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[कॉमेंट्री] मार्फत कामोद सिंह गोंड, मध्य प्रदेश में वन अधिकारों की जमीनी सच्चाई

[कॉमेंट्री] मार्फत कामोद सिंह गोंड, मध्य प्रदेश में वन अधिकारों की जमीनी सच्चाई

[कॉमेंट्री] मार्फत कामोद सिंह गोंड, मध्य प्रदेश में वन अधिकारों की जमीनी सच्चाई

  • जब कोविड की वजह से लोगों को अपनी गतिविधियां कम और नियंत्रित करने की सलाह दी जा रही थी, उन्हीं दिनों कई राज्यों में आदिवासियों को उनकी ज़मीनों से बेदखल करने की कोशिश भी की जा रही थी। वह भी सरकारी विभागों के द्वारा।
  • ऐसे ही एक उदाहरण है कामोद सिंह गोंड का जो 2005 से अपनी पांच एकड़ खेती की ज़मीन के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं। पूरे मध्य प्रदेश में ऐसे कुल 374,000 दावेदार हैं जिनके दावे निरस्त हो चुके हैं और वे उजड़ने-बसने की जद्दोजहद में हैं।
  • वन एप मित्र के मार्फत इनलोगों को अंतिम मौका मिला था लेकिन तकनीकी से इनकी समस्या का निजात होता नहीं दिख रहा है। वन एप मित्र वन-प्रबंधन की व्यवस्था को जनतान्त्रिक बनाए जाने की बजाय लोगों के हक़ अधिकारों का तकनीकीरण करने का एक कुटिल माध्यम साबित हो रहा है।
  • लेखक आदिवासी समाज पर काम करने वाली संस्था श्रुति के साथ जुड़े हैं और जनजाति कार्य मंत्रालय द्वारा वन अधिकार कानून के क्रियान्वयन से जुड़ी दो समितियों के विशेषज्ञ सदस्य हैं। यह उनका निजी विचार है।

50 वर्षीय कामोद सिंह गोंड अब हताश हो चुके हैं। दमोह जिले की तेंदूखेड़ा तहसील के गुबरा गांव के रहने वाले कामोद सिंह का दसियों साल का संघर्ष दाव पर लगा है। मूल से उजड़ने और डरावने भविष्य जैसा पहाड़ सामने खड़ा है, सो अलग। अपने तीन बेटों, उनके बच्चों और बीवी के साथ भविष्य कैसा होगा इसकी कल्पना करके ही सिहरन होती है, कहते हैं कामोद सिंह जो आदिवासी समाज से आते हैं।

इनका गांव मध्य प्रदेश के सबसे बड़े अभयारण्य (नौरादेही अभ्यारण्य) के समीप है लेकिन इसमें शामिल नहीं है। कई पीढ़ियों से इसी गांव में बसे कामोद सिंह को पिछली तीन पीढ़ियों की याद तो ताज़ा है। हालांकि 1980 के बाद से जब से ये अपने परिवार के मुखिया बने हैं, पूर्वजों का संघर्ष इनके हिस्से आ गया। बल्कि कहें तो संघर्ष बढ़ ही गया।

कहते हैं, “1980 से पहले तक सब कुछ ठीक तो नहीं था लेकिन वन विभाग बहुत परेशान नहीं करता था। देश में वन संरक्षण कानून, 1980 लागू होने के बाद इन्हें काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ा।”

1995 के बाद जब से देश के सर्वोच्च न्यायालय में गोदबर्मन मामले की सुनवाई शुरू हुई तब से इन्हें और इन जैसे लाखों परिवारों को ‘अवैध अतिक्रमणकारी’ बताया जाने लगा। 2002 में इन जैसे लाखों परिवारों को पूरे देश में जंगलों से बेदखल किए जाने की बलात कार्यवाहियां शुरू हुईं। कामोद सिंह को भी वन विभाग द्वारा चलाये इस बेदखली अभियान में बहुत अपमानित होना पड़ा। कुछ समय के लिए खेती भी छोड़ना पड़ी लेकिन अपनी ज़मीन पर लौट आए। बताते चलें कि इनके पास पांच एकड़ की खेती है जिससे इनके परिवार की आजीविका चलती है।   

