट का सामना करने में सक्षम नये फसल चक्र की शुरुआत की। सरकार का दावा है कि इस नये फसल चक्र को अपनाकर राज्य के किसान जलवायु संकट का सामना कर पाने में सक्षम होंगे और मौसम के अप्रत्याशित बदलाव से सुरक्षित रहेंगे। तस्वीर- पी कैसियर (सीजीआईएआर)/फ्लिकर
बिहार के जामनापुर गांव की तस्वीर। नवंबर, 2019 में सरकार ने जलवायु संकट का सामना करने में सक्षम नये फसल चक्र की शुरुआत की। सरकार का दावा है कि इस नये फसल चक्र को अपनाकर राज्य के किसान जलवायु संकट का सामना कर पाने में सक्षम होंगे और मौसम के अप्रत्याशित बदलाव से सुरक्षित रहेंगे। तस्वीर– पी कैसियर (सीजीआईएआर)/फ्लिकर

इस साल सरकार ने पर्यावरण दिवस के मौके पर दावा किया कि राज्य द्वारा बड़े पैमाने पर कराये गये पौधरोपण अभियान की वजह से बिहार का हरित आवरण नौ फीसदी से बढ़ कर 16 फीसदी हो गया है। हालांकि जानकार लोगों का मानना है कि पौधरोपण के कार्य में जमीनी स्तर पर काफी अनियमितता देखी गयी और इन्हें सुरक्षित रखने के भी उपाय नहीं किये गये।

हालांकि नीति आयोग की रिपोर्ट बिहार सरकार के इन दावों को सिरे से खारिज करती नजर आ रही है।

पांच मानकों के आधार पर जारी हुई है नीति आयोग की रिपोर्ट

नीति आयोग की इस रिपोर्ट में क्लाइमेट एक्शन वाले खंड में जिन पांच मानकों के आधार पर यह रैंकिंग तैयार की गयी है, उनमें मौसम के बिगड़ जाने की स्थिति में प्रति एक करोड़ में होने वाली मौत, आपदा की तैयारी, कुल ऊर्जा उत्पादन के अनुपात में वैकल्पिक ऊर्जा का उत्पादन, एलईडी बल्व का इस्तेमाल और बीमारी और अन्य वजहों से हुई जीवन क्षति को रखा है।

मौसम के बिगड़ जाने की स्थिति में प्रति एक करोड़ में होने वाली मौत के मामले में तो बिहार के आंकड़े ही उपलब्ध नहीं हैं, मगर यह समझा जा सकता है कि सिर्फ बाढ़ से बिहार में 2019 में 300 इंसानों की मौत हुई थी, बज्रपात से 216 लोगों की और हीट वेब (लू) से 292 लोगों की मौत हुई। शीतलहर और अन्य वजहों को छोड़ भी दिया जाये तो सिर्फ इन्हीं आंकड़ों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि लगभग 13 करोड़ की आबादी वाले राज्य में मौसम बिगड़ने से प्रति एक करोड़ 60 से अधिक लोगों की मौतें होती हैं। जबकि इस मानक में राष्ट्रीय औसत 15.44 है, इसे 2030 तक शून्य तक ले जाने का लक्ष्य है।

आपदाओं का मुकाबला करने की तैयारी के मामले में बिहार को 19.5 अंक मिले हैं, जो लगभग राष्ट्रीय औसत 19.2 के बराबर है। इसे 2030 तक 50 अंक तक ले जाने का लक्ष्य है।

कुल ऊर्जा उत्पादन के अनुपात में वैकल्पिक ऊर्जा के उत्पादन के मामले में बिहार 40 फीसदी के लक्ष्य के मुकाबले सिर्फ 7.9 फीसदी हासिल कर पाया है। उसे अपने टारगेट को हासिल करने के लिए दूसरे राज्यों से हरित बिजली को खरीदना पड़ता है। इस बारे में विस्तार से यहां पढ़ सकते हैं। प्रति एक हजार की आबादी पर एलईडी बल्व के इस्तेमाल में भी बिहार काफी पीछे है। राष्ट्रीय औसत 28.24 के मुकाबले बिहार में यह संख्या सिर्फ 16.65 है।

