- 130 मेगावाट की पनबिजली परियोजना के लिए कोसी नदी पर दूसरे बराज और गाइड बांध बनाने की तैयारी चल रही है।
- पहले भी कोसी परियोजना की वजह से 300 गांवों के लाखों लोग विस्थापित हुए थे, उनका ठीक से पुनर्वास नहीं हुआ, अब यह उन पर दोहरा आघात होगा।
- कोसी नदी पर साठ के दशक में बना कटैया पावर हाउस बुरी तरह असफल रहा, मगर सरकार उस अनुभव से सीखने के लिए तैयार नहीं।
बिहार के कोसी नदी के इलाके में इन दिनों अचानक फिर से डगमारा परियोजना से जुड़ी गतिविधियां तेज हो गयी हैं। लंबे समय से प्रस्तावित 130 मेगावाट क्षमता वाली इस योजना पर काम करने के लिए 1 जून, 2021 को बिहार राज्य के कैबिनेट ने स्वीकृति दे दी और इसके लिए 700 करोड़ रुपये की अग्रिम राशि भी जारी कर दी। 14 जून को इसके निर्माण के लिए एनएचपीसी लिमिटेड और बिहार स्टेट हाइड्रो इलेक्ट्रिक पावर कॉरपोरेशन (बीएचपीसी) के बीच मेमोरेंडम ऑफ अन्डर्स्टैन्डिंग (एमओयू) पर हस्ताक्षर भी हो गया। अब खबर है कि लंबे समय के अटके 2,478.24 करोड़ रुपये की इस परियोजना के डिटेल प्रोजेक्ट रिपोर्ट यानी डीपीआर को केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण ने मंजूर भी कर लिया है। ऐसा लगता है कि अब बहुत जल्द इस बहुद्देशीय परियोजना पर काम शुरू हो जायेगा। मगर परियोजना को लेकर अचानक आयी इस तेजी के बीच बिहार के पर्यावरणविदों और तटबंध पीड़ितों का यह सवाल अभी भी अनुत्तरित है कि बिहार जैसे गरीब राज्य के लिए यह महंगी परियोजना आर्थिक रूप से कितनी लाभदायक है, और पहले से ही बाढ़ और विस्थापन की समस्या को झेल रहे कोसी पीड़ितों और बढ़ाने वाली इस परियोजना का औचित्य क्या है?
17 इकाइयों में होगा बिजली उत्पादन, 7790 हेक्टेयर डूबेगा
130 मेगावाट बिजली उत्पादन क्षमता का दावा करने वाली डगमारा बहुद्देशीय पनबिजली परियोजना, जिसे आज बिहार की सबसे बड़ी पनबिजली परियोजना कहा जा रहा है की चर्चा लंबे समय से बिहार में और खास कर कोसी अंचल के इलाके में होती रही है। भारत-नेपाल सीमा से 31 किलोमीटर अंदर सुपौल जिले के डगमारा के पास यह योजना प्रस्तावित है और 2012 में तैयार इस योजना की प्री फिजिबिलिटी रिपोर्ट के मुताबिक परियोजना स्थल पर 945.5 मीटर लंबा एक बराज बनेगा और बिजली उत्पादन के लिए 7.65 मेगावट की 17 इकाइयों के जरिये बिजली उत्पादन होगा। प्रस्तावित बराज के दोनों तरफ गाइड बांध बनेगा ताकि अमूमन आठ किलोमीटर की चौड़ाई में बहने वाली कोसी नदी की धारा को समेट कर लगभग एक किलोमीटर लंबे बराज से होकर बहाया जा सके। इस परियोजना के लिए 7860.35 हेक्टेयर जमीन अधिगृहीत की जायेगी, जिसमें से 7790 हेक्टेयर जमीन प्रस्तावित जलाशय की वजह से डूब का शिकार होगी।
सत्तर के दशक से चर्चा में रहा है डगमारा