वर्ष 2005 में इन्हें थोड़ी राहत मिली क्योंकि इन्हें इनकी ज़मीन पर दावा करने का पहला अवसर मिला। 3 नवंबर 2005 में देश के वन और पर्यावरण मंत्रालय ने जंगल में बसे आदिवासी परिवारों को वनभूमि पर खेती करते रहने की सहूलियत देते हुए एक संशोधित गाइडलाइंस जारी की। हालांकि 1990 में ही इस उद्देश्य के लिए गाइडलाइंस लायी गईं थीं। लेकिन देश के विभिन्न राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों ने न तो उनका व्यापक प्रचार प्रसार किया और न ही उनका उचित क्रियान्वयन ही। मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र उन राज्यों में गिने जाते हैं जहां इस प्रक्रिया का सीमित ही सही पर क्रियान्वयन हुआ था। फिर भी कामोद सिंह को जानकारी के अभाव में इस अवसर से वंचित रहना पड़ा।  

फिर 2009 में वन अधिकार कानून के तहत अधिकार पूर्वक दावा करने का भी मौका मिला। कामोद सिंह अपने अधिकारों के लिए जागरूक व्यक्ति हैं। हालांकि वो इस बात से हमेशा परेशान रहते हैं कि अपनी खेती की ज़मीन के लिए शासन से कृपा की गुहार करनी पड़ रही है।

मध्य प्रदेश के पन्ना टाइगर रिजर्व से सटे गांव में महुआ का फल (गुली) इकट्ठा करती एक आदिवासी महिला। सामुदायिक वन अधिकार न मिलने की वजह से ग्रामीणों को जंगल जाकर वनोपज इकट्ठा करने में परेशानी आती है। तस्वीर- मनीष चंद्र मिश्र/मोंगाबे
मध्यप्रदेश के पन्ना टाइगर रिजर्व से सटे गांव में महुआ का फल (गुली) इकट्ठा करती एक आदिवासी महिला। सामुदायिक वन अधिकार न मिलने की वजह से ग्रामीणों को जंगल जाकर वनोपज इकट्ठा करने में परेशानी आती है। तस्वीर- मनीष चंद्र मिश्र/मोंगाबे

इन्होंने 2010 में अपनी जमीन से संबंधित दावे भरे और मार्च 2019 में इन्हें पंचायत सचिव द्वारा यह बताया गया कि उनका दावा निरस्त हो गया है। फरवरी 2020 में उन्हें पंचायत और वन अधिकार समिति के एक व्यक्ति से यह पता चला कि अब निरस्त हुए दावों को मोबाइल से भरा जाएगा। थोड़ी उम्मीद जगी कि तकनीकी शायद ज्यादा न्याय कर पाए। यह भरोसा भी इसलिए था क्योंकि मोबाईल, बिजली इत्यादि के आने से जीवन में थोड़ी सहूलियत तो हुई ही है, कामोद सिंह उदासी वाली हंसी हंसते हैं। 

बुंदेलखण्ड किसान मजदूर शक्ति संगठन व पंचायत सचिव के सहयोग से मोबाइल के माध्यम से भी अपना दावा भरा। दावे की पावती अभी भी इन्हें नहीं मिली है। वन मित्र एप भी कोई सूचना नहीं देता।

कामोद सिंह गोंड ऐसे अकेले व्यक्ति नहीं हैं। वन विभाग का अमला दमोह जिले के तेंदूखेड़ा ब्लॉक में मौजूद वन परिक्षेत्र तारादेही व झलौन के जंगलों में विगत दो महीनों से ग्राम कौसमदा, सेहरी, ओरियामाल, धनेटा और फुलर में वनीकरण के तहत प्लांटटेशन करने के लिए वन भूमि पर खेती कर रहे कई किसानों को उनकी ज़मीन से बेदखल करने की कार्यवाई कर रहा है।

ये तमाम गांव जंगलों के बीचों बीच बसे हुए हैं। समस्त ज़मीनें वन भूमि हैं। इन गांवों के सभी निवासियों और किसानों ने 2008 के बाद से वन अधिकार मान्यता कानून के तहत व्यक्तिगत अधिकारों के दावे किए हैं। इन दावों पर कार्यवाही प्रस्तावित है। अधिकांश दावेदारों के दावों की सत्यापन प्रकिया पूरी हो चुकी है। लेकिन  भूमि के भू-अधिकार पत्र प्रदान किए जाने की कार्यवाही शेष रह गई है।

इसके अलावा खंडवा जिले में भी इसी तरह की बेदखली की कार्यवाई  हुई है। वन विभाग ने खंडवा में करीब 40 आदिवासी परिवारों को जबरन बेदखल करने की कोशिश की है। इसके अलावा राजस्थान और मध्य प्रदेश की सीमा पर परंपरागत पशुपालक समुदायों के साथ मध्य प्रदेश वन विभाग की कार्यवाई भी चर्चा में आयी।