सहरसा जिले में कोसी के किनारे के एक गांव की तस्वीर। बिहार के कई जिलों में बाढ़, आंधी तूफान, बज्रपात आदि आपदाएं यहां नियमित हैं। तस्वीर- अजय कुमार
सहरसा जिले में कोसी के किनारे के एक गांव की तस्वीर। बिहार के कई जिलों में बाढ़, आंधी तूफान, बज्रपात आदि आपदाएं यहां नियमित हैं। तस्वीर- अजय कुमार

डिसेबिलिटी एडजस्टेड लाइफ ईयर (डेली) यानी बीमारी और अन्य वजहों से जीवन अवधि की क्षति के मामले में भी बिहार की रैंकिग काफी कमजोर है। यानी गंभीर बीमारियों और अन्य वजहों से बिहार में प्रति एक लाख की आबादी में 4308 लोग प्रभावित होते हैं, जबकि राष्ट्रीय औसत 3469 है और एसडीजी का लक्ष्य इसे 1442 तक ले जाना है।  

जाहिर है कि इन आंकड़ों को देखकर सहज ही समझ आता है कि जलवायु संकट का मुकाबला करने की दिशा में बिहार सरकार ने फोकस्ड काम नहीं किया। जिस वजह से नीति आयोग ने उसे सौ में सिर्फ 16 अंक दिये।

नीति आयोग कि रिपोर्ट के मानकों में बड़ा सवाल हरित उर्जा के उत्पादन का भी है। इस दिशा में बिहार में अब तक कोई गंभीर काम नहीं हुआ है।


और पढ़ेंः जलवायु परिवर्तन की चपेट में बिहार, लेकिन बचाव का कोई एक्शन प्लान नहीं


जलवायु संकट का सामना कर रहे देश के 50 जिलों में से बिहार के 15

जलवायु संकट से निपटने की बिहार सरकार की इस कमजोर तैयारी चिंताजनक है क्योंकि जलवायु संकट का सामना करने में देश के 50 कमजोर जिलों में बिहार के 15 जिले शामिल हैं।

इस रिपोर्ट में बिहार के जिन 15 जिलों का जिक्र है, उनमें बारह उत्तर बिहार के हैं, जो हिमालय की तराई में स्थित हैं। ये जिले भीषण किस्म के मौसमी आपदाओं का सामना करते हैं। बाढ़, आंधी तूफान, बज्रपात आदि आपदाएं यहां नियमित हैं। इन जिलों में स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति भी काफी दयनीय है। राज्य का एक भी जिला कम खतरे वाली स्थिति में नहीं है। इस रिपोर्ट के मुताबिक राज्य के 38 में से 36 जिलों में स्वास्थ्य सुविधाओं की स्थिति काफी नाजुक है।

हालांकि ऐसा लगता नहीं है कि बिहार सरकार ने इन रिपोर्टों को सकारात्मक संदर्भ में लिया है। राज्य के शिक्षा मंत्री विजय कुमार चौधरी ने तो नीति आयोग की रिपोर्ट के डेटा कलेक्शन की पद्धति,  उसके मूल्यांकन और पेश करने के तरीके पर ही सवाल उठा दिया और इसे विकासशील अर्थव्यवस्था के मानकों के प्रतिकूल बताया। वहीं सत्ताधारी दल जदयू के संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष उपेंद्र कुशवाहा ने  ट्वीट कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से बिहार को विशेष दर्जा देने की मांग कर दी। उन्होंने कहा कि झारखंड के अलग होने के बाद से बिहार लगातार सीएम नीतीश कुमार की अगुआई में बढ़ने की कोशिश कर रहा है, लेकिन नीति आयोग की हालिया रिपोर्ट से जाहिर है कि वर्तमान दर से इसका दूसरे राज्यों की बराबरी करना मुमकिन नहीं है।

