- इस साल प्रकाशित एक शोध में पाया गया कि पेंच टाइगर रिजर्व के पास रहने वाले किसान एग्रोफॉरेस्ट्री यानी कृषि-वानिकी अपनाने को आतुर हैं। शोध में पाया गया कि एक एकड़ जमीन पर वानिकी के लिए किसान को प्रति वर्ष 66,000 रुपयों की जरूरत होगी।
- जंगल के पास रहने वाले किसानों को वन्यजीव के साथ टकराव होने की स्थिति में उनकी खेती में होने वाले परिवर्तनों का अंदाजा है। हालांकि, कृषि भूमि पर वन लगने से प्रकृति को होने वाले बड़े लाभ जैसे वन्यजीव संरक्षण, मृदा और पानी की गुणवत्ता में सुधार से भी वे परिचित हैं।
- देश के कई राज्यों में कृषि क्षेत्र में वन लगाने की वजह से प्रकृति को हुए फायदे के लिए किसानों को प्रोत्साहित करने की योजनाएं चल रही हैं।
- किसानों की आमदनी के साथ-साथ प्रकृति को दुरुस्त करने के लिए कृषि-वानिकी एक अच्छा रास्ता है। इसके लिए सरकार के साथ निजी क्षेत्र की भागीदारी हो तो किसानों को प्रोत्साहित किया जा सकेगा।
संयुक्त राष्ट्र ने वर्ष 2021-2030 को पारिस्थितिकी तंत्र की बहाली का दशक घोषित किया है। यानी इस दौरान पारिस्थितिकी तंत्र को जो नुकसान हुआ है उसकी भारपाई की कोशिश की जाएगी। जैव विविधता पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन (सीबीडी) की तरफ से इस सिलसिले में एक नया ढांचा भी तैयार किया गया है जो कि इस लक्ष्य को हासिल करने में मदद करेगा।
तमाम लक्ष्यों में एक प्रमुख लक्ष्य है भूमि और समुद्र के तीस फीसदी हिस्से का संरक्षण और बेहतर प्रबंधन। इसके लिए ऐसा तंत्र अपनाया जाए कि इलाका विशेष को ध्यान में रखकर संरक्षण के कदम उठाए जाएं। ऐसे में भारत के कंधे पर इन लक्ष्यों को हासिल करने में सहयोग की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है। लेकिन इस राह में एक बड़ी चुनौती है देश में संरक्षण क्षेत्र का सीमित दायरा। इस चुनौती को ध्यान में रखने हुए संरक्षित क्षेत्र के आस-पास मौजूद निजी भूमि का इस लक्ष्य को हासिल करने को लेकर महत्व बढ़ जाता है।
मध्य भारत में 16 संरक्षित क्षेत्र हैं जो कि 35 गलियारों के माध्यम से एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। पेंच टाइगर रिजर्व मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र में फैला हुआ ऐसा ही एक संरक्षित वन है। जंगल पर हुए एक अध्ययन में आसपास रहने वाले किसानों की संरक्षण को लेकर राय जानने की कोशिश हुई। अध्ययन में सामने आया कि किसान और आसपास की जमीन पर मालिकाना हक रखने वाले लोग कृषि-वानिकी के जरिए हरियाली बढ़ाने को इच्छुक हैं।
अध्ययन को करने वाले मुख्य लेखक माही पुरी, मोंगाबे-हिन्दी से बातचीत में कहती हैं, “मध्य भारत में संरक्षित क्षेत्रों का जंगल बिखरा हुआ है और एक से दूसरे स्थान के बीच पर्याप्त हरियाली नहीं है। इसकी वजह से जानवरों के विचरण के लिए ये स्थान सुगम नहीं हैं। जानवरों को किसानों की जमीन, हाईवे या रेलवे से होकर गुजरना होता है, जो कि इंसान और जानवर के बीच टकराव की वजह बन रहा है। जानवर को किसी एक संरक्षित क्षेत्र में सीमित रखना भी संभव भी नहीं है। इससे जानवरों में अनुवांशिक विविधता खत्म होने का खतरा रहता है।”
“इन समस्याओं को देखते हुए जंगल के आसपास के क्षेत्रों का अध्ययन करना जरूरी हो गया है। जंगल के किनारे लगे इलाकों को भी हरा भरा रखकर इन समस्याओं का समाधान हो सकता है,” माही कहती हैं।
