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[साक्षात्कार] संरक्षण और मानव-वन्यजीव टकराव की ओर ध्यान आकर्षित करने का एक गंभीर प्रयास है शेरनी

फिल्म शेरनी के एक दृष्य में जंगल का मुआयना करती अभिनेत्री विद्या बालन। तस्वीर साभार- शेरनी फिल्म

फिल्म शेरनी के एक दृष्य में जंगल का मुआयना करती अभिनेत्री विद्या बालन। तस्वीर साभार- शेरनी फिल्म

  • हाल ही में रिलीज फिल्म शेरनी में निर्देशक और पटकथा लेखक ने आज के समय की कुछ अहम चुनौती को बड़े सलीके से रुपहले परदे पर उतारा है। विद्या बालन अभिनीत इस फिल्म में मानव-वन्यजीव टकराव और संरक्षण के साथ-साथ जंगल और उसके इर्द-गिर्द रहने वाले समुदाय के यथार्थवादी और मार्मिक चित्रण किया गया है।
  • इस फिल्म में कुछेक किरदारों को छोड़ दिया जाए तो अधिकतर किरदार जंगल के आस-पास रहने वाले ग्रामीणों ने ही निभाए हैं जो पूरी तरह से जंगल से वाकिफ हैं। शायद यही वजह है कि यह फ़िल्म किसी नाटकीयता से दूर जमीनी मुद्दे का सजीव चित्रण कर पाने में सफल हुई है।
  • फिल्म के निर्देशक अमित मसुरकर और पटकथा लेखक आस्था टिकु की मानें तो ऐसी फिल्मों का अपना दर्शक-वर्ग है जो लोकतान्त्रिक मूल्यों, बदलते पर्यावरण और जर-जंगल से जुड़े मुद्दों से खुद को जुड़ा पाता है।

जंगल और जैव-विविधता के मामले भारत की दुनिया में ख़ास पहचान है। ग्लोबल फॉरेस्ट वॉच संस्था के अनुसार दुनिया के वनस्पतियों और जीवों के कुल दर्ज़ प्रजातियों का लगभग आठ फ़ीसदी भारत में हैं और विश्व के 34 जैव विविध हॉटस्पॉट में से चार भारत में स्थित है। देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र का लगभग एक चौथाई में जंगल है। इन सारी खूबसूरती के बीच इसकी अपनी चुनौतियां हैं। वर्ष 2011 के जनगणना के अनुसार कुल 1,70,000 के क़रीब गांव जगलों आसपास बसे हुए है और किसी न किसी प्रकार से आजीविका के लिए जंगल पर निर्भर हैं। इनकी अपनी व्यथा-कथा है। 

जनसंख्या वृद्धि, औद्यौगिक विकास और वातावरण में बदलाव ने हमारे प्राकृतिक जंगल, जैव विविधता और इसपे निर्भर समुदायों के बीच के परस्पर सामंजस्य को भारी नुक़सान पहुंचाया है और पहुंचा रहे हैं। बिगड़ते पारिस्तिथिकी तंत्र के कई परिणाम सामने हैं जिनमे से मानव-वन्यजीव टकराव एक बड़ा मसला है और संरक्षण की सबसे बड़ी चुनौती भी। वर्ष 2014 से 2019 तक में क़रीब 2500 लोग मानव-वन्यजीव टकराव में मारे  गए, जबकि इसी दरम्यान 500 से ज़्यादा हाथी भी मौत के शिकार हुए। मारे गए लोगों में से 200 से ज़्यादा बाघ से टकराव के कारण मृत्यु को प्राप्त हुए।   

पर इससे भी बड़ी बात यह है कि संख्या में यह समस्याएं चाहे जितनी बड़ी दिखें पर विचार-विमर्श में अभी भी हाशिये पर ही हैं। इनको मुख्यधारा की बहस में जगह नहीं मिल पाती। ऐसे में बॉलीवुड में इस मुद्दे पर फिल्म बनना अहम हो जाता है क्योंकि भारतीय समाज में बॉलीवुड और क्रिकेट का महत्व सर्वविदित है। हाल ही में रिलीज शेरनी फिल्म ने इसे बखूबी किया है। इस फिल्म में न केवल वन्यजीव और इंसानों के बीच के टकराव को दिखाया गया है बल्कि जंगल के इर्द-गिर्द रहने वाले समाज का भी बखूबी चित्रण किया गया है। वन विभाग की कार्यशैली के बीच एक स्त्री का अधिकारी के तौर पर सक्रिय होना कहानी में एक और तह जोड़ता है। इतने संवेदनशील, जटिल मुद्दे को बारीकी से रुपहले परदे पर उतारने की अपनी चुनौती रही होगी। इन सब बातों को समझने के लिए मोंगाबे-हिन्दी ने शेरनी के निर्देशक अमित मसुरकर और पटकथा लेखक आस्था टीकु से बातचीत की। 

