- रेड इयर्ड स्लाइडर या लाल कान वाले कछुए कई घरों के बैठक की शोभा बढ़ाते दिख जाते हैं। पहले एक्वेरियम में अक्सर दिखने वाला यह कछुआ अब भारत के जलस्रोतों तक पहुंच गया है।
- बाहर की नस्ल का यह कछुआ स्थानीय प्रजाति के लिए खतरा है। इस खतरे से अनजान है कछुआ रखने के शौकीन लोग। इसको लेकर कम जानकारी और लचीले कानून की वजह से इस विदेशी नस्ल के कछुए का खतरा दिनोदिन बढ़ता ही जा रहा है।
- जलस्रोतों में इस कछुए की घुसपैठ की वजह से भारत में साफ पानी में पाए जाने वाले 29 स्थानीय प्रजाति के कछुओं को खतरा है।
- खूबसूरत दिखने वाले लाल कान वाले कछुए का मूल मिसिसिपी नदी और मेक्सिको की खाड़ी को माना जाता है। वर्ष 1989 और 1997 में यहां के किसान ने अवैध रूप से अमेरिका से इस कछुए का निर्यात किया। भारत में भी यह इसी रास्ते अवैध तरीके से आया।
तकरीबन तीन महीने पहले केरल के थ्रीसुर में छठवीं कक्षा में पढ़ने वाला आदिथ्यान डी ताम्बी को मछली पकड़ने के प्रयास में एक खूबसूरत कछुआ हाथ लग गया। घर जाते ही कछुए की तस्वीर उतारकर उस बच्चे ने सोशल मीडिया पर पोस्ट कर दी। इस पोस्ट पर केरल फॉरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट (केएफआरआई) के वैज्ञानिक संदीप दास की नजर गई। उन्होंने पाया कि यह कछुआ रेड इयर्ड स्लाइडर प्रजाति का है। वैसे तो यह विदेशी नस्ल का है पर धीरे-धीरे इसका विस्तार भारत में भी होता जा रहा है। यहां के साफ पानी में इस कछुए का पाया जाना जैव-विविधता के लिए भी खतरा है। दास ने ताम्बी को समझाया कि इसे वापस नाले में छोड़ने की गलती न करे।
केरल में करीब 19 लाल कान वाले कछुए को राज्य के अलग-अलग हिस्से से लाकर केएफआरआई के सेंटर फॉर बायोलॉजिकल इनवेजन (एनसीबीआई) में अध्ययन किया गया।
रेड इयर्ड स्लाइडर (Trachemys scripta elegans) के नाम से मशहूर यह एक खूबसूरत दिखने वाले जीव है। इसकी रंग की वजह से लोग इसकी तरफ काफी आकर्षित होते हैं। इसी वजह से कछुआ पालने के शौकीन लोगों में इसकी मांग बढ़ती जा रही है। पर जब ये कछुए बड़े हो जाते हैं तो इनका ख्याल रखना मुश्किल हो जाता है। ऐसे में देखा गया है कि कछुआ पालने वाले इसे नदी-नाले या किसी और जलस्रोत में छोड़ आते हैं। यहीं से स्थानीय जैव-विविधता और प्रकृति को नुकसान होने की शुरुआत होती है।
केएफआरआई के वैज्ञानिक टीवी संजीव बताते हैं कि बाहरी नस्ल के कछुए देश के जलस्रोतों में तेजी से बढ़ रहे हैं। यह समस्या विशेषकर दक्षिणी राज्य जैसे कर्नाटक, तमिलनाडु और केरल में अधिक है। संजीव केएफआरआई से प्रिंसिपल साइंटिस्ट के तौर पर जुड़े हैं।
इस साल अप्रैल 2021 में कछुओं के कई जोड़ों को केरल के मुन्नार में चार लोगों के पास से बरामद किया। इनलोगों बताया कि बैंगलुरु से लाकर इन कछुओं को स्थानीय लोगों को बेचना चाहते थे।
“करीब एक दशक से अधिक से केएफआरआई बाहरी नस्ल के ऊपर शोध कर रहा है और इसमें सबसे ताजा शोध कछुआ आधारित है। वन विभाग के साथ सक्रिय सहभागिता के साथ कछुओं को इकट्ठा कर उसके ऊपर शोध किया जा रहा है,” संजीव ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया।
एनसीबीआई ने इसी क्रम में अपनी ओर से एक सर्वे शुरू किया और रेड इयर्ड स्लाइडर को भारत के जलस्रोतों से निकालने का प्रयास शुरू किया। इस काम में सरकार की दूसरी संस्थाओं के साथ कई गैर-सरकारी संस्थाओं का साथ भी मिला है। केंद्रीय मंत्रालय को भी एनसीबीआई ने इस तरह के प्रयास कर कछुआ पालने वाले लोगों को इस नस्ल के कछुओं को पानी में न छोड़ने की अपील की है। इसके लिए बड़े स्तर पर प्रचार अभियान की जरूरत है।
अमेरिका से भारत तक, इस कछुए की गैरकानूनी यात्रा
रेड इयर्ड स्लाइडर या लाल कान वाला कछुआ, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर गैरकानूनी तरीके से होने वाली, वन्यजीवों की तस्करी का हिस्सा है। देश में मुख्यकः चेन्नई और त्रिची एयरपोर्ट के जरिए यह भारत में लाया जाता रहा है। दिसंबर 2018 में कस्टम विभाग को दो तस्करी के मामलों को रोकने में सफलता मिली। दो अलग-अलग यात्री बैंकॉक से 7,200 कछुए के बच्चे लेकर आ रहे थे। एक साल बाद डायरेक्टरेट ऑफ रेवेन्यू इंटेलीजेंस ने त्रिची एयरपोर्ट पर 4,500 लाल कान वाले कछुए बरामद किए। आरोपी बैंकॉक से श्रीलंका के हवाई सेवा के जरिए भारत आ रहा था। ये कछुए 30 बक्से में रखे हुए थे।