वैसे तो इस परियोजना के जरिये बिजली उत्पादन की चर्चा 2005-06 से हो रही है, जब नीतीश कुमार पहली दफा बिहार के मुख्यमंत्री बने थे। मगर डगमारा में बराज निर्माण की बात काफी पुरानी है। उत्तर बिहार की नदियों पर सबसे प्रमाणिक अध्ययन करने वाले दिनेश कुमार मिश्र कहते हैं कि इस स्थान पर बराज बनने की बात सबसे पहले सत्तर के दशक में उठी थी, जब कोसी परियोजना की शुरुआत हो रही थी। वे कहते हैं, दरअसल कोसी परियोजना भारत और नेपाल के संयुक्त सहयोग से शुरू होने वाली थी और इसके लिए दोनों देशों की सीमा पर सुपौल जिले के भीमनगर में बराज बनने की बात थी और वहां से दोनों दिशाओं में नहरें बनने वाली थी। पूर्वी कोसी नहर तो बनने लगी, मगर जब पश्चिमी कोसी नहर परियोजना की बात शुरू हुई तो नेपाल की तरफ से आपत्तियां आने लगीं। तब कोसी क्षेत्र के एक बड़े नेता लहटन चौधरी ने प्रस्ताव रखा कि अगर नेपाल सहयोग करने के लिए तैयार नहीं है तो पश्चिमी कोसी नहर के लिए क्यों न हमलोग डगमारा में एक बराज बना लें। मगर जब नेपाल को इस प्रस्ताव की जानकारी मिली तो उसे लगा कि अगर डगमारा में बराज बन जाता है तो उसे कोई लाभ नहीं होगा। तब वह पश्चिमी कोसी नहर के प्रस्ताव पर सहमत हो गया और डगमारा बराज की चर्चा बंद हो गयी। उसके बाद फिर 2005-06 से इस बराज की चर्चा नये सिरे से शुरू हुई है।
एक मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक 1965 में केन्द्रीय जल आयोग ने भी कोसी पर दूसरा बराज जरूरी बताया था। 1971 में बिहार जल संसाधन विभाग द्वारा गठित तकनीकी समिति ने भी इस प्रस्ताव पर अपनी सहमति दी। 2007 में परियोजना निर्माण में एशियन डेवलपमेंट बैंक ने रुचि दिखाई थी।
महंगी परियोजना, केन्द्रीय विद्युत प्राधिकरण की आपत्तियां
बिहार सरकार 2010 से ही इस परियोजना के डीपीआर को केन्द्रीय विद्युत प्राधिकरण से स्वीकृति दिलाने का प्रयास कर रही है। मगर इसे दो वजहों से स्वीकृति नहीं मिली। पहली यह कि इस परियोजना के डूब क्षेत्र में नेपाल के इलाके भी शामिल हो रहे थे। दूसरा लगभग 2,500 करोड़ की इस परियोजना को काफी महंगा माना जा रहा था। पहली आपत्ति का समाधान करने के लिए बिहार सरकार ने परियोजना का स्थल बदल दिया और मूल स्थल से 8.5 किलोमीटर दक्षिण की दिशा में बराज बनने का स्थान सुनिश्चित किया। महज 130 मेगावाट के लिए बिहार जैसे गरीब राज्य का 2,478.4 करोड़ रुपये खर्च करने की बात अभी भी वाजिब नहीं लगती, मगर खबर है कि प्राधिकरण ने इसे अपनी सहमति दे दी है।
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कटैया पावर हाउस के उदाहरण से क्यों नहीं सीखती सरकार
इस परियोजना से जुड़े कई मसले पर पर्यावरणविदों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के विरोध हैं। कोसी और बिहार की विभिन्न नदियों के सवाल पर लंबे समय से सक्रिय रहने वाले रणजीव कहते हैं कि मैदानी नदियों पर बनने वाली पनबिजली परियोजनाएं अमूमन सफल नहीं होतीं। अगर होती भी हैं तो ये अपनी क्षमता का पचास फीसदी भी बिजली उत्पादित नहीं कर पातीं। वे कहते हैं, इसी कोसी नदी पर साठ के दशक में बने भीमनगर बराज के साथ कटैया जलविद्युत परियोजना का भी निर्माण हुआ था, जिसका लक्ष्य 15 मेगावाट बिजली का उत्पादन था। मगर कई वजहों से उस परियोजना के जरिये कभी तीन मेगावाट से अधिक बिजली का उत्पादन नहीं हुआ। बिहार सरकार उस अनुभव से क्यों नहीं सीखती? वह क्यों इस गरीब राज्य का ढाई हजार करोड़ रुपया इस काम में लुटा रही है और 7790 हेक्टेयर उर्वर जमीन को डूबने दे रही है?