 सुपौल जिले में बाढ़ पीड़ित इलाके के अपने गांव को देखता एक व्यक्ति। जलवायु संकट का सामना करने में देश के 50 कमजोर जिलों में बिहार के 15 जिले शामिल हैं। तस्वीर- पुष्यमित्र
सुपौल जिले में बाढ़ पीड़ित इलाके के अपने गांव को देखता एक व्यक्ति। जलवायु संकट का सामना करने में देश के 50 कमजोर जिलों में बिहार के 15 जिले शामिल हैं। तस्वीर- पुष्यमित्र

जाहिर है कि सरकार से जुड़े लोग और सत्ताधारी दल इन रिपोर्टों की सच्चाई को लेकर बहुत गंभीर नहीं हैं। हमने जब इस मसले पर बिहार में लंबे समय से पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन पर काम कर रहे एकलव्य प्रसाद से बातचीत की तो उन्होंने कहा कि सबसे पहले तो हमें इस सच्चाई को स्वीकार करना चाहिए कि हमारी स्थितियां बेहतर नहीं है। जब तक हम डिनायल मोड से बाहर नहीं निकलेंगे, कोई बदलाव मुमकिन नहीं है।

यह पूछे जाने पर कि ओड़िशा ने कैसे क्लाइमेट एक्शन के मसले पर एक साल में अपनी स्थिति को सुधार लिया और हम यह काम क्यों नहीं कर पा रहे तो उन्होंने कहा- वहां काम काज का एक इंटीग्रेटेड अप्रोच होता है। अगर किसी आपदा के वक्त सरकारी अधिकारी लोगों को बचाव कर बाहर लाते हैं तो फिर वे उस व्यक्ति का अंत तक ध्यान रखते हैं, उसके खाने-पीने, रहने और वापस अपने घरों तक लौटने का काम पूरी जिम्मेदारी से करते हैं। मगर अपने यहां ऐसी ही स्थिति है, यह दावे से नहीं कहा जा सकता। आपदा प्रबंधन विभाग के ही आंकड़े कहते हैं कि पिछले साल बाढ़ के वक्त साढ़े छह लाख लोगों को सुरक्षित बचाकर बाहर निकाला गया, मगर राहत कैंपों में रहने वालों की संख्या कुछ हजारों में थी। बांकी लोग कहां गये, इसकी चिंता विभाग को होनी चाहिए थी। ऐसा तभी होगा जब सरकार मिशन मोड में काम करेगी।

इसके अलावा उन्होंने यह भी कहा कि सरकार अगर क्लाइमेट एक्शन प्लान तैयार करा रही है तो उसमें विशेषज्ञों के साथ-साथ उन लोगों को भी शामिल करना चाहिए जो लगातार जलवायु संकट के खतरों का सामना कर रहे हैं। हमने उनलोगों से बातचीत की है, हमारा अनुभव है कि उनकी राय कई दफा विशेषज्ञों की राय से अधिक कारगर और व्यावहारिक होती है।

इस मसले पर असर संस्था से जुड़ी इन्वायरमेंटल एक्टिविस्ट प्रिया पिल्लई कहती हैं कि जलवायु संकट के मसले को जब तक सामाजिक न्याय से जोड़कर नहीं देखा जायेगा इसका समाधान सही तरीके से नहीं हो सकता।


और पढ़ेंः बिहारः कोसी सीमांचल के किसानों को मौसम की मार से छुटकारा दिला रहा मखाना


 

बैनर तस्वीरः बिहार में वर्ष 2008 में आई भीषण बाढ़ की तस्वीर। मौसम के बिगड़ जाने की स्थिति में प्रति एक करोड़ में होने वाली मौत के मामले में तो बिहार के आंकड़े ही उपलब्ध नहीं हैं, लेकिन हर साल सैकड़ों लोगों की जान जाती है। तस्वीर– पब्लिक रिसोर्स डॉट ऑर्ग/फ्लिकर

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