फिल्म शेरनी के सेट काम करते फिल्म के निर्देशक अमित मसुरकर और पटकथा लेखक आस्था टिकु। तस्वीर साभार- अमित मसुरकर और आस्था टिकु
फिल्म शेरनी के सेट काम करते फिल्म के निर्देशक अमित मसुरकर और पटकथा लेखक आस्था टिकु। तस्वीर साभार- अमित मसुरकर और आस्था टिकु

प्रश्न: जंगल संरक्षण और आदिवासी समुदायों के जीवन से जुड़े विभिन्न पहलु के इर्द गिर्द भारत में ज़्यादा फ़िल्में नहीं बनतीं। पर आपने पिछली दो फिल्मों में इन्हीं मुद्दों को चुना है, इन विषयों को चुनने की क्या वैचारिक प्रक्रिया रही है? 

अमित मसुरकर: मैं इन मुद्दों से जुड़ा महसूस करता हूं इसलिए मैंने ये मुद्दे उठाए हैं। मुझे पता था कि दर्शकों का एक बड़ा हिस्सा है जो ऐसी कहानियों से कनेक्ट करेगा। सिनेमा एक शक्तिशाली माध्यम है लोगों तक अपनी बात पहुंचाने का। ये लोक संस्कृति और समाज को एक नई दिशा दे सकता है। 

प्रश्न: मानव और वन्यजीव के बीच टकराव हमारे समय का एक गंभीर मसला है। आपको इस मुद्दे पर फ़िल्म की कहानी बुनने की प्रेरणा कैसे मिली? 

आस्था टीकु: पर्यावरण में बदलाव और संरक्षण संवेदनशील मुद्दे हैं जिन्हें दर्शकों तक पहुंचाने की जरूरत है। मानव समाज के अस्तित्व के हिसाब से भी यह महत्वपूर्ण मुद्दा है। लेकिन इस विषय का फलक बहुत विस्तार लिए हुए है और इस पर काम करने के खतरे भी हैं। फिर भी, मैंने इसे एक इंसान की कहानी के रूप में कहने की सोची जो जिससे लोग जुड़ाव महसूस कर सकें। ऐसी कहानी जिससे लोगों का ध्यान इन मुद्दों की तरफ जाए और लोगों के मन में इस विषय को और अधिक जानने-समझने की जिज्ञासा बने। 

फिल्म शेरनी का एक दृष्य। तस्वीर साभार- फिल्म शेरनी
फिल्म शेरनी का एक दृष्य। तस्वीर साभार- फिल्म शेरनी

प्रश्न: बॉलीवुड में सितारों के इर्द-गिर्द ही फिल्में बनती हैं ऐसे में आपके के लिए न्यूटन और शेरनी जैसी फ़िल्म्स बनाना आसान नहीं रहा होगा। आप लोकतंत्र, आदिवासी जीवन और पर्यावरण से जुड़े मुद्दों पे यथार्थवादी कहानियां कैसे उठा लेते हैं? क्या इस भरोसे में आसानी से उपलब्ध हो रहे (ओवर-द-टॉप) ओ टी टी मंचों की कोई भूमिका है?

अमित मसुरकर: ऐसी फ़िल्में बनने में सबसे बड़ी चुनौती है कहानी का लिखा जाना। न्यूटन या शेरनी बनाते वक्त मुझे कलाकार और निर्माता खोजने में कोई परेशानी नही हुई। आज के ज़माने के अदाकार और निर्माता ऐसी कहानियों के तलाश में रहते हैं जोकि समाजिक सरोकार लिए हों और थोड़ी अलहदा हों। 

प्रश्न: फ़िल्म का कथानक महाराष्ट्र के यवतमाल में मारी गई शेरनी अवनि से मिलती जुलती है। आपने इस कहानी को लिखने के लिए एक वास्तविक घटना को क्यों चुना, आपने इस पर शोध के लिए क्या तरीके अपनाए?