हरियाली के लिए जंगल के किनारे एग्रोफॉरेस्ट्री या कृषि-वानिकी एक रास्ता है, शोधकर्ता सुझाते हैं।
शोधकर्ताओं ने किसानों से पूछा कि क्या वह इस काम के लिए स्वप्रेरणा से आना चाहते हैं। नतीजों से पता चला कि पेंच इलाके में एक एकड़ जमीन को कृषि-वानिकी के लिए विकसित करने में किसान हर साल 66,000 रुपये कमाने की उम्मीद करता है।
कृषि-वानिकी का रास्ता
कृषि-वानिकी में खेत में फसल के साथ पेड़-पौधे और झाड़ियां लगाई जाती हैं। खेतों का स्वरूप बदलने की वजह से यहां जानवरों का आना-जाना लग जाता है, इससे किसानी का तरीका भी बदलना होता है और आमदनी भी प्रभावित हो सकती है। ऐसे में समुदाय के भीतर इसे अपनाने को लेकर लोग भिन्न-भिन्न विचार रखते हैं।
कृषि-वानिकी के तहत खेत की प्रकृति बदलने में लंबा वक्त लगता है। जो स्थान कभी किसी एक फसल को उगाता था वहां विविधता लाने में वर्षों लग सकते हैं। वैज्ञानिकों ने पाया कि कृषि-वानिकी अपनाने से जमीन की उपजाऊ शक्ति, भू-जल और जैव-विविधता की गुणवत्ता में सुधार होता है। इससे कार्बन का अवशोषण, वन्यजीवों के लिए आशियाना और उनके भोजन का इंतजाम भी हो जाता है। हालांकि ऐसा करना थोड़ा जटिल है और इसके लिए पेड़-पौधों की सही प्रजाति का चुनाव करना जरूरी है। अन्यथा पौधों की कोई अन्य नस्ल का विस्तार हो सकता है जिसकी जरूरत नहीं है। यह अन्य पौधों के विकास में भी बाधा बन सकता है। इसे अंग्रेजी में इन्वैसिव प्लांट कहते हैं।
पुरी बताती हैं कि आम, कटहल, नारंगी, नाशपाती और महुआ जैसे स्थानीय पेड़ किसानों की आमदनी देने के साथ जंगल के लिए भी अनुकूल होंगे। औषधीय पौधे और बांस भी कृषि-वानिकी के लिए सही विकल्प है।
अध्ययन के सह लेखक कृथि के कारंथ ने भी पौधों की प्रजाति का खास ध्यान रखने पर जोर दिया। वह कहती हैं, “पेड़ों का सही चुनाव जमीन की गुणवत्ता, वन्यजीवों का आशियाना सुनिश्चित करने के साथ किसानों की आमदनी का भी ख्याल रखेगा। इसके अलावा कृषि-वानिकी वाले इलाकों पर वर्षों तक नजर रखकर परिवर्तनों का रिकार्ड रखना भी जरूरी है। कुछ पौधें इस प्रक्रिया में मृत भी हो जाते हैं। कुछ तेजी से बढ़ते हैं तो कुछ की बढ़ने की रफ्तार धीमी होती है। इन जानकारियों को इकट्ठा कर उसका विश्लेषण जरूरी है ताकि भारत के विभिन्न इलाकों की विविधता का ध्यान रखते हुए कृषि-वानिकी का एक तंत्र विकसित किया जा सके।”
किसान और जमीन के मालिक को प्रोत्साहन
कृषि-वानिकी के लिए किसानों और जमीन के मालिकों को प्रोत्साहन देना बहुत जरूरी है। कारंथ के मुताबिक इस काम में तीन से पांच वर्ष तक का शुरुआती निवेश लग सकता है। इसके लिए निजी और सरकार का साझा प्रयास काम आ सकता है।
पुरी सुझाती हैं कि प्रतिपूरक वनरोपण निधि प्रबंधन एवं नियोजन प्राधिकरण (कैंपा) फंड का इस्तेमाल इस काम के लिए हो सकता है। पारिस्थितिकी तंत्र की सेवा के लिए किसानों को एक शुल्क दिया जा सकता है। अमेरिका जैसे देश में जमीन संरक्षण के लिए इस तरह का प्रावधान है। “हमें अपने देश के कृषि तंत्र में काम करने लायक एक मॉडल का स्वरूप बनाना होगा। यहां किसानी और जमीन के मालिकाना हक का मॉडल अमेरिका से अलग है,” पुरी कहती हैं।
विज्ञान और तकनीक मंत्रालय की इंस्पायर फेलो अरित्रा क्षेत्री जो कि इस अध्ययन से नहीं जुड़ी हैं, कहती हैं, “पारिस्थिती तंत्र की सुरक्षा के लिए भुगतान जैसी व्यवस्था इस वक्त भारत में नहीं है। हालांकि, कई राज्यों में इस तरह की मांग उठने लगी हैं। कई गैर लाभकारी संगठनों ने पायलट प्रोजेक्ट की तरह इस तरह के कदम उठाने शुरू भी किए हैं, ताकि इसके प्रभाव को आंका जा सके।”
