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[कॉमेंट्री] वेटलैंड चैंपियन्स: उम्मीद की किरणें

उम्मीद की किरण हैं देश के वेटलैंड्स चैंपियन्स की ये कहानियां

उम्मीद की किरण हैं देश के वेटलैंड्स चैंपियन्स की ये कहानियां

  • देश भर में वेटलैंड के क्षेत्र दशकों से उपेक्षा के शिकार रहे हैं। वेटलैंड से तात्पर्य आद्रभूमि या दलदली भूमि से है जो बाढ़ से बचाव, भूजल संग्रहण इत्यादि में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
  • कुछ चुनिंदा बड़े वेटलैंड को छोड़ दिया जाए जो रामसर सम्मेलन के तहत अंतरराष्ट्रीय महत्व के बताए गए हैं तो अधिकतर वेटलैंड या तो शहरों के कूड़ेदान के तौर पर इस्तेमाल किये जा रहे हैं या फिर उनका अतिक्रमण कर लिया गया है। कृषि या मकान इत्यादि बनाने के वास्ते।
  • हालांकि यह भी कहना सही नहीं है कि सबकुछ निराशाजनक ही है। देश के कई हिस्सों में लोगों ने इन वेटलैण्ड्स को बचाने की जिम्मेदारी उठा ली है। ये लोग और इनका समुदाय अपने आस-पास के पोखर, तालाब और अन्य ऐसे क्षेत्र का बखूबी संरक्षण कर रहे हैं।
  • यह लेखकों का निजी विचार है।

वर्ष 1940 में दूसरा विश्व युद्ध खत्म होते ही विज्ञान को एक महत्वपूर्ण सफलता हासिल मिली। हुआ यह कि सदियों से चली आ रही जानलेवा बीमारी के खिलाफ जंग में मानव जीवन को एक मजबूत हथियार मिला। इस बीमारी का नाम है मलेरिया और यह नया हथियार था -औद्योगिक  रूप से क्लोरोक्वीन दवाई का निर्माण करना। इसके साथ ही, डीडीटी का छिड़काव भी इस बीमारी के लिए मजबूत हथियार बना। इससे पहले मलेरिया की दवाई, एक सिनकोना नामक पेड़ की छाल से कुनैन निकालकर बनाई जाती थी। इस वजह से इसकी उत्पादन और वितरण क्षमता काफी सीमित थी।

विज्ञान के क्षेत्र में इस विकास का पर्यावरण को नुकसान भी हुआ। जिन इलाकों में मलेरिया के डर से लोग नहीं बसते थे, अचानक वहां भी लोग रहने लगे। इसमें ऐसी जगहें भी शामिल थीं जो जलस्रोतों और सूखी जमीन के मध्य में स्थित है जहां सालों-भर या कुछ महीने पानी जमा होता है। इसे आद्रभूमि या दलदली भूमि कह सकते हैं। ऐसी जगह को ही अंग्रेजी में वेटलैंड कहते हैं। विश्व की कई भाषाओं में इनके लिए नकारात्मक शब्द ईजाद कर दिए गए थे।  मलेरिया की दवा आने के बाद हजारों वर्ग किलोमीटर के जंगल को काटकर वहां लोगों के रहने और खेती करने का इंतजाम किया जाने लगा।

मणिपुर का लोकतक तालाब 38 स्थानीय मछलियों का घर है। वेटलैंड्स जैव-विविधता को पनाह देने के साथ-साथ इंसानों के लिए रोजगार के मौके भी प्रदान करता है। तस्वीर- कार्तिक चंद्रमौली/मोंगाबे-हिन्दी
मणिपुर का लोकतक तालाब 38 स्थानीय मछलियों का घर है। वेटलैंड्स जैव-विविधता को पनाह देने के साथ-साथ इंसानों के लिए रोजगार के मौके भी प्रदान करता है। तस्वीर- कार्तिक चंद्रमौली/मोंगाबे-हिन्दी