आस्था टीकु: अगर आप मानव और वन्यजीव के बीच टकराव की बात करें तो यह सिर्फ भारत के किसी एक स्थान की समस्या नहीं है। न केवल भारत के विभिन्न क्षेत्रों में बल्कि दुनिया के उन हिस्सों में भी यह बड़ा मुद्दा है जहां वन्यजीव मौजूद हैं। इस तरह के कई मामलों पर विस्तृत शोध के बाद ही यह कहानी लिखी गई, न कि किसी एक खास कहानी से प्रेरित होकर। 

फिल्म में विद्या बालन मुख्य भूमिका में हैं। उन्होंने महिला आईएफएस अधिकारी विद्या विन्सेंट का किरदार निभाया है। तस्वीर साभार- फिल्म शेरनी
फिल्म में विद्या बालन मुख्य भूमिका में हैं। उन्होंने महिला आईएफएस अधिकारी विद्या विन्सेंट का किरदार निभाया है। तस्वीर साभार- फिल्म शेरनी

प्रश्न: यह फ़िल्म एक महिला किरदार के इर्द-गिर्द घूमती है। यह किरदार पुरूष वर्चस्व वाले जंगलात महकमें में ख़ुद को कुछ वैसे असहज पाती होगी जैसे रिहायशी इलाके में चले जाने पर एक शेरनी महसूस करेगी। आपने महिला आई एफ एस अधिकारी विद्या विन्सेंट के किरदार को कैसे लिखा?

आस्था टीकु: एक महिला लेखक के रूप में मेरा झुकाव स्वाभाविक रूप से महिला पात्र रचने की तरफ़ रहता है। मेरे लिए एक ऐसा किरदार बनाना महत्वपूर्ण था जिसका दुनिया को देखने का एक अलग नज़रिया हो। जेंडर फिल्म का उप-कथानक है और यह सोच-विचार कर किया गया क्योंकि मुझे लग रहा था कि इस तरह की कहानी कहने के लिए सिर्फ लिंग/ जेंडर के बारे में बात करने से बात नहीं बनेगी। इसलिए कथानक का केंद्र में  हमेशा संरक्षण और मानव-वन्यजीव टकराव ही रहा और इसे विस्तार से समझने की कोशिश की गयी। 

प्रश्न: फ़िल्म के सारे छोटे-बड़े किरदार विविध और वास्तविक दिखते हैं। आपने इतनी बारीकी से इन किरदारों को कैसे लिखा, ख़ासकर जंगल विभाग के काम करने के तौर-तरीके पर शोध की क्या प्रक्रिया रही? 

आस्था टीकु: मैं हमेशा कहती हूं की कोई भी काल्पनिक कहानी लिखने के लिए गहन शोध जरुर किया जाना चाहिए। फ़िल्म की कहानी के लिए हर तरह के शोध किये गए जिसमें लोगों से मिलने-जुलने से लेकर उपलब्ध किताबों, ऑनलाइन मटीरीअल इत्यादि का भी सहारा लिया गया। इसमें उत्तर उपनिवेशवाद के विचारकों को पढ़ना-लिखना भी शामिल रहा। शेरनी के लिए हमने संरक्षण के विषय का वृहत अध्ययन किया। शायद यही वजह है कि कहानी के लिए परिवेश और किरदारों को सूक्ष्मता से गढ़ पाना संभव हो पाया। 

फिल्म के कुछ कलाकारों को छोड़ दें तो अधिकतर किरदार स्थानीय लोगों ने ही निभाए हैं। तस्वीर साभार- फिल्म शेरनी
फिल्म के कुछ कलाकारों को छोड़ दें तो अधिकतर किरदार स्थानीय लोगों ने ही निभाए हैं। तस्वीर साभार- फिल्म शेरनी

प्रश्न: शेरनी जंगल के आसपास बसने वाले समुदाय और उनके वन्यजीव के साथ होने वाले परस्पर संघर्ष को बहुत ही विश्वसनीय तरीके से दर्शाती है। फ़िल्म में गांव वालों के किरदार में पेशेवर कलाकार हैं या उसी समुदाय के लोग हैं जो असल जीवन में इस संघर्ष का सामना करते हैं, आप उनके अभिनय को इतना जीवंत कैसे बना सके ?  