मध्य प्रदेश के पन्ना जिले में जंगल से सटे गांव के खेत। ऐसे गांव में किसान पुश्तों से खेती करते आ रहे हैं, लेकिन वनाधिकार कानून के ठीक से लागू न होने की वजह से उनके अधिकार छिनने का खतरा है। तस्वीर- मनीष चंद्र मिश्र/मोंगाबे
मध्यप्रदेश के पन्ना जिले में जंगल से सटे गांव के खेत। ऐसे गांव में किसान पुश्तों से खेती करते आ रहे हैं, लेकिन वनाधिकार कानून के ठीक से लागू न होने की वजह से उनके अधिकार छिनने का खतरा है। तस्वीर- मनीष चंद्र मिश्र/मोंगाबे

कार्यवाई में नियम का पालन नहीं

ऐसे समय में वन विभाग द्वारा बेदखली की कार्यवाही क्यों हो रही है? वन विभाग भी ये जानता है कि वन अधिकार कानून की धारा 4(5) के अनुसार जब तक दावों का समग्रता में निराकरण नहीं हो जाता तब तक यथास्थिति बरकरार रखी जानी है। इसके अलावा जबलपुर उच्च न्यायालय द्वारा 23 अप्रैल 2021 के आदेश में कोरोना के मद्देनजर प्रदेश में किसी भी विभाग द्वारा किसी भी वजह से लोगों को उनके रहवास से बेदखल करने की कार्यवाईयों पर पूर्ण रूप से प्रतिबंध लगाया है। इस आदेश में स्पष्ट कहा गया है कि 23 अगस्त 2021 तक प्रदेश में बेदखली को लेकर कोई भी कार्यवाई सरकार द्वारा नहीं होगी।

मध्य प्रदेश में, कामोद सिंह जैसे 374,000 परिवार हैं जिनके वन अधिकार के व्यक्तिगत दावे मध्य प्रदेश की सरकार ने अब तक निरस्त किए हैं। 13 फरवरी 2019 को सर्वोच्च न्यायालय ने जब इन निरस्त हुए दावों को लेकर दावेदारों को जंगलों से बेदखल करने का आदेश दिया तब मध्य प्रदेश की सरकार ने ऐसे दावों की जांच और समीक्षा करने के लिए न्यायालय से समय मांगा। इन दावों की समीक्षा के लिए मध्य प्रदेश सरकार ने ‘वन एप मित्र’ नाम के एक सॉफ्टवेयर आधारित तकनीकी को अपनाया। इससे लोगों को फिर एक उम्मीद मिली।

मध्य प्रदेश का वन एप मित्र। तस्वीर: सत्यम श्रीवास्तव
मध्य प्रदेश का वन एप मित्र। वनाधिकारों का न्यायोचित निपटारा करने के लिए पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ की सरकार ने इसकी शुरुआत की थी। तस्वीर: सत्यम श्रीवास्तव

वन एप मित्र से उम्मीदें और निराशा

वन एप मित्र की शुरुआत 2 अक्टूबर 2019 को मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री कमलनाथ द्वारा की गयी। हालांकि इसका पूरी तरह से पालन करने में पांच महीनों का समय लग गया। 20 फरवरी 2020 को जारी एक परिपत्र में 30 जून 2020 तक खारिज हुए दावों का निराकरण कर लिए जाने की समयबद्ध प्रक्रिया अपनाने पर ज़ोर दिया गया।

इसकी क्रम में सब कुछ हुआ है। सुप्रीम कोर्ट के 13 फरवरी 2019 को आदेश दिया। 28 फरवरी 2019 को कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने कांग्रेस शासित प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों को एक पत्र के माध्यम से सर्वोच्च न्यायालय में निरस्त हुए दावों से संबंधित समीक्षा याचिका लगाने और समीक्षा की एक प्रक्रिया अपनाने की  सलाह दी।  

फलस्वरूप तत्कालीन मुख्यमंत्री कमलनाथ ने वन एप मित्र के माध्यम से निरस्त हुए दावों और दावेदारों को एक अवसर देने की दिशा में यह कदम उठाया।

कामोद सिंह जैसे लोगों को लगा कि तकनीकी के आने से शायद न्याय आसानी से मिल जाए पर अब उन्हें सब छलावा लग रहा है।

पन्ना टाइगर रिजर्व के इलाके में जंगल से मवेशी चराकर आते आदिवासी। मध्य प्रदेश के जंगल आदिवासियों की जीवनरेखा है। फोटो- मनीष चंद्र मिश्र/मोंगाबे हिन्दी
पन्ना टाइगर रिजर्व के इलाके में जंगल से मवेशी चराकर आते आदिवासी। मध्यप्रदेश के जंगल आदिवासियों की जीवनरेखा है। फोटो- मनीष चंद्र मिश्र/मोंगाबे