भारत में अंग्रेजी के शासन के दौरान विकसित भूमि प्रबंधन की व्यवस्था में इस वेटलैंड को ‘वेस्टलैंड’ की श्रेणी में रखा गया। इसके अनुसार भूमि के इस हिस्से को चरवाही या बसावट के लिए विकसित कर बेहतर इस्तेमाल किया जाना था। आजाद भारत में भी सरकार ने इस जल-निकासी के क्षेत्र के तौर पर देखा और इसके लिए कई प्रोजेक्ट बनाये। खेती और इंसानी बसावट का इन वेटलैंड में विस्तार होता रहा। आज भी कई राज्यों में इन क्षेत्रों से जल निकासी की जाती है।

बीसवीं सदी के मध्य में वेटलैंड को अंतरराष्ट्रीय महत्व मिलना शुरू हुआ जब उन दिनों पक्षी-शिकार के शौकीन लोगों को लगने लगा कि उनके शिकार का दायरा कम होता जा रहा है। वैश्विक प्रयासों की वजह से 1971  रामसर सम्मेलन का आयोजन हुआ। इस साल 2021 में ईरान के रामसर शहर में आयोजित उस अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन को पचास साल पूरे हो रहे हैं। उस संधि को रामसर समझौता कहते हैं।

भारत उन 17 देशों में शामिल था जो उस समझौते के लिए तैयार हुए। हालांकि उस समझौते पर हस्ताक्षर 1982 में हुआ। पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के कार्यकाल में। वर्ष 1985 में जब पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय अस्तित्व में आया तब  नेशनल वेट्लैन्ड कंजर्वेशन प्रोग्राम इसके कुछ शुरुआती योजना में शामिल रहा। इससे उन राज्यों को जो वेटलैंड संरक्षण में दिलचस्पी रखते थे, उन्हें इसके लिए केंद्र से फंड लेने सहूलियत होती थी।

पर इन सब कवायद के बाद भी देश के तमाम वेटलैंड उपेक्षा के शिकार होते रहे। इन कोशिशों में उन्ही वेटलैंड का संरक्षण किया जाता रहा जो रामसर संधि के दायरे में थे।

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इलस्ट्रेशन- नीथी

ऐतिहासिक रूप से भारतीय समाज में आद्रभूमि या दलदली भूमि को अनुपा कहा गया है जिसका शाब्दिक अर्थ होता है अतुलनीय। देश के कोने-कोने में स्थित विभिन्न समाज के लोग वेटलैंड्स का इस्तेमाल अपने तरीकों से करते रहे हैं। इसमें पारिस्थितिकी तंत्र का प्रबंधन से लेकर न्यायसंगत तरीके से इससे मिलने वाले संसाधनों का नियंत्रण और प्रयोग शामिल है। हालांकि, सरकारों ने समाज के इस संसाधन के प्रयोग और इसकी सीमा निर्धारण के लिए तमाम नियम लाद दिए हैं, जिसके बाद समाज की भूमिका गौण होती चली गई।

इन वेटलैंड में बढ़ते कूड़े के ढेर या नाले के निकासी के तहत समाज और वेटलैंड के बीच बढ़ती खाई आसानी से देखा भी जा सकता है। सरकार की बेमन से की जा रही कोशिश, वेटलैंड की बिगड़ती स्थिति के मुकाबले नगण्य साबित हो रहा है। जैसे ऊंट के मुंह में जीरा। भारत में वेटलैंड्स की घोर उपेक्षा तब और स्पष्ट होता है जब पता चलता है कि देश में मौजूद कुल 7,70,000 वेटलैंड्स में से 5,50,000 छोटे तालाब या जलस्रोत के रूप में गांव या शहरों में स्थित हैं।

हालांकि, रामसर स्थलों का संरक्षण हुआ, लेकिन छोटे वेटलैंड्स जो कि गांवों में या किसी निजी जमीन पर स्थित थे, उनकी अवहेलना हुई।