कटैया पावर हाउस निश्चित तौर पर बिहार सरकार के लिए सीखने लायक उदाहरण है। वैसे तो यह परियोजना सीधे नदी की धारा पर न होकर पूर्वी कोसी नहर की धारा पर है, मगर नदी में आने वाली अत्यधिक गाद और जलपादपों की अधिकता की वजह से यह अक्सर जाम हो जाता है और इसका टरबाइन टूट जाता है।
नदी विशेषज्ञ दिनेश कुमार मिश्र कहते हैं, यह बहुत स्वाभाविक है क्योंकि कोसी नदी अपने साथ बड़े पैमाने पर गाद लाती है। अगर डगमारा में बराज भी बनेगा तो वहां भी गाद उसी तरह जमा होगा, जिस तरह फरक्का बराज के किनारे हो रहा है। ऐसे में यह बराज अपनी क्षमता का कितना फीसदी बिजली उत्पादित कर पायेगी यह कहना मुश्किल है। अभी तो परियोजना के समर्थक इसकी खूबियां बताकर इसका निर्माण शुरू करवा देंगे। मगर जब दो-तीन दशक बाद इसका निर्माण पूरा होगा, तब इसकी खामियों का पता चलेगा। उस वक्त इसकी असफलता की जिम्मेदारी लेने वाला कोई नहीं होगा। देश के ज्यादातर जलविद्युत परियोजनाओं के साथ यही हुआ है।
फिर विस्थापन का शिकार होंगे कोसी वासी
बराज और तटबंध परियोजना की वजह से कोसी नदी के आसपास के लोग लंबे समय से विस्थापन और डूब का शिकार रहे हैं। साठ के दशक में जब भीमनगर में बराज और नदी के दोनों किनारे पर तटबंध बने तो तटबंधों के बीच भारतीय क्षेत्र में बसे तीन सौ से अधिक गांवों के लोगों के ऊपर विस्थापन की तलवार लटक गयी। इन लोगों का कभी ठीक से विस्थापन नहीं हुआ। इनके खेत तटबंधों के बीच में ही रह गये और इन्हें रहने के लिए इनके खेतों से काफी दूर तटबंध के बाहर जमीन दी गयी। वह जमीन भी तटबंध की वजह से जलजमाव का शिकार हो गयी। लिहाजा ज्यादातर कोसी परियोजना से पीड़ित लोग तटबंधों के भीतर ही रह गये। अपनी पुस्तक “दुई पाटन के बीच” में दिनेश कुमार मिश्र ने इन लोगों की मुसीबतों का विस्तार से जिक्र किया है। उन्होंने बताया है कि सरकार ने तब कुल 45 हजार परिवारों को पुनर्वास के लिए चिह्नित किया था, इनमें से 1970 तक सिर्फ 6650 परिवारों को ही तटबंध के बाहर बसाया गया। इनमें से किसी परिवार ने पुनर्वास के लिए घर बनाने की आखिरी किस्त हासिल नहीं की। विस्तार से यहां पढ़ें।
अब जब इस नदी पर दूसरे बराज के निर्माण की बात चल रही है तो एक बार फिर से इस इलाके के 132 प्रभावितों गांवों के1500 परिवारों के सिर पर विस्थापन का खतरा मंडराने लगा है। इस इलाके में तटबंधों के बीच रहने वाले लोगों के लिए काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता महेंद्र यादव कहते हैं, इस बार इस परियोजना से जिन परिवारों के सिर पर विस्थापन का खतरा मंडरा रहा है, वे दूसरी बार छले जा रहे हैं। पहले कोसी परियोजना में उन्हें ठगा जा चुका है। मगर दुर्भाग्यवश उन्हें इस बारे में कोई जानकारी अब तक सरकार की तरफ से नहीं दी गयी है। भूमि अधिग्रहण कानून, 2013 के अनुसार इस परियोजना के शुरू होने से पहले सरकार को इन प्रभावित लोगों से बात करनी और उनकी आपत्तियों को सुनना और उनकी समस्याओं का समुचित समाधान करना चाहिए था। मगर उधर एमओयू साइन हो रहे हैं, इधर सही जानकारी के अभाव में लोगों के बीच अफवाह फैल रहा है।