उनकी उम्मीद बेमानी न थी। वन एप्प मित्र एक तकनीकी आधारित वैब पोर्टल है। जिस पर दावों से संबंधित ज़रूरी सूचनाओं, प्रमाणों की प्रतियों को अपलोड किए जाने की प्रक्रिया शामिल है जो 11 चरणों में पूरी होती है। इस माध्यम से भरे जाने वाले दावों के सबसे पहले ग्राम वन अधिकार समितियों का पंजीयन होता है फिर उसके बाद कियोस्क सेंटर्स या किसी अन्य माध्यम से ऑनलाइन दावे किए जा सकते हैं।

हालांकि, इसके तुरंत बाद से उन्हें निराशा हाथ लगने लगी। दावा अपलोड हो जाने के बाद भी उन्हें उसकी पावती के लिए कई बार भटकना पड़ा।

उनकी बातों में हताशा झलकती है। कहते हैं, “जौ कछु बताउत नइयाँ, ई से साजे तौ बे अफसर हते कम सें कम उनसें कछू पूंछ तौ सकत ते” (ये कुछ नहीं बताता है, इससे अच्छे तो वो अफसर ही थे जिनसे अपने दावे के बारे में कुछ पूछा जा सकता था)।

कामोद सिंह गौड़, दमोह जिले में इस तकनीकी माध्यम से भरे गए कुल 12600 दावेदारों में से एक हैं।

बुंदेलखंड किसान मजदूर शक्ति संगठन से जुड़े बीरेन्द्र दुबे का कहना है, “पावती मिलने में देरी होना या नहीं दिया जाना आम बात है। तकनीकी के मधायम से दावे करना भी एक तरह से दावेदार की भूमिका को न्यूनतम किया जाना है।” दमोह जिले में भरे गए 12600 दावों में से बमुश्किल 200 लोगों को ही उनके दावे की पावती दी गयी है।


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उधर अपने दावे की स्थिति को लेकर कामोद सिंह बताते हैं कि ‘उन्हें कोई जानकारी नहीं है लेकिन वन विभाग का जो अमला उन्हें उनके खेत से बेदखल करने आता है उसका कहना है कि इस एप के माध्यम से भरे गए सारे दावे निरस्त हो गए हैं। उनका यह भी कहना है कि तुम्हारे पास पुख्ता प्रमाण होते तो पहली बार में ही  तुम्हें अधिकार पत्र हासिल हो जाता।”

बीरेन्द्र दुबे का कहना है कि ‘पूरे जिले में ऐसे ही स्थिति है। किसी भी दावेदार को अपने दावे के संबंध में कोई सूचना नहीं मिलती है। चूंकि इस प्रक्रिया में अब वन विभाग के कर्मचारी की भी भूमिका है तो उनसे जिरह भी नहीं की जा सकती’।

बीरेन्द्र आगे कहते हैं, “निरस्त हुए दावों की समीक्षा तकनीकी के माध्यम करना इस प्रक्रिया को आसान व सहज बनाने के उद्देश्य से किया गया था। लेकिन यह महज़ तकनीकी तक सीमित नहीं रहा बल्कि नियमों के खिलाफ जाकर वन अधिकार समितियों के पुनर्गठन और उनमें पंचायती राज, वन विभाग व राजस्व विभाग के कर्मचारियों को शामिल कराये जाने से ग्राम वन अधिकार समिति की शक्तियों को कम किया गया जो इस कानून के क्रियान्वयन की प्राथमिक एजेंसी थी। और इस पूरी प्रक्रिया का न केवल तकनीकीकरण किया गया बल्कि पहले से ताकतवर विभागों के नियंत्रण में ला दिया गया।”

कामोद सिंह और उनके जैसे कई अन्य लोगों के संघर्ष को देख कर लगता है कि अगर नीतियां और नियत सही ना हो तो सिर्फ तकनीकी के भरोसे किसी बेहतरी की उम्मीद नहीं की जा सकती।  कामोद सिंह जैसे लोग जो बीहड़ की परिस्थियों में सदियों से संघर्ष करते हुए बड़े हुए हैं, प्रशासन के सामने बेवश नज़र आते हैं।   

बैनर तस्वीरः मध्यप्रदेश के रीवा जिले में खेत में मजदूरी करते किसान। यह इलाका जंगल से सटा हुआ है और कई किसान वन अधिकार से महरूम हैं। तस्वीर- मनीष चंद्र मिश्र/मोंगाबे

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