दिल्ली के धनौरी वेटलैंड पर सारस क्रेन का जोड़ा। तस्वीरः कोशी/फ्लिकर
दिल्ली के धनौरी वेटलैंड पर सारस क्रेन का जोड़ा। तस्वीर– कोशी/फ्लिकर

नेपथ्य के नायक जिन्होंने वेटलैंड बचाने की जिम्मेदारी उठाई

ऐसा नहीं है कि वेटलैंड्स के लिए हर दिशा से बुरी खबर ही आ रही है। देश के विभिन्न हिस्सों में जागरूक लोग और समुदाय ने आगे आकर इसके संरक्षण की कोशिशें की हैं और इन जल स्रोतों को पुनर्जीवन दिया है।

मोंगाबे-इंडिया और वेटलैंड इंटरनेशनल, दक्षिण एशिया के वेटलैंड चैंपियन्स सीरीज ने देशभर के ऐसे 25 सफल प्रयासों की पहचान की।  इस सीरीज के तहत उन लोगों और समुदायों के बारे में बताया गया जिन्होंने स्वप्रेरणा से वेटलैंड्स बचाने की ठानी,  न कि यह काम उनकी नौकरी का हिस्सा था और इसके लिए उन्हें पैसे मिले हों। इस सीरीज ने देशभर में चल रहे दूसरे प्रयासों को भी उम्मीद प्रदान की है।

अब इस सीरीज की एक कहानी को ले लेते हैं जिसमें कलमाने कामेगौड़ा नामक चरवाहे ने कर्नाटक के मांड्या जिले में तालाब खोदे और पुराने तालाबों का जीर्णोद्धार किया। या, एक दूसरी कहानी में सत्तर वर्षीय किसान कोचू मुहम्मद ने केरला के कोले वेटलैंड को बचाने में अहम भूमिका निभाई। चंबल नदी के किनारे बसे चैतपुर गांव में किसान से चौकीदार बने जगदीश ने इंडियन स्किमर पक्षी के अंडों को बचाने के लिए वेटलैंड बचाया।

चंबल सफारी में चौकीदार का काम करने वाले जगदीश इंडियन स्किमर के घोसलों की रक्षा करते हैं। एक दशक पहले इन्होंने घड़ियाल से संरक्षण का काम शुरू किया था। इलस्ट्रेशन
चंबल सफारी में चौकीदार का काम करने वाले जगदीश इंडियन स्किमर के घोसलों की रक्षा करते हैं। एक दशक पहले इन्होंने घड़ियाल से संरक्षण का काम शुरू किया था। इलस्ट्रेशन- तान्या टिम्बले

तमिलनाडु के पुलिकट लेक की कछार पर रहने वाली मीरासा एक बार विस्थापन का शिकार हुई हैं जब श्रीहरिकोटा में रॉकेट लॉन्चिंग स्टेशन का विस्तार हुआ था। उनका गांव पुनः विस्थापन का खतरा झेल रहा है, क्योंकि पास में कट्टुपल्ली का औद्योगिक इलाका बढ़कर गांव की सीमा में आ गया है। बावजूद इस खतरे के वे मैंग्रोव का जंगल बचाने में लगी हुई हैं।

इसी तरह बिजय कुमार काबी अपने समुदाय को साथ लेकर ओडिशा के बाड़ाकोट में मैंग्रोव बचाने की मुहिम चला रहे हैं।

अपने आसपास के प्राकृतिक संसाधनों के प्रति गहरी संवेदना रखने वाली महिलाओं ने संरक्षण में अग्रणी भूमिका निभाई है। ऐसी कई कहानियां इस सीरिज का हिस्सा बनीं।  तमिलनाडु के वेल्लोर जिले में कनियाम्बदी ब्लॉक के 21 गांवों की हजारों महिलाओं ने नागमदी को बचाने के लिए चेकडैम और भूजल रिचार्ज करने वाले कुएं बनाए।