महेंद्र यादव कहते हैं कि 2012 में तैयार इस परियोजना की एक्सपर्ट अप्राइजल कमेटी में इस परियोजना को लेकर जो आपत्तियां थीं, उनका क्या समाधान हुआ यह अब तक सरकार ने लोगों को नहीं बताया।
12-13 अक्तूबर, 2012 को दिल्ली में हुई एक्सपर् कमिटी की बैठक में इस परियोजना को लेकर कई आपत्तियां दर्ज करायी गयीं, जिन्हें विस्तार से आप रिपोर्ट में पढ़ सकते हैं। फिलहाल इनमें से कुछ महत्वपूर्ण आपत्तियां निम्न हैं-
- 130 मेगावाट के हिसाब से डूब का क्षेत्र काफी बड़ा है, इस परियोजना के आर्थिक व्यावहारिकता पर फिर से विचार होना चाहिए।
- बड़े पैमाने पर लोग विस्थापित हो रहे हैं, पुनर्वास और पुनर्निर्माण योजना पर विस्तार से काम होना चाहिए।
- पहले इस परियोजना के साथ सिंचाई की भी योजना थी, क्या संशोधित योजना में अभी भी इसका प्रावधान है?
- क्या इस परियोजना से तटबंध सुरक्षित रहेंगे।
- क्या यह बराज भूकंप से सुरक्षित रहेगा। इसका अध्ययन हो।
- कोसी नदी बार-बार अपनी धारा बदलती है, इससे इस परियोजना पर क्या असर होगा?
- भीमनगर बराज में सिल्ट मैनेजमेंट की क्या स्थिति है, इस परियोजना के लिए उसका अध्ययन होना चाहिए।
- नदी में रहने वाली मछलियों और डॉलफिन पर इस परियोजना का क्या असर होगा?
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इस दूसरे बराज से कोसी नदी और आक्रमक होगी। वह नये सिरे से तटबंधों पर हमलावर होगी। इससे पहले कोसी महासेतु बनने की वजह से घोघररिया पंचायत का खोखनहा गांव (मधुबनी जिला) बार-बार कटाव का शिकार होता रहा है। वहां के लोग हर तीन-चार साल पर बेघर होते हैं। इस नये बराज और गाइड बांध के बनने से फिर कई गांव इसी तरह प्रभावित होंगे। क्या उन्हें भी पुनर्वास का लाभ मिलेगा? फिर बराज के पास जमा होने वाले सिल्ट को साफ करने के बाद जिस गांव में रखा जायेगा उन्हें कितना मुआवजा मिलेगा। सबसे बड़ी बात है कि अब बिहार राज्य बिजली संकट की स्थिति से उबर चुका है। ऐसे में कोसी के हजारों लोगों को फिर से ऐसी आपदा में ढकेलना कहां तक उचित है? क्या इसका वैकल्पिक समाधान नहीं हो सकता? महेंद्र यादव कहते हैं कि उनका संगठन बहुत जल्द महापंचायत बुलाकर इस मुद्दे पर अपना स्टैंड साफ करेगा।
बैनर तस्वीरः कोसी के भीमनगर बराज से जुड़ी कटैया विद्युत परियोजना जो बुरी तरह असफल साबित हुई। तस्वीर- प्रत्यूष सौरभ