इंसान और जानवरों में टकराव रोकने की चुनौती
डब्लूडब्लूएफ और यूएनईपी की एक साझा रिपोर्ट कहती हैं कि मानव और वन्यजीव के बीच टकराव वन्यजीवों के अस्तित्व के लिए सबसे बड़ा खतरा है। कृषि भूमि को वन में बदलने पर इसका खतरा बढ़ने की आशंका है। इससे मांसाहारी जीव ही नहीं बल्कि शाकाहारी जीव भी अधिक मात्रा खेतों में घुसने लगेंगे।
इस मामले पर टिप्पणी करते हुए पुरी कहती हैं, “जिन किसानों की जमीन पर लगी फसल शाकाहारी वन्यजीव खा गए वे किसान कृषि-वानिकी को जल्दी अपनाना चाहते हैं। इसकी वजह है मांसाहारी जीव से हुए नुकसान की भारपाई वन विभाग करता है, जबकि शाकाहारी जीव से हुए नुकसान की भारपाई रेवेन्यू विभाग के जिम्मे है। किसानों को लगता है कि फसल के नुकसान का उचित मुआवजा नहीं मिलता।”
पेंच टाइगर रिजर्व के आसपास जंगली जीव और मनुष्यों का सामना कम ही होता है। पास के तुरिया गांव के रहने वाले चेतन हिंगे जो कि एक स्थानीय गाइड का काम भी करते हैं, कहते हैं, “अधिकांश किसान जंगली जीवों का सम्मान करते हैं। बाघ को बाघ देवी के नाम से बुलाते हैं। वह जंगल के जीवों का महत्व समझते हैं और अपने खेतों को कृषि-वानिकी के जरिए जंगल में बदलना चाहते हैं। हालांकि, शर्त है कि उन्हें इसका उचित फायदा मिले।”
“किसानों से बातचीत के दौरान मैंने पाया कि वे इलाके में इको-टूरिज्म के भविष्य को लेकर भी उत्साहित हैं और इसकी जानकारी चाहते हैं। ऐसा होने की स्थिति में वे होम स्टे जैसी सुविधाएं देने को भी राजी हैं,” हिंगे कहते हैं। वे वाइल्डलाइफ प्रोटेक्शन सोसायटी से भी जुड़े हैं।
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भारत में कृषि-वानिकी का भविष्य
कृषि के जरिए उत्पादन करने के मामले में भारत विश्व में काफी आगे है। इस अध्ययन से जुड़े विशेषज्ञ मानते हैं कि कृषि से कृषि-वानिकी की तरफ जाना यहां आसान नहीं होगा पर साथ में यह भी मानते हैं कि यह बहुत जरूरी है। “भारत अगर वन्यजीव की सुरक्षा के लिए आगे आता है तो वैश्विक स्तर पर यह एक बड़ा प्रभावी कदम होगा। इस तरह जलवायु परिवर्तन से निपटने में यह एक प्रभावी समाधान भी होगा। इन इलाकों से आने वाली फसल को ‘वाइल्डलाइफ फ्रैंडली’ का तमगा भी दिया जा सकता है जिससे किसानों को अच्छा बाजार और उचित मूल्य मिल सके,” पुरी कहती हैं।
क्षेत्री का मानना है कि पारिस्थितिकी तंत्र की सेवा के लिए अगर इसके भविष्य पर बात करते हुए क्षेत्री कहती हैं कि इसमें किसानों, जमीं के मालिकों, स्थानीय समुदाय और चरवाहों की भूमिका महत्वपूर्ण होने वाली है। किसानों को प्रोत्साहन मिले तो यह भी एक प्रभावी कदम होगा। इसमें लिए सरकार और पर्यावरण के क्षेत्र में काम करने वाले गैर लाभकारी संगठनों की भूमिका अहम है। स्थानीय स्तर पर हुए ऐसे कई छोटे-छोटे प्रयासों को सफलता भी मिली है।
संदर्भ
Puri, M., Pienaar, E., Karanth, K., & Loiselle, B. (2021). Food for thought—examining farmers’ willingness to engage in conservation stewardship around a protected area in central India. Ecology and Society, 26(2).
बैनर तस्वीरः कर्नाटक का कुर्ग या कोडागु इलाके में जंगल के पास स्थित खेत। प्रतीकात्मक तस्वीर– धर्मेश ठक्कर/फ्लिकर