अमित मसुरकर: ज्योति का किरदार अदा करने वाली सम्पा मंडल, जो राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से प्रशिक्षित हैं, को छोड़कर बाकी के गांव वाले खुद के किरदार खुद ही निभा रहे थेl फ़िल्म में दिखाए गए लोग उसी गांव या आसपास के रहने वाले हैं जहां पर गांव के दृश्यों को फिल्माया गया। गांव वालों के किरदार के लिए अदाकार चुनने के लिए हमलोगों ने अभिनय कार्यशाला का आयोजन किया और फिर उस कार्यशाला में भाग लेने वाले लोगों में से हमने कलाकार चुने। सभी चुने गए कलाकारों को कहानी, उनके दृश्य और उनके द्वारा निभाए जाने वाले किरदारों की पहले से जानकारी थी। 

प्रश्न: जहां लोग असल ज़िंदगी में वन्यजीवों से संघर्ष का सामना करते हों , वैसे स्थानों पर फिल्मांकन की क्या चुनौतियां रहीं? फिल्म की शूटिंग के दौरान क्या आप उनके संघर्ष को महसूस कर पाए?

अमित मसुरकर: भूतपलासी और जोंडरा वे गांव हैं जहां पर हमने खेत और गांव के दृश्यों को फिल्माया है। ये गांव जंगल के सीमा पर बसे हुए हैं पर संयोगवश यहां के लोगों ने वन्यजीवों के साथ जीवन का सामंजस्य बैठा लिया है। इनका सामना कभी कभार तेंदुए से हो जाता है पर ये लोग सतर्क रहते हैं। हमने फिल्मांकन के दौरान कभी डर महसूस नहीं किया। 

भूतपलासी और जोंडरा गांव में फिल्म की शूटिंग हुई है। यहां खेत और गांव के दृश्यों को फिल्माया है। ये गांव जंगल के सीमा पर बसे हुए हैं पर संयोगवश यहां के लोगों ने वन्यजीवों के साथ जीवन का सामंजस्य बैठा लिया है। तस्वीर साभार- फिल्म शेरनी
भूतपलासी और जोंडरा गांव में फिल्म की शूटिंग हुई है। यहां खेत और गांव के दृश्यों को फिल्माया है। ये गांव जंगल के सीमा पर बसे हुए हैं पर संयोगवश यहां के लोगों ने वन्यजीवों के साथ जीवन का सामंजस्य बैठा लिया है। तस्वीर साभार- फिल्म शेरनी

प्रश्न: जंगल, जानवर और टकराव के दृश्यों को बेहद संवेदनशीलता के साथ फिल्माया गया है और अति-नाटकीय होने से बचा गया है, जो कि महत्वपूर्ण है। क्योंकि फिल्म के पृष्ठभूमि में पर्यावरण संरक्षण के मुद्दे सूक्ष्म रूप से मौजूद है, ऐसे में सचेतन फिल्मांकन क्यों जरुरी हो जाता है?

अमित मसुरकर: इस कहानी को ऐसे ही दिखाया जा सकता था। बिना ईमानदार और संवेदनशील चित्रण के ऐसे मुद्दों पर एक असरदार फ़िल्म बनाना मुश्किल है। इस फिल्म में वही दिखाया गया है जो हमारे चारों-तरफ हो रहा है। हमारे जंगल और वन्यजीवों का ठौर-ठिकाना दिन-ब-दिन घट रहा है, उनकी प्रजातियां विलुप्त होती जा रहीं हैं। पर्यावरण में तेज़ी से बदलाव हो रहा है।    

प्रश्न: शेरनी बाकी के जंगल फ़िल्मों से काफी अलग है। क्या कहानी लिखते समय आपको यह भरोसा था कि बॉलीवुड की मुख्यधारा में इस विषय पर फिल्म बन जाएगी? 

आस्था टीकु: कहानी कहने के लिए एक लेख़क के पास उस कहानी के बारे में एक स्थापित विश्व दर्शन जरूर होना चाहिए। उन्हें कहानी के मिज़ाज के ऊपर स्पष्ट पकड़ होना चाहिए। हमारा इरादा दर्शकों को गुदगुदाना या रोमांच पैदा करना नहीं था।  या कहें बेकार की नाटकीयता रचने का या सैनिकों का इस्तेमाल कर उन्हें बांधे रखने का नहीं था। यह ऐसा विषय है जिसके लिए एक ईमानदार परिवेश रचने की जरूरत थी। यह जरूरी था कि हम दर्शकों के मनोरंजन करने का दबाव अपने ऊपर न आने दें। मेरी राय में एक ईमानदार कृति अपनी ज़मीन तलाश ही लेती है।   


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बैनर तस्वीरः फिल्म शेरनी के एक दृष्य में जंगल का मुआयना करती अभिनेत्री विद्या बालन। तस्वीर साभार- शेरनी फिल्म

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