अमेरिकी के पालतू जीवों के बाजार में एक समय में यह कछुआ काफी प्रचलित था, लेकिन अब भारत में भी इसका चलन बढ़ता जा रहा है।
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कछुए का मूल मिसिसिपी नदी और मेक्सिको की खाड़ी को माना जाता है। प्रकृति के वैश्विक आक्रमणकारी प्रजाति डेटाबेस के संरक्षण के लिए बनी अंतर्राष्ट्रीय संघ के मुताबिक 1989 और 1997 के दौरान वहां के किसान कछुए पकड़कर चीन सरीखे देशों में भेजने लगे। भारत में वन्यजीव तस्कर इसे लेकर आ गए और पालतू जीवों की दुकान पर धड़ल्ले से इनकी बिक्री होने लगी।
महाराष्ट्र की हर्पेटोलॉजिस्ट (पशु चिकित्सक) और भारत के मीठे पानी के कछुए पर एक संस्था की सह-संस्थापक स्नेहा धारवाडकर का कहना है कि इन कछुओं का नाम लाल कान वाले कछुए इनके रंग को देखकर दिया गया। दिखने में भले ही ये सुंदर हों लेकिन दुर्भाग्य से यह विश्व के 100 खुंखार घुसपैठिए जीवों में शामिल हैं, जिन्हें खुले में छोड़ना उचित नहीं है, धारवाडकर ने बताया। उन्होंने अपनी संस्था एफटीटीआई की शुरुआत अनुजा मित्तल से साथ की थी। संस्था का काम भारतीय कछुओं को बाहरी नस्ल के आक्रामक कछुओं से बचाना है।
संदीप दास कहते हैं कि एकबार स्थानीय तालाब या जलस्रोत में घुसने के बाद ये विदेशी नस्ल के कछुए स्थानीय प्रजाति के कछुओं को बाहर निकाल देते हैं। मानव से संपर्क में रहने की वजह से ये जलीय जीवों के लिए कई बीमारी की वजह भी बन सकते हैं। वैज्ञानिकों को आशंका है कि केरल में हाल में फैले शिगेला जीवाणु के प्रसार के पीछे भी इस कछुए का हाथ हो सकता है। इस बात की पुष्टि के लिए कई शोध किये जा रहे हैं।
भारत में दुर्लभ प्रजाति के जीवों की तस्करी या बिक्री रोकने के लिए सख्त कानून नहीं हैं। “अगर इस घुसपैठिए कछुओ को काबू में नहीं किया गया तो देश भर के सभी नदी-नालों और तालाबों का हाल बुरा हो जाएगा। पानी में इस कछुए की आबादी को नियंत्रण करने के लिए इनको खाने वाला कोई दूसरा जीव नहीं है। ये कछुए सर्वाहारी हैं, यानी पानी के जीव-जंतु और पौधे दोनों को चट करने की क्षमता रखते हैं,” धारवाडकर कहती हैं।
“इसे पानी में जाने से रोकने के लिए लोगों में जागरुकता अभियान चलाने की जरूरत है,” उन्होंने आगे कहा।
संजीव मानते हैं कि ये कछुए स्थानीय कछुओं का खाना, रहने का स्थान और आराम फरमाने का स्थान छीन लेते हैं। स्थानीय कछुओं में इनकी वजह से बीमारियां भी पैल सकती हैं। आमतौर पर सभी तरह के कछुओं का जीवनकाल 20 वर्ष से अधिक का होता है।
हानिकारक परिणामों से बेखबर हैं कछुआ पालने के शौकीन
भारत में लाल कान वाले कछुओं की संख्या का अंदाजा लगाना मुश्किल है, लेकिन धारवाड़कर का कहना है कि शहरी इलाकों में अधिकतर जल स्रोत में ये पाए जाते हैं। बीते कुछ समय से गांव के नदी-नाले भी इससे अछूते नहीं हैं।
जानकार मानते हैं कि ये कछुए बिना खाने के भी कई महीनों तक रह सकते हैं। खाने की कमी होने पर ये अपनी भूख कम कर सकते हैं। जब खाना पर्याप्त हो तो ये अधिक से अधिक खाकर अपनी संख्या बढ़ाते हैं। इनके खाने में मछली, कीड़े, पौधे और यहां तक की इंसानों का खाना जैसे आलू चिप्स वगैरह भी शामिल है। इसे पालने वाले पढ़े-लिखे लोग भी इस बात को नहीं समझते।
संजीव स्वीकारते हैं कि इस समस्या का कोई सटीक समाधान नहीं है।
“कछुआ पालने के शौकीन इसे खरीदकर पानी में छोड़ते हैं। उन्हें लगता है यह अच्छा काम कर रहा हैं। वे स्थानीय प्रजाति और घुसपैठिए प्रजाति में भेद नहीं कर पाते जिससे प्रकृति का उल्टा नुकसान ही होता है,” धारवाड़कर कहती हैं।
“जैसे अमेरिकी में बर्मा के अजगर लाकर छोड़े गए। दक्षिणी फ्लोरिडा के जंगलों का इससे फायदा होने के बजाए नुकसान ही हुआ। रेड इयर्ड स्लाइर से भारत के जलस्रोतों का काफी नुकसान हो चुका है,” संजीव कहते हैं।
बैनर तस्वीरः महाराष्ट्र के मीठे पानी में मिला रेड इयर्ड स्लाइडर। इसे पालने वाले शौकीन लोग एक समय के बाद अक्सर इसे पास के तालाबों में छोड़ जाते हैं। तस्वीर- राहुल कुलकर्णी