महाराष्ट्र के सिंधुदुर्ग जिले में श्वेता हुले के नेतृत्व में स्वामिनी स्व-सहायता समूह ने मैंग्रोव सफारी चलाकर इकोटूरिज्म के जरिए गांव में मैंग्रोव का संरक्षण किया। मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड इलाके में जल सहेलियों ने इलाके के तालाब का जीर्णोद्धार किया।  

ऐसी कोशिशें शहरी इलाको में भी हो रही हैं। पेशे से इंजीनियर रामवीर तंवर ने अपना काम छोड़कर नोएडा, ग्रेटर नोएडा और एनसीआर में तलाबों का संरक्षण कर रहे हैं।

बैनर तस्वीर- रामवीर तंवर के प्रयास से नोएडा और ग्रेटर नोएडा में अब तक 20 से अधिक तालाबों का पुनरुद्धार किया जा चुका है। इलस्ट्रेशन- स्वाति खरबंदा
रामवीर तंवर के प्रयास से नोएडा और ग्रेटर नोएडा में अब तक 20 से अधिक तालाबों का पुनरुद्धार किया जा चुका है। इलस्ट्रेशन- स्वाति खरबंदा

नवी मुंबई के एक जोड़े सुनील और श्रुती अग्रवाल ने 80 हेक्टेयर में फैले वेटलैंड को बचाने की कोशिश कर रहे हैं, ताकि हर साल वहां फ्लैमिंगो आ सके। इस वेटलैंड पर प्रस्तावित रहवाली कॉलोनी और गोल्फ कोर्स की वजह से खतरा उत्पन्न हो गया है।

पुणे की मुथा नदी को बचाने और साफ सुथरा रखने के लिए जीवितनदी नामक एक समूह प्रयास कर रहा है। बैंगलुरु के दक्षिणी हिस्से में स्थानीय मछुआरे और शहर के बाशिंदे जक्कुर लेक को साफ करने का प्रयास कर रहे हैं। शहर के दूसरे हिस्से में भी यह मुहिम पहुंच रही है।

वेटलैंड चैंपियन्स सीरीज की कहानियों ने इस मिथक को तोड़ा कि वेटलैंड का प्रबंधन तकनीकी रूप से जटिल काम है और इसमें गूढ़ विज्ञान, प्रबंधन की योजना और निवेश की आवश्यकता होती है। इन कहानियों से सामने आया कि एक साधारण सकारात्मक पहल से भी वेटलैंड का संरक्षण संभव हो जाता है। प्रेरणा और जुनून इन कहानियों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं; और सरकारी सहायता का अभाव शायद ही कभी एक अड़चन हो।

संरक्षण की इन कहानियों में ये पहले पारिस्थितिकी तंत्र से मिलने वाले लाभ से संबंधित है जिससे आसपास रहने वाला समुदाय  लाभान्वित होता है। इसी समुदाय ने वेटलैंड के संरक्षण की जरूरत को समझा और इसे बचाने में लग गए।

धार्मिक और सांस्कृतिक जुड़ाव भी इस प्रक्रिया का अहम हिस्सा रहे और लोगों को संरक्षण के लिए प्रेरित किया।

फुंटसोक वांगचुक के नेतृत्व में अरुणाचल प्रदेश में तवांग बौद्ध मठ के भिक्षुओं ने भागजंग स्थित 20 ऊंचाई वाले लेक का संरक्षण किया।

इसी तरह, स्थानीय लोगों के एक समूह ने सिक्किम के चंगू लेक का संरक्षण किया। महाराष्ट्र के भंडारा जिले स्थित स्थानीय समुदाय ने मालगुजारी तालाबों का संरक्षण किया।

हिमाचल प्रदेश का पाराशर ऋषि झील धार्मिक महत्व का स्थान होने के साथ-साथ बेहद खूबसूरत भी है। हिमाचल प्रदेश में ऐसे सैकड़ों झील हैं जहां हर साल लाखों पर्यटक आते हैं। तस्वीर- पूनी/विकिमीडिया कॉमन्स
हिमाचल प्रदेश का पाराशर ऋषि झील धार्मिक महत्व का स्थान होने के साथ-साथ बेहद खूबसूरत भी है। हिमाचल प्रदेश में ऐसे सैकड़ों झील हैं जहां हर साल लाखों पर्यटक आते हैं। तस्वीर– पूनी/विकिमीडिया कॉमन्स

सकारात्मक हस्तक्षेप के उदाहरण

भारत जिस कदर जल संकट में फंसा है और जलवायु परिवर्तन की वजह से होने वाली प्राकृतिक आपदाओं को झेल रहा है, यह कहना गलत नहीं होगा कि वेटलैंड्स की तरफ तत्काल ध्यान देना होगा। साथ ही इन प्रयासों का दायरा भी बढ़ाना होगा। वेटलैंड्स को बचाने की ओर अकेले सरकार के प्रयास नाकाफी होंगे।

वेटलैंड चैंपियन्स सीरीज उम्मीद की एक किरण की तरह है और इसमें शामिल कहानियां उम्मीदों की कहानियां है। इसमें दिखता है कि कैसे एक व्यक्ति अपने प्रयासों से पारिस्थितिकी तंत्र को बचाने में बड़ा योगदान दे सकता है। इन लोगों को ऐसा करने की प्रेरणा मिली, उनके समस्या का समाधान खोजने की इच्छाशक्ति से। सरकारी प्रयासों की तरह इनके प्रयासों ने समाधान खोजने के लिए कोई लंबी प्रक्रिया नहीं अपनाई जिसमें वेटलैंड्स के जटिल विज्ञान को समझा जाए और उसके समाधान के लिए प्रबंधन की योजनाएं बनाई जाए।  यहां व्यक्ति और समुदायों ने अपने आसपास की पारिस्थितिकी की समझ के मुताबिक इसे बचाने की दिशा में कदम उठाए। 

इन कहानियों में दिखता है कि कैसे सकारात्मक प्रयास से क्षतिपूर्ति हो सकती है।

काशी के गंगा घाट पर प्रवासी पक्षियों की वजह से प्रकृति का खूबसूरत नजारा देखने को मिलता है। तस्वीर- प्रभु बी/फ्लिकर
काशी के गंगा घाट पर प्रवासी पक्षियों की वजह से प्रकृति का खूबसूरत नजारा देखने को मिलता है। तस्वीर– प्रभु बी/फ्लिकर

क्या ऐसे प्रयासों से वेटलैंड्स का पारिस्थितिकी तंत्र बदलेगा? इसका जवाब मिलने में वक्त लगेगा।

यहां एक जोखिम भी है। यह खतरा है आर्थिक ताकतों से जो इन प्रयासों को प्रभावित कर सकती है। बावजूद इसके ये प्रयास अलग से ही दिख जाते हैं, क्योंकि यह कदम वक्त की जरूरत को देखते हुए पारिस्थितिकी तंत्र में रहने वाले समुदायों के द्वारा किए गए हैं।

अपने प्राकृतिक संसाधनों को बचाने के लिए लोगों की ये कोशिशें काफी महत्वपूर्ण हैं, जिसमें वे अपनी प्राकृतिक संपदाओं को हक और जिम्मेदारी के साथ बचा रहे हैं। यह काम ऐसे वक्त में हो रहा है जब चारो तरफ से वेटलैंड्स के तबाह होने की सूचनाएं आ रही हैं। ऐसी कहानियों और इनके गुमनाम नायकों की उपलब्धि पर जश्न मनाया जाना चाहिए।

रितेश कुमार वेटलैंड इंटरनेशनल दक्षिण एशिया के डायरेक्टर हैं।

बैनर तस्वीरः कश्मीर स्थित डल झील की एक शाम। डल झील श्रीनगर की खूबसूरती बढ़ाने के साथ यहां आए लाखों प्रवासी पक्षियों का ठिकाना भी है। तस्वीर– फुल्वियो स्पाडा/फ्